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सीखा कैसे जाता है इसकी चर्चा जब होती है तब आग्रहपूर्वक कहा जाता है कि साथ रहकर सीखना अथवा सीखने के लिये साथ रहना, यह उत्तम पद्धति है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। गुरुकुलों में गुरुगृहवास होता है इसलिये भी यह उत्तम पद्धति है। परन्तु शत प्रतिशत छात्र गुरुकुल में नहीं रह सकते। साथ ही कोई भी व्यक्ति आजीवन गुरुकुल में नहीं रह सकता। केवल अध्यापक ही आजीवन गुरुकुल में रहता है । इस दृष्टि से देखें तो कुटुम्ब में लगभग शतप्रतिशत लोग आजीवन घर में रहते हैं । गुरुकुल में शास्त्रों का अध्ययन होता है, यह उसकी विशेषता है । इसके अलावा शेष सारी शिक्षा कुटुम्ब में होती है। इस दृष्टि से "कुटुम्ब में शिक्षा" - यह शिक्षाशास्र का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। इसलिए यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि कुटुम्ब में शिक्षा होती कैसे है, और कुटुम्ब की शिक्षा की विषयवस्तु कौन सी होगी।  
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सीखा कैसे जाता है इसकी चर्चा जब होती है तब आग्रहपूर्वक कहा जाता है कि साथ रहकर सीखना अथवा सीखने के लिये साथ रहना, यह उत्तम पद्धति है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। गुरुकुलों में गुरुगृहवास होता है इसलिये भी यह उत्तम पद्धति है। परन्तु शत प्रतिशत छात्र गुरुकुल में नहीं रह सकते। साथ ही कोई भी व्यक्ति आजीवन गुरुकुल में नहीं रह सकता। केवल अध्यापक ही आजीवन गुरुकुल में रहता है । इस दृष्टि से देखें तो कुटुम्ब में लगभग शतप्रतिशत लोग आजीवन घर में रहते हैं । गुरुकुल में शास्त्रों का अध्ययन होता है, यह उसकी विशेषता है । इसके अलावा शेष सारी शिक्षा कुटुम्ब में होती है। इस दृष्टि से "कुटुम्ब में शिक्षा" - यह शिक्षाशास्र का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। अतः यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि कुटुम्ब में शिक्षा होती कैसे है, और कुटुम्ब की शिक्षा की विषयवस्तु कौन सी होगी। इस विषय में [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|यह लेख]] भी पढ़ें ।
    
कुछ मुद्दों को लेकर ही विचार करना उपयुक्त होगा।
 
कुछ मुद्दों को लेकर ही विचार करना उपयुक्त होगा।
    
== कुटुम्ब में आजीवन शिक्षा ==
 
== कुटुम्ब में आजीवन शिक्षा ==
शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इस पृथ्वी पर जन्म लेने से पूर्व ही मनुष्य का सीखना शुरु हो जाता है और जन्म के बाद आजीवन उसका शिक्षाक्रम चलता रहता है। जिस प्रकार मनुष्य एक क्षण भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता उसी प्रकार वह कुछ न कुछ सीखे बिना भी नहीं रह सकता ।  
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शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इस पृथ्वी पर जन्म लेने से पूर्व ही मनुष्य का सीखना आरम्भ हो जाता है और जन्म के बाद आजीवन उसका शिक्षाक्रम चलता रहता है। जिस प्रकार मनुष्य एक क्षण भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता उसी प्रकार वह कुछ न कुछ सीखे बिना भी नहीं रह सकता ।  
    
मनुष्य के जीवन की अवस्थायें इस प्रकार होती हैं: १. गर्भावस्‍था, 2. शिशुअवस्था, ३. किशोरअवस्था, ४. तरुण अवस्था, ५. युवावस्था, ६. प्रौढावस्था और ७. वृद्धावस्था ।
 
मनुष्य के जीवन की अवस्थायें इस प्रकार होती हैं: १. गर्भावस्‍था, 2. शिशुअवस्था, ३. किशोरअवस्था, ४. तरुण अवस्था, ५. युवावस्था, ६. प्रौढावस्था और ७. वृद्धावस्था ।
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* जीवन जीने की अत्यंत प्राथमिक स्वरूप की बातें, जैसे कि खाना, सोना, नहाना, चलना, बोलना, उठना, बैठना, खेलना, गाना आदि । यह सब हमारे लिये इतना सहज हों गया है कि यह सीखना भी होता है यह बात ध्यान में ही नहीं आती । सीखना और सिखाना सहज ही होता रहता है। विशेष रूप से विचार करने पर ही ध्यान में आता है कि कुटुम्ब नहीं होता तो भाषा नहीं सीखी जाती है, नहाना, धोना, खाना, पीना आदि नहीं सीखा जाता है ।
 
* जीवन जीने की अत्यंत प्राथमिक स्वरूप की बातें, जैसे कि खाना, सोना, नहाना, चलना, बोलना, उठना, बैठना, खेलना, गाना आदि । यह सब हमारे लिये इतना सहज हों गया है कि यह सीखना भी होता है यह बात ध्यान में ही नहीं आती । सीखना और सिखाना सहज ही होता रहता है। विशेष रूप से विचार करने पर ही ध्यान में आता है कि कुटुम्ब नहीं होता तो भाषा नहीं सीखी जाती है, नहाना, धोना, खाना, पीना आदि नहीं सीखा जाता है ।
 
* घर के छोटे से लेकर बड़े काम सीखने होते हैं | घर में यदि खानापीना है तो खाना बनाना भी है, पानी भरना भी है, बर्तनों की सफाई करनी है, उन्हें जमाकर रखने भी हैं। यदि सोना है तो बिस्तर लगाना और समेटना भी है | घर में रहना है तो घर की साफसफाई करनी है और साजसज्जा भी करनी है। नहाना धोना है तो कपड़े धोने भी हैं और स्नानगृह की स्वच्छता भी करनी है। संक्षेप में असंख्य छोटी बड़ी बातें हैं जो घर के लिये आवश्यक होती हैं और वे सब सीखनी होती हैं |
 
* घर के छोटे से लेकर बड़े काम सीखने होते हैं | घर में यदि खानापीना है तो खाना बनाना भी है, पानी भरना भी है, बर्तनों की सफाई करनी है, उन्हें जमाकर रखने भी हैं। यदि सोना है तो बिस्तर लगाना और समेटना भी है | घर में रहना है तो घर की साफसफाई करनी है और साजसज्जा भी करनी है। नहाना धोना है तो कपड़े धोने भी हैं और स्नानगृह की स्वच्छता भी करनी है। संक्षेप में असंख्य छोटी बड़ी बातें हैं जो घर के लिये आवश्यक होती हैं और वे सब सीखनी होती हैं |
* घर में बच्चों का संगोपन करना, उन्हें संस्कार देना, घर के लोगों की सुश्रुषा करना, वृद्धों की और बीमार लोगों की परिचर्या करना, अतिथिसत्कार करना, व्रत-उत्सव-त्योहार मनाना, कौटुम्बिक और सामुदायिक सम्बन्धों के अनुसार विवाह-जन्म-मृत्यु आदि अवसरों में सहभागी होना, समाजसेवा के कार्यों में सहभागी होना आदि अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य घर में ही सीखे जाते हैं। यह सीखना भी अन्य विषयों के ही समान क्रियात्मक, भावात्मक और ज्ञानात्मक पद्धति से होता है। विशेष बात यह है कि वह इसी क्रम में होता है | यहाँ सबकुछ पहले किया जाता है, करना सीखने के बाद और सीखने के साथ साथ उसे मन से स्वीकार करना भी सिखाया जाता है और बाद में उसका ज्ञानात्मक पक्ष सीखा जाता है | ज्ञानात्मक पक्ष सीखने-सिखाने में विद्यालय, ग्रन्थ, सन्त आदि अन्य लोगों की सहायता अवश्य होती है परन्तु इस क्रियात्मक शिक्षा का केन्द्र तो कुटुम्ब ही है।
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* घर में बच्चोंं का संगोपन करना, उन्हें संस्कार देना, घर के लोगोंं की सुश्रुषा करना, वृद्धों की और बीमार लोगोंं की परिचर्या करना, अतिथिसत्कार करना, व्रत-उत्सव-त्योहार मनाना, कौटुम्बिक और सामुदायिक सम्बन्धों के अनुसार विवाह-जन्म-मृत्यु आदि अवसरों में सहभागी होना, समाजसेवा के कार्यों में सहभागी होना आदि अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य घर में ही सीखे जाते हैं। यह सीखना भी अन्य विषयों के ही समान क्रियात्मक, भावात्मक और ज्ञानात्मक पद्धति से होता है। विशेष बात यह है कि वह इसी क्रम में होता है | यहाँ सबकुछ पहले किया जाता है, करना सीखने के बाद और सीखने के साथ साथ उसे मन से स्वीकार करना भी सिखाया जाता है और बाद में उसका ज्ञानात्मक पक्ष सीखा जाता है | ज्ञानात्मक पक्ष सीखने-सिखाने में विद्यालय, ग्रन्थ, सन्त आदि अन्य लोगोंं की सहायता अवश्य होती है परन्तु इस क्रियात्मक शिक्षा का केन्द्र तो कुटुम्ब ही है।
 
* अपने से बड़ों के साथ, अपने से छोटों के साथ, अपनों के और परायों के साथ, सज्जनों और दुर्जनों के साथ, धनवानों और सत्तावानों के साथ, विद्वानों और संतों के साथ, नौकरों और चाकरों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, इसकी शिक्षा भी घर में मिलती है। यह कम मिलती है या अधिक, पर्याप्त मात्रा में मिलती है या अधूरी, अच्छी मिलती है या कम अच्छी, सही मिलती है या गलत इसका आधार कुटुम्ब के चरित्र पर है। जैसा कुटुम्ब वैसी शिक्षा |
 
* अपने से बड़ों के साथ, अपने से छोटों के साथ, अपनों के और परायों के साथ, सज्जनों और दुर्जनों के साथ, धनवानों और सत्तावानों के साथ, विद्वानों और संतों के साथ, नौकरों और चाकरों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, इसकी शिक्षा भी घर में मिलती है। यह कम मिलती है या अधिक, पर्याप्त मात्रा में मिलती है या अधूरी, अच्छी मिलती है या कम अच्छी, सही मिलती है या गलत इसका आधार कुटुम्ब के चरित्र पर है। जैसा कुटुम्ब वैसी शिक्षा |
 
* मन की शिक्षा का मुख्य केन्द्र कुरुम्ब ही है। सारे सद्गुण यहीं सीखे जाते हैं। झूठ नहीं बोलना, अनीति नहीं करना, सफलताओं से फूल नहीं जाना, उपलब्धियों से मदान्वित नहीं होना, लालच में नहीं फँसना, आपत्तियों में धैर्य नहीं खोना, धमकियों से भयभीत नहीं होना, कष्टों से नहीं धबड़ाना, स्वार्थ साधने के लिये किसी की खुशामद नहीं करना, किसी की सफलताओं के प्रति मत्सर नहीं होना, स्वमान नहीं खोना आदि मूल्यवान बातों के लिये दृढ़ मनोबल की आवश्यकता होती है | यही व्यक्ति का चरित्र है। यह सब सीखने का प्रमुख केन्द्र कुटुम्ब ही है।
 
* मन की शिक्षा का मुख्य केन्द्र कुरुम्ब ही है। सारे सद्गुण यहीं सीखे जाते हैं। झूठ नहीं बोलना, अनीति नहीं करना, सफलताओं से फूल नहीं जाना, उपलब्धियों से मदान्वित नहीं होना, लालच में नहीं फँसना, आपत्तियों में धैर्य नहीं खोना, धमकियों से भयभीत नहीं होना, कष्टों से नहीं धबड़ाना, स्वार्थ साधने के लिये किसी की खुशामद नहीं करना, किसी की सफलताओं के प्रति मत्सर नहीं होना, स्वमान नहीं खोना आदि मूल्यवान बातों के लिये दृढ़ मनोबल की आवश्यकता होती है | यही व्यक्ति का चरित्र है। यह सब सीखने का प्रमुख केन्द्र कुटुम्ब ही है।
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* गृहिणी गृहमुच्यते । गृहिणी ही घर है ।
 
* गृहिणी गृहमुच्यते । गृहिणी ही घर है ।
 
* माता प्रथमो गुरु: । माता प्रथम गुरु है ।
 
* माता प्रथमो गुरु: । माता प्रथम गुरु है ।
* माता शत्रुः पिता बैरी येन बालो न पाठितः । बच्चों को नहीं पढ़ाने वाली माता शत्रु और पिता बैरी के समान है ।
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* माता शत्रुः पिता बैरी येन बालो न पाठितः । बच्चोंं को नहीं पढ़ाने वाली माता शत्रु और पिता बैरी के समान है ।
 
* बड़ी भाभी माता समान । छोटे देवर-ननद पुत्र-पुत्री समान ।  
 
* बड़ी भाभी माता समान । छोटे देवर-ननद पुत्र-पुत्री समान ।  
 
* मातृ देवो भव । पितृ देवो भव । माता और पिता के प्रति देवत्व का भाव रखो ।
 
* मातृ देवो भव । पितृ देवो भव । माता और पिता के प्रति देवत्व का भाव रखो ।
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== एक पीढी की शिक्षा ==
 
== एक पीढी की शिक्षा ==
कुटुम्ब जीवन परम्परा निर्माण करने का, उसे बनाये रखने का, परम्परा को परिष्कृत और समृद्ध बनाने का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । जब ज्ञान, कौशल, संस्कार, दृष्टिकोण, मानस आदि पूर्व पीढ़ी से प्राप्त किये जाते हैं और आगामी पीढ़ी को दिये जाते हैं तब परम्परा बनती है और परिष्कृत तथा समृद्ध भी बनती है । इस दृष्टि से एक पीढ़ी को शिक्षित और दीक्षित किया जाता है । हम सहज ही समझ सकते हैं कि कुटुम्ब का यह कार्य कितना महत्त्वपूर्ण है । संस्कृति रक्षा का यह कार्य कुटुम्ब के अलावा और कहीं नहीं हो सकता । इसके छोटे छोटे हिस्से तो अन्यत्र अन्य लोगों द्वारा हो सकते हैं परन्तु वे सब कुटुम्ब नामक मुख्य केन्द्र के पोषक होते हैं । बिना कुटुम्ब के सब अनाश्रित हो जाते हैं ।
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कुटुम्ब जीवन परम्परा निर्माण करने का, उसे बनाये रखने का, परम्परा को परिष्कृत और समृद्ध बनाने का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । जब ज्ञान, कौशल, संस्कार, दृष्टिकोण, मानस आदि पूर्व पीढ़ी से प्राप्त किये जाते हैं और आगामी पीढ़ी को दिये जाते हैं तब परम्परा बनती है और परिष्कृत तथा समृद्ध भी बनती है । इस दृष्टि से एक पीढ़ी को शिक्षित और दीक्षित किया जाता है । हम सहज ही समझ सकते हैं कि कुटुम्ब का यह कार्य कितना महत्त्वपूर्ण है । संस्कृति रक्षा का यह कार्य कुटुम्ब के अलावा और कहीं नहीं हो सकता । इसके छोटे छोटे हिस्से तो अन्यत्र अन्य लोगोंं द्वारा हो सकते हैं परन्तु वे सब कुटुम्ब नामक मुख्य केन्द्र के पोषक होते हैं । बिना कुटुम्ब के सब अनाश्रित हो जाते हैं ।
    
एक सम्पूर्ण पीढ़ी की शिक्षा का क्रम कुछ इस प्रकार बनता है -
 
एक सम्पूर्ण पीढ़ी की शिक्षा का क्रम कुछ इस प्रकार बनता है -
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* गृहस्थाश्रमी बनते ही एक पीढ़ी की शिक्षा पूर्ण होकर भावी पीढ़ी के निर्माण की दम्पति को दीक्षा मिलती है। भावी पीढ़ी के स्वागत हेतु पतिपत्नी अच्छी तैयारी करते हैं और शुभ क्षण में गर्भाधान से नई पीढ़ी का प्रारम्भ होता है ।
 
* गृहस्थाश्रमी बनते ही एक पीढ़ी की शिक्षा पूर्ण होकर भावी पीढ़ी के निर्माण की दम्पति को दीक्षा मिलती है। भावी पीढ़ी के स्वागत हेतु पतिपत्नी अच्छी तैयारी करते हैं और शुभ क्षण में गर्भाधान से नई पीढ़ी का प्रारम्भ होता है ।
 
* गर्भाधान से दूसरी पीढ़ी के गर्भाधान तक एक पीढ़ी का चक्र चलता रहता है। परन्तु दूसरी पीढ़ी का गर्भाधान होकर पीढ़ी की शरुआत होने पर पूर्व पीढ़ी के लोग क्या करेंगे ?
 
* गर्भाधान से दूसरी पीढ़ी के गर्भाधान तक एक पीढ़ी का चक्र चलता रहता है। परन्तु दूसरी पीढ़ी का गर्भाधान होकर पीढ़ी की शरुआत होने पर पूर्व पीढ़ी के लोग क्या करेंगे ?
* भावी पीढ़ी के निर्माण में ये सर्व प्रकार से संरक्षक और मार्गदर्शक होंगे। साथ ही कुटुम्ब का सांस्कृतिक चरित्र बनाने की दृष्टि से इन का अध्ययन, चिंतन, धर्मसाधन,  मोक्षसाधन, समाजसेवा आदि चलता रहेगा । कुटुम्बजीवन में इन सभी बातों का बहुत महत्त्व है । इसी बात को ध्यान में लेकर हमारे यहाँ आश्रम- संकल्पना बनी है । ब्रह्मचर्याश्रम और गृहस्थाश्रम पीढ़ी निर्माण की दृष्टि से अध्ययन और अध्यापन का काल है। वानप्रस्थाश्रम सहयोग, संरक्षण, मार्गदर्शन, चिन्तन, मनन और अनुसन्धान का काल है । इससे ही काल के प्रवाह के अनुरूप परम्पराओं के परिष्कार का काम होता रहता है । सन्यास्ताश्रम के काल में व्यक्ति चाहे संन्यास ले या न ले, चाहे घर में रहे या बाहर, सबसे अलग रहकर तपश्चर्या का ही समय है । संन्यासियों की तपश्चर्या से संस्कार का भला होता है, कुटुंब को भी अपना हिस्सा मिलता है ।  
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* भावी पीढ़ी के निर्माण में ये सर्व प्रकार से संरक्षक और मार्गदर्शक होंगे। साथ ही कुटुम्ब का सांस्कृतिक चरित्र बनाने की दृष्टि से इन का अध्ययन, चिंतन, धर्मसाधन,  मोक्षसाधन, समाजसेवा आदि चलता रहेगा । कुटुम्बजीवन में इन सभी बातों का बहुत महत्त्व है । इसी बात को ध्यान में लेकर हमारे यहाँ [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम-संकल्पना]] बनी है । ब्रह्मचर्याश्रम और गृहस्थाश्रम पीढ़ी निर्माण की दृष्टि से अध्ययन और अध्यापन का काल है। वानप्रस्थाश्रम सहयोग, संरक्षण, मार्गदर्शन, चिन्तन, मनन और अनुसन्धान का काल है । इससे ही काल के प्रवाह के अनुरूप परम्पराओं के परिष्कार का काम होता रहता है । सन्यास्ताश्रम के काल में व्यक्ति चाहे संन्यास ले या न ले, चाहे घर में रहे या बाहर, सबसे अलग रहकर तपश्चर्या का ही समय है । संन्यासियों की तपश्चर्या से संस्कार का भला होता है, कुटुंब को भी अपना हिस्सा मिलता है ।  
* इस प्रकार कुटुम्ब शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । मातापिता शिक्षक हैं और सन्तानें विद्यार्थी, सिखाने वाले और सीखने वाले का यह सम्बन्ध इतना उत्तम माना गया है कि गुरुकुल में भी गुरु और शिष्य को पिता-पुत्र ही कहा जाता है । कुटुम्ब के सम्बन्धों का आदर्श, समाजजीवन के पहलू में स्वीकृत हुआ है । राजा प्रजा का पालक पिता है, ग्राहक व्यापारी के लिये भगवान है, कृषक जगत‌ का तात अर्थात्‌ पिता है, स्वयं भगवान जगतपिता है, सभी देवियाँ माता हैं । इतना ही नहीं तो हम सम्पूर्ण जगत के साथ कौटूंम्बिक सम्बन्ध बनाकर ही जुड़ते हैं। बच्चों के लिये चिड़ियारानी, बन्दरमामा, चन्दामामा, बिल्ली मौसी, हाथीदादा के रूप में पशुपक्षी स्वजन हैं। बड़ों के लिये नदी, धरती, गंगा, तुलसी आदि माता है । प्रत्यक्ष कुटुम्ब के घेरे के बाहर की हर स्त्री माता, बहन, पुत्री है और हर पुरुष पिता, भाई, पुत्र है । कुटुंब  रक्तसम्बन्ध से आरम्भ होता है और भावात्मक स्वरूप में उसका विस्तार होता है तब उसे वसुधैव कुट्म्बकम्‌ कहा जाता है ।
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* इस प्रकार कुटुम्ब शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । मातापिता शिक्षक हैं और सन्तानें विद्यार्थी, सिखाने वाले और सीखने वाले का यह सम्बन्ध इतना उत्तम माना गया है कि गुरुकुल में भी गुरु और शिष्य को पिता-पुत्र ही कहा जाता है । कुटुम्ब के सम्बन्धों का आदर्श, समाजजीवन के पहलू में स्वीकृत हुआ है । राजा प्रजा का पालक पिता है, ग्राहक व्यापारी के लिये भगवान है, कृषक जगत‌ का तात अर्थात्‌ पिता है, स्वयं भगवान जगतपिता है, सभी देवियाँ माता हैं । इतना ही नहीं तो हम सम्पूर्ण जगत के साथ कौटूंम्बिक सम्बन्ध बनाकर ही जुड़ते हैं। बच्चोंं के लिये चिड़ियारानी, बन्दरमामा, चन्दामामा, बिल्ली मौसी, हाथीदादा के रूप में पशुपक्षी स्वजन हैं। बड़ों के लिये नदी, धरती, गंगा, तुलसी आदि माता है । प्रत्यक्ष कुटुम्ब के घेरे के बाहर की हर स्त्री माता, बहन, पुत्री है और हर पुरुष पिता, भाई, पुत्र है । कुटुंब  रक्तसम्बन्ध से आरम्भ होता है और भावात्मक स्वरूप में उसका विस्तार होता है तब उसे वसुधैव कुट्म्बकम्‌ कहा जाता है ।
 
आज इन बातों की उपेक्षा हो रही है, यह तो हम देख ही रहे हैं । इससे कितनी सांस्कृतिक हानि होती है इसका हमें अनुमान भी नहीं हो रहा है । परन्तु इस विमुखता को छोडकर कुटुम्ब में होने वाली पीढ़ी की शिक्षा की ओर हमें सक्रिय रूप से ध्यान देना होगा इसमें कोई सन्देह नहीं ।
 
आज इन बातों की उपेक्षा हो रही है, यह तो हम देख ही रहे हैं । इससे कितनी सांस्कृतिक हानि होती है इसका हमें अनुमान भी नहीं हो रहा है । परन्तु इस विमुखता को छोडकर कुटुम्ब में होने वाली पीढ़ी की शिक्षा की ओर हमें सक्रिय रूप से ध्यान देना होगा इसमें कोई सन्देह नहीं ।
  

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