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→‎एक पीढी की शिक्षा: लेख सम्पादित किया
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* गृहस्थाश्रमी बनते ही एक पीढ़ी की शिक्षा पूर्ण होकर भावी पीढ़ी के निर्माण की दम्पति को दीक्षा मिलती है। भावी पीढ़ी के स्वागत हेतु पतिपत्नी अच्छी तैयारी करते हैं और शुभ क्षण में गर्भाधान से नई पीढ़ी का प्रारम्भ होता है ।
 
* गृहस्थाश्रमी बनते ही एक पीढ़ी की शिक्षा पूर्ण होकर भावी पीढ़ी के निर्माण की दम्पति को दीक्षा मिलती है। भावी पीढ़ी के स्वागत हेतु पतिपत्नी अच्छी तैयारी करते हैं और शुभ क्षण में गर्भाधान से नई पीढ़ी का प्रारम्भ होता है ।
 
* गर्भाधान से दूसरी पीढ़ी के गर्भाधान तक एक पीढ़ी का चक्र चलता रहता है। परन्तु दूसरी पीढ़ी का गर्भाधान होकर पीढ़ी की शरुआत होने पर पूर्व पीढ़ी के लोग क्या करेंगे ?
 
* गर्भाधान से दूसरी पीढ़ी के गर्भाधान तक एक पीढ़ी का चक्र चलता रहता है। परन्तु दूसरी पीढ़ी का गर्भाधान होकर पीढ़ी की शरुआत होने पर पूर्व पीढ़ी के लोग क्या करेंगे ?
* भावी पीढ़ी के निर्माण में ये सर्व प्रकार से संरक्षक और मार्गदर्शक होंगे। साथ ही कुटुम्ब का सांस्कृतिक चरित्र बनाने की दृष्टि से इन का अध्ययन, चिंतन, धर्मसाधन,  मोक्षसाधन, समाजसेवा आदि चलता रहेगा । कुटुम्बजीवन में इन सभी बातों का बहुत महत्त्व है । इसी बात को ध्यान में लेकर हमारे यहाँ आश्रम- संकल्पना बनी है । ब्रह्मचर्याश्रम और गृहस्थाश्रम पीढ़ी निर्माण की दृष्टि से अध्ययन और अध्यापन का काल है। वानप्रस्थाश्रम सहयोग, संरक्षण, मार्गदर्शन, चिन्तन, मनन और अनुसन्धान का काल है । इससे ही काल के प्रवाह के अनुरूप परम्पराओं के परिष्कार का काम होता रहता है । सन्यास्ताश्रम के काल में व्यक्ति चाहे संन्यास ले या न ले, चाहे घर में रहे या बाहर, सबसे अलग रहकर तपश्चर्या का ही समय है । संन्यासियों की तपश्चर्या से संस्कार का भला होता है, कुटुंब को भी अपना हिस्सा मिलता है ।  
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* भावी पीढ़ी के निर्माण में ये सर्व प्रकार से संरक्षक और मार्गदर्शक होंगे। साथ ही कुटुम्ब का सांस्कृतिक चरित्र बनाने की दृष्टि से इन का अध्ययन, चिंतन, धर्मसाधन,  मोक्षसाधन, समाजसेवा आदि चलता रहेगा । कुटुम्बजीवन में इन सभी बातों का बहुत महत्त्व है । इसी बात को ध्यान में लेकर हमारे यहाँ [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम-संकल्पना]] बनी है । ब्रह्मचर्याश्रम और गृहस्थाश्रम पीढ़ी निर्माण की दृष्टि से अध्ययन और अध्यापन का काल है। वानप्रस्थाश्रम सहयोग, संरक्षण, मार्गदर्शन, चिन्तन, मनन और अनुसन्धान का काल है । इससे ही काल के प्रवाह के अनुरूप परम्पराओं के परिष्कार का काम होता रहता है । सन्यास्ताश्रम के काल में व्यक्ति चाहे संन्यास ले या न ले, चाहे घर में रहे या बाहर, सबसे अलग रहकर तपश्चर्या का ही समय है । संन्यासियों की तपश्चर्या से संस्कार का भला होता है, कुटुंब को भी अपना हिस्सा मिलता है ।  
 
* इस प्रकार कुटुम्ब शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । मातापिता शिक्षक हैं और सन्तानें विद्यार्थी, सिखाने वाले और सीखने वाले का यह सम्बन्ध इतना उत्तम माना गया है कि गुरुकुल में भी गुरु और शिष्य को पिता-पुत्र ही कहा जाता है । कुटुम्ब के सम्बन्धों का आदर्श, समाजजीवन के पहलू में स्वीकृत हुआ है । राजा प्रजा का पालक पिता है, ग्राहक व्यापारी के लिये भगवान है, कृषक जगत‌ का तात अर्थात्‌ पिता है, स्वयं भगवान जगतपिता है, सभी देवियाँ माता हैं । इतना ही नहीं तो हम सम्पूर्ण जगत के साथ कौटूंम्बिक सम्बन्ध बनाकर ही जुड़ते हैं। बच्चोंं के लिये चिड़ियारानी, बन्दरमामा, चन्दामामा, बिल्ली मौसी, हाथीदादा के रूप में पशुपक्षी स्वजन हैं। बड़ों के लिये नदी, धरती, गंगा, तुलसी आदि माता है । प्रत्यक्ष कुटुम्ब के घेरे के बाहर की हर स्त्री माता, बहन, पुत्री है और हर पुरुष पिता, भाई, पुत्र है । कुटुंब  रक्तसम्बन्ध से आरम्भ होता है और भावात्मक स्वरूप में उसका विस्तार होता है तब उसे वसुधैव कुट्म्बकम्‌ कहा जाता है ।
 
* इस प्रकार कुटुम्ब शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । मातापिता शिक्षक हैं और सन्तानें विद्यार्थी, सिखाने वाले और सीखने वाले का यह सम्बन्ध इतना उत्तम माना गया है कि गुरुकुल में भी गुरु और शिष्य को पिता-पुत्र ही कहा जाता है । कुटुम्ब के सम्बन्धों का आदर्श, समाजजीवन के पहलू में स्वीकृत हुआ है । राजा प्रजा का पालक पिता है, ग्राहक व्यापारी के लिये भगवान है, कृषक जगत‌ का तात अर्थात्‌ पिता है, स्वयं भगवान जगतपिता है, सभी देवियाँ माता हैं । इतना ही नहीं तो हम सम्पूर्ण जगत के साथ कौटूंम्बिक सम्बन्ध बनाकर ही जुड़ते हैं। बच्चोंं के लिये चिड़ियारानी, बन्दरमामा, चन्दामामा, बिल्ली मौसी, हाथीदादा के रूप में पशुपक्षी स्वजन हैं। बड़ों के लिये नदी, धरती, गंगा, तुलसी आदि माता है । प्रत्यक्ष कुटुम्ब के घेरे के बाहर की हर स्त्री माता, बहन, पुत्री है और हर पुरुष पिता, भाई, पुत्र है । कुटुंब  रक्तसम्बन्ध से आरम्भ होता है और भावात्मक स्वरूप में उसका विस्तार होता है तब उसे वसुधैव कुट्म्बकम्‌ कहा जाता है ।
 
आज इन बातों की उपेक्षा हो रही है, यह तो हम देख ही रहे हैं । इससे कितनी सांस्कृतिक हानि होती है इसका हमें अनुमान भी नहीं हो रहा है । परन्तु इस विमुखता को छोडकर कुटुम्ब में होने वाली पीढ़ी की शिक्षा की ओर हमें सक्रिय रूप से ध्यान देना होगा इसमें कोई सन्देह नहीं ।
 
आज इन बातों की उपेक्षा हो रही है, यह तो हम देख ही रहे हैं । इससे कितनी सांस्कृतिक हानि होती है इसका हमें अनुमान भी नहीं हो रहा है । परन्तु इस विमुखता को छोडकर कुटुम्ब में होने वाली पीढ़ी की शिक्षा की ओर हमें सक्रिय रूप से ध्यान देना होगा इसमें कोई सन्देह नहीं ।

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