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# मातापिता बनने की तैयारी
 
# मातापिता बनने की तैयारी
 
# शिशुसंगोपन
 
# शिशुसंगोपन
# आश्रमचतुश्य और गृहस्थाश्रम
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# [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमचतुश्य]] और गृहस्थाश्रम
 
# आयु की विभिन्न अवस्थायें, उनके लक्षण, स्वभाव, क्षमतायें और आवश्यकतायें
 
# आयु की विभिन्न अवस्थायें, उनके लक्षण, स्वभाव, क्षमतायें और आवश्यकतायें
 
# पुत्र-पुरुष-पति-गृहस्थ-पिता-दादा । पुत्री-स्त्री-पत्नी-गृहिणी-माता-दादी
 
# पुत्र-पुरुष-पति-गृहस्थ-पिता-दादा । पुत्री-स्त्री-पत्नी-गृहिणी-माता-दादी
 
# कौटुम्बिक सम्बन्ध और उनकी भूमिका
 
# कौटुम्बिक सम्बन्ध और उनकी भूमिका
 
# आहारशास्त्र - भोजन का विज्ञान, पाककला, परोसने की कला और भोजन करने की कला
 
# आहारशास्त्र - भोजन का विज्ञान, पाककला, परोसने की कला और भोजन करने की कला
# कुटुम्ब का व्यवसाय और अर्थशास्त्र
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# [[Family Run Businesses (कौटुम्बिक उद्योग)|कुटुम्ब का व्यवसाय]] और अर्थशास्त्र
 
# एकात्म कुटुम्ब
 
# एकात्म कुटुम्ब
 
# गृहसंचालन और गृहिणी गृहमुच्यते
 
# गृहसंचालन और गृहिणी गृहमुच्यते
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# घर के लिये उपयोगी विविध कामों का शास्त्र
 
# घर के लिये उपयोगी विविध कामों का शास्त्र
 
# कुटुम्ब का सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व
 
# कुटुम्ब का सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व
# भारत की चिरंजीविता का रहस्य : कुटुम्ब व्यवस्था
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# भारत की [[Eternal Rashtra (चिरंजीवी राष्ट्र)|चिरंजीविता]] का रहस्य : [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कुटुम्ब व्यवस्था]]
 
इन पाठ्यक्रमों को चलाने हेतु वास्तव में स्थान स्थान पर गृहविद्यालय और गृहविद्यापीठ चलाये जाने चाहिये । परन्तु उन्हें वर्तमान शिक्षाव्यवस्था के अन्तर्गत या उसके समान नहीं चलाना चाहिये । ये पाठ्यक्रम यदि परीक्षा और प्रमाणपत्र के जाल में फँस गये तो यान्त्रि और अनर्थक बन जायेंगे । उनका भी एक व्यवसाय बन जायेगा । वे शुद्ध सांस्कृतिकरूप में चलने चाहिये । समाज सेवी संस्थाओं द्वारा ये चलने चाहिये । इस प्रकार कुटुम्ब व्यवस्था और उसमें चलने वाली शिक्षा का महत्त्व दर्शाने का यहाँ प्रयास हुआ है। इस विषय का महत्त्व सर्वकालीन है। सर्वकालीन महत्त्व समझकर वर्तमान सन्दर्भ के अनुसार उसका स्वरूप निर्धारित कर कुटुम्ब संस्था और कुटुम्ब शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा करने की आवश्यकता है ।
 
इन पाठ्यक्रमों को चलाने हेतु वास्तव में स्थान स्थान पर गृहविद्यालय और गृहविद्यापीठ चलाये जाने चाहिये । परन्तु उन्हें वर्तमान शिक्षाव्यवस्था के अन्तर्गत या उसके समान नहीं चलाना चाहिये । ये पाठ्यक्रम यदि परीक्षा और प्रमाणपत्र के जाल में फँस गये तो यान्त्रि और अनर्थक बन जायेंगे । उनका भी एक व्यवसाय बन जायेगा । वे शुद्ध सांस्कृतिकरूप में चलने चाहिये । समाज सेवी संस्थाओं द्वारा ये चलने चाहिये । इस प्रकार कुटुम्ब व्यवस्था और उसमें चलने वाली शिक्षा का महत्त्व दर्शाने का यहाँ प्रयास हुआ है। इस विषय का महत्त्व सर्वकालीन है। सर्वकालीन महत्त्व समझकर वर्तमान सन्दर्भ के अनुसार उसका स्वरूप निर्धारित कर कुटुम्ब संस्था और कुटुम्ब शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा करने की आवश्यकता है ।

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