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११, उन्नीसवी शताब्दी में इंग्लैण्ड में एक के बाद एक यन्त्रों का आविष्कार होने लगा । कारखाने स्थापित होने लगे और यन्त्रों की सहायता से वस्तुओं का उत्पादन होने लगा । इसे औद्योगिक क्रान्ति कहा गया । उस समय तो यह क्रान्ति सबको अदभुत लगी, न भूतो न भविष्यति जैसी लगी । आज भी अनेक लोग इसका गुणगान करते हुए थकते नहीं । परन्तु आर्थिक क्षेत्र पर यह आतंक बन कर छा गई है। इसका भान कुछ मात्रा में हो रहा है, अभी पूर्ण रूप से तो नहीं हुआ है ।
 
११, उन्नीसवी शताब्दी में इंग्लैण्ड में एक के बाद एक यन्त्रों का आविष्कार होने लगा । कारखाने स्थापित होने लगे और यन्त्रों की सहायता से वस्तुओं का उत्पादन होने लगा । इसे औद्योगिक क्रान्ति कहा गया । उस समय तो यह क्रान्ति सबको अदभुत लगी, न भूतो न भविष्यति जैसी लगी । आज भी अनेक लोग इसका गुणगान करते हुए थकते नहीं । परन्तु आर्थिक क्षेत्र पर यह आतंक बन कर छा गई है। इसका भान कुछ मात्रा में हो रहा है, अभी पूर्ण रूप से तो नहीं हुआ है ।
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१२, जब उत्पादन बढ़ने लगा तो साथ ही साथ वह केन्द्रीकृत भी होने लगा क्योंकि यन्त्र एक स्थान पर स्थित होकर उत्पादन करता है । केन्द्रीकृत होने से दूर दूर से लोगों को एक स्थान पर आना पडता था | साथ ही नौकरी भी करनी पड़ती थी । यातायात और नौकरी दोनों ही यन्त्रों द्वारा उत्पादन करनेवाले कारखानों के कारण आरम्भ हुए ।
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१२, जब उत्पादन बढ़ने लगा तो साथ ही साथ वह केन्द्रीकृत भी होने लगा क्योंकि यन्त्र एक स्थान पर स्थित होकर उत्पादन करता है । केन्द्रीकृत होने से दूर दूर से लोगोंं को एक स्थान पर आना पडता था | साथ ही नौकरी भी करनी पड़ती थी । यातायात और नौकरी दोनों ही यन्त्रों द्वारा उत्पादन करनेवाले कारखानों के कारण आरम्भ हुए ।
    
१३. यन्त्र इंग्लैण्ड से भारत में आये । पूरी दुनिया में गये । जहाँ गये वहाँ सांस्कृतिक समस्‍यायें निर्माण करने लगे । पहली समस्या नौकरी की थी । कारखाने में मालिक तो एक ही होता है, शेष सारे छोटे बडे नौकर ही होते हैं । नौकरों में दो वर्ग होते हैं । एक होता है व्यवस्था देखने वाला और दूसरा उत्पादन के कार्य में प्रत्यक्ष लगा हुआ जिसे कारीगर, कामगार या मजदूर कहा जाता है । अर्थात्‌ एक है प्रत्यक्ष काम करनेवाला, दूसरा काम करवाने वाला और तीसरा दोनों को वेतन देने वाला मालिक । नौकरों की दो श्रेणियाँ बनीं । काम नहीं करने वाला काम करनेवाले का नियमन करता है । नियन्त्रण करता है, उसे डाँटता है, उसका अपमान भी करता है, उसे हीन समझता है । काम करनेवाला कनिष्ठ है, करवाने वाला श्रेष्ठ है परन्तु दोनों वेतन भोगी हैं, कारखाने के मालिक के नौकर हैं ।  
 
१३. यन्त्र इंग्लैण्ड से भारत में आये । पूरी दुनिया में गये । जहाँ गये वहाँ सांस्कृतिक समस्‍यायें निर्माण करने लगे । पहली समस्या नौकरी की थी । कारखाने में मालिक तो एक ही होता है, शेष सारे छोटे बडे नौकर ही होते हैं । नौकरों में दो वर्ग होते हैं । एक होता है व्यवस्था देखने वाला और दूसरा उत्पादन के कार्य में प्रत्यक्ष लगा हुआ जिसे कारीगर, कामगार या मजदूर कहा जाता है । अर्थात्‌ एक है प्रत्यक्ष काम करनेवाला, दूसरा काम करवाने वाला और तीसरा दोनों को वेतन देने वाला मालिक । नौकरों की दो श्रेणियाँ बनीं । काम नहीं करने वाला काम करनेवाले का नियमन करता है । नियन्त्रण करता है, उसे डाँटता है, उसका अपमान भी करता है, उसे हीन समझता है । काम करनेवाला कनिष्ठ है, करवाने वाला श्रेष्ठ है परन्तु दोनों वेतन भोगी हैं, कारखाने के मालिक के नौकर हैं ।  
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=== दुष्परिणाम ===
 
=== दुष्परिणाम ===
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१४. स्वयं काम नहीं करनेवाले और दूसरों से करवाने वाले को “व्हाइट कॉलर जोब' करनेवाले के रूप में जाना जाने लगा । अर्थात्‌ यह वर्ग ऐसा है जिसके कपडे काम करते समय गन्दे नहीं होते । जो काम करके थकता नहीं है, यन्त्रों की आवाज से परेशान होता नहीं है, यन्त्र का जिसे भय नहीं है, जो अपमानित होता नहीं है । उसकी नौकरी अच्छी है, आरामदेह है, दूसरे का तिरस्कार करने का अधिकार देनेवाली है ।
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१४. स्वयं काम नहीं करनेवाले और दूसरों से करवाने वाले को “व्हाइट कॉलर जोब' करनेवाले के रूप में जाना जाने लगा । अर्थात्‌ यह वर्ग ऐसा है जिसके कपड़े काम करते समय गन्दे नहीं होते । जो काम करके थकता नहीं है, यन्त्रों की आवाज से परेशान होता नहीं है, यन्त्र का जिसे भय नहीं है, जो अपमानित होता नहीं है । उसकी नौकरी अच्छी है, आरामदेह है, दूसरे का तिरस्कार करने का अधिकार देनेवाली है ।
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१५. इस व्यवस्था के अनेक दुष्परिणाम हुए जिनमें से एक भारी पड रहा है वह है श्रम की अआप्रतिष्ठा । काम करना हीनता का दर्शक है इसलिये काम नहीं करना ही प्रतिष्ठा का, सुख का, गौरव का पर्याय है यह बात लोगों के मन में बैठ गई और आज अनेक रूप धारण कर फैल रही है ।
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१५. इस व्यवस्था के अनेक दुष्परिणाम हुए जिनमें से एक भारी पड रहा है वह है श्रम की अआप्रतिष्ठा । काम करना हीनता का दर्शक है इसलिये काम नहीं करना ही प्रतिष्ठा का, सुख का, गौरव का पर्याय है यह बात लोगोंं के मन में बैठ गई और आज अनेक रूप धारण कर फैल रही है ।
    
१६. नौकरी का दूसरा लक्षण यह है कि नौकरी करने वाला दूसरे का काम करता है, दूसरे के लिये करता है । अपना काम करने में जिम्मेदारी की भावना होती है, अच्छा काम करने की आकांक्षा होती है, काम करने का आनन्द होता है, काम पूर्ण करने का लक्ष्य होता है, उपलब्धि का सन्तोष होता है, स्वामित्व का गौरव होता है तथा इससे भी अधिक, इससे भी अच्छा काम करने की प्रेरणा होती है । केवल फल का ही नहीं तो प्रक्रिया का भी आनन्द होता है। सबसे बडी बात यह होती है कि काम भी उसका होता है और फल भी उसका ही होता है ।
 
१६. नौकरी का दूसरा लक्षण यह है कि नौकरी करने वाला दूसरे का काम करता है, दूसरे के लिये करता है । अपना काम करने में जिम्मेदारी की भावना होती है, अच्छा काम करने की आकांक्षा होती है, काम करने का आनन्द होता है, काम पूर्ण करने का लक्ष्य होता है, उपलब्धि का सन्तोष होता है, स्वामित्व का गौरव होता है तथा इससे भी अधिक, इससे भी अच्छा काम करने की प्रेरणा होती है । केवल फल का ही नहीं तो प्रक्रिया का भी आनन्द होता है। सबसे बडी बात यह होती है कि काम भी उसका होता है और फल भी उसका ही होता है ।
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१९. काम नहीं करना यह एक इच्छा और काम करवाना यह दूसरी इच्छा सार्वत्रिक बन रही है, कदाचित बन रही है । दूसरी यदि पूर्ण नहीं भी होती तो प्रथम तो पूर्ण कर ही सकते हैं ऐसा मनोभाव रहता है । हर कोई काम कैसे टाल सकें इसकी ही फिराक में रहता है । मजदूरी के ही नहीं तो मुकादमी के क्षेत्र में भी काम नहीं करने की इच्छा फैलती ही रहती है । वेतन के साथ मतलब काम के साथ नहीं यह सूत्र है । वेतन अपना है, काम नहीं यह समझ है । ऐसा होना अपरिहार्य है ।
 
१९. काम नहीं करना यह एक इच्छा और काम करवाना यह दूसरी इच्छा सार्वत्रिक बन रही है, कदाचित बन रही है । दूसरी यदि पूर्ण नहीं भी होती तो प्रथम तो पूर्ण कर ही सकते हैं ऐसा मनोभाव रहता है । हर कोई काम कैसे टाल सकें इसकी ही फिराक में रहता है । मजदूरी के ही नहीं तो मुकादमी के क्षेत्र में भी काम नहीं करने की इच्छा फैलती ही रहती है । वेतन के साथ मतलब काम के साथ नहीं यह सूत्र है । वेतन अपना है, काम नहीं यह समझ है । ऐसा होना अपरिहार्य है ।
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२०. इसका घातक रूप ऐसा है कि लोग घर में काम करना पसन्द नहीं करते, बच्चों से काम करवाते नहीं, उन्हें काम करना सिखाते नहीं । काम से बच्चे और बडे इतने विमुख हो जाते हैं कि घर में काम करने वाले नौकर क्या कर रहे हैं, काम कर रहे हैं कि नहीं, कैसा कर रहे हैं इसकी और भी ध्यान नहीं देते । घर के कामों के लिये नौकर रखना घर की गृहिणी की विवशता है । नौकर को डाँटना असम्भव बन गया है । पहले स्थिति ऐसी थी कि सर्वसामान्य घरों में नौकर नहीं होते थे । घर का काम घर के लोग मिलकर करेंगे यह स्वाभाविक माना जाता था । कभी घर में काम करने विषय कोई कठिनाई है तो नौकर रखे जाते थे परन्तु वे सहयोगी होते थे, घर के साथ उनका पारिवारिक सम्बन्ध बनता था और घर के लोगों के साथ मिलकर आनन्द से काम करते थे । जिम्मेदारी और मुख्य काम घर के लोगों का ही रहता था । आज नौकर घर के लोगों का पर्याय बन गये हैं। नौकर नहीं होगा तो काम करना पडेगा इस भय से उसका मन रखना पडता है, उसकी ख़ुशामद करनी पड़ती है। नौकर भी यह विवशता समझता है । उसका सम्बन्ध वेतन से होता है, काम से या घर से नहीं इसलिये जैसे तैसे काम करता है । इसे ही हीन संस्कृति कहते हैं ।
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२०. इसका घातक रूप ऐसा है कि लोग घर में काम करना पसन्द नहीं करते, बच्चोंं से काम करवाते नहीं, उन्हें काम करना सिखाते नहीं । काम से बच्चे और बडे इतने विमुख हो जाते हैं कि घर में काम करने वाले नौकर क्या कर रहे हैं, काम कर रहे हैं कि नहीं, कैसा कर रहे हैं इसकी और भी ध्यान नहीं देते । घर के कामों के लिये नौकर रखना घर की गृहिणी की विवशता है । नौकर को डाँटना असम्भव बन गया है । पहले स्थिति ऐसी थी कि सर्वसामान्य घरों में नौकर नहीं होते थे । घर का काम घर के लोग मिलकर करेंगे यह स्वाभाविक माना जाता था । कभी घर में काम करने विषय कोई कठिनाई है तो नौकर रखे जाते थे परन्तु वे सहयोगी होते थे, घर के साथ उनका पारिवारिक सम्बन्ध बनता था और घर के लोगोंं के साथ मिलकर आनन्द से काम करते थे । जिम्मेदारी और मुख्य काम घर के लोगोंं का ही रहता था । आज नौकर घर के लोगोंं का पर्याय बन गये हैं। नौकर नहीं होगा तो काम करना पड़ेगा इस भय से उसका मन रखना पडता है, उसकी ख़ुशामद करनी पड़ती है। नौकर भी यह विवशता समझता है । उसका सम्बन्ध वेतन से होता है, काम से या घर से नहीं इसलिये जैसे तैसे काम करता है । इसे ही हीन संस्कृति कहते हैं ।
    
२१. कार्यालयों में, विद्यालयों में, कारखानों में काम नहीं करना यह इच्छा है परन्तु वेतन तो चाहिये इसलिये काम करने की विवशता है इसका असर काम पर होता है । दिन प्रतिदिन काम की गुणवत्ता कम होती है । अब काम के लिये वेतन नहीं अपितु वेतन के लिये काम है ।
 
२१. कार्यालयों में, विद्यालयों में, कारखानों में काम नहीं करना यह इच्छा है परन्तु वेतन तो चाहिये इसलिये काम करने की विवशता है इसका असर काम पर होता है । दिन प्रतिदिन काम की गुणवत्ता कम होती है । अब काम के लिये वेतन नहीं अपितु वेतन के लिये काम है ।
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२६. सरकारी व्यवस्था में काम के साथ सीधा सम्बन्ध किसी का भी नहीं होता । वहाँ कोई मालिक नहीं होता । इसलिये न काम करनेवालों को न करवाने वालों को काम से सम्बन्ध होता है । सम्बन्ध केवल वेतन से होता है । इसलिये सरकारी तन्त्र में कोई काम नहीं करता । करने की और करवाने की विवशतायें वहाँ भी होती हैं ।
 
२६. सरकारी व्यवस्था में काम के साथ सीधा सम्बन्ध किसी का भी नहीं होता । वहाँ कोई मालिक नहीं होता । इसलिये न काम करनेवालों को न करवाने वालों को काम से सम्बन्ध होता है । सम्बन्ध केवल वेतन से होता है । इसलिये सरकारी तन्त्र में कोई काम नहीं करता । करने की और करवाने की विवशतायें वहाँ भी होती हैं ।
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२७. काम करना आता ही नहीं ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जाती है क्योंकि काम करना कहीं पर भी सिखाया नहीं जाता है । परिणामस्वरूप काम की गुणवत्ता, उत्पादनों की उत्कृष्टता, कला की श्रेष्ठता नष्ट होती है । भारत जो एक समय हर क्षेत्र में श्रेष्ठता और उत्कृष्टता प्राप्त करनेवाला देश था. वह आकर्मण्यता का नमूना बन गया है ।
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२७. काम करना आता ही नहीं ऐसे लोगोंं की संख्या बढ़ती जाती है क्योंकि काम करना कहीं पर भी सिखाया नहीं जाता है । परिणामस्वरूप काम की गुणवत्ता, उत्पादनों की उत्कृष्टता, कला की श्रेष्ठता नष्ट होती है । भारत जो एक समय हर क्षेत्र में श्रेष्ठता और उत्कृष्टता प्राप्त करनेवाला देश था. वह आकर्मण्यता का नमूना बन गया है ।
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२८. पश्चिमीकरण का यह प्रभाव है जो लोगों के मन और मस्तिष्क में स्थान जमाकर घर घर में बैठ गया है । आज भी शिक्षा इसका माध्यम बन कर उसे ही खादपानी दे रही है । स्थिति तो दिनप्रतिदिन और खराब होती जा रही है। कहाँ तो बाप से बेटा सवाया की उत्तरोत्तर विकसित होने की भावना और व्यवस्था और कहाँ आज की एक पीढ़ी से दूसरी पीढी कम कुशल, कम कार्यक्षम, भावनाहीन, बुद्धिहीन, कर्महीन होने की प्रक्रिया । स्थिति चिन्ताजनक होती है ।
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२८. पश्चिमीकरण का यह प्रभाव है जो लोगोंं के मन और मस्तिष्क में स्थान जमाकर घर घर में बैठ गया है । आज भी शिक्षा इसका माध्यम बन कर उसे ही खादपानी दे रही है । स्थिति तो दिनप्रतिदिन और खराब होती जा रही है। कहाँ तो बाप से बेटा सवाया की उत्तरोत्तर विकसित होने की भावना और व्यवस्था और कहाँ आज की एक पीढ़ी से दूसरी पीढी कम कुशल, कम कार्यक्षम, भावनाहीन, बुद्धिहीन, कर्महीन होने की प्रक्रिया । स्थिति चिन्ताजनक होती है ।

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