कर्म संस्कृति का नाश
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=== कर्म संस्कृति किसे कहते है ===
१. श्रेष्ठ समाज में दो बातों का सन्तुलन होता है । एक है समृद्धि और दूसरी है संस्कृति । दोनों का सन्तुलन होने से समृद्धि और संस्कृति दोनों में वृद्धि होती है ऐसा भारत का दीर्घ इतिहास सिद्ध करता है ।
२. समृद्धि भौतिक वस्तुओं की विपुलता को कहते हैं । विपुलता के साथ ही गुणवत्तापूर्ण और मूल्यवान होना भी आवश्यक है । साथ ही वे उपयोगी भी होनी चाहिये । ये हमारे उपभोग के लिये होती हैं । उनका अच्छे प्रकार से, पूर्ण रूप से, मन भर कर उपभोग करना ही वैभव में जीना है । अर्थात् सामग्री और उसका उपभोग दोनों साथ साथ चलते हैं ।
३. भौतिक सामग्री की विपुलता का आधार तीन बातों पर है। एक है प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धि दूसरी है निर्माण करने की कुशलता और तीसरी है निर्माण करने हेतु कल्पनाशील और निर्माणक्षम बुद्धि जिसमें सृजनशीलता जुडकर कारीगरी को कला में बदल देती है ।
४. तीनों में से एक भी कम है तो सामग्री की विपुलता और गुणवत्ता में कमी होती है । भारत की चिरन्तन समृद्धि का रहस्य इस बात में है कि उसके पास ये तीनों बातें पर्याप्त मात्रा में हैं ।
५. कारीगरी और बुद्धि दोनों मिलकर प्राकृतिक संसाधनों के स्रोत को आवश्यक सामग्री में परिवर्तित करते हैं और हमें उपभोग के लिये वह प्राप्त होती हैं । यही उत्पादन है । उत्पादन के साथ जुडा हिस्सा वितरण का है अर्थात् उत्पादित होने के बाद जिन्हें चाहिये उन तक सामग्री को पहुँचाना ही वितरण है ।
६, उत्पादन और वितरण की प्रक्रिया और पद्धति का नियमन और नियन्त्रण करने वाला तन्त्र संस्कृति है । संस्कृति के नियमन में रहकर समृद्धि सुरक्षित रहती है और चिरन्तन भी बनती है ।
७. सामग्री के उत्पादन की प्रथम आवश्यकता यह है कि उसके उत्पादन में मनुष्य अपने पूरे व्यक्तित्व के साथ पूर्ण रूप से जुड़ा हुआ होना चाहिये । उसके शरीर को प्रत्यक्ष काम करना चाहिये, उसका मन अच्छे भाव से, रुचि से, खुशी से, कर्तव्यभाव से काम में जुड़ा हुआ होना चाहिये, उसकी बुद्धि निर्माण में मार्गदर्शक सहयोगी बननी चाहिये, उसका हृदय कल्पनाशक्ति और आनन्द से काम में लगना चाहिये । तब जो वस्तु निर्मित होती है वह केवल भौतिक नहीं होती, उसमें जीवित व्यक्ति की जीवन्तता होती है । इससे उपभोग करने वाले को केवल भौतिक नहीं, भावात्मक तृप्ति भी होती है ।
८. ऐसा होने के लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य अपनी उत्पादन प्रक्रिया का मालिक हो और स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से अपना काम करता हो । नौकरी करनेवाला यह नहीं कर सकता । इसलिये भारत में उत्पादन के क्षेत्र में नौकरी की प्रथा कभी नहीं रही । यदा कदाचित नौकर रहा भी तो वह परिवार के सदस्य जैसा ही होता था ।
९. ब्रिटीशों ने इस कर्मसंस्कृति को नष्ट किया । नौकरशाही को जन्म दिया । समस्त भारत की प्रजा उनके लिये नौकर ही थी, चाहे वह उच्च प्रशासनिक अधिकारी हो, चाहे चपरासी हो । उत्पादन के क्षेत्र में तो सब मजदूर ही थे जिनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता था । तिरस्कार, अपमान, गालीगलौच करके, कोडे आदि सर्व प्रकार से परेशान किया जाता था । भारत के लोग उनके लिये कुली थे, जंगली थे । उन्हें केवल नौकरों, मजदूरों और गुलामों की तरह काम करना था ।
१०. जो काम करता था वह हीन था और करवाता था वह मालिक था, श्रेष्ठ था । यह प्रक्रिया पूरे एक सौ वर्ष तक चली । इस कारण से यह प्रन्थि बनकर चित्त में बैठ गई । जो काम करता है वह हीन है और करवाता है वह श्रेष्ठ है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के इतने वर्षों के बाद भी इसमें कोई अन्तर नहीं पडा है । उलटे वह गाँठ पक्की होती जा रही है और नये नये विकृत रूप धारण कर रही है ।
कर्म संस्कृति के नाश का कारण
११, उन्नीसवी शताब्दी में इंग्लैण्ड में एक के बाद एक यन्त्रों का आविष्कार होने लगा । कारखाने स्थापित होने लगे और यन्त्रों की सहायता से वस्तुओं का उत्पादन होने लगा । इसे औद्योगिक क्रान्ति कहा गया । उस समय तो यह क्रान्ति सबको अदभुत लगी, न भूतो न भविष्यति जैसी लगी । आज भी अनेक लोग इसका गुणगान करते हुए थकते नहीं । परन्तु आर्थिक क्षेत्र पर यह आतंक बन कर छा गई है। इसका भान कुछ मात्रा में हो रहा है, अभी पूर्ण रूप से तो नहीं हुआ है ।
१२, जब उत्पादन बढ़ने लगा तो साथ ही साथ वह केन्द्रीकृत भी होने लगा क्योंकि यन्त्र एक स्थान पर स्थित होकर उत्पादन करता है । केन्द्रीकृत होने से दूर दूर से लोगोंं को एक स्थान पर आना पडता था | साथ ही नौकरी भी करनी पड़ती थी । यातायात और नौकरी दोनों ही यन्त्रों द्वारा उत्पादन करनेवाले कारखानों के कारण आरम्भ हुए ।
१३. यन्त्र इंग्लैण्ड से भारत में आये । पूरी दुनिया में गये । जहाँ गये वहाँ सांस्कृतिक समस्यायें निर्माण करने लगे । पहली समस्या नौकरी की थी । कारखाने में मालिक तो एक ही होता है, शेष सारे छोटे बडे नौकर ही होते हैं । नौकरों में दो वर्ग होते हैं । एक होता है व्यवस्था देखने वाला और दूसरा उत्पादन के कार्य में प्रत्यक्ष लगा हुआ जिसे कारीगर, कामगार या मजदूर कहा जाता है । अर्थात् एक है प्रत्यक्ष काम करनेवाला, दूसरा काम करवाने वाला और तीसरा दोनों को वेतन देने वाला मालिक । नौकरों की दो श्रेणियाँ बनीं । काम नहीं करने वाला काम करनेवाले का नियमन करता है । नियन्त्रण करता है, उसे डाँटता है, उसका अपमान भी करता है, उसे हीन समझता है । काम करनेवाला कनिष्ठ है, करवाने वाला श्रेष्ठ है परन्तु दोनों वेतन भोगी हैं, कारखाने के मालिक के नौकर हैं ।
दुष्परिणाम
१४. स्वयं काम नहीं करनेवाले और दूसरों से करवाने वाले को “व्हाइट कॉलर जोब' करनेवाले के रूप में जाना जाने लगा । अर्थात् यह वर्ग ऐसा है जिसके कपड़े काम करते समय गन्दे नहीं होते । जो काम करके थकता नहीं है, यन्त्रों की आवाज से परेशान होता नहीं है, यन्त्र का जिसे भय नहीं है, जो अपमानित होता नहीं है । उसकी नौकरी अच्छी है, आरामदेह है, दूसरे का तिरस्कार करने का अधिकार देनेवाली है ।
१५. इस व्यवस्था के अनेक दुष्परिणाम हुए जिनमें से एक भारी पड रहा है वह है श्रम की अआप्रतिष्ठा । काम करना हीनता का दर्शक है इसलिये काम नहीं करना ही प्रतिष्ठा का, सुख का, गौरव का पर्याय है यह बात लोगोंं के मन में बैठ गई और आज अनेक रूप धारण कर फैल रही है ।
१६. नौकरी का दूसरा लक्षण यह है कि नौकरी करने वाला दूसरे का काम करता है, दूसरे के लिये करता है । अपना काम करने में जिम्मेदारी की भावना होती है, अच्छा काम करने की आकांक्षा होती है, काम करने का आनन्द होता है, काम पूर्ण करने का लक्ष्य होता है, उपलब्धि का सन्तोष होता है, स्वामित्व का गौरव होता है तथा इससे भी अधिक, इससे भी अच्छा काम करने की प्रेरणा होती है । केवल फल का ही नहीं तो प्रक्रिया का भी आनन्द होता है। सबसे बडी बात यह होती है कि काम भी उसका होता है और फल भी उसका ही होता है ।
१७. नौकरी करने में पूरा काम भी उसका नहीं है, काम करने में भी वह अन्य किसी के द्वारा नियोजित है, अधिकांश तो मनुष्य के ट्वारा नहीं अपितु व्यवस्था के द्वारा नियोजित है, और फल तो उसका है ही नहीं । न काम उसका, न फल उसका, केवल वेतन ही उसका है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह बहुत भारी नुकसान है, मनुष्य के गौरव और आनन्द का नाश करने वाला है ।
१८. आज केन्द्रीकृत उत्पादन, उत्पादन की सम्पूर्ण प्रक्रिया में स्वामित्व का अभाव, काम करने में जिम्मेदारी और आनन्द का अभाव, उत्पादन केन्द्र तक पहुँचने हेतु यातायात, यातायात से सम्बन्धित सब प्रकार की अन्य समस्यायें, केवल वेतन की चिन्ता, काम करने हेतु वेतन के अलावा अन्य किसी भी प्रकार की प्रेरणा का. अभाव आदि अनेकविध हानि पहुँचानेवाली बातें व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन का अंग बन गई हैं ।
१९. काम नहीं करना यह एक इच्छा और काम करवाना यह दूसरी इच्छा सार्वत्रिक बन रही है, कदाचित बन रही है । दूसरी यदि पूर्ण नहीं भी होती तो प्रथम तो पूर्ण कर ही सकते हैं ऐसा मनोभाव रहता है । हर कोई काम कैसे टाल सकें इसकी ही फिराक में रहता है । मजदूरी के ही नहीं तो मुकादमी के क्षेत्र में भी काम नहीं करने की इच्छा फैलती ही रहती है । वेतन के साथ मतलब काम के साथ नहीं यह सूत्र है । वेतन अपना है, काम नहीं यह समझ है । ऐसा होना अपरिहार्य है ।
२०. इसका घातक रूप ऐसा है कि लोग घर में काम करना पसन्द नहीं करते, बच्चोंं से काम करवाते नहीं, उन्हें काम करना सिखाते नहीं । काम से बच्चे और बडे इतने विमुख हो जाते हैं कि घर में काम करने वाले नौकर क्या कर रहे हैं, काम कर रहे हैं कि नहीं, कैसा कर रहे हैं इसकी और भी ध्यान नहीं देते । घर के कामों के लिये नौकर रखना घर की गृहिणी की विवशता है । नौकर को डाँटना असम्भव बन गया है । पहले स्थिति ऐसी थी कि सर्वसामान्य घरों में नौकर नहीं होते थे । घर का काम घर के लोग मिलकर करेंगे यह स्वाभाविक माना जाता था । कभी घर में काम करने विषय कोई कठिनाई है तो नौकर रखे जाते थे परन्तु वे सहयोगी होते थे, घर के साथ उनका पारिवारिक सम्बन्ध बनता था और घर के लोगोंं के साथ मिलकर आनन्द से काम करते थे । जिम्मेदारी और मुख्य काम घर के लोगोंं का ही रहता था । आज नौकर घर के लोगोंं का पर्याय बन गये हैं। नौकर नहीं होगा तो काम करना पड़ेगा इस भय से उसका मन रखना पडता है, उसकी ख़ुशामद करनी पड़ती है। नौकर भी यह विवशता समझता है । उसका सम्बन्ध वेतन से होता है, काम से या घर से नहीं इसलिये जैसे तैसे काम करता है । इसे ही हीन संस्कृति कहते हैं ।
२१. कार्यालयों में, विद्यालयों में, कारखानों में काम नहीं करना यह इच्छा है परन्तु वेतन तो चाहिये इसलिये काम करने की विवशता है इसका असर काम पर होता है । दिन प्रतिदिन काम की गुणवत्ता कम होती है । अब काम के लिये वेतन नहीं अपितु वेतन के लिये काम है ।
२२. काम करने में आनन्द नहीं इसलिये मनोरंजन के और क्षेत्र खोजे जाते हैं । मनोरंजन के लिये काम से छुट्टी चाहिये इसलिये छुट्टी की पैरवी होती है । काम और मनोरंजन अलग हैं इसलिये सप्ताह में एक दिन तो छुट्टी चाहिये ही, फिर दो दिन चाहिये । फिर छुट्टियों का भी एक तन्त्र निर्माण होता है, अन्य आवश्यकताओं के लिये छुट्टियों का प्रावधान होता है, फिर आवश्यकता है इसलिये छुट्टी नहीं अपितु नियमानुसार छुट्टी मिलती है इसलिये छुट्टी लेना ऐसा सर्वमान्य प्रचलन हो जाता है ।
२३. मनोरंजन की कोई सीमा नहीं, मनोरंजन हेतु खर्च भी बहुत करना पडता है इसलिये खर्च की भी सीमा नहीं, मनोरंजन हेतु छुट्टी भी चाहिये, काम करने वाले को छुट्टी देने में काम करवाने वाले को अधिक खर्च होता है इसलिये वह छुट्टी और वेतन दोनों कम से कम देना चाहता है। काम करनेवाले और करवानेवाले के मध्य जो संघर्ष चलता है उसमें से वेतन, काम और छुट्टी का एक नियमों के तानेबाने का जाल निर्माण होता है जिसमें सब फँसते हैं । काम भी फँस कर नष्ट होता है ।
२४. जिस काम के साथ करनेवाले का अपनत्व का सम्बन्ध नहीं उस काम की दुर्गति होती है और काम करनेवाले को आनन्द तो नहीं ही मिलता है उल्टे उसके जीवन में शूत्यावकाश भी पैदा होता है । इस
शून्यावकाश को मनोरंजन से भरने का प्रयास वह करता है परन्तु बिना काम किये केवल मनोरंजन भी अधिक समय तक आनन्द नहीं दे सकता | क्या करना यह सूझना बंन्द हो जाता है ।
२५. काम करवाने वाला काम करनेवाले से अधिक से अधिक काम करवाना चाहता है जिससे उसके खर्च की बचत हो । इसमें से शोषण आरम्भ होता है । यन्त्रों के कारण से अब काम के लिये मनुष्यों की आवश्यकता कम पडने लगती है, इससे बेरोजगारी बढती है और नौकरियों के लिये स्पर्धा आरम्भ होती है। इसके परिणामस्वरूप शोषण की और बढावा मिलता है ।
२६. सरकारी व्यवस्था में काम के साथ सीधा सम्बन्ध किसी का भी नहीं होता । वहाँ कोई मालिक नहीं होता । इसलिये न काम करनेवालों को न करवाने वालों को काम से सम्बन्ध होता है । सम्बन्ध केवल वेतन से होता है । इसलिये सरकारी तन्त्र में कोई काम नहीं करता । करने की और करवाने की विवशतायें वहाँ भी होती हैं ।
२७. काम करना आता ही नहीं ऐसे लोगोंं की संख्या बढ़ती जाती है क्योंकि काम करना कहीं पर भी सिखाया नहीं जाता है । परिणामस्वरूप काम की गुणवत्ता, उत्पादनों की उत्कृष्टता, कला की श्रेष्ठता नष्ट होती है । भारत जो एक समय हर क्षेत्र में श्रेष्ठता और उत्कृष्टता प्राप्त करनेवाला देश था. वह आकर्मण्यता का नमूना बन गया है ।
२८. पश्चिमीकरण का यह प्रभाव है जो लोगोंं के मन और मस्तिष्क में स्थान जमाकर घर घर में बैठ गया है । आज भी शिक्षा इसका माध्यम बन कर उसे ही खादपानी दे रही है । स्थिति तो दिनप्रतिदिन और खराब होती जा रही है। कहाँ तो बाप से बेटा सवाया की उत्तरोत्तर विकसित होने की भावना और व्यवस्था और कहाँ आज की एक पीढ़ी से दूसरी पीढी कम कुशल, कम कार्यक्षम, भावनाहीन, बुद्धिहीन, कर्महीन होने की प्रक्रिया । स्थिति चिन्ताजनक होती है ।