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=== अध्याय ४७ ===
 
=== अध्याय ४७ ===
बौद्धिकों में और सामान्य जनों में भारत को लेकर, भारत की शिक्षा को लेकर तरह तरह के प्रश्न उठते हैं । आये दिन अखबारों में कोई न कोई समाचार छपते रहते हैं । विभिन्न समझवाले लोग विभिन्न प्रकार से आलोचना करते रहते हैं । सारे अभिप्राय उलटसुलट होते हैं । परिणामस्वरूप किसी की भी समझ स्पष्ट नहीं होती । अतः यहाँ भिन्न भिन्न प्रकार के लोगों के अभिप्राय जानने हेतु कुछ लोगों को एक प्रश्नावलि भेजी गई और उनसे उत्तर मँगवाये गये । कुछ लोगों के साथ मौखिक चर्चा भी हुई । प्रश्नों के लिखित और मौखिक उत्तर देनेवालों में प्राध्यापक, महाविद्यालयीन छात्रा, एक मार्केटिंग कम्पनी का मुख्य कार्यवाहक अधिकारी, एक प्रथितयश डॉक्टर, एक शिक्षित गृहिणी, एक व्यापारी, एक सामाजिक कार्यकर्ता आदि विभिन्न प्रकार के लोग थे । ऐसा लगा कि अनेक लोग ऐसे थे जिन्होंने प्रश्न सामने आने तक इस मामले में कुछ विचार ही नहीं किया था । कुछ ऐसे थे कि जैसे ही प्रश्न पूछा तुरन्त जो सूझा वह बोल दिया । परन्तु उनसे निवेदन करने के बाद उन्होंने कुछ विचार किया और अपना प्रामाणिक अभिप्राय बताया । यह प्रश्नोत्तरी यहाँ प्रस्तुत है।
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बौद्धिकों में और सामान्य जनों में भारत को लेकर, भारत की शिक्षा को लेकर तरह तरह के प्रश्न उठते हैं । आये दिन अखबारों में कोई न कोई समाचार छपते रहते हैं । विभिन्न समझवाले लोग विभिन्न प्रकार से आलोचना करते रहते हैं । सारे अभिप्राय उलटसुलट होते हैं । परिणामस्वरूप किसी की भी समझ स्पष्ट नहीं होती । अतः यहाँ भिन्न भिन्न प्रकार के लोगोंं के अभिप्राय जानने हेतु कुछ लोगोंं को एक प्रश्नावलि भेजी गई और उनसे उत्तर मँगवाये गये । कुछ लोगोंं के साथ मौखिक चर्चा भी हुई । प्रश्नों के लिखित और मौखिक उत्तर देनेवालों में प्राध्यापक, महाविद्यालयीन छात्रा, एक मार्केटिंग कम्पनी का मुख्य कार्यवाहक अधिकारी, एक प्रथितयश डॉक्टर, एक शिक्षित गृहिणी, एक व्यापारी, एक सामाजिक कार्यकर्ता आदि विभिन्न प्रकार के लोग थे । ऐसा लगा कि अनेक लोग ऐसे थे जिन्होंने प्रश्न सामने आने तक इस मामले में कुछ विचार ही नहीं किया था । कुछ ऐसे थे कि जैसे ही प्रश्न पूछा तुरन्त जो सूझा वह बोल दिया । परन्तु उनसे निवेदन करने के बाद उन्होंने कुछ विचार किया और अपना प्रामाणिक अभिप्राय बताया । यह प्रश्नोत्तरी यहाँ प्रस्तुत है।
    
==== प्रश्न १ विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विश्व विद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय क्यों नहीं है ? ====
 
==== प्रश्न १ विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विश्व विद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय क्यों नहीं है ? ====
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उत्तर  
 
उत्तर  
 
# आप कैसी बात कर रहे हैं ? आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड विकसित देशों में होते हैं, भारत जैसा विकासशील देश आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड कैसे बना सकता है ? हम आन्तर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा नहीं कर सकते।
 
# आप कैसी बात कर रहे हैं ? आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड विकसित देशों में होते हैं, भारत जैसा विकासशील देश आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड कैसे बना सकता है ? हम आन्तर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा नहीं कर सकते।
# नहीं, ऐसी बात नहीं है। हम उन मानकों को तो पूरा कर भी लेंगे परन्तु हमारे लोगों को भारत का नाम लेते ही कुछ नीचा सा लगता है। भले ही आन्तर्राष्ट्रीय हो तो भी इसकी तुलना में अमेरिका का या इंग्लैण्ड का बोर्ड ही उन्हें ऊँचा लगेगा । हम कितना भी अच्छा बनायेंगे तो भी वे भारत के बोर्ड में प्रवेश नहीं लेंगे।
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# नहीं, ऐसी बात नहीं है। हम उन मानकों को तो पूरा कर भी लेंगे परन्तु हमारे लोगोंं को भारत का नाम लेते ही कुछ नीचा सा लगता है। भले ही आन्तर्राष्ट्रीय हो तो भी इसकी तुलना में अमेरिका का या इंग्लैण्ड का बोर्ड ही उन्हें ऊँचा लगेगा । हम कितना भी अच्छा बनायेंगे तो भी वे भारत के बोर्ड में प्रवेश नहीं लेंगे।
 
# भारत में यदि आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड बनेगा तो भी वह नाम मात्र का होगा । आन्तर्राष्ट्रीय बनने के लिये उसकी विदेशों में शाखा होनी चाहिये । वे यदि अरब देशों या आफ्रिका के देशों में रहीं तो प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। वे शाखायें यूरोप और अमेरिका के देशों में होनी चाहिये । भारत के आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की यदि अमेरिका या यूरोप के देशों में शाखायें रहीं तो भी वहाँ कोई प्रवेश नहीं लेगा । उनके बोर्डों में ही अच्छी शिक्षा मिलती है फिर भारत के बोर्ड में कोई क्यों पढेगा ? इसलिये भारत में आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड बनाने की बात व्यावहारिक नहीं लगती।
 
# भारत में यदि आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड बनेगा तो भी वह नाम मात्र का होगा । आन्तर्राष्ट्रीय बनने के लिये उसकी विदेशों में शाखा होनी चाहिये । वे यदि अरब देशों या आफ्रिका के देशों में रहीं तो प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। वे शाखायें यूरोप और अमेरिका के देशों में होनी चाहिये । भारत के आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की यदि अमेरिका या यूरोप के देशों में शाखायें रहीं तो भी वहाँ कोई प्रवेश नहीं लेगा । उनके बोर्डों में ही अच्छी शिक्षा मिलती है फिर भारत के बोर्ड में कोई क्यों पढेगा ? इसलिये भारत में आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड बनाने की बात व्यावहारिक नहीं लगती।
# मेरे मतानुसार हमें धार्मिक स्वरूप का आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड अवश्य बनाना चाहिये । और उसकी विदेशों में भी शाखायें होनी चाहिये ताकि वहाँ जो धार्मिक रहते हैं वे अपने बच्चों को धार्मिक शिक्षा दे सकें । यह कार्य कठिन होने पर भी सरकार ने विशेष योजना बनाकर करना चाहिये । आज पश्चिम के लोगों को भी धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा हो रही है । वे भी भारत आने के स्थान पर अपने ही देश में रहकर पढ सकते हैं।
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# मेरे मतानुसार हमें धार्मिक स्वरूप का आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड अवश्य बनाना चाहिये । और उसकी विदेशों में भी शाखायें होनी चाहिये ताकि वहाँ जो धार्मिक रहते हैं वे अपने बच्चों को धार्मिक शिक्षा दे सकें । यह कार्य कठिन होने पर भी सरकार ने विशेष योजना बनाकर करना चाहिये । आज पश्चिम के लोगोंं को भी धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा हो रही है । वे भी भारत आने के स्थान पर अपने ही देश में रहकर पढ सकते हैं।
 
# भारत पहले अपनी शिक्षाव्यवस्था ठीक कर ले यह आवश्यक है। भारत में शिक्षकों की नीयत और क्षमता, शिक्षा का दर्जा और परीक्षाओं की पद्धति जिस प्रकार के हैं वे आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड में नहीं चल सकते । इन बातों में पर्याप्त सुधार किये बिना हम आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड की कल्पना भी नहीं कर सकते ।
 
# भारत पहले अपनी शिक्षाव्यवस्था ठीक कर ले यह आवश्यक है। भारत में शिक्षकों की नीयत और क्षमता, शिक्षा का दर्जा और परीक्षाओं की पद्धति जिस प्रकार के हैं वे आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड में नहीं चल सकते । इन बातों में पर्याप्त सुधार किये बिना हम आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड की कल्पना भी नहीं कर सकते ।
 
# यह तो एक बात है । दूसरी बात यह है कि सरकार को इसमें नहीं पडना चाहिये । जिस प्रकल्प में सरकार होती है वह परिणामकारी नहीं होता । किसी निजी संस्था को ऐसा बोर्ड बनाना चाहिये । ऐसा साहस ताता, अम्बानी, निरमा जैसे उद्योगगृह ही कर सकते हैं। सरकार ने उन्हें बताना चाहिये।
 
# यह तो एक बात है । दूसरी बात यह है कि सरकार को इसमें नहीं पडना चाहिये । जिस प्रकल्प में सरकार होती है वह परिणामकारी नहीं होता । किसी निजी संस्था को ऐसा बोर्ड बनाना चाहिये । ऐसा साहस ताता, अम्बानी, निरमा जैसे उद्योगगृह ही कर सकते हैं। सरकार ने उन्हें बताना चाहिये।
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इन अभिप्रायों को पढकर लगता है कि लोगों का भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में कोई खास अच्छा मत नहीं है । उनके मानस में पश्चिम की श्रेष्ठता स्थापित हुई है । एक दो लोग धार्मिक शिक्षा की चाह तो रखते हैं परन्तु सरकार पर उनका विश्वास नहीं है । । उद्योगगृह यह कर सकते हैं परन्तु बाजारीकरण भी लोगों को मान्य नहीं है।
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इन अभिप्रायों को पढकर लगता है कि लोगोंं का भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में कोई खास अच्छा मत नहीं है । उनके मानस में पश्चिम की श्रेष्ठता स्थापित हुई है । एक दो लोग धार्मिक शिक्षा की चाह तो रखते हैं परन्तु सरकार पर उनका विश्वास नहीं है । । उद्योगगृह यह कर सकते हैं परन्तु बाजारीकरण भी लोगोंं को मान्य नहीं है।
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लोगों के उलझे हुए मानस की यह झलक है । वास्तव में आज की शिक्षा को और लोगों के मानस को ही पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने की आवश्यकता है क्योंकि उलझा हुआ मानस किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकता है, वह स्वयं समस्या है।
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लोगोंं के उलझे हुए मानस की यह झलक है । वास्तव में आज की शिक्षा को और लोगोंं के मानस को ही पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने की आवश्यकता है क्योंकि उलझा हुआ मानस किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकता है, वह स्वयं समस्या है।
    
इस उलझन में जो लोग मुक्त हैं उन्हें धार्मिक शिक्षा देने वाला आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड अवश्य बनाना चाहिये । जैसा कि एक प्राध्यापक ने पूर्व में कहा था अपने ही मानकों से इसे चलाना चाहिये ताकि विश्व के लिये वह भी एक अध्ययन का प्रतिमान बने । उसके माध्यम से भारत अपने आपको भी पहचान सकेगा और विश्व के समक्ष भी अपनी पहचान प्रस्तुत कर सकेगा।
 
इस उलझन में जो लोग मुक्त हैं उन्हें धार्मिक शिक्षा देने वाला आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड अवश्य बनाना चाहिये । जैसा कि एक प्राध्यापक ने पूर्व में कहा था अपने ही मानकों से इसे चलाना चाहिये ताकि विश्व के लिये वह भी एक अध्ययन का प्रतिमान बने । उसके माध्यम से भारत अपने आपको भी पहचान सकेगा और विश्व के समक्ष भी अपनी पहचान प्रस्तुत कर सकेगा।
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# भारत सरकार जब कुछ भी करती है तो वह सरकारी है इसीलिये पूरा नहीं हो सकता । सरकारी तन्त्र तो शिथिल है ही परन्तु इतने बड़े देश में वह तन्त्र के नियन्त्रण में रहना सम्भव नहीं है । इसलिये अपेक्षा करना व्यर्थ है।
 
# भारत सरकार जब कुछ भी करती है तो वह सरकारी है इसीलिये पूरा नहीं हो सकता । सरकारी तन्त्र तो शिथिल है ही परन्तु इतने बड़े देश में वह तन्त्र के नियन्त्रण में रहना सम्भव नहीं है । इसलिये अपेक्षा करना व्यर्थ है।
 
# वास्तव में इस प्रकार के अभियान युनेस्को के दबाव में लिये जाते हैं, भारत सरकार की अपनी पहल नहीं है । जब छः से चौदह वर्ष की आयु की शिक्षा को संविधान में ही निःशुल्क और अनिवार्य बनाया है तब इस अभियान की अलग से क्या आवश्यकता है ? एक यदि पूर्ण नहीं हो सकता तो दूसरा कैसे होगा?
 
# वास्तव में इस प्रकार के अभियान युनेस्को के दबाव में लिये जाते हैं, भारत सरकार की अपनी पहल नहीं है । जब छः से चौदह वर्ष की आयु की शिक्षा को संविधान में ही निःशुल्क और अनिवार्य बनाया है तब इस अभियान की अलग से क्या आवश्यकता है ? एक यदि पूर्ण नहीं हो सकता तो दूसरा कैसे होगा?
# वास्तव में हमारे देश के लोगों को ही शिक्षा की कोई चाह नहीं है । जिसे चाह होती है वह तो बिना अभियान के भी शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास करता है । जिन्हें चाह ही नहीं है उनके लिये कितना भी प्रयास करो तो भी वह फलदायी नहीं हो सकता । सरकार का केवल पैसा ही खर्च होता है।
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# वास्तव में हमारे देश के लोगोंं को ही शिक्षा की कोई चाह नहीं है । जिसे चाह होती है वह तो बिना अभियान के भी शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास करता है । जिन्हें चाह ही नहीं है उनके लिये कितना भी प्रयास करो तो भी वह फलदायी नहीं हो सकता । सरकार का केवल पैसा ही खर्च होता है।
 
# जो लोग घूमन्तु जाति के हैं, दिनभर मजदूरी करते हैं, बच्चों को भी काम में लगाते हैं वे उन्हें पढने के लिये कैसे भेज सकते हैं। साथ ही उन्हें लिखने पढने की बहुत चाह भी नहीं होती इसलिये वे सरकार के आव्हान को प्रतिसाद नहीं देते ।
 
# जो लोग घूमन्तु जाति के हैं, दिनभर मजदूरी करते हैं, बच्चों को भी काम में लगाते हैं वे उन्हें पढने के लिये कैसे भेज सकते हैं। साथ ही उन्हें लिखने पढने की बहुत चाह भी नहीं होती इसलिये वे सरकार के आव्हान को प्रतिसाद नहीं देते ।
 
# उनकी दृष्टि से भी जरा देखें । किसान का बेटा पढता है और किसानी नहीं करता, उसी प्रकार सभी कारीगरी के व्यवसायों पर साक्षरता का विपरीत प्रभाव होता है। उस व्यक्ति को तो ठीक ही है परन्तु देश को भी सारे व्यवसायों का छिन्नविच्छिन्न हो जाना कैसे मान्य हो सकता है ? परन्तु सरकारी तन्त्र भी एक ही बात देखता है उससे सम्बन्धित अन्य बातों का विचार नहीं करता । आर्थिक क्षेत्र की कठिनाई तो कोई मोल नहीं ले सकता । इसलिये वे पढना लिखना न चाहे यही अच्छा है।
 
# उनकी दृष्टि से भी जरा देखें । किसान का बेटा पढता है और किसानी नहीं करता, उसी प्रकार सभी कारीगरी के व्यवसायों पर साक्षरता का विपरीत प्रभाव होता है। उस व्यक्ति को तो ठीक ही है परन्तु देश को भी सारे व्यवसायों का छिन्नविच्छिन्न हो जाना कैसे मान्य हो सकता है ? परन्तु सरकारी तन्त्र भी एक ही बात देखता है उससे सम्बन्धित अन्य बातों का विचार नहीं करता । आर्थिक क्षेत्र की कठिनाई तो कोई मोल नहीं ले सकता । इसलिये वे पढना लिखना न चाहे यही अच्छा है।
 
# यदि शतप्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य प्राप्त करना है तो सरकार को यह कार्य निजी संस्थाओं को देना चाहिये। उसके लिये जो बजट है वह इन समाजसेवी संगठनों को देना चाहिये । तब यह कार्य निश्चित रूप से सम्भव हो सकता है। इसमें कार्य के विकेन्द्रीकरण का भी मुद्दा है। विकेन्द्रीकरण से कार्य की व्याप्ति कम हो जाती है इसलिये वह अपने नियन्त्रण में रहता है। भारत में ऐसी असंख्य संस्थायें हैं जो बिना सरकारी सहायता के भी शिक्षा के क्षेत्र में काम करती हैं।
 
# यदि शतप्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य प्राप्त करना है तो सरकार को यह कार्य निजी संस्थाओं को देना चाहिये। उसके लिये जो बजट है वह इन समाजसेवी संगठनों को देना चाहिये । तब यह कार्य निश्चित रूप से सम्भव हो सकता है। इसमें कार्य के विकेन्द्रीकरण का भी मुद्दा है। विकेन्द्रीकरण से कार्य की व्याप्ति कम हो जाती है इसलिये वह अपने नियन्त्रण में रहता है। भारत में ऐसी असंख्य संस्थायें हैं जो बिना सरकारी सहायता के भी शिक्षा के क्षेत्र में काम करती हैं।
# बात यह है कि आप घोडे को पानी तक तो ले जा सकते हैं परन्तु पानी पीने के लिये बाध्य नहीं कर सकते । शिक्षा की व्यवस्था तो राज्य और समाज कर सकता है परन्तु लोगों की इच्छा नहीं है तो उन्हें जबरन पढाया नहीं जा सकता । इसलिये उनमें लिखने पढने की चाह निर्माण करना ही अत्यन्त आवश्यक है। सरकार साधनसामग्री और व्यवस्था के लिये जितना खर्च करती है उतना यदि शिक्षा की इच्छा जगाने के लिये करे तो साधन सामग्री और व्यवस्था के अभाव में भी लोग शिक्षा प्राप्त कर लेंगे । परन्तु सरकारी तन्त्र मानवीय नहीं होता, जड होता है। उसमें लोगों को प्रेरित करने की शक्ति नहीं होती । इसलिये शत प्रतिशत साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करना सरकार के लिये कठिन हो जाता है।
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# बात यह है कि आप घोडे को पानी तक तो ले जा सकते हैं परन्तु पानी पीने के लिये बाध्य नहीं कर सकते । शिक्षा की व्यवस्था तो राज्य और समाज कर सकता है परन्तु लोगोंं की इच्छा नहीं है तो उन्हें जबरन पढाया नहीं जा सकता । इसलिये उनमें लिखने पढने की चाह निर्माण करना ही अत्यन्त आवश्यक है। सरकार साधनसामग्री और व्यवस्था के लिये जितना खर्च करती है उतना यदि शिक्षा की इच्छा जगाने के लिये करे तो साधन सामग्री और व्यवस्था के अभाव में भी लोग शिक्षा प्राप्त कर लेंगे । परन्तु सरकारी तन्त्र मानवीय नहीं होता, जड होता है। उसमें लोगोंं को प्रेरित करने की शक्ति नहीं होती । इसलिये शत प्रतिशत साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करना सरकार के लिये कठिन हो जाता है।
 
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इन अभिप्रायों का स्वर भी नकारात्मक ही है। परन्तु शत प्रतिशत साक्षरता जैसी सभी योजनाओं का विचार मनोवैज्ञानिक ढंग से करना चाहिये, केवल नकारात्मक बातें करने से कोई उपलब्धि नहीं होगी।
 
इन अभिप्रायों का स्वर भी नकारात्मक ही है। परन्तु शत प्रतिशत साक्षरता जैसी सभी योजनाओं का विचार मनोवैज्ञानिक ढंग से करना चाहिये, केवल नकारात्मक बातें करने से कोई उपलब्धि नहीं होगी।
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पहली बात तो यह है कि ये सारे अभियान धार्मिक मानस के अनुकूल नहीं है । भारत में युगों से लिखने और पढने की प्रतिष्ठा कम ही रही है। भारत में ऐसे अनेक तत्त्वज्ञसन्त, कलाकार, कारीगर, व्यापारी, गृहिणियाँ हुई है जो अपने अपने क्षेत्र में श्रेष्ठतम लोगों की श्रेणी के हैं परन्तु निरक्षर थे, कभी विद्यालय गये ही नहीं थे । आज भी ऐसे व्यापारी हैं जो अरबो रूपयों का व्यापार करते हैं, कम्प्यूटर चलाते हैं परन्तु अपने हस्ताक्षर के अलावा कुछ भी लिख नहीं सकते । उन्हें जीवन का ज्ञान है, केवल अक्षर का नहीं है, भारत का मानस चरित्र और व्यवहार ज्ञान को शिक्षित व्यक्ति का लक्षण मानता है, अक्षर ज्ञान को नहीं। यह बात इतनी गहरी बैठी है कि लिखना पढ़ना नहीं आने पर खास अपराधबोध नहीं होता।
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पहली बात तो यह है कि ये सारे अभियान धार्मिक मानस के अनुकूल नहीं है । भारत में युगों से लिखने और पढने की प्रतिष्ठा कम ही रही है। भारत में ऐसे अनेक तत्त्वज्ञसन्त, कलाकार, कारीगर, व्यापारी, गृहिणियाँ हुई है जो अपने अपने क्षेत्र में श्रेष्ठतम लोगोंं की श्रेणी के हैं परन्तु निरक्षर थे, कभी विद्यालय गये ही नहीं थे । आज भी ऐसे व्यापारी हैं जो अरबो रूपयों का व्यापार करते हैं, कम्प्यूटर चलाते हैं परन्तु अपने हस्ताक्षर के अलावा कुछ भी लिख नहीं सकते । उन्हें जीवन का ज्ञान है, केवल अक्षर का नहीं है, भारत का मानस चरित्र और व्यवहार ज्ञान को शिक्षित व्यक्ति का लक्षण मानता है, अक्षर ज्ञान को नहीं। यह बात इतनी गहरी बैठी है कि लिखना पढ़ना नहीं आने पर खास अपराधबोध नहीं होता।
    
एक उत्तरदाता की बात सही है कि लिखने पढने हेतु विद्यालय जाने से असंख्य परम्परागत व्यवसाय नष्ट हो गये हैं। यह तो बडा आपराधिक कृत्य है। विद्यालय जाने पर केवल अक्षरज्ञान नहीं मिलता, विद्यार्थी का मानस बदलता है। वह काम और काम करने वाले को हेय मानने लगता है और स्वयं काम नहीं करता । काम करना सीखता भी नहीं है। लिखना और पढना आना तो अच्छा है परन्तु काम करना छोडकर लिखना और पढना सीखना घाटे का सौदा है। अतः कुछ ऐसे उपाय करने चाहिये कि विद्यार्थी काम पहले सीखे और लिखना पढना काम करने के साथ साथ सीखे । उसके हाथों को काम करने के साधनों का स्पर्श पहले हो बाद में पुस्तक और लेखनी का । इससे लिखना और पढना काम करने से अधिक अच्छा है ऐसी ग्रन्थि नहीं बनेगी। इससे और एक समस्या भी नहीं पैदा होगी । करने के लिये काम है इसलिये हर पढा लिखा व्यक्ति नौकरी की खोज में नहीं दौडेगा । इससे शिक्षितों की बेरोजगारी कम होगी।
 
एक उत्तरदाता की बात सही है कि लिखने पढने हेतु विद्यालय जाने से असंख्य परम्परागत व्यवसाय नष्ट हो गये हैं। यह तो बडा आपराधिक कृत्य है। विद्यालय जाने पर केवल अक्षरज्ञान नहीं मिलता, विद्यार्थी का मानस बदलता है। वह काम और काम करने वाले को हेय मानने लगता है और स्वयं काम नहीं करता । काम करना सीखता भी नहीं है। लिखना और पढना आना तो अच्छा है परन्तु काम करना छोडकर लिखना और पढना सीखना घाटे का सौदा है। अतः कुछ ऐसे उपाय करने चाहिये कि विद्यार्थी काम पहले सीखे और लिखना पढना काम करने के साथ साथ सीखे । उसके हाथों को काम करने के साधनों का स्पर्श पहले हो बाद में पुस्तक और लेखनी का । इससे लिखना और पढना काम करने से अधिक अच्छा है ऐसी ग्रन्थि नहीं बनेगी। इससे और एक समस्या भी नहीं पैदा होगी । करने के लिये काम है इसलिये हर पढा लिखा व्यक्ति नौकरी की खोज में नहीं दौडेगा । इससे शिक्षितों की बेरोजगारी कम होगी।
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शत प्रतिशत साक्षरता एक तान्त्रिक मुद्दा है । नहीं भी है तो उसे बनाया गया है। केवल हस्ताक्षर करना भी आ गया तो व्यक्ति साक्षर हो गया ऐसा माना जाने लगा है। परन्तु साक्षरता की ऐसी व्याख्या नहीं है । साक्षर तो पण्डित को कहते हैं । शास्त्रों के जानकार को कहते हैं । हमने हमारी भाषा के श्रेष्ठ शब्द का अर्थ ही निम्न कोटि का बना दिया है । परन्तु अब वह भी एक पारिभाषिक शब्द बन गया है ।
 
शत प्रतिशत साक्षरता एक तान्त्रिक मुद्दा है । नहीं भी है तो उसे बनाया गया है। केवल हस्ताक्षर करना भी आ गया तो व्यक्ति साक्षर हो गया ऐसा माना जाने लगा है। परन्तु साक्षरता की ऐसी व्याख्या नहीं है । साक्षर तो पण्डित को कहते हैं । शास्त्रों के जानकार को कहते हैं । हमने हमारी भाषा के श्रेष्ठ शब्द का अर्थ ही निम्न कोटि का बना दिया है । परन्तु अब वह भी एक पारिभाषिक शब्द बन गया है ।
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इसलिये हमें अपना और लोगों का मानस यह बनाना चाहिये कि केवल अक्षरज्ञान से नहीं अपितु जीवन के ज्ञान से साक्षर बनना चाहिये । ऐसा साक्षर हर कोई बन सकता है । इस अर्थ में तो भारत अन्य कई देशों से अधिक मात्रा में साक्षर
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इसलिये हमें अपना और लोगोंं का मानस यह बनाना चाहिये कि केवल अक्षरज्ञान से नहीं अपितु जीवन के ज्ञान से साक्षर बनना चाहिये । ऐसा साक्षर हर कोई बन सकता है । इस अर्थ में तो भारत अन्य कई देशों से अधिक मात्रा में साक्षर
    
एक उत्तरदाता ने सही कहा है कि सरकार इस अभियान में लगेगी तो कभी भी यश प्राप्त नहीं होगा । जड तन्त्र का शिक्षा से कोई लेनादेना होता भी नहीं है । जड तत्त्व ढाँचा बना सकता है उसमें जीवन नहीं होता है। अतः बिना सरकारी योजना के भी भारत को शत प्रतिशत साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करने वाला तो बनाना ही चाहिये । भारत सदा शिक्षितों का देश रहा है, पराये नहीं अपितु अपने ही मापदण्डों और प्रयासों से ।।
 
एक उत्तरदाता ने सही कहा है कि सरकार इस अभियान में लगेगी तो कभी भी यश प्राप्त नहीं होगा । जड तन्त्र का शिक्षा से कोई लेनादेना होता भी नहीं है । जड तत्त्व ढाँचा बना सकता है उसमें जीवन नहीं होता है। अतः बिना सरकारी योजना के भी भारत को शत प्रतिशत साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करने वाला तो बनाना ही चाहिये । भारत सदा शिक्षितों का देश रहा है, पराये नहीं अपितु अपने ही मापदण्डों और प्रयासों से ।।
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यह एक अच्छा प्रश्न है जो जीडीपी की संकल्पना कितनी हास्यास्पद है यह सिद्ध करने का अवसर देता है। भारत का जीडीपी नहीं बढता यह स्वाभाविक भी है और अच्छा भी है। एक उदाहरण से समझने का प्रयास करेंगे।
 
यह एक अच्छा प्रश्न है जो जीडीपी की संकल्पना कितनी हास्यास्पद है यह सिद्ध करने का अवसर देता है। भारत का जीडीपी नहीं बढता यह स्वाभाविक भी है और अच्छा भी है। एक उदाहरण से समझने का प्रयास करेंगे।
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भारत में हजारों लोगों को सदाव्रतों में भोजन मिलता है, यात्रियों को पीने का पानी जलसेवा से निःशुल्क मिलता है। अनेक भिक्षकों और संन्यासियों को निःशुल्क भोजन मिलता है। अतिथि निःशुल्क भोजन प्राप्त करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि होटेल उद्योग बढता नहीं है ।
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भारत में हजारों लोगोंं को सदाव्रतों में भोजन मिलता है, यात्रियों को पीने का पानी जलसेवा से निःशुल्क मिलता है। अनेक भिक्षकों और संन्यासियों को निःशुल्क भोजन मिलता है। अतिथि निःशुल्क भोजन प्राप्त करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि होटेल उद्योग बढता नहीं है ।
    
भारत में शिशुसंगोपन और बिमारों की परिचर्या घर में होती है जो निःशुल्क होती है। भारत में लोग कम बीमार होते हैं और बीमारी में भी कम दवाई लेते हैं। अनेक धर्मादाय ऋग्णसेवा संस्थायें होती हैं। परिणाम स्वरूप हॉस्पिटल उद्योग कम पनपता है और देश का जीडपी कम रह जाता है। संक्षेप में भारत में अनेक बातें ऐसी हैं जिनका व्यापार नहीं होता, जो बाजार का हिस्सा नहीं होती । इस प्रकार पैसे के लेनदेन का व्यवहार नहीं होना अच्छा माना जाता है । वह संस्कृति का अंग है। घर में गृहिणियाँ भोजन बनाती हैं। बच्चों का संगोपन करती हैं, वृद्धों की सेवा करती हैं वे यदि उसका पैसों में हिसाब करने लगें तो देश का जीडीपी तो बढ जायेगा परन्तु संस्कारिता समाप्त हो जायेगी। जीडीपी बढाने के और विकसित कहे जाने के मोह में संस्कारिता को छोड देना तो बड़े घाटे का सौदा है । इसलिये धार्मिक मानस कहता है कि जीडीपी नहीं बढता है तो न सही, संस्कारिता का त्याग करना सम्भव नहीं।
 
भारत में शिशुसंगोपन और बिमारों की परिचर्या घर में होती है जो निःशुल्क होती है। भारत में लोग कम बीमार होते हैं और बीमारी में भी कम दवाई लेते हैं। अनेक धर्मादाय ऋग्णसेवा संस्थायें होती हैं। परिणाम स्वरूप हॉस्पिटल उद्योग कम पनपता है और देश का जीडपी कम रह जाता है। संक्षेप में भारत में अनेक बातें ऐसी हैं जिनका व्यापार नहीं होता, जो बाजार का हिस्सा नहीं होती । इस प्रकार पैसे के लेनदेन का व्यवहार नहीं होना अच्छा माना जाता है । वह संस्कृति का अंग है। घर में गृहिणियाँ भोजन बनाती हैं। बच्चों का संगोपन करती हैं, वृद्धों की सेवा करती हैं वे यदि उसका पैसों में हिसाब करने लगें तो देश का जीडीपी तो बढ जायेगा परन्तु संस्कारिता समाप्त हो जायेगी। जीडीपी बढाने के और विकसित कहे जाने के मोह में संस्कारिता को छोड देना तो बड़े घाटे का सौदा है । इसलिये धार्मिक मानस कहता है कि जीडीपी नहीं बढता है तो न सही, संस्कारिता का त्याग करना सम्भव नहीं।
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परन्तु ऐसा कहने वाले और मानने वाले लोग भूल जाते हैं कि सहस्रकों से यह देश राजाओं वाली शासनप्रणाली से ही चलता आया है और आज भी राज्यव्यवस्था का आदर्श रामराज्य ही है । रामराज्य केवल एक निकष पर आदर्श माना जाता है । वह उक्ति है 'रामराज्य में प्रजा सुखी' । अर्थात् प्रजा का सुखी होना ही राजा का कर्तव्य है।
 
परन्तु ऐसा कहने वाले और मानने वाले लोग भूल जाते हैं कि सहस्रकों से यह देश राजाओं वाली शासनप्रणाली से ही चलता आया है और आज भी राज्यव्यवस्था का आदर्श रामराज्य ही है । रामराज्य केवल एक निकष पर आदर्श माना जाता है । वह उक्ति है 'रामराज्य में प्रजा सुखी' । अर्थात् प्रजा का सुखी होना ही राजा का कर्तव्य है।
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फ्रान्स के एक विद्वान का कथन है 'डेमोक्रसी विदाउट एज्यूकेशन इझ हिपोक्रसी विदाऊट लिमिटेशन ।' बिना शिक्षा के लोकतन्त्र अन्तहीन दम्भ है । वर्तमान लोकतन्त्र को देखते हुए क्या यह कथन सत्य नहीं लगता । धार्मिक समझ के अनुसार शासन और प्रशासन चलाना साधारण लोगों का काम नहीं है । वे दोनों विभाग तो शिक्षित लोगों की ही अपेक्षा करते हैं। शासक और प्रशासक शस्त्र शास्त्र और शीलसम्पन्न होना अनिवार्य है। वर्तमान शासनप्रणाली में प्रशासक के लिये शास्त्र आवश्यक है, शस्त्र और शील नहीं । शील उतना ही आवश्यक है जिसे कानून अथवा स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट 'गुड केरेक्टर' के रूप में लिखकर देता है । एक सांसद या विधायक को तो शास्त्र की भी अनिवार्यता नहीं है । ऐसा लोकतन्त्र देश को कैसा चलायेगा यह हम समझ सकते हैं।
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फ्रान्स के एक विद्वान का कथन है 'डेमोक्रसी विदाउट एज्यूकेशन इझ हिपोक्रसी विदाऊट लिमिटेशन ।' बिना शिक्षा के लोकतन्त्र अन्तहीन दम्भ है । वर्तमान लोकतन्त्र को देखते हुए क्या यह कथन सत्य नहीं लगता । धार्मिक समझ के अनुसार शासन और प्रशासन चलाना साधारण लोगोंं का काम नहीं है । वे दोनों विभाग तो शिक्षित लोगोंं की ही अपेक्षा करते हैं। शासक और प्रशासक शस्त्र शास्त्र और शीलसम्पन्न होना अनिवार्य है। वर्तमान शासनप्रणाली में प्रशासक के लिये शास्त्र आवश्यक है, शस्त्र और शील नहीं । शील उतना ही आवश्यक है जिसे कानून अथवा स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट 'गुड केरेक्टर' के रूप में लिखकर देता है । एक सांसद या विधायक को तो शास्त्र की भी अनिवार्यता नहीं है । ऐसा लोकतन्त्र देश को कैसा चलायेगा यह हम समझ सकते हैं।
    
'लोकतन्त्र' धार्मिक भाषा का ही नहीं तो धार्मिक विचार का भी शब्द है। इसे देश को अंग्रेजी का परिचय हआ उसके पूर्व से लोकतन्त्र शब्द प्रयुक्त होता रहा है, गणतन्त्र शब्द भी रहा है, परन्तु उत्तम प्रणाली तो राजतन्त्र ही रही है। राजा को प्रजा का सेवक ही कहा है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में तो राजा को प्रजा का वेतनभोगी नौकर ही कहा है। अर्थात् भारत के राजतन्त्र में अधिकार तो प्रजा का ही है। 'राजा' शब्द की व्युत्पत्ति है 'प्रजानुरंजनात् राजा' अर्थात् प्रजा खुश रहती है इसलिये जो खुश रहता है वह राजा कहा जाता है ।
 
'लोकतन्त्र' धार्मिक भाषा का ही नहीं तो धार्मिक विचार का भी शब्द है। इसे देश को अंग्रेजी का परिचय हआ उसके पूर्व से लोकतन्त्र शब्द प्रयुक्त होता रहा है, गणतन्त्र शब्द भी रहा है, परन्तु उत्तम प्रणाली तो राजतन्त्र ही रही है। राजा को प्रजा का सेवक ही कहा है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में तो राजा को प्रजा का वेतनभोगी नौकर ही कहा है। अर्थात् भारत के राजतन्त्र में अधिकार तो प्रजा का ही है। 'राजा' शब्द की व्युत्पत्ति है 'प्रजानुरंजनात् राजा' अर्थात् प्रजा खुश रहती है इसलिये जो खुश रहता है वह राजा कहा जाता है ।
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(३) वहाँ बच्चों के मातापिता साथ नहीं रहते क्योंकि उनका विवाह विच्छेद हआ है। वहाँ बच्चे सोलह वर्ष के होते हैं तब मातापिता का उनके प्रति दायित्व समाप्त हो जाता है । ये दो बातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं । वहाँ सब अपना काम स्वयं कर लेते हैं । वहाँ साफसफाई करने के लिये भी यन्त्र होते हैं । ये दो बातें मुझे अच्छी लगती हैं।
 
(३) वहाँ बच्चों के मातापिता साथ नहीं रहते क्योंकि उनका विवाह विच्छेद हआ है। वहाँ बच्चे सोलह वर्ष के होते हैं तब मातापिता का उनके प्रति दायित्व समाप्त हो जाता है । ये दो बातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं । वहाँ सब अपना काम स्वयं कर लेते हैं । वहाँ साफसफाई करने के लिये भी यन्त्र होते हैं । ये दो बातें मुझे अच्छी लगती हैं।
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(४) अमेरिका में पर्यावरण का प्रदूषण बहत होता है क्योंकि वहाँ प्राकृतिक सम्पदा का शोषण होता है। अमेरिका में लोगों के मन अत्यधिक उत्तेजनाग्रस्त रहते हैं । पहली बात के लिये मुझे नाराजगी होती है और दूसरी बात के लिये उसकी दया आती है। वहाँ सामाजिक बदनामी जैसा कुछ नहीं है । दैनन्दिन जीवन में भ्रष्टाचार नहीं है। ये दो बातें मुझे अच्छी लगती हैं।
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(४) अमेरिका में पर्यावरण का प्रदूषण बहत होता है क्योंकि वहाँ प्राकृतिक सम्पदा का शोषण होता है। अमेरिका में लोगोंं के मन अत्यधिक उत्तेजनाग्रस्त रहते हैं । पहली बात के लिये मुझे नाराजगी होती है और दूसरी बात के लिये उसकी दया आती है। वहाँ सामाजिक बदनामी जैसा कुछ नहीं है । दैनन्दिन जीवन में भ्रष्टाचार नहीं है। ये दो बातें मुझे अच्छी लगती हैं।
    
(५) अमेरिका में किसी को खर्च की सीमा आँकना नहीं आता । बैंक के ऋण ले लेकर वे अपना खर्च करते हैं । वहाँ बचत नाम की कोई बात नहीं है । ये दो बातें मुझे जरा भी उचित नहीं लगती । अमेरिका में खाने पीने में, मौज मस्ती करने में कोई किसी को टोकता नहीं है। लोग पंक्ति तोडते नहीं हैं । ये दो बातें मुझे अच्छी लगती हैं।
 
(५) अमेरिका में किसी को खर्च की सीमा आँकना नहीं आता । बैंक के ऋण ले लेकर वे अपना खर्च करते हैं । वहाँ बचत नाम की कोई बात नहीं है । ये दो बातें मुझे जरा भी उचित नहीं लगती । अमेरिका में खाने पीने में, मौज मस्ती करने में कोई किसी को टोकता नहीं है। लोग पंक्ति तोडते नहीं हैं । ये दो बातें मुझे अच्छी लगती हैं।
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सबका अभिप्राय सुनकर लगता है कि भारत और विश्व के विषय में लोगों का आकलन तो सही है। लोग समस्या को तो समझ रहे हैं परन्तु उपाय किसी के पास नहीं है। ऐसा इसलिये होता है कि सब मानते हैं कि उपाय दूसरों ने खोजने चाहिये । उपायों की जिम्मेदारी किसी की नहीं होने के कारण समस्याओं का कथन ही होता रहता है उपायों की चर्चा कम होती है । प्रश्न तो सुलझता नहीं, दुःख और निराशा बढ़ते हैं।
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सबका अभिप्राय सुनकर लगता है कि भारत और विश्व के विषय में लोगोंं का आकलन तो सही है। लोग समस्या को तो समझ रहे हैं परन्तु उपाय किसी के पास नहीं है। ऐसा इसलिये होता है कि सब मानते हैं कि उपाय दूसरों ने खोजने चाहिये । उपायों की जिम्मेदारी किसी की नहीं होने के कारण समस्याओं का कथन ही होता रहता है उपायों की चर्चा कम होती है । प्रश्न तो सुलझता नहीं, दुःख और निराशा बढ़ते हैं।
    
==== प्रश्न ९ आपके मतानुसार विश्व के देशों का वर्गीकरण करने के सही मापदण्ड कौन से हो सकते हैं ? ====
 
==== प्रश्न ९ आपके मतानुसार विश्व के देशों का वर्गीकरण करने के सही मापदण्ड कौन से हो सकते हैं ? ====
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इन उत्तरों से ध्यान में आता है कि उच्च शिक्षित हो या सामान्य, लोगों को आतंकवाद के विषय में खास कुछ पता ही नहीं है।
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इन उत्तरों से ध्यान में आता है कि उच्च शिक्षित हो या सामान्य, लोगोंं को आतंकवाद के विषय में खास कुछ पता ही नहीं है।
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आतंकवाद केवल भारत में ही है ऐसा नहीं है। वह एक वैश्विक संकट है। इस्लामिक आतंकवाद इसका एक प्रमुख अंग है। इसका मूल मजहबी कट्टरवाद है । यह सेमेटिक मजहबों की मूल धारणा से उद्भूत संकट है। धारणा यह है कि हमारा मजहब ही सही है, अन्य सारे मजहब नापाक हैं । जो नापाक मजहब है उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं है। उन्हें समाप्त कर देना चाहिये । जो गैरमजहबी है उसे समाप्त कर देना हमारा पवित्र कर्तव्य है, उससे पुण्य मिलेगा और जन्नत में स्थान मिलेगा। जन्नत में अनेक अप्रतिम भोगविलास के साधन होंगे। अधिकांश पढे लिखे शिक्षित आतंकवादी जन्नत के भोगविलासों के आकर्षण से प्रेरित होकर आतंकी गतिविधियों में लगे रहते हैं। नापाक लोगों को या तो हमारे मजहब का स्वीकार करना चाहिये । ये मजहब सहअस्तित्व में विश्वास नहीं करते ।
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आतंकवाद केवल भारत में ही है ऐसा नहीं है। वह एक वैश्विक संकट है। इस्लामिक आतंकवाद इसका एक प्रमुख अंग है। इसका मूल मजहबी कट्टरवाद है । यह सेमेटिक मजहबों की मूल धारणा से उद्भूत संकट है। धारणा यह है कि हमारा मजहब ही सही है, अन्य सारे मजहब नापाक हैं । जो नापाक मजहब है उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं है। उन्हें समाप्त कर देना चाहिये । जो गैरमजहबी है उसे समाप्त कर देना हमारा पवित्र कर्तव्य है, उससे पुण्य मिलेगा और जन्नत में स्थान मिलेगा। जन्नत में अनेक अप्रतिम भोगविलास के साधन होंगे। अधिकांश पढे लिखे शिक्षित आतंकवादी जन्नत के भोगविलासों के आकर्षण से प्रेरित होकर आतंकी गतिविधियों में लगे रहते हैं। नापाक लोगोंं को या तो हमारे मजहब का स्वीकार करना चाहिये । ये मजहब सहअस्तित्व में विश्वास नहीं करते ।
    
सहअस्तित्व में नहीं मानने वाले इसाई भी है, साम्यवादी भी हैं । साम्यवाद का तो सिद्धान्त ही विनाशवादी है । हम उत्तम अर्थवाले शब्दों को विनाश का पर्याय बना देते हैं। स्थापित व्यवस्था को तोड दो, उसके स्थान पर जिनको स्थापित व्यवस्था तोडने का पुण्य मिला है उन्हें स्थापित करो, और उसके स्थापित होते ही, चूँकि वह स्थापित है इसलिये उसे तोडों - ऐसा तोडफोडवादी सिद्धान्त भी आतंकवाद का ही लघुरूप है । सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न स्वरूपों में आतंकवाद फैला हुआ है। जब सहअस्तित्व में नहीं माननेवाले मजहबों का संघर्ष होता है तब वह और भी भीषण होता है। । इसाइयत और इस्लाम का संघर्ष ऐसा ही है । इस्लाम के अलग अलग खेमे भी आपस में संघर्षरत हैं । साम्यवाद तो जो कुछ भी ठीक चलता है उसके विरुद्ध संघर्षरत है । यह संघर्ष ही इन सब का परमधर्म है, जीवनकार्य है।
 
सहअस्तित्व में नहीं मानने वाले इसाई भी है, साम्यवादी भी हैं । साम्यवाद का तो सिद्धान्त ही विनाशवादी है । हम उत्तम अर्थवाले शब्दों को विनाश का पर्याय बना देते हैं। स्थापित व्यवस्था को तोड दो, उसके स्थान पर जिनको स्थापित व्यवस्था तोडने का पुण्य मिला है उन्हें स्थापित करो, और उसके स्थापित होते ही, चूँकि वह स्थापित है इसलिये उसे तोडों - ऐसा तोडफोडवादी सिद्धान्त भी आतंकवाद का ही लघुरूप है । सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न स्वरूपों में आतंकवाद फैला हुआ है। जब सहअस्तित्व में नहीं माननेवाले मजहबों का संघर्ष होता है तब वह और भी भीषण होता है। । इसाइयत और इस्लाम का संघर्ष ऐसा ही है । इस्लाम के अलग अलग खेमे भी आपस में संघर्षरत हैं । साम्यवाद तो जो कुछ भी ठीक चलता है उसके विरुद्ध संघर्षरत है । यह संघर्ष ही इन सब का परमधर्म है, जीवनकार्य है।
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# आज का भारत विश्वगुरु बनने का न तो दावा कर सकता है न इच्छा । यदि करता है तो वह हास्यास्पद होगा क्योंकि धन, ज्ञान, बल और सत्ता में से एक भी बात उसके पास नहीं है । मुझे तो लगता है कि भारत विश्वगुरु था यह भी एक कल्पना ही होनी चाहिये, वास्तविकता नहीं ।
 
# आज का भारत विश्वगुरु बनने का न तो दावा कर सकता है न इच्छा । यदि करता है तो वह हास्यास्पद होगा क्योंकि धन, ज्ञान, बल और सत्ता में से एक भी बात उसके पास नहीं है । मुझे तो लगता है कि भारत विश्वगुरु था यह भी एक कल्पना ही होनी चाहिये, वास्तविकता नहीं ।
 
# मैं मानता हूँ कि भारत कभी विश्वगुरु रहा होगा । परन्तु प्रत्येक राष्ट्र के जीवन में चढाव और उतार आते ही हैं। आज भारत की स्थिति विपरीत हो गई है, उसने यूरोप के समक्ष अपनी पराजय को स्वीकार कर लिया है। वह पश्चिम के अधीन हो गया है, पश्चिम की बुद्धि से चल रहा है । आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी शैली का स्वीकार कर लिया है। ऐसा भारत विश्वगरु कैसे बन सकता है ? फिर भी भारत में विश्वगुरु बनने की सम्भावना अवश्य है। ऐसा बनने के लिये भारत अपने आपको पश्चिम से श्रेष्ठ सिद्ध करे यह आवश्यक है।
 
# मैं मानता हूँ कि भारत कभी विश्वगुरु रहा होगा । परन्तु प्रत्येक राष्ट्र के जीवन में चढाव और उतार आते ही हैं। आज भारत की स्थिति विपरीत हो गई है, उसने यूरोप के समक्ष अपनी पराजय को स्वीकार कर लिया है। वह पश्चिम के अधीन हो गया है, पश्चिम की बुद्धि से चल रहा है । आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी शैली का स्वीकार कर लिया है। ऐसा भारत विश्वगरु कैसे बन सकता है ? फिर भी भारत में विश्वगुरु बनने की सम्भावना अवश्य है। ऐसा बनने के लिये भारत अपने आपको पश्चिम से श्रेष्ठ सिद्ध करे यह आवश्यक है।
# विश्वगुरु बनने के लिये भारत को आधुनिक विश्व की शैली को अपनाकर उसमें ही पश्चिम से आगे निकलना होगा। भारत के लोगों को परमात्मा ने पश्चिम के लोगों से अधिक बुद्धि, कार्यकुशलता और मनोबल दिये हैं। ये सब दुर्लभ गुण हैं । इन गुणों का व्यवस्थित पद्धति से विकास किया जाय तो भारत देखते ही देखते विश्वगुरु बन सकता है।
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# विश्वगुरु बनने के लिये भारत को आधुनिक विश्व की शैली को अपनाकर उसमें ही पश्चिम से आगे निकलना होगा। भारत के लोगोंं को परमात्मा ने पश्चिम के लोगोंं से अधिक बुद्धि, कार्यकुशलता और मनोबल दिये हैं। ये सब दुर्लभ गुण हैं । इन गुणों का व्यवस्थित पद्धति से विकास किया जाय तो भारत देखते ही देखते विश्वगुरु बन सकता है।
 
# भारत जब विश्वगुरु था तब विश्व के अन्य देश अविकसित थे। आज अब अन्य देश विकसित हो गये हैं। विकास का प्रतिमान बदल गया है। आज के प्रतिमान का जनक अमेरिका है। आज विश्वगुरु के स्थान के लायक अमेरिका नहीं तो और कौन हो सकता है ? भारत को विश्वगुरु बनने के लिये अमेरिका से स्पर्धा करनी होगी और उससे आगे निकलना होगा । मैं नहीं मानता कि भारत कम से कम सौ वर्ष तक विश्वगुरु बनने की कल्पना भी कर सकता है।
 
# भारत जब विश्वगुरु था तब विश्व के अन्य देश अविकसित थे। आज अब अन्य देश विकसित हो गये हैं। विकास का प्रतिमान बदल गया है। आज के प्रतिमान का जनक अमेरिका है। आज विश्वगुरु के स्थान के लायक अमेरिका नहीं तो और कौन हो सकता है ? भारत को विश्वगुरु बनने के लिये अमेरिका से स्पर्धा करनी होगी और उससे आगे निकलना होगा । मैं नहीं मानता कि भारत कम से कम सौ वर्ष तक विश्वगुरु बनने की कल्पना भी कर सकता है।
 
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मनुस्मृतिकार ऐसे श्रेष्ठ चरित्र का वर्णन करते हुए कहते हैं । <blockquote>एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । </blockquote><blockquote>स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवाः ।। </blockquote>अर्थात्  
 
मनुस्मृतिकार ऐसे श्रेष्ठ चरित्र का वर्णन करते हुए कहते हैं । <blockquote>एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । </blockquote><blockquote>स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवाः ।। </blockquote>अर्थात्  
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इस देश में प्रथम क्रम में जन्मे लोगों से पृथ्वीतल के सर्व मानव अपने अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें ।
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इस देश में प्रथम क्रम में जन्मे लोगोंं से पृथ्वीतल के सर्व मानव अपने अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें ।
    
इस प्रकार अपने उदाहरण से विश्व के सभी राष्ट्रों को अपनी जीवनशैली बदलने की जो प्रेरणा देता है, अपने चरित्र का विकास करने में जो सहायता और मार्गदर्शन प्रदान करता है वह विश्वगुरु बनता है।
 
इस प्रकार अपने उदाहरण से विश्व के सभी राष्ट्रों को अपनी जीवनशैली बदलने की जो प्रेरणा देता है, अपने चरित्र का विकास करने में जो सहायता और मार्गदर्शन प्रदान करता है वह विश्वगुरु बनता है।
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परन्तु भारत का विचार अलग है। भारत के अनुसार शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था है और धर्म सिखानेवाली है। वह सर्वत्र धर्म का साम्राज्य प्रस्थापित करने वाली है, अर्थ और सत्ता को भी धर्म के अविरोधी बनाने वाली है।
 
परन्तु भारत का विचार अलग है। भारत के अनुसार शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था है और धर्म सिखानेवाली है। वह सर्वत्र धर्म का साम्राज्य प्रस्थापित करने वाली है, अर्थ और सत्ता को भी धर्म के अविरोधी बनाने वाली है।
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शिक्षाक्षेत्र के लोगों के दो ही पद हैं, शिक्षक और विद्यार्थी, उनका प्रमुख कार्य है ज्ञानर्जन करना । परिस्थिति का, घटनाओं का, व्यक्तियों के या राष्ट्रों के व्यवहारों का आकलन करना और समस्याओं का ज्ञानात्मक हल खोजना । शिक्षक और विद्यार्थियों का कर्तव्य है कि वे प्रजाको ज्ञानवान बनायें, ज्ञान की पवित्रता और श्रेष्ठता की रक्षा करें और धर्म का अनुसरण करें । शिक्षक जगत को हित और सुख को पहचानना सिखाये और सुख की अपेक्षा हित के सम्पादन करने में उनकी सहायता करे, मार्गदर्शन दे।
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शिक्षाक्षेत्र के लोगोंं के दो ही पद हैं, शिक्षक और विद्यार्थी, उनका प्रमुख कार्य है ज्ञानर्जन करना । परिस्थिति का, घटनाओं का, व्यक्तियों के या राष्ट्रों के व्यवहारों का आकलन करना और समस्याओं का ज्ञानात्मक हल खोजना । शिक्षक और विद्यार्थियों का कर्तव्य है कि वे प्रजाको ज्ञानवान बनायें, ज्ञान की पवित्रता और श्रेष्ठता की रक्षा करें और धर्म का अनुसरण करें । शिक्षक जगत को हित और सुख को पहचानना सिखाये और सुख की अपेक्षा हित के सम्पादन करने में उनकी सहायता करे, मार्गदर्शन दे।
    
==== प्रश्न १३ कल्पना करें कि भारत के प्रधानमन्त्री विश्व के अन्यान्य देशों में कार्यरत धार्मिक वैज्ञानिकों, प्राध्यापकों, डॉक्टरों, इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों को आवाहन कर कहते हैं कि भारत वापस आ जाओ, देश को आपकी आवश्यकता है, तो क्या होगा ? ====
 
==== प्रश्न १३ कल्पना करें कि भारत के प्रधानमन्त्री विश्व के अन्यान्य देशों में कार्यरत धार्मिक वैज्ञानिकों, प्राध्यापकों, डॉक्टरों, इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों को आवाहन कर कहते हैं कि भारत वापस आ जाओ, देश को आपकी आवश्यकता है, तो क्या होगा ? ====
 
उत्तर  
 
उत्तर  
 
# ऐसा यदि आवाहन करते हैं और वे सब भारत में वापस आ जाते हैं तो देश को बहुत लाभ होगा। देश का विकास होगा। प्रधानमन्त्री ने ऐसा आवाहन करना ही चाहिये ।
 
# ऐसा यदि आवाहन करते हैं और वे सब भारत में वापस आ जाते हैं तो देश को बहुत लाभ होगा। देश का विकास होगा। प्रधानमन्त्री ने ऐसा आवाहन करना ही चाहिये ।
# परन्तु यह सम्भव नहीं है । ऐसे उच्च श्रेणी के लोगों को काम दे सके, सुविधायें दे सके, उनकी कदर बूझ सके ऐसी क्षमता ही भारत में नहीं है । वे आयेंगे तो भी यहाँ का वातावरण और व्यवस्था देखकर वापस चले जायेंगे । प्रधानमन्त्री का आवाहन भावात्मक है, व्यावहारिक नहीं क्योंकि वे भी व्यवस्था नहीं दे पायेंगे ।
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# परन्तु यह सम्भव नहीं है । ऐसे उच्च श्रेणी के लोगोंं को काम दे सके, सुविधायें दे सके, उनकी कदर बूझ सके ऐसी क्षमता ही भारत में नहीं है । वे आयेंगे तो भी यहाँ का वातावरण और व्यवस्था देखकर वापस चले जायेंगे । प्रधानमन्त्री का आवाहन भावात्मक है, व्यावहारिक नहीं क्योंकि वे भी व्यवस्था नहीं दे पायेंगे ।
 
# प्रधानमंत्री जीवनयापन की और काम करने की अच्छी से अच्छी सुविधा यदि दे भी दें तो भी जिन्हें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया या अरब देशों का धन और विलास का स्वाद लग गया है वे वापस आना पसन्द नहीं करेंगे।
 
# प्रधानमंत्री जीवनयापन की और काम करने की अच्छी से अच्छी सुविधा यदि दे भी दें तो भी जिन्हें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया या अरब देशों का धन और विलास का स्वाद लग गया है वे वापस आना पसन्द नहीं करेंगे।
# भारत से विदेशों में गये हुए लोग भारत के निन्दक हो जाते हैं यह सबका अनुभव है । भारत की सडकें, भारत का यातायात, भारत के लोगों की आदतें और रहनसहन, भारत की गर्मी और गन्दगी उन्हें जरा भी नहीं सुहाती । इसलिये वे भारत आना पसन्द नहीं करते।
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# भारत से विदेशों में गये हुए लोग भारत के निन्दक हो जाते हैं यह सबका अनुभव है । भारत की सडकें, भारत का यातायात, भारत के लोगोंं की आदतें और रहनसहन, भारत की गर्मी और गन्दगी उन्हें जरा भी नहीं सुहाती । इसलिये वे भारत आना पसन्द नहीं करते।
 
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इन उत्तरों को देखते हुए समझ में आता है कि धार्मिक लोगों की मानसिकता कितनी देशनिरपेक्ष बन गई है । जिस देश में जन्म लिया, जिस देश के जलवायु ने पोषण किया, जहाँ के अध्यापकों ने शिक्षा दी, जिस देश की प्रजा के पैसे और व्यवस्था से शिक्षा प्राप्त की, जिन मातापिता ने कष्ट उठाकर पालन किया उनके प्रति किसी भी प्रकार का लगाव ही नहीं होना, केवल धन ही दिखाई देना केवल अपनी सुविधा का विचार करना, जिनके कारण लायक बने उनके प्रति कृतज्ञ नहीं होना, अध्ययन और अनुसन्धान करने के अथवा अधिक धन कमाने के अथवा स्वर्ग के नन्दनवन जैसे भोगविलास के साधन पाने के अवसर नहीं होना और इस कारण से देश, देशवासी और सरकार को उलाहना देना या उनकी आलोचना करना चरित्र के कौन से गुण का निदर्शन करता है ? ज्ञान-सम्पादन करने हेतु विश्व में कहीं भी जाया जाता है। परन्तु ज्ञान का विनियोग करने हेतु स्वदेशमें ही रहना होता है यह कितनी सामान्य बात है । इस बात का विस्मरण होना, किसी के द्वारा स्मरण करवाने पर उसकी उपेक्षा करना अथवा उसके बारे में तर्कवितर्क करना किस बात का संकेत है ? केवल इसका ही कि वर्तमान भारत के लोगों को कृतज्ञता, आदर, सम्मान, देश का गौरव, देश की अस्मिता, देशभक्ति आदि कुछ भी सिखाया नहीं गया है, केवल स्वार्थ साधना ही सिखाया गया है। यह शिक्षा का बहुत बडा दोष है। इस दोष को यदि जानते हैं तो प्रधानमन्त्री ऐसा आवाहन करने का साहस ही नहीं करेंगे क्योंकि उस आवाहन की उपेक्षा होगी, अवमानना होगी, उसके स्वीकार के लिये तरह तरह की शर्ते रखी जायेंगी, उस आवाहन की संचार माध्यमों द्वारा और विरोध पक्षों द्वारा आलोचना होगी और सोशल मीडिया पर उसका मजाक होगा । अतः आवाहन करने के स्थान पर प्रधानमन्त्री को चाहिये कि वे भारत के समस्त प्रजाजनों के लिये धर्मकी, राष्ट्रधर्म की शिक्षा अनिवार्य बनायें । ताकि भविष्य में ऐसा आवाहन करने का अवसर ही न आये, शिक्षित लोग अपने देश की सेवा को ही अपनी शिक्षा का लक्ष्य मानें । ऐसा करना क्या असम्भव है ?
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इन उत्तरों को देखते हुए समझ में आता है कि धार्मिक लोगोंं की मानसिकता कितनी देशनिरपेक्ष बन गई है । जिस देश में जन्म लिया, जिस देश के जलवायु ने पोषण किया, जहाँ के अध्यापकों ने शिक्षा दी, जिस देश की प्रजा के पैसे और व्यवस्था से शिक्षा प्राप्त की, जिन मातापिता ने कष्ट उठाकर पालन किया उनके प्रति किसी भी प्रकार का लगाव ही नहीं होना, केवल धन ही दिखाई देना केवल अपनी सुविधा का विचार करना, जिनके कारण लायक बने उनके प्रति कृतज्ञ नहीं होना, अध्ययन और अनुसन्धान करने के अथवा अधिक धन कमाने के अथवा स्वर्ग के नन्दनवन जैसे भोगविलास के साधन पाने के अवसर नहीं होना और इस कारण से देश, देशवासी और सरकार को उलाहना देना या उनकी आलोचना करना चरित्र के कौन से गुण का निदर्शन करता है ? ज्ञान-सम्पादन करने हेतु विश्व में कहीं भी जाया जाता है। परन्तु ज्ञान का विनियोग करने हेतु स्वदेशमें ही रहना होता है यह कितनी सामान्य बात है । इस बात का विस्मरण होना, किसी के द्वारा स्मरण करवाने पर उसकी उपेक्षा करना अथवा उसके बारे में तर्कवितर्क करना किस बात का संकेत है ? केवल इसका ही कि वर्तमान भारत के लोगोंं को कृतज्ञता, आदर, सम्मान, देश का गौरव, देश की अस्मिता, देशभक्ति आदि कुछ भी सिखाया नहीं गया है, केवल स्वार्थ साधना ही सिखाया गया है। यह शिक्षा का बहुत बडा दोष है। इस दोष को यदि जानते हैं तो प्रधानमन्त्री ऐसा आवाहन करने का साहस ही नहीं करेंगे क्योंकि उस आवाहन की उपेक्षा होगी, अवमानना होगी, उसके स्वीकार के लिये तरह तरह की शर्ते रखी जायेंगी, उस आवाहन की संचार माध्यमों द्वारा और विरोध पक्षों द्वारा आलोचना होगी और सोशल मीडिया पर उसका मजाक होगा । अतः आवाहन करने के स्थान पर प्रधानमन्त्री को चाहिये कि वे भारत के समस्त प्रजाजनों के लिये धर्मकी, राष्ट्रधर्म की शिक्षा अनिवार्य बनायें । ताकि भविष्य में ऐसा आवाहन करने का अवसर ही न आये, शिक्षित लोग अपने देश की सेवा को ही अपनी शिक्षा का लक्ष्य मानें । ऐसा करना क्या असम्भव है ?
    
==== प्रश्न १४ मान लीजिये कि भारत में रहनेवाला और भारत में प्रवेश करने वाला या अपने आपको धार्मिक कहलानेवाला प्रत्येक व्यक्ति अंग्रेजी से पूर्ण रूप से अपरिचित हो जाय तो क्या होगा ? ====
 
==== प्रश्न १४ मान लीजिये कि भारत में रहनेवाला और भारत में प्रवेश करने वाला या अपने आपको धार्मिक कहलानेवाला प्रत्येक व्यक्ति अंग्रेजी से पूर्ण रूप से अपरिचित हो जाय तो क्या होगा ? ====
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हम देख सकते हैं कि इन तर्कों में खास कोई वजूद नहीं है, केवल अंग्रेजी का मोह ही है। ऐसा नहीं है कि देश बिना अंग्रेजी के चल नहीं सकता, उल्टे लोगों को अंग्रेजी से भी संस्कृत सीखना अधिक सुविधाजनक है। हमें इस बात का कष्ट नहीं है कि संस्कृत नहीं आने के कारण हम अपने ही देश के कितने मूल्यवान ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। देश की सम्पर्कभाषा बहुत सरलता से हिन्दी हो जायेगी।
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हम देख सकते हैं कि इन तर्कों में खास कोई वजूद नहीं है, केवल अंग्रेजी का मोह ही है। ऐसा नहीं है कि देश बिना अंग्रेजी के चल नहीं सकता, उल्टे लोगोंं को अंग्रेजी से भी संस्कृत सीखना अधिक सुविधाजनक है। हमें इस बात का कष्ट नहीं है कि संस्कृत नहीं आने के कारण हम अपने ही देश के कितने मूल्यवान ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। देश की सम्पर्कभाषा बहुत सरलता से हिन्दी हो जायेगी।
    
भारत के लोग यदि अंग्रेजी छोडकर हिन्दी और संस्कृत बोलना प्रारम्भ करेंगे, अंग्रेजी नहीं बोलेंगे ऐसा दृढतापूर्वक कहेंगे तो तुरन्त अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिन्दी और संस्कृत का अध्यापन आरम्भ हो जायेगा क्योंकि विश्व को भारत के साथ सम्पर्क बनाये रखने की आवश्यकता है।
 
भारत के लोग यदि अंग्रेजी छोडकर हिन्दी और संस्कृत बोलना प्रारम्भ करेंगे, अंग्रेजी नहीं बोलेंगे ऐसा दृढतापूर्वक कहेंगे तो तुरन्त अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिन्दी और संस्कृत का अध्यापन आरम्भ हो जायेगा क्योंकि विश्व को भारत के साथ सम्पर्क बनाये रखने की आवश्यकता है।
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फिर वही मनोवैज्ञानिक समस्या । उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व विश्व जी रहा था । संस्कृति और सभ्यता के अनेक शिखर अनेक प्रजाओं ने सर किये थे । 'बैलगाडी के युग' में सब काम हाथ से करने पडते थे, पैरों से चलना पडता था परन्तु सब काम अच्छे से होते थे, लोगों का स्वास्थ्य अच्छा रहता था, लोगों को आराम से बैठकर वार्तालाप करने का समय मिलता था।
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फिर वही मनोवैज्ञानिक समस्या । उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व विश्व जी रहा था । संस्कृति और सभ्यता के अनेक शिखर अनेक प्रजाओं ने सर किये थे । 'बैलगाडी के युग' में सब काम हाथ से करने पडते थे, पैरों से चलना पडता था परन्तु सब काम अच्छे से होते थे, लोगोंं का स्वास्थ्य अच्छा रहता था, लोगोंं को आराम से बैठकर वार्तालाप करने का समय मिलता था।
    
बिजली आई, यन्त्र आये, हम काम करना भूल गये, काम करने की क्षमता खो गई । बिजली आई, यन्त्र आये, वाहन बने, गति बढी, मन की चंचलता और उत्तेजना बढी और शरीर और मन का स्वास्थ्य खो गया । इसमें भी मनुष्य सोचविचार कर समझदारी से कोई उपाय करने वाला नहीं है इसलिये दैव का सहारा लेने की नौबत आई है।
 
बिजली आई, यन्त्र आये, हम काम करना भूल गये, काम करने की क्षमता खो गई । बिजली आई, यन्त्र आये, वाहन बने, गति बढी, मन की चंचलता और उत्तेजना बढी और शरीर और मन का स्वास्थ्य खो गया । इसमें भी मनुष्य सोचविचार कर समझदारी से कोई उपाय करने वाला नहीं है इसलिये दैव का सहारा लेने की नौबत आई है।
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उत्तर  
 
उत्तर  
 
# यह एक आत्यन्तिक कथन है । विद्याकेन्द्रों में ज्ञान प्राप्त होता है, व्यक्ति बुद्धिमान बनता है, उसका विकास होता है । विद्याकेन्द्र संकटों के निवारण के लिये होता है, वह संकटों को जन्म देने वाला कैसे हो सकता है ?
 
# यह एक आत्यन्तिक कथन है । विद्याकेन्द्रों में ज्ञान प्राप्त होता है, व्यक्ति बुद्धिमान बनता है, उसका विकास होता है । विद्याकेन्द्र संकटों के निवारण के लिये होता है, वह संकटों को जन्म देने वाला कैसे हो सकता है ?
# विश्वविद्यालयों में ज्ञान मिलता है तभी तो ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में विश्व इतनी प्रगति कर सकता है। विश्वविद्यालय नहीं होंगे तो यन्त्रों की खोज, रोगों की चिकित्सा, व्यापार, हिसाबकिताब कैसे हो सकेगा ? लोगों को नौकरी कैसे मिलेगी ? विश्वविद्यालय संकटों का निवारण करनेवाले होते हैं । उनको बढाने वाले नहीं ।
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# विश्वविद्यालयों में ज्ञान मिलता है तभी तो ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में विश्व इतनी प्रगति कर सकता है। विश्वविद्यालय नहीं होंगे तो यन्त्रों की खोज, रोगों की चिकित्सा, व्यापार, हिसाबकिताब कैसे हो सकेगा ? लोगोंं को नौकरी कैसे मिलेगी ? विश्वविद्यालय संकटों का निवारण करनेवाले होते हैं । उनको बढाने वाले नहीं ।
 
# विश्वविद्यालय भगवानने नहीं बनाये हैं। मनुष्य ने बनाये हैं। यदि वे संकट ही निर्माण करते हैं तो मनुष्य उन्हें बनायेगा ही नहीं । कोई अपने ही हाथों संकट कैसे मोल ले सकता है ?
 
# विश्वविद्यालय भगवानने नहीं बनाये हैं। मनुष्य ने बनाये हैं। यदि वे संकट ही निर्माण करते हैं तो मनुष्य उन्हें बनायेगा ही नहीं । कोई अपने ही हाथों संकट कैसे मोल ले सकता है ?
 
# आप कदाचित संस्कारहीन शिक्षा की बात करते हैं। यह बात सही है कि आज की शिक्षा मनुष्य को अच्छा बनाने में, उसका चरित्र बनाने में विफल रही है। उसका यह उद्देश्य ही नहीं रह गया है। इस अर्थ में विश्वविद्यालय संस्कारहीन व्यक्तियों का निर्माण कर रहे हैं। इसलिये संकट पैदा हो रहे हैं। परन्तु संस्कार हीनता के लिये क्या विश्वविद्यालयों को दोष देना उचित है, या राजनीति और आर्थिक क्षेत्र का भ्रष्टाचार भी उतना ही दोषी है ?
 
# आप कदाचित संस्कारहीन शिक्षा की बात करते हैं। यह बात सही है कि आज की शिक्षा मनुष्य को अच्छा बनाने में, उसका चरित्र बनाने में विफल रही है। उसका यह उद्देश्य ही नहीं रह गया है। इस अर्थ में विश्वविद्यालय संस्कारहीन व्यक्तियों का निर्माण कर रहे हैं। इसलिये संकट पैदा हो रहे हैं। परन्तु संस्कार हीनता के लिये क्या विश्वविद्यालयों को दोष देना उचित है, या राजनीति और आर्थिक क्षेत्र का भ्रष्टाचार भी उतना ही दोषी है ?
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इन सब अभिप्रायों में एक बात छूट जाती है। समस्या संस्कारहीनता की नहीं, विपरीत ज्ञान की है। ज्ञान मुक्ति दिलाता है, विपरीत ज्ञान संकट पैदा करता है । वर्तमान विश्वविद्यालय समस्या इसलिये बने हैं कि वे विपरीत ज्ञान देते हैं। इनमें पढाये जाने वाले विषयों के आधारभूत सिद्धान्त विषमता निर्माण करने वाले हैं। विपरीत ज्ञान का मुद्दा न समझने के कारण हम धर्म और संस्कृति के विषय तो पढाते हैं परन्तु अर्थशास्त्र, तन्त्रज्ञान आदि विषयों को उनसे अलग रखते हैं । इस स्थिति में हम धर्म और संस्कृति के बारे में जानकारी देते हैं, अर्थशास्त्र, विज्ञान, मैनेजमेण्ट आदि का आधार धर्म और संस्कृति होना चाहिये इसे भूल जाते हैं। इस स्थिति में धर्म और संस्कृति जानकारी प्राप्त करने के विषय रह जाते हैं. आचरण के विषय नहीं बनते, व्यापार धर्म के आधार पर चलना चाहिये ऐसी समझ विकसित नहीं होती। हम समझ नहीं पाते कि तन्त्रज्ञान यह सामाजिक विषय है। हम इस बात को नहीं समझ पाते हैं कि भौतिक विज्ञान के ज्ञान से यन्त्र केवल बनते हैं, उनके उपयोग की व्यवस्था तो समाजशास्त्रीय ज्ञान से होती है । यदि समाजशास्त्र विपरीत है तो तन्त्रज्ञान भी विपरीत होगा।
 
इन सब अभिप्रायों में एक बात छूट जाती है। समस्या संस्कारहीनता की नहीं, विपरीत ज्ञान की है। ज्ञान मुक्ति दिलाता है, विपरीत ज्ञान संकट पैदा करता है । वर्तमान विश्वविद्यालय समस्या इसलिये बने हैं कि वे विपरीत ज्ञान देते हैं। इनमें पढाये जाने वाले विषयों के आधारभूत सिद्धान्त विषमता निर्माण करने वाले हैं। विपरीत ज्ञान का मुद्दा न समझने के कारण हम धर्म और संस्कृति के विषय तो पढाते हैं परन्तु अर्थशास्त्र, तन्त्रज्ञान आदि विषयों को उनसे अलग रखते हैं । इस स्थिति में हम धर्म और संस्कृति के बारे में जानकारी देते हैं, अर्थशास्त्र, विज्ञान, मैनेजमेण्ट आदि का आधार धर्म और संस्कृति होना चाहिये इसे भूल जाते हैं। इस स्थिति में धर्म और संस्कृति जानकारी प्राप्त करने के विषय रह जाते हैं. आचरण के विषय नहीं बनते, व्यापार धर्म के आधार पर चलना चाहिये ऐसी समझ विकसित नहीं होती। हम समझ नहीं पाते कि तन्त्रज्ञान यह सामाजिक विषय है। हम इस बात को नहीं समझ पाते हैं कि भौतिक विज्ञान के ज्ञान से यन्त्र केवल बनते हैं, उनके उपयोग की व्यवस्था तो समाजशास्त्रीय ज्ञान से होती है । यदि समाजशास्त्र विपरीत है तो तन्त्रज्ञान भी विपरीत होगा।
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वर्तमान विश्वविद्यालय भौतिकवादी. जडवादी दृष्टि से अध्ययन के समस्त विषयों की रचना और योजना करते हैं। वे मनुष्य को और समाज को अधिक से अधिक भौतिकवादी बनाने का ही काम करते हैं । इस की दृष्टि जडवादी है, तन्त्रज्ञान राक्षसी है, अर्थशास्त्र शोषण और विनाश का कारण है, मैनेजमेन्ट शोषण और विनाश की कला सिखाता है। विज्ञान आतंकवादियों के हाथ में संहारकशस्त्र देता है । संक्षेप में कहें तो वर्तमान विश्वविद्यालय शिक्षा की ऐसी योजना कर रहे हैं जो कुछ गिनेचुने लोगों और एक दो राष्ट्रों को तत्काल अथवा अल्पकाल के लिये तो सुख और समृद्धि देती है परन्तु समूची मानवजाति को और सृष्टि को चिरकाल तक दुःख देती है। यह ऐसी योजना है जो सुख के स्रोतों को नष्ट कर सुख की कल्पना करती है। विश्वविद्यालय चाहें तो अपना स्वरूप बदल कर चिरन्तर सुख, शान्ति और समृद्धि का स्रोत भी बन सकते हैं । जो कथन है वह वर्तमान विश्वविद्यालयों के लिये है, सही ज्ञानेकन्द्रों के लिये नहीं ।
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वर्तमान विश्वविद्यालय भौतिकवादी. जडवादी दृष्टि से अध्ययन के समस्त विषयों की रचना और योजना करते हैं। वे मनुष्य को और समाज को अधिक से अधिक भौतिकवादी बनाने का ही काम करते हैं । इस की दृष्टि जडवादी है, तन्त्रज्ञान राक्षसी है, अर्थशास्त्र शोषण और विनाश का कारण है, मैनेजमेन्ट शोषण और विनाश की कला सिखाता है। विज्ञान आतंकवादियों के हाथ में संहारकशस्त्र देता है । संक्षेप में कहें तो वर्तमान विश्वविद्यालय शिक्षा की ऐसी योजना कर रहे हैं जो कुछ गिनेचुने लोगोंं और एक दो राष्ट्रों को तत्काल अथवा अल्पकाल के लिये तो सुख और समृद्धि देती है परन्तु समूची मानवजाति को और सृष्टि को चिरकाल तक दुःख देती है। यह ऐसी योजना है जो सुख के स्रोतों को नष्ट कर सुख की कल्पना करती है। विश्वविद्यालय चाहें तो अपना स्वरूप बदल कर चिरन्तर सुख, शान्ति और समृद्धि का स्रोत भी बन सकते हैं । जो कथन है वह वर्तमान विश्वविद्यालयों के लिये है, सही ज्ञानेकन्द्रों के लिये नहीं ।
    
==References==
 
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