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− | {{One source}} | + | __NOINDEX__{{One source}} |
− | | + | बौद्धिकों में और सामान्य जनों में भारत को लेकर, भारत की शिक्षा को लेकर तरह तरह के प्रश्न उठते हैं । आये दिन अखबारों में कोई न कोई समाचार छपते रहते हैं । विभिन्न समझवाले लोग विभिन्न प्रकार से आलोचना करते रहते हैं । सारे अभिप्राय उलटसुलट होते हैं । परिणामस्वरूप किसी की भी समझ स्पष्ट नहीं होती । अतः यहाँ भिन्न भिन्न प्रकार के लोगोंं के अभिप्राय जानने हेतु कुछ लोगोंं को एक प्रश्नावलि भेजी गई और उनसे उत्तर मँगवाये गये । कुछ लोगोंं के साथ मौखिक चर्चा भी हुई । प्रश्नों के लिखित और मौखिक उत्तर देनेवालों में प्राध्यापक, महाविद्यालयीन छात्रा, एक मार्केटिंग कम्पनी का मुख्य कार्यवाहक अधिकारी, एक प्रथितयश डॉक्टर, एक शिक्षित गृहिणी, एक व्यापारी, एक सामाजिक कार्यकर्ता आदि विभिन्न प्रकार के लोग थे । ऐसा लगा कि अनेक लोग ऐसे थे जिन्होंने प्रश्न सामने आने तक इस मामले में कुछ विचार ही नहीं किया था । कुछ ऐसे थे कि जैसे ही प्रश्न पूछा तुरन्त जो सूझा वह बोल दिया । परन्तु उनसे निवेदन करने के बाद उन्होंने कुछ विचार किया और अपना प्रामाणिक अभिप्राय बताया । यह प्रश्नोत्तरी यहाँ प्रस्तुत है। |
− | === अध्याय ४७ ===
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− | बौद्धिकों में और सामान्य जनों में भारत को लेकर, भारत की शिक्षा को लेकर तरह तरह के प्रश्न उठते हैं । आये दिन अखबारों में कोई न कोई समाचार छपते रहते हैं । विभिन्न समझवाले लोग विभिन्न प्रकार से आलोचना करते रहते हैं । सारे अभिप्राय उलटसुलट होते हैं । परिणामस्वरूप किसी की भी समझ स्पष्ट नहीं होती । अतः यहाँ भिन्न भिन्न प्रकार के लोगों के अभिप्राय जानने हेतु कुछ लोगों को एक प्रश्नावलि भेजी गई और उनसे उत्तर मँगवाये गये । कुछ लोगों के साथ मौखिक चर्चा भी हुई । प्रश्नों के लिखित और मौखिक उत्तर देनेवालों में प्राध्यापक, महाविद्यालयीन छात्रा, एक मार्केटिंग कम्पनी का मुख्य कार्यवाहक अधिकारी, एक प्रथितयश डॉक्टर, एक शिक्षित गृहिणी, एक व्यापारी, एक सामाजिक कार्यकर्ता आदि विभिन्न प्रकार के लोग थे । ऐसा लगा कि अनेक लोग ऐसे थे जिन्होंने प्रश्न सामने आने तक इस मामले में कुछ विचार ही नहीं किया था । कुछ ऐसे थे कि जैसे ही प्रश्न पूछा तुरन्त जो सूझा वह बोल दिया । परन्तु उनसे निवेदन करने के बाद उन्होंने कुछ विचार किया और अपना प्रामाणिक अभिप्राय बताया । यह प्रश्नोत्तरी यहाँ प्रस्तुत है। | |
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| ==== प्रश्न १ विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विश्व विद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय क्यों नहीं है ? ==== | | ==== प्रश्न १ विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विश्व विद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय क्यों नहीं है ? ==== |
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| # विश्वविद्यालय के मानकों में एक मानक पेटण्ट और उनसे होने वाली आय भी है। भारत में ज्ञान पर एकाधिकार स्थापित करने की कल्पना भी जल्दी नहीं आती । भारत आर्थिक पक्ष को मानक मानता भी नहीं है इसलिये वह पीछे रहेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। | | # विश्वविद्यालय के मानकों में एक मानक पेटण्ट और उनसे होने वाली आय भी है। भारत में ज्ञान पर एकाधिकार स्थापित करने की कल्पना भी जल्दी नहीं आती । भारत आर्थिक पक्ष को मानक मानता भी नहीं है इसलिये वह पीछे रहेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। |
| # शिक्षितों को रोजगार नहीं मिलने की समस्याकी जनक राजनीति और गलत अर्थव्यवस्था है। इसमें विश्वविद्यालयों का कार्य बाधित होता है, वह अच्छे परिणाम नहीं दे सकता। | | # शिक्षितों को रोजगार नहीं मिलने की समस्याकी जनक राजनीति और गलत अर्थव्यवस्था है। इसमें विश्वविद्यालयों का कार्य बाधित होता है, वह अच्छे परिणाम नहीं दे सकता। |
− | # विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता न के बराबर है, भारतीय ज्ञान को और जीवनदृष्टि को शत प्रतिशत अपनाना सम्भव नहीं है। इस स्थिति में शिक्षाक्षेत्र की स्थिति न घर का न घाट का' जैसी हो उसमें आश्चर्य नहीं है। | + | # विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता न के बराबर है, धार्मिक ज्ञान को और जीवनदृष्टि को शत प्रतिशत अपनाना सम्भव नहीं है। इस स्थिति में शिक्षाक्षेत्र की स्थिति न घर का न घाट का' जैसी हो उसमें आश्चर्य नहीं है। |
| # इस स्थिति में हमें चाहिये कि हम स्पर्धा में रहे ही नहीं । पराये मापदण्डों से अपना मूल्यांकन करने की बात ही विचित्र है । हम पहले तो अपने मानक बनायें, उनकी सहायता से अपना मूल्यांकन करें, फिर हमारे मानकों की उनके मानकों के साथ तुलना भी करें, हमारे मानकों से उन के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों का मूल्यांकन करें तब जाकर मामला कुछ समझ में आयेगा। | | # इस स्थिति में हमें चाहिये कि हम स्पर्धा में रहे ही नहीं । पराये मापदण्डों से अपना मूल्यांकन करने की बात ही विचित्र है । हम पहले तो अपने मानक बनायें, उनकी सहायता से अपना मूल्यांकन करें, फिर हमारे मानकों की उनके मानकों के साथ तुलना भी करें, हमारे मानकों से उन के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों का मूल्यांकन करें तब जाकर मामला कुछ समझ में आयेगा। |
| परन्तु यह बात भी सही है कि हमारे अपने मानकों पर खरा उतरने वाले हमारे विश्वविद्यालयों की संख्या भी कम ही होगी । इस बात की चिन्ता अवश्य करनी चाहिये । | | परन्तु यह बात भी सही है कि हमारे अपने मानकों पर खरा उतरने वाले हमारे विश्वविद्यालयों की संख्या भी कम ही होगी । इस बात की चिन्ता अवश्य करनी चाहिये । |
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| उत्तर | | उत्तर |
| # आप कैसी बात कर रहे हैं ? आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड विकसित देशों में होते हैं, भारत जैसा विकासशील देश आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड कैसे बना सकता है ? हम आन्तर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा नहीं कर सकते। | | # आप कैसी बात कर रहे हैं ? आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड विकसित देशों में होते हैं, भारत जैसा विकासशील देश आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड कैसे बना सकता है ? हम आन्तर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा नहीं कर सकते। |
− | # नहीं, ऐसी बात नहीं है। हम उन मानकों को तो पूरा कर भी लेंगे परन्तु हमारे लोगों को भारत का नाम लेते ही कुछ नीचा सा लगता है। भले ही आन्तर्राष्ट्रीय हो तो भी इसकी तुलना में अमेरिका का या इंग्लैण्ड का बोर्ड ही उन्हें ऊँचा लगेगा । हम कितना भी अच्छा बनायेंगे तो भी वे भारत के बोर्ड में प्रवेश नहीं लेंगे। | + | # नहीं, ऐसी बात नहीं है। हम उन मानकों को तो पूरा कर भी लेंगे परन्तु हमारे लोगोंं को भारत का नाम लेते ही कुछ नीचा सा लगता है। भले ही आन्तर्राष्ट्रीय हो तो भी इसकी तुलना में अमेरिका का या इंग्लैण्ड का बोर्ड ही उन्हें ऊँचा लगेगा । हम कितना भी अच्छा बनायेंगे तो भी वे भारत के बोर्ड में प्रवेश नहीं लेंगे। |
| # भारत में यदि आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड बनेगा तो भी वह नाम मात्र का होगा । आन्तर्राष्ट्रीय बनने के लिये उसकी विदेशों में शाखा होनी चाहिये । वे यदि अरब देशों या आफ्रिका के देशों में रहीं तो प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। वे शाखायें यूरोप और अमेरिका के देशों में होनी चाहिये । भारत के आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की यदि अमेरिका या यूरोप के देशों में शाखायें रहीं तो भी वहाँ कोई प्रवेश नहीं लेगा । उनके बोर्डों में ही अच्छी शिक्षा मिलती है फिर भारत के बोर्ड में कोई क्यों पढेगा ? इसलिये भारत में आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड बनाने की बात व्यावहारिक नहीं लगती। | | # भारत में यदि आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड बनेगा तो भी वह नाम मात्र का होगा । आन्तर्राष्ट्रीय बनने के लिये उसकी विदेशों में शाखा होनी चाहिये । वे यदि अरब देशों या आफ्रिका के देशों में रहीं तो प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। वे शाखायें यूरोप और अमेरिका के देशों में होनी चाहिये । भारत के आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की यदि अमेरिका या यूरोप के देशों में शाखायें रहीं तो भी वहाँ कोई प्रवेश नहीं लेगा । उनके बोर्डों में ही अच्छी शिक्षा मिलती है फिर भारत के बोर्ड में कोई क्यों पढेगा ? इसलिये भारत में आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड बनाने की बात व्यावहारिक नहीं लगती। |
− | # मेरे मतानुसार हमें भारतीय स्वरूप का आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड अवश्य बनाना चाहिये । और उसकी विदेशों में भी शाखायें होनी चाहिये ताकि वहाँ जो भारतीय रहते हैं वे अपने बच्चों को भारतीय शिक्षा दे सकें । यह कार्य कठिन होने पर भी सरकार ने विशेष योजना बनाकर करना चाहिये । आज पश्चिम के लोगों को भी भारतीय ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा हो रही है । वे भी भारत आने के स्थान पर अपने ही देश में रहकर पढ सकते हैं। | + | # मेरे मतानुसार हमें धार्मिक स्वरूप का आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड अवश्य बनाना चाहिये । और उसकी विदेशों में भी शाखायें होनी चाहिये ताकि वहाँ जो धार्मिक रहते हैं वे अपने बच्चोंं को धार्मिक शिक्षा दे सकें । यह कार्य कठिन होने पर भी सरकार ने विशेष योजना बनाकर करना चाहिये । आज पश्चिम के लोगोंं को भी धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा हो रही है । वे भी भारत आने के स्थान पर अपने ही देश में रहकर पढ सकते हैं। |
| # भारत पहले अपनी शिक्षाव्यवस्था ठीक कर ले यह आवश्यक है। भारत में शिक्षकों की नीयत और क्षमता, शिक्षा का दर्जा और परीक्षाओं की पद्धति जिस प्रकार के हैं वे आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड में नहीं चल सकते । इन बातों में पर्याप्त सुधार किये बिना हम आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड की कल्पना भी नहीं कर सकते । | | # भारत पहले अपनी शिक्षाव्यवस्था ठीक कर ले यह आवश्यक है। भारत में शिक्षकों की नीयत और क्षमता, शिक्षा का दर्जा और परीक्षाओं की पद्धति जिस प्रकार के हैं वे आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड में नहीं चल सकते । इन बातों में पर्याप्त सुधार किये बिना हम आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड की कल्पना भी नहीं कर सकते । |
| # यह तो एक बात है । दूसरी बात यह है कि सरकार को इसमें नहीं पडना चाहिये । जिस प्रकल्प में सरकार होती है वह परिणामकारी नहीं होता । किसी निजी संस्था को ऐसा बोर्ड बनाना चाहिये । ऐसा साहस ताता, अम्बानी, निरमा जैसे उद्योगगृह ही कर सकते हैं। सरकार ने उन्हें बताना चाहिये। | | # यह तो एक बात है । दूसरी बात यह है कि सरकार को इसमें नहीं पडना चाहिये । जिस प्रकल्प में सरकार होती है वह परिणामकारी नहीं होता । किसी निजी संस्था को ऐसा बोर्ड बनाना चाहिये । ऐसा साहस ताता, अम्बानी, निरमा जैसे उद्योगगृह ही कर सकते हैं। सरकार ने उन्हें बताना चाहिये। |
| + | # आर्थिक दृष्टि से आपकी बात सही है परन्तु उद्योगगृहों द्वारा चलाये जानेवाला शिक्षा का प्रकल्प भी उद्योग ही होगा । शिक्षा वैसे भी आज बाजारीकरण का शिकार बन रही है। उद्योगगृह उसका पूर्ण बाजारीकरण कर देंगे। |
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| + | इन अभिप्रायों को पढकर लगता है कि लोगोंं का भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में कोई खास अच्छा मत नहीं है । उनके मानस में पश्चिम की श्रेष्ठता स्थापित हुई है । एक दो लोग धार्मिक शिक्षा की चाह तो रखते हैं परन्तु सरकार पर उनका विश्वास नहीं है । । उद्योगगृह यह कर सकते हैं परन्तु बाजारीकरण भी लोगोंं को मान्य नहीं है। |
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| + | लोगोंं के उलझे हुए मानस की यह झलक है । वास्तव में आज की शिक्षा को और लोगोंं के मानस को ही पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने की आवश्यकता है क्योंकि उलझा हुआ मानस किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकता है, वह स्वयं समस्या है। |
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| + | इस उलझन में जो लोग मुक्त हैं उन्हें धार्मिक शिक्षा देने वाला आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड अवश्य बनाना चाहिये । जैसा कि एक प्राध्यापक ने पूर्व में कहा था अपने ही मानकों से इसे चलाना चाहिये ताकि विश्व के लिये वह भी एक अध्ययन का प्रतिमान बने । उसके माध्यम से भारत अपने आपको भी पहचान सकेगा और विश्व के समक्ष भी अपनी पहचान प्रस्तुत कर सकेगा। |
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| + | ==== प्रश्न ३ भारत शत प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य क्यों प्राप्त नहीं कर सकता है ? अवरोध कौन से हैं ? ==== |
| + | उत्तर |
| + | # भारत सरकार जब कुछ भी करती है तो वह सरकारी है इसीलिये पूरा नहीं हो सकता । सरकारी तन्त्र तो शिथिल है ही परन्तु इतने बड़े देश में वह तन्त्र के नियन्त्रण में रहना सम्भव नहीं है । इसलिये अपेक्षा करना व्यर्थ है। |
| + | # वास्तव में इस प्रकार के अभियान युनेस्को के दबाव में लिये जाते हैं, भारत सरकार की अपनी पहल नहीं है । जब छः से चौदह वर्ष की आयु की शिक्षा को संविधान में ही निःशुल्क और अनिवार्य बनाया है तब इस अभियान की अलग से क्या आवश्यकता है ? एक यदि पूर्ण नहीं हो सकता तो दूसरा कैसे होगा? |
| + | # वास्तव में हमारे देश के लोगोंं को ही शिक्षा की कोई चाह नहीं है । जिसे चाह होती है वह तो बिना अभियान के भी शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास करता है । जिन्हें चाह ही नहीं है उनके लिये कितना भी प्रयास करो तो भी वह फलदायी नहीं हो सकता । सरकार का केवल पैसा ही खर्च होता है। |
| + | # जो लोग घूमन्तु जाति के हैं, दिनभर मजदूरी करते हैं, बच्चोंं को भी काम में लगाते हैं वे उन्हें पढने के लिये कैसे भेज सकते हैं। साथ ही उन्हें लिखने पढने की बहुत चाह भी नहीं होती इसलिये वे सरकार के आव्हान को प्रतिसाद नहीं देते । |
| + | # उनकी दृष्टि से भी जरा देखें । किसान का बेटा पढता है और किसानी नहीं करता, उसी प्रकार सभी कारीगरी के व्यवसायों पर साक्षरता का विपरीत प्रभाव होता है। उस व्यक्ति को तो ठीक ही है परन्तु देश को भी सारे व्यवसायों का छिन्नविच्छिन्न हो जाना कैसे मान्य हो सकता है ? परन्तु सरकारी तन्त्र भी एक ही बात देखता है उससे सम्बन्धित अन्य बातों का विचार नहीं करता । आर्थिक क्षेत्र की कठिनाई तो कोई मोल नहीं ले सकता । इसलिये वे पढना लिखना न चाहे यही अच्छा है। |
| + | # यदि शतप्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य प्राप्त करना है तो सरकार को यह कार्य निजी संस्थाओं को देना चाहिये। उसके लिये जो बजट है वह इन समाजसेवी संगठनों को देना चाहिये । तब यह कार्य निश्चित रूप से सम्भव हो सकता है। इसमें कार्य के विकेन्द्रीकरण का भी मुद्दा है। विकेन्द्रीकरण से कार्य की व्याप्ति कम हो जाती है इसलिये वह अपने नियन्त्रण में रहता है। भारत में ऐसी असंख्य संस्थायें हैं जो बिना सरकारी सहायता के भी शिक्षा के क्षेत्र में काम करती हैं। |
| + | # बात यह है कि आप घोडे को पानी तक तो ले जा सकते हैं परन्तु पानी पीने के लिये बाध्य नहीं कर सकते । शिक्षा की व्यवस्था तो राज्य और समाज कर सकता है परन्तु लोगोंं की इच्छा नहीं है तो उन्हें जबरन पढाया नहीं जा सकता । इसलिये उनमें लिखने पढने की चाह निर्माण करना ही अत्यन्त आवश्यक है। सरकार साधनसामग्री और व्यवस्था के लिये जितना खर्च करती है उतना यदि शिक्षा की इच्छा जगाने के लिये करे तो साधन सामग्री और व्यवस्था के अभाव में भी लोग शिक्षा प्राप्त कर लेंगे । परन्तु सरकारी तन्त्र मानवीय नहीं होता, जड़ होता है। उसमें लोगोंं को प्रेरित करने की शक्ति नहीं होती । इसलिये शत प्रतिशत साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करना सरकार के लिये कठिन हो जाता है। |
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| + | इन अभिप्रायों का स्वर भी नकारात्मक ही है। परन्तु शत प्रतिशत साक्षरता जैसी सभी योजनाओं का विचार मनोवैज्ञानिक ढंग से करना चाहिये, केवल नकारात्मक बातें करने से कोई उपलब्धि नहीं होगी। |
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| + | पहली बात तो यह है कि ये सारे अभियान धार्मिक मानस के अनुकूल नहीं है । भारत में युगों से लिखने और पढने की प्रतिष्ठा कम ही रही है। भारत में ऐसे अनेक तत्त्वज्ञसन्त, कलाकार, कारीगर, व्यापारी, गृहिणियाँ हुई है जो अपने अपने क्षेत्र में श्रेष्ठतम लोगोंं की श्रेणी के हैं परन्तु निरक्षर थे, कभी विद्यालय गये ही नहीं थे । आज भी ऐसे व्यापारी हैं जो अरबो रूपयों का व्यापार करते हैं, कम्प्यूटर चलाते हैं परन्तु अपने हस्ताक्षर के अलावा कुछ भी लिख नहीं सकते । उन्हें जीवन का ज्ञान है, केवल अक्षर का नहीं है, भारत का मानस चरित्र और व्यवहार ज्ञान को शिक्षित व्यक्ति का लक्षण मानता है, अक्षर ज्ञान को नहीं। यह बात इतनी गहरी बैठी है कि लिखना पढ़ना नहीं आने पर खास अपराधबोध नहीं होता। |
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| + | एक उत्तरदाता की बात सही है कि लिखने पढने हेतु विद्यालय जाने से असंख्य परम्परागत व्यवसाय नष्ट हो गये हैं। यह तो बडा आपराधिक कृत्य है। विद्यालय जाने पर केवल अक्षरज्ञान नहीं मिलता, विद्यार्थी का मानस बदलता है। वह काम और काम करने वाले को हेय मानने लगता है और स्वयं काम नहीं करता । काम करना सीखता भी नहीं है। लिखना और पढना आना तो अच्छा है परन्तु काम करना छोडकर लिखना और पढना सीखना घाटे का सौदा है। अतः कुछ ऐसे उपाय करने चाहिये कि विद्यार्थी काम पहले सीखे और लिखना पढना काम करने के साथ साथ सीखे । उसके हाथों को काम करने के साधनों का स्पर्श पहले हो बाद में पुस्तक और लेखनी का । इससे लिखना और पढना काम करने से अधिक अच्छा है ऐसी ग्रन्थि नहीं बनेगी। इससे और एक समस्या भी नहीं पैदा होगी । करने के लिये काम है इसलिये हर पढा लिखा व्यक्ति नौकरी की खोज में नहीं दौडेगा । इससे शिक्षितों की बेरोजगारी कम होगी। |
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| + | शत प्रतिशत साक्षरता एक तान्त्रिक मुद्दा है । नहीं भी है तो उसे बनाया गया है। केवल हस्ताक्षर करना भी आ गया तो व्यक्ति साक्षर हो गया ऐसा माना जाने लगा है। परन्तु साक्षरता की ऐसी व्याख्या नहीं है । साक्षर तो पण्डित को कहते हैं । शास्त्रों के जानकार को कहते हैं । हमने हमारी भाषा के श्रेष्ठ शब्द का अर्थ ही निम्न कोटि का बना दिया है । परन्तु अब वह भी एक पारिभाषिक शब्द बन गया है । |
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| + | इसलिये हमें अपना और लोगोंं का मानस यह बनाना चाहिये कि केवल अक्षरज्ञान से नहीं अपितु जीवन के ज्ञान से साक्षर बनना चाहिये । ऐसा साक्षर हर कोई बन सकता है । इस अर्थ में तो भारत अन्य कई देशों से अधिक मात्रा में साक्षर |
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| + | एक उत्तरदाता ने सही कहा है कि सरकार इस अभियान में लगेगी तो कभी भी यश प्राप्त नहीं होगा । जड़ तन्त्र का शिक्षा से कोई लेनादेना होता भी नहीं है । जड़ तत्त्व ढाँचा बना सकता है उसमें जीवन नहीं होता है। अतः बिना सरकारी योजना के भी भारत को शत प्रतिशत साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करने वाला तो बनाना ही चाहिये । भारत सदा शिक्षितों का देश रहा है, पराये नहीं अपितु अपने ही मापदण्डों और प्रयासों से ।। |
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| + | ==== प्रश्न ४ भारत का जीडीपी क्यों नहीं बढता है ? उसे बढाने के लिये क्या करना चाहिये ? ==== |
| + | उत्तर |
| + | # भारत के लोग व्यापारी बुद्धि के नहीं हैं । इसलिये जो सेवायें और पदार्थ अत्यन्त मूल्यवान होते हैं उनकी कीमत वसूल करना उन्हें आता नहीं है । इसलिये बाजार में नकद का लेनदेन बहुत कम होता है, और अपेक्षाकृत स्थिर भी रहता है । इसलिये विकसित देशों की तुलना में वह सदैव कम ही रहता है । कम जीडीपी के चलते भारत कभी विकसित देश नहीं हो सकता। |
| + | # लगभग हर उत्पाद या सेवा का भारत जैसे बड़े देश का व्यापार अन्य कई देशों की तुलना में कम ही है। उदाहरण के लिये होटेल उद्योग, मनोरंजन उद्योग, शस्त्र उद्योग, शिक्षाउद्योग, हॉस्पिटल उद्योग आदि । ये सारे उत्पादन और सेवायें भारत में सस्ते भी है इसका विपरीत प्रभाव जीडीपी पर होता है। |
| + | # भारत में जो विदेशी कम्पनियाँ हैं उनकी कमाई का लाभ भारत को नहीं होता । यह भी जीडीपी नहीं बढने का एक कारण है। |
| + | # भारत में धर्मादाय संस्थाओं का, निःशुल्क सेवा करनेवालों का, बिना पैसे लेन देन करने वालों का अनुपात अधिक है । इसलिये काम होता है, खर्च या कमाई नहीं । इससे जीडीपी नहीं बढता है । |
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| + | यह एक अच्छा प्रश्न है जो जीडीपी की संकल्पना कितनी हास्यास्पद है यह सिद्ध करने का अवसर देता है। भारत का जीडीपी नहीं बढता यह स्वाभाविक भी है और अच्छा भी है। एक उदाहरण से समझने का प्रयास करेंगे। |
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| + | भारत में हजारों लोगोंं को सदाव्रतों में भोजन मिलता है, यात्रियों को पीने का पानी जलसेवा से निःशुल्क मिलता है। अनेक भिक्षकों और संन्यासियों को निःशुल्क भोजन मिलता है। अतिथि निःशुल्क भोजन प्राप्त करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि होटेल उद्योग बढता नहीं है । |
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| + | भारत में शिशुसंगोपन और बिमारों की परिचर्या घर में होती है जो निःशुल्क होती है। भारत में लोग कम बीमार होते हैं और बीमारी में भी कम दवाई लेते हैं। अनेक धर्मादाय ऋग्णसेवा संस्थायें होती हैं। परिणाम स्वरूप हॉस्पिटल उद्योग कम पनपता है और देश का जीडपी कम रह जाता है। संक्षेप में भारत में अनेक बातें ऐसी हैं जिनका व्यापार नहीं होता, जो बाजार का हिस्सा नहीं होती । इस प्रकार पैसे के लेनदेन का व्यवहार नहीं होना अच्छा माना जाता है । वह संस्कृति का अंग है। घर में गृहिणियाँ भोजन बनाती हैं। बच्चोंं का संगोपन करती हैं, वृद्धों की सेवा करती हैं वे यदि उसका पैसों में हिसाब करने लगें तो देश का जीडीपी तो बढ जायेगा परन्तु संस्कारिता समाप्त हो जायेगी। जीडीपी बढाने के और विकसित कहे जाने के मोह में संस्कारिता को छोड देना तो बड़े घाटे का सौदा है । इसलिये धार्मिक मानस कहता है कि जीडीपी नहीं बढता है तो न सही, संस्कारिता का त्याग करना सम्भव नहीं। |
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| + | इससे आगे बढकर भारत ने प्रश्न उठाना चाहिये कि संस्कृति और विकास एकदूसरे के विरोधी कैसे हो सकते हैं ? जिसमें संस्कारिता कम हो वह विकास का लक्षण कैसे हो सकता है ? इसका अर्थ है कि विकास की परिभाषा और आर्थिक मापदण्ड ये दोनों बातें अनुचित हैं । वास्तव में विकास संस्कार और संस्कृति के समसम्बन्ध में होना चाहिये, विपरीत सम्बन्ध में नहीं । आर्थिक स्थिति समग्र जीवन का एक अंग है और वह भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नहीं । पश्चिमने कम महत्त्वपूर्ण अर्थ को केन्द्रस्थान में रखकर अपने और विश्व के सही विकास के मार्ग को ही अवरुद्ध कर दिया है। |
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| + | जीडीपी यदि इतना अवांछनीय मापदण्ड है तो उसे बढाने के उपाय करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । भारत का जन सामान्य इसे समझे और विद्वान इस पर शास्त्रार्थ कर उसके अस्वीकार की भूमिका बनाये, साथ ही उसका पर्याय प्रस्तुत करे यही उपाय है । |
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| + | ==== प्रश्न ५ आन्तर्राष्ट्रीय मानक कौन निर्धारित करता है ? भारत तथा विश्व के अन्यान्य देश उन्हें क्यों मानते हैं ? ==== |
| + | उत्तर |
| + | # आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड अमेरिका बनाता है क्योंकि वह विश्व का नम्बर वन देश है। |
| + | # आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड संयुक्त राष्ट्रसंघ बनाता है । जो देश संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य होते हैं उन्हें यह लागू होता है इसलिये वे इसे मानते हैं। |
| + | # आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड वैश्विक हैं। आज वैश्विकता का जमाना है इसलिये जिस किसी देश को विकसित और वैश्विक होना है उसे इन मापदण्डों को मानना चाहिये । आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड पर कसे जाने से मूल्य बढ़ जाता है। इसलिये तो कई बार विज्ञापनों में ‘आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड के अनुसारन निर्मित ऐसा लिखा हुआ होता है।' आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड को प्रतिष्ठा होती है इसलिये लोग उनमें अपनी सन्तानों को भेजते हैं। |
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| + | वास्तव में आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड संयुक्त राष्ट्रसंघ अथवा उसके द्वारा मान्य संस्थायें बनाती हैं। कई बार संयुक्त राष्ट्रसंघ के दायरे से बाहर की संस्थायें भी ऐसा मापदण्ड तैयार करती हैं। |
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| + | इन्हें मानना कब अनिवार्य है ? जब अन्य देशों के साथ व्यवहार करना है अथवा आन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवहार करना है तब इन्हें मानना अनिवार्य है। उदाहरण के लिये आन्तर्राष्ट्रीय मानक नहीं अपनाये हैं तो कोई शोधपत्रिका आन्तर्राष्ट्रीय नहीं बन सकती और उन्हीं मानकों के बिना ऐसी पत्रिका में किसी अध्येता का शोध प्रबन्ध प्रकाशित नहीं हो सकता। आन्तर्राष्ट्रीय मानकों को नहीं अपनाया है तो विश्वविद्यालय को आन्तर्राष्ट्रीय का दर्जा प्राप्त नहीं हो सकता, कभी कभी तो इन मानकों को नहीं मानना आपराधिक भी बन जाता है। उदाहरण के लिये चिकित्साशास्त्र में एलोपथी द्वारा मान्य नहीं है ऐसा उपचार करना अपराध माना जाता है । |
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| + | परन्तु मुख्य रूप से सन्दर्भ आर्थिक होता है। उदाहरण के लिये आप किसी बिमारी का उपचार जानते हैं और करते हैं परन्तु वह प्रमाणित नहीं है । तब आप उपचार तो कर सकते हैं परन्तु उसका पैसा नहीं ले सकते । यदि कोई उसके विरुद्ध शिकायत करता है, नुकसान होने का दावा करता है तब भी वह अपराध बनता है । यदि वह आन्तर्राष्ट्रीय मानकों द्वारा मान्य है और तथापि उससे नुकसान होता है तो वह उपचार को दोष नहीं माना जाता, दवाई का भी नहीं माना जाता, व्यक्ति का हो सकता है अथवा वह संयोग हो सकता है। |
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| + | आज के सारे आन्तर्राष्ट्रीय मापदण्ड पश्चिमी जीवनदृष्टि के अनुसार बने हैं । इसलिये अनेक बातों में भारत उसे मान्य नहीं कर सकता । उदाहरण शिक्षा के क्षेत्र का ही लें। पश्चिम की अनुसन्धान पद्धित को भारत मान्य नहीं कर सकता । परन्तु विडम्बना है कि उसे मान्य करना पडता है क्योंकि भारत ने अपनी प्राचीन अनुसन्धान पद्धति को युगानुकूल स्वरूप देकर पुनर्जीवित नहीं किया । इसलिये भारत को पुनः धार्मिक ज्ञान की साधना कर, उसे पुनर्जीवित कर अपने लिये और विश्व के लिये मापदण्ड बनाने चाहिये। |
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| + | ==== प्रश्न ६ भारत में लोकतन्त्र १९४७ में प्रारम्भ हुआ इसके कारण क्या हैं ? इसके परिणाम क्या हैं ? ==== |
| + | उत्तर |
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| + | #लोकतन्त्र ब्रिटीशों की देन है। भारत तो असंख्य छोटे छोटे राज्यों में विभाजित था। सबके राजा थे। मुसलमानों के राजग्रहण करने के बाद उनके भी राज्य होने लगे और वे नवाब कहलाने लगे । राजा और नवाब विलासी होते थे और परस्पर लडते झघडते रहते थे । ब्रिटीशों ने इनको नियन्त्रित किया, अपने अधीन बनाया, भारत को एक राष्ट्र बनाया और सर्वजन समाज की देश को चलाने में समान रूप से सहभागिता हो ऐसी लोकतन्त्रात्मक राज्यव्यवस्था दी । अनेक प्रकार से ब्रिटीशों ने भारत का नुकसान किया होगा परन्तु लोकतन्त्र जैसी शासनप्रणाली देकर उसने हमारा बहुत बडा उपकार किया है । इसलिये उनके जाने के बाद भी हमने उस व्यवस्था को बनाये रखा। |
| + | #राजाओं और नवाबों के समय में प्रजा का कोई सम्मान नहीं था । कर्ताधर्ता राजा ही होते थे, प्रजा तो अधिकार हीन थी। जबकि लोकतन्त्र में प्रजा को अधिकार प्राप्त हुआ। ऊँचनीच के भेद समाप्त हुऐ । वह एक आदर्श व्यवस्था है। |
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| + | <nowiki>******************</nowiki> |
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| + | लगभग सभी उत्तरदाताओं का इसी प्रकार का मत था । ये ही क्यों हमारी लगभग सभी पाठ्यपुस्तकें लोकतन्त्र को उत्तम और आदर्श शासनप्रणाली ही बताती हैं। अब हम राजाओं और नवाबों की कल्पना भी नहीं कर सकते । हमारे ही जैसा कोई एक व्यक्ति राजा कैसे हो सकता है और केवल राजा का पुत्र है इसलिये राजा कैसे हो सकता है ? वह बडी अतार्किक व्यवस्था है। लोकतन्त्र में किसी भी सामान्यतम व्यक्ति को प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति बनने का अवसर होता है। यह मनुष्य का गौरव करने वाली व्यवस्था है इसलिये हमने उसे अपनाया है। |
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| + | परन्तु ऐसा कहने वाले और मानने वाले लोग भूल जाते हैं कि सहस्रकों से यह देश राजाओं वाली शासनप्रणाली से ही चलता आया है और आज भी राज्यव्यवस्था का आदर्श रामराज्य ही है । रामराज्य केवल एक निकष पर आदर्श माना जाता है । वह उक्ति है 'रामराज्य में प्रजा सुखी' । अर्थात् प्रजा का सुखी होना ही राजा का कर्तव्य है। |
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| + | फ्रान्स के एक विद्वान का कथन है 'डेमोक्रसी विदाउट एज्यूकेशन इझ हिपोक्रसी विदाऊट लिमिटेशन ।' बिना शिक्षा के लोकतन्त्र अन्तहीन दम्भ है । वर्तमान लोकतन्त्र को देखते हुए क्या यह कथन सत्य नहीं लगता । धार्मिक समझ के अनुसार शासन और प्रशासन चलाना साधारण लोगोंं का काम नहीं है । वे दोनों विभाग तो शिक्षित लोगोंं की ही अपेक्षा करते हैं। शासक और प्रशासक शस्त्र शास्त्र और शीलसम्पन्न होना अनिवार्य है। वर्तमान शासनप्रणाली में प्रशासक के लिये शास्त्र आवश्यक है, शस्त्र और शील नहीं । शील उतना ही आवश्यक है जिसे कानून अथवा स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट 'गुड केरेक्टर' के रूप में लिखकर देता है । एक सांसद या विधायक को तो शास्त्र की भी अनिवार्यता नहीं है । ऐसा लोकतन्त्र देश को कैसा चलायेगा यह हम समझ सकते हैं। |
| + | |
| + | 'लोकतन्त्र' धार्मिक भाषा का ही नहीं तो धार्मिक विचार का भी शब्द है। इसे देश को अंग्रेजी का परिचय हआ उसके पूर्व से लोकतन्त्र शब्द प्रयुक्त होता रहा है, गणतन्त्र शब्द भी रहा है, परन्तु उत्तम प्रणाली तो राजतन्त्र ही रही है। राजा को प्रजा का सेवक ही कहा है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में तो राजा को प्रजा का वेतनभोगी नौकर ही कहा है। अर्थात् भारत के राजतन्त्र में अधिकार तो प्रजा का ही है। 'राजा' शब्द की व्युत्पत्ति है 'प्रजानुरंजनात् राजा' अर्थात् प्रजा खुश रहती है इसलिये जो खुश रहता है वह राजा कहा जाता है । |
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| + | राजा को शासन करने देना या नहीं इसका निर्णय करने का अधिकार प्रजा की बनी सभा और समिति का है । |
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| + | महाभारत के शान्तिपर्व में कहा है कि जो राजा 'मैं प्रजा की रक्षा करूँगा' ऐसी प्रतिज्ञा कर राज्यसिंहासन पर बैठता है वह यदि प्रजा की रक्षा नहीं करता है तो पागल कुत्ते के समान पथ्थर मारकर उसकी हत्या करनी चाहिये । ___ भारत लोकतन्त्र का समर्थक है 'डेमोक्रसी' का नहीं । परन्तु हम अज्ञानवश और पश्चिम के प्रभाव में आकर डेमोक्रसी के । अनुवाद के रूप में लोकतन्त्र को समझते हैं । इस अज्ञान को दूर करने का काम राजनीतिशास्त्र के अध्यापकों का है । ऐसा सही ज्ञान प्राप्त करने के बाद हम लोकतन्त्र को सम्यक् रूप में समझ पायेंगे। |
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| + | ==== प्रश्न ७ अमेरिका की ऐसी दो बातें बातइये जो आपको पसन्द नहीं है । दो ऐसी भी बताइये जो आपको पसन्द है। ==== |
| + | उत्तर |
| + | #मुझे अमेरिका के लोग कानून का पालन करते हैं वह और वहाँ स्वच्छता बहुत अच्छी है ये दो बातें अच्छी लगती हैं । वहाँ भारत के जैसी कुटुम्ब व्यवस्था नहीं है वह और वहाँ लोग कभी स्थिर नहीं बैठते ये दो बाते अच्छी नहीं लगती। |
| + | #वहाँ सारे सम्बन्ध औपचारिक हैं और वहाँ किसी को किसी की नहीं पड़ी है ये दो बातें अच्छी नहीं लगती। वहां यातायात का अनुशासन बहुत अच्छा है और रास्तों पर ट्रैफिक जेम की समस्या नहीं होती ये दो बातें बहुत अच्छी लगती है। |
| + | #वहाँ बच्चोंं के मातापिता साथ नहीं रहते क्योंकि उनका विवाह विच्छेद हआ है। वहाँ बच्चे सोलह वर्ष के होते हैं तब मातापिता का उनके प्रति दायित्व समाप्त हो जाता है । ये दो बातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं । वहाँ सब अपना काम स्वयं कर लेते हैं । वहाँ साफसफाई करने के लिये भी यन्त्र होते हैं । ये दो बातें मुझे अच्छी लगती हैं। |
| + | #अमेरिका में पर्यावरण का प्रदूषण बहत होता है क्योंकि वहाँ प्राकृतिक सम्पदा का शोषण होता है। अमेरिका में लोगोंं के मन अत्यधिक उत्तेजनाग्रस्त रहते हैं । पहली बात के लिये मुझे नाराजगी होती है और दूसरी बात के लिये उसकी दया आती है। वहाँ सामाजिक बदनामी जैसा कुछ नहीं है । दैनन्दिन जीवन में भ्रष्टाचार नहीं है। ये दो बातें मुझे अच्छी लगती हैं। |
| + | #अमेरिका में किसी को खर्च की सीमा आँकना नहीं आता । बैंक के ऋण ले लेकर वे अपना खर्च करते हैं । वहाँ बचत नाम की कोई बात नहीं है । ये दो बातें मुझे जरा भी उचित #अमेरिका में ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र का बहुत विकास हुआ है। हार्वर्ड और एमआईटी जैसे विश्वविद्यालय और नासा जैसी अनुसन्धान संस्था विश्व में सर्वश्रेष्ठ है । यह विश्वभर के विद्वानों को आकर्षित करता है। दूसरा, अमेरिका समृद्ध देश है। उस पर प्रकृति की बडी कृपा है । इन दो कारणों से मुझे अमेरिका अच्छा लगता है । परन्तु अमेरिका इन्हीं दो कारणों से विश्व पर वर्चस्व जमाने का प्रयास करता है, विश्व को अपनी तरह चलाना चाहता हैं। साथ ही वह बाजार के माध्यम से अन्य देशों की सम्पत्ति छीनने का प्रयास करता है । ये दो बातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं । |
| + | #अमेरिका विश्व में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये आतंकवाद को बढावा देने में भी संकोच नहीं करता । वह स्वार्थप्रेरित हिंसा का आश्रय लेता है। दूसरा, इतने समृद्ध देश में भी बेरोजगारी और भुखमरी तो है ही। इसका अर्थ है कि वह देश को चला नहीं सकता । इसलिये मुझे अमेरिका अच्छा नहीं लगता । ये दो इतनी बड़ी बातें हैं कि उन के सामने और कोई अच्छी बात टिक नहीं सकती। तथापि आप क्या अच्छा लगता है यह भी पूछ रहे हैं इसलिये बताता हूँ कि वहां के रास्ते, वहाँ के बड़े बड़े भवन और वहाँ यातायात की सुविधा मुझे अच्छे लगते हैं। |
| + | #अमेरिका भौतिक दृष्टि से आगे होगा परन्तु उसकी समृद्धि हिंसक है । साथ ही सांस्कृतिक दृष्टि से वह बहुत ही पिछडा देश माना जायेगा । सामाजिक स्तर पर अकेलापन और व्यक्तिगत स्तर पर शान्ति और सन्तोष का अभाव इस देश के भविष्य को धूमिल बना रहे हैं । उसे मानसिक स्थिरता सिखाने की आवश्यकता है । इन दो बातों के सामने और यदि कोई अच्छी बातें रहीं तो भी वे निरर्थक हैं। इसलिये छोटी छोटी अच्छी बातों का मैं उल्लेख ही नहीं कर रहा हूँ। विश्व को अमेरिका से सावध रहने की आवश्यकता है। |
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| + | अमेरिका के विषय में इन अभिप्रायों को पढकर अब टिप्पणी करने के लिये क्या शेष रह जाता है ? लगता है कि लोग अमेरिका के बारे में प्रशंसा पूर्ण बातें करते हैं आकर्षित होते हैं तो भी सच्चाई भी जानते हैं। जो अन्तिम अभिप्राय मिला कि विश्व को अमेरिका से सावध रहने की आवश्यकता है वही सभी बातों का सार है। |
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| + | ==== प्रश्न ८ विश्व पर छाये हुए दो भीषण संकटों को दूर करने के लिये भारत क्या कर सकता है ? - ==== |
| + | उत्तर |
| + | # मेरे मतानुसार भारत अपने आपको समर्थ माने यह प्रथम आवश्यकता है । अभी भारत अमेरिका से बहुत दब गया है। दबने का कोई कारण नहीं है तो भी दबा हआ है इसका अर्थ मनोवैज्ञानिक है। इस ग्रन्थि को छोड़ने के बाद ही भारत कुछ भी कर सकता है । दबा हुआ व्यक्ति या दबा हुआ समाज दूसरों को क्या परामर्श दे सकता है ? इसलिये प्रथम तो भारत को अपने आपके लिये ही प्रयास करने होंगे। |
| + | # भारत प्रथम तो अपने से छोटे जितने भी देश हैं, उनमें से जो अमेरिका के दबाव में नहीं हैं, उन्हें लेकर अमेरिका की पर्यावरण के प्रदूषण करनेवाली गतिविधियों के विरुद्ध जनमत तैयार करे । साथ ही अपने तरीके से प्रदूषण के कारणों का और उसे दूर करने के उपायों का निरूपण करे । विश्व के देशों के लिये एक विधिनिषेध की मार्गदर्शिका तैयार करे । फिर उसका प्रचार करे और व्यवस्था पर जिनका प्रभाव है उनके साथ चर्चा करे । पर्यावरण का प्रदूषण चर्चा और कृति से ही रुक सकता है, राजनीति और सैन्य से नहीं । इसलिये भारत अपने तरीके से प्रदूषण मुक्त जीवनचर्या का नमूना तैयार करे, उसे अपनाये और उसके लाभ विश्व के समक्ष रखे । |
| + | # भारत ही आज अमेरिका का अनुकरण कर रहा है । यदि हम कहते हैं कि अमेरिका ही प्रदूषण के लिये जिम्मेदार है तो प्रथम तो हमें अमेरिका का अनुकरण छोड देना चाहिये । उसके बाद ही हम कुछ कर सकते हैं । |
| + | # अमेरिका आज पश्चिम का पर्याय बन गया है । पश्चिम विश्व का पर्याय बन गया है। जो बात अमेरिका में होती है वह विश्व के लिये ही होती है ऐसी विश्व की और अमेरिका की समझ बनी है। हमें इस समझ से मुक्त होना है। सही में वैश्विकता के मापदण्ड कौन से हो सकते हैं इसका विचार करना चाहिये । आज तो ऐसा लगता है कि विश्व के अनेक राष्ट्रों को अपने तरीके से विचार करने की, अपना देश चलने की स्वतन्त्रता ही नहीं है । इसका हल निकालने हेतु भारत को प्रथम अपना स्वतन्त्र चिन्तन विकसित करना होगा। |
| + | # भारत स्वयं अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है । वह अपनी समस्यायें तो सुलझा नहीं सकता, उस स्थिति में विश्व की सहायता कैसे कर सकता है ? भारत को अपने आप पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिये । |
| + | # अनेक भाषणों में हम सुनते हैं कि भारत विश्वगुरु था और आज भी वह विश्वगुरु है। लोग स्वामी विवेकानन्द के शिकागो भाषण का उदाहरण देते हैं, श्री अरविन्द की भविष्यवाणी का सन्दर्भ देते हैं । परन्तु भारत इन महापुरुषों की बाते स्वयं भी तो समझता नहीं है । ऐसी स्थिति में वर्तमान से मुँह मोडकर अतीत के गौरव की बातें करना केवल कल्पनाविलास है। उससे अपने देश की समस्या भी नहीं सुलझेगी । विश्व की बात तो दूर की है। |
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| + | सबका अभिप्राय सुनकर लगता है कि भारत और विश्व के विषय में लोगोंं का आकलन तो सही है। लोग समस्या को तो समझ रहे हैं परन्तु उपाय किसी के पास नहीं है। ऐसा इसलिये होता है कि सब मानते हैं कि उपाय दूसरों ने खोजने चाहिये । उपायों की जिम्मेदारी किसी की नहीं होने के कारण समस्याओं का कथन ही होता रहता है उपायों की चर्चा कम होती है । प्रश्न तो सुलझता नहीं, दुःख और निराशा बढ़ते हैं। |
| + | |
| + | ==== प्रश्न ९ आपके मतानुसार विश्व के देशों का वर्गीकरण करने के सही मापदण्ड कौन से हो सकते हैं ? ==== |
| + | उत्तर इस प्रश्न के जो उत्तर मिले उनमें अधिकांश मापदण्ड आर्थिक ही थे, जैसे कि विकसित, विकासशील और अविकसित, निर्धन और गरीब, आधुनिक और पुरातनवादी आदि । विकसित, विकासशील और अविकसित का आधार आर्थिक ही था । और एक वर्गीकरण है इस्लामिक, इसाई, हिन्दू और पेगन अर्थात् इस्लाम और इसाइयत के उद्भव से पूर्व जो सम्प्रदाय थे उनका अनुसरण करनेवाले । |
| + | |
| + | वर्गीकरण के और भी प्रकार हो सकते है। जैसे कि शिक्षित और अर्धशिक्षित, सुसंस्कृत और असंस्कृत, लोकतान्त्रिक और गैरलोकतान्त्रिक, साम्प्रदायिक और सेकुलर आदि । परन्तु सबसे मूलगत वर्गीकरण है भौतिक और आध्यात्मिक । वर्गीकरण का यह मापदण्ड भारत का मौलिक मापदण्ड है क्योंकि विश्व के अन्य देशों में अध्यात्म संकल्पना है ही नहीं। |
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| + | ==== प्रश्न १० विश्व पर छाया हुआ आतंकवाद का संकट कैसे दूर हो सकता है ? ==== |
| + | उत्तर |
| + | # आतंकवाद को मिटाने हेतु भारत को कठोर सैनिक कारवाई करनी चाहिये । उनके साथ बातचीत करने का कोई लाभ नहीं है। लातों के भूत बातों से नहीं मानते |
| + | # आतंकवादियों में अधिकांश संख्या युवकों की होती है। ये सब उच्चशिक्षित और आधुनिक तन्त्रज्ञान में माहिर होते हैं । वे चाहे तो उन्हें अच्छी खासी नौकरी मिल सकती है । तो भी वे सब छोडकर आतंकवादी बन जाते हैं और अपने लिये खतरे मोल लेते हैं। इस स्थिति का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना चाहिये और उन्हें परावृत करने के उपाय खोजने चाहिये। |
| + | # आतंकवादी के नाम पर केवल कश्मीर या अन्य स्थानों पर चलने वाला इस्लामिक आतंकवाद ही नहीं समझना चाहिये । माओवाद, नकसलवाद, साम्यवाद, इसाइयों का धर्मान्तरण आदि सब आतंकवाद के ही विभिन्न आयाम हैं। इन सबका एक साथ विचार करने पर लगता है कि ये सब किसी न किसी प्रकार से अपने आप को अन्याय के शिकार हुए मानते हैं इसलिये वे शासन के विरुद्ध विद्रोह करते हैं । शासन को चाहिये कि वे उनकी गलतफहमी को दूर करे और उन्हें सन्तुष्ट करके और समझाकर उन्हें सही राह पर चलने में सहायक बने । |
| + | # प्रत्यक्ष आतंकवादियों से भी आतंकवादियों का सूत्रसंचालन करने वाले संगठन, उन्हें आश्रय तथा सहायता देने वाले, भडकाने वाले देश अधिक खतरनाक हैं। उन पर कारवाई करने से आतंकवाद नष्ट होगा । उदाहरण के लिये काश्मीर पर होनेवाले आतंकी हमलों के लिये पाकिस्तान जिम्मेदार है इसलिये पाकिस्तान के विरुद्ध कारवाई करने से आतंकवाद नष्ट होगा। |
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| + | |
| + | इन उत्तरों से ध्यान में आता है कि उच्च शिक्षित हो या सामान्य, लोगोंं को आतंकवाद के विषय में खास कुछ पता ही नहीं है। |
| + | |
| + | आतंकवाद केवल भारत में ही है ऐसा नहीं है। वह एक वैश्विक संकट है। इस्लामिक आतंकवाद इसका एक प्रमुख अंग है। इसका मूल मजहबी कट्टरवाद है । यह सेमेटिक मजहबों की मूल धारणा से उद्भूत संकट है। धारणा यह है कि हमारा मजहब ही सही है, अन्य सारे मजहब नापाक हैं । जो नापाक मजहब है उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं है। उन्हें समाप्त कर देना चाहिये । जो गैरमजहबी है उसे समाप्त कर देना हमारा पवित्र कर्तव्य है, उससे पुण्य मिलेगा और जन्नत में स्थान मिलेगा। जन्नत में अनेक अप्रतिम भोगविलास के साधन होंगे। अधिकांश पढे लिखे शिक्षित आतंकवादी जन्नत के भोगविलासों के आकर्षण से प्रेरित होकर आतंकी गतिविधियों में लगे रहते हैं। नापाक लोगोंं को या तो हमारे मजहब का स्वीकार करना चाहिये । ये मजहब सहअस्तित्व में विश्वास नहीं करते । |
| + | |
| + | सहअस्तित्व में नहीं मानने वाले इसाई भी है, साम्यवादी भी हैं । साम्यवाद का तो सिद्धान्त ही विनाशवादी है । हम उत्तम अर्थवाले शब्दों को विनाश का पर्याय बना देते हैं। स्थापित व्यवस्था को तोड दो, उसके स्थान पर जिनको स्थापित व्यवस्था तोडने का पुण्य मिला है उन्हें स्थापित करो, और उसके स्थापित होते ही, चूँकि वह स्थापित है इसलिये उसे तोडों - ऐसा तोडफोडवादी सिद्धान्त भी आतंकवाद का ही लघुरूप है । सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न स्वरूपों में आतंकवाद फैला हुआ है। जब सहअस्तित्व में नहीं माननेवाले मजहबों का संघर्ष होता है तब वह और भी भीषण होता है। । इसाइयत और इस्लाम का संघर्ष ऐसा ही है । इस्लाम के अलग अलग खेमे भी आपस में संघर्षरत हैं । साम्यवाद तो जो कुछ भी ठीक चलता है उसके विरुद्ध संघर्षरत है । यह संघर्ष ही इन सब का परमधर्म है, जीवनकार्य है। |
| + | |
| + | आतंकवाद के भारत के साथ संघर्ष का रूप विशिष्ट है । भारत सहअस्तित्व में माननेवाला राष्ट्र है जबकि आतंकवादी सहअस्तित्व में नहीं मानते हैं। यदि भारत भी सहअस्तित्व में नहीं माननेवाला देश होता तो संघर्ष का रूप भिन्न होता । सहअस्तित्व में न केवल माननेवाला अपितु उसका आदर करनेवाला राष्ट्र सहअस्तित्व में नहीं माननेवाले और विनाश पर उतारू खेमों के साथ कैसा व्यवहार करे इसका ज्ञानात्मक, राजनयिक और सामरिक विचार करने की और उसके आधार पर रणनीति और व्यूहरचना बनाने की आवश्यकता है। ज्ञानात्मक दृष्टि से समस्या को समझना, राजनयिक दृष्टि से व्यूहरचना करना और सामरिक दृष्टि से कृति करना ही आतंकवाद को समाप्त करने का सही मार्ग होगा । चाणक्य जैसे नीतिज्ञ तो यही कहेंगे। |
| + | |
| + | ==== प्रश्न ११ भारत में विश्वगुरु बनने की क्या योग्यता है ? ==== |
| + | उत्तर |
| + | # आज का भारत विश्वगुरु बनने का न तो दावा कर सकता है न इच्छा । यदि करता है तो वह हास्यास्पद होगा क्योंकि धन, ज्ञान, बल और सत्ता में से एक भी बात उसके पास नहीं है । मुझे तो लगता है कि भारत विश्वगुरु था यह भी एक कल्पना ही होनी चाहिये, वास्तविकता नहीं । |
| + | # मैं मानता हूँ कि भारत कभी विश्वगुरु रहा होगा । परन्तु प्रत्येक राष्ट्र के जीवन में चढाव और उतार आते ही हैं। आज भारत की स्थिति विपरीत हो गई है, उसने यूरोप के समक्ष अपनी पराजय को स्वीकार कर लिया है। वह पश्चिम के अधीन हो गया है, पश्चिम की बुद्धि से चल रहा है । आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी शैली का स्वीकार कर लिया है। ऐसा भारत विश्वगरु कैसे बन सकता है ? तथापि भारत में विश्वगुरु बनने की सम्भावना अवश्य है। ऐसा बनने के लिये भारत अपने आपको पश्चिम से श्रेष्ठ सिद्ध करे यह आवश्यक है। |
| + | # विश्वगुरु बनने के लिये भारत को आधुनिक विश्व की शैली को अपनाकर उसमें ही पश्चिम से आगे निकलना होगा। भारत के लोगोंं को परमात्मा ने पश्चिम के लोगोंं से अधिक बुद्धि, कार्यकुशलता और मनोबल दिये हैं। ये सब दुर्लभ गुण हैं । इन गुणों का व्यवस्थित पद्धति से विकास किया जाय तो भारत देखते ही देखते विश्वगुरु बन सकता है। |
| + | # भारत जब विश्वगुरु था तब विश्व के अन्य देश अविकसित थे। आज अब अन्य देश विकसित हो गये हैं। विकास का प्रतिमान बदल गया है। आज के प्रतिमान का जनक अमेरिका है। आज विश्वगुरु के स्थान के लायक अमेरिका नहीं तो और कौन हो सकता है ? भारत को विश्वगुरु बनने के लिये अमेरिका से स्पर्धा करनी होगी और उससे आगे निकलना होगा । मैं नहीं मानता कि भारत कम से कम सौ वर्ष तक विश्वगुरु बनने की कल्पना भी कर सकता है। |
| + | <nowiki>******************</nowiki> |
| + | |
| + | इन अभिप्रायों का सार यह है कि भारत में विश्वगुरु बनने की योग्यता नहीं है। यह एक स्वीकृत तथ्य है कि आज अमेरिका नम्बर वन है और वह उस स्थान के योग्य है । तीसरा मुद्दा यह है कि पश्चिम को अपनाकर ही विश्वगुरु बना जा सकता है । यदि भारत पश्चिमी शैली अपनाता है तो विश्वगुरु बनने की सम्भावना बनती है। |
| + | |
| + | परन्तु विश्वगुरु बनना कोई खेल, उत्पादन, ज्ञान की परीक्षा में प्रथम क्रमांक से उत्तीर्ण होना नहीं है। भारत के मानने या कहने पर भारत विश्वगुरु नहीं बनेगा, विश्व जब भारत को गुरु मानेगा तब भारत विश्वगुरु बनेगा । विश्व के राष्ट्रों को पराजित कर भारत विश्वगुरु नहीं बन सकता, सबका आदर, श्रद्धा और विश्वास सम्पादन कर, सब के हृदयों को जीतकर भारत विश्वगुरु बन सकता है। एसा करने के लिये उसे किसी प्रकार की स्पर्धा में उतरने की आवश्यकता नहीं है। दूसरों की शैली अपनाकर उससे आगे निकलना यह तो दूसरे को स्पर्धा में परास्त करने के बराबर है। विश्वगुरु बनने का यह मार्ग नहीं है। |
| + | |
| + | विश्व की समस्याओं को दूर करने में सहायता करना, सही मार्ग का ज्ञान देना संकटों से मुक्त होना सिखाना, दूसरों की स्वतन्त्रता और सम्मान की रक्षा करना विश्वगुरु बनने की योग्यता है । इन सभी बातों में अपना उदाहरण प्रस्त करना एकमेव तरीका है। |
| + | |
| + | मनुस्मृतिकार ऐसे श्रेष्ठ चरित्र का वर्णन करते हुए कहते हैं । <blockquote>एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । </blockquote><blockquote>स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवाः ।। </blockquote>अर्थात् |
| + | |
| + | इस देश में प्रथम क्रम में जन्मे लोगोंं से पृथ्वीतल के सर्व मानव अपने अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें । |
| + | |
| + | इस प्रकार अपने उदाहरण से विश्व के सभी राष्ट्रों को अपनी जीवनशैली बदलने की जो प्रेरणा देता है, अपने चरित्र का विकास करने में जो सहायता और मार्गदर्शन प्रदान करता है वह विश्वगुरु बनता है। |
| + | |
| + | भारत में ऐसी सम्भावना अवश्य है परन्तु उसे अनेक प्रयत्नों से योग्यता अर्जित करनी होगी। सम्भावनायें वस्तुस्थिति तभी बनती हैं जब उसे तपश्चर्या और साधना का खादपानी मिलता है । भारत ऐसा करे ऐसी विश्व उससे अपेक्षा करता है। |
| + | |
| + | ==== प्रश्न १२ विश्व में शिक्षाक्षेत्र की भूमिका क्या होनी चाहिये ? ==== |
| + | उत्तर : |
| + | |
| + | भारत में तो क्या सम्पूर्ण विश्व में शिक्षा की भूमिका एक साधन के रूप में ही होगी । वह जिसके हाथ में होगी वह अपने हित में उसका प्रयोग करेगा । कभी वह धनवानों का तो कभी सत्तावानों का साधन बनती है । बलवानों को शिक्षा की खास आवश्यकता नहीं होती, बल ही पर्याप्त होता है। |
| + | |
| + | धनवानों के हाथ में शिक्षा धन बढाने के और सत्तावानों को सत्ता स्थापित करने में सहायता करती है। अध्यापक और विद्यार्थी यह सब सिखाते और सीखते हैं और बदले में वेतन पाते हैं। |
| + | |
| + | परन्तु भारत का विचार अलग है। भारत के अनुसार शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था है और धर्म सिखानेवाली है। वह सर्वत्र धर्म का साम्राज्य प्रस्थापित करने वाली है, अर्थ और सत्ता को भी धर्म के अविरोधी बनाने वाली है। |
| + | |
| + | शिक्षाक्षेत्र के लोगोंं के दो ही पद हैं, शिक्षक और विद्यार्थी, उनका प्रमुख कार्य है ज्ञानर्जन करना । परिस्थिति का, घटनाओं का, व्यक्तियों के या राष्ट्रों के व्यवहारों का आकलन करना और समस्याओं का ज्ञानात्मक हल खोजना । शिक्षक और विद्यार्थियों का कर्तव्य है कि वे प्रजाको ज्ञानवान बनायें, ज्ञान की पवित्रता और श्रेष्ठता की रक्षा करें और धर्म का अनुसरण करें । शिक्षक जगत को हित और सुख को पहचानना सिखाये और सुख की अपेक्षा हित के सम्पादन करने में उनकी सहायता करे, मार्गदर्शन दे। |
| + | |
| + | ==== प्रश्न १३ कल्पना करें कि भारत के प्रधानमन्त्री विश्व के अन्यान्य देशों में कार्यरत धार्मिक वैज्ञानिकों, प्राध्यापकों, डॉक्टरों, इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों को आवाहन कर कहते हैं कि भारत वापस आ जाओ, देश को आपकी आवश्यकता है, तो क्या होगा ? ==== |
| + | उत्तर |
| + | # ऐसा यदि आवाहन करते हैं और वे सब भारत में वापस आ जाते हैं तो देश को बहुत लाभ होगा। देश का विकास होगा। प्रधानमन्त्री ने ऐसा आवाहन करना ही चाहिये । |
| + | # परन्तु यह सम्भव नहीं है । ऐसे उच्च श्रेणी के लोगोंं को काम दे सके, सुविधायें दे सके, उनकी कदर बूझ सके ऐसी क्षमता ही भारत में नहीं है । वे आयेंगे तो भी यहाँ का वातावरण और व्यवस्था देखकर वापस चले जायेंगे । प्रधानमन्त्री का आवाहन भावात्मक है, व्यावहारिक नहीं क्योंकि वे भी व्यवस्था नहीं दे पायेंगे । |
| + | # प्रधानमंत्री जीवनयापन की और काम करने की अच्छी से अच्छी सुविधा यदि दे भी दें तो भी जिन्हें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया या अरब देशों का धन और विलास का स्वाद लग गया है वे वापस आना पसन्द नहीं करेंगे। |
| + | # भारत से विदेशों में गये हुए लोग भारत के निन्दक हो जाते हैं यह सबका अनुभव है । भारत की सडकें, भारत का यातायात, भारत के लोगोंं की आदतें और रहनसहन, भारत की गर्मी और गन्दगी उन्हें जरा भी नहीं सुहाती । इसलिये वे भारत आना पसन्द नहीं करते। |
| + | <nowiki>******************</nowiki> |
| + | |
| + | इन उत्तरों को देखते हुए समझ में आता है कि धार्मिक लोगोंं की मानसिकता कितनी देशनिरपेक्ष बन गई है । जिस देश में जन्म लिया, जिस देश के जलवायु ने पोषण किया, जहाँ के अध्यापकों ने शिक्षा दी, जिस देश की प्रजा के पैसे और व्यवस्था से शिक्षा प्राप्त की, जिन मातापिता ने कष्ट उठाकर पालन किया उनके प्रति किसी भी प्रकार का लगाव ही नहीं होना, केवल धन ही दिखाई देना केवल अपनी सुविधा का विचार करना, जिनके कारण लायक बने उनके प्रति कृतज्ञ नहीं होना, अध्ययन और अनुसन्धान करने के अथवा अधिक धन कमाने के अथवा स्वर्ग के नन्दनवन जैसे भोगविलास के साधन पाने के अवसर नहीं होना और इस कारण से देश, देशवासी और सरकार को उलाहना देना या उनकी आलोचना करना चरित्र के कौन से गुण का निदर्शन करता है ? ज्ञान-सम्पादन करने हेतु विश्व में कहीं भी जाया जाता है। परन्तु ज्ञान का विनियोग करने हेतु स्वदेशमें ही रहना होता है यह कितनी सामान्य बात है । इस बात का विस्मरण होना, किसी के द्वारा स्मरण करवाने पर उसकी उपेक्षा करना अथवा उसके बारे में तर्कवितर्क करना किस बात का संकेत है ? केवल इसका ही कि वर्तमान भारत के लोगोंं को कृतज्ञता, आदर, सम्मान, देश का गौरव, देश की अस्मिता, देशभक्ति आदि कुछ भी सिखाया नहीं गया है, केवल स्वार्थ साधना ही सिखाया गया है। यह शिक्षा का बहुत बडा दोष है। इस दोष को यदि जानते हैं तो प्रधानमन्त्री ऐसा आवाहन करने का साहस ही नहीं करेंगे क्योंकि उस आवाहन की उपेक्षा होगी, अवमानना होगी, उसके स्वीकार के लिये तरह तरह की शर्ते रखी जायेंगी, उस आवाहन की संचार माध्यमों द्वारा और विरोध पक्षों द्वारा आलोचना होगी और सोशल मीडिया पर उसका मजाक होगा । अतः आवाहन करने के स्थान पर प्रधानमन्त्री को चाहिये कि वे भारत के समस्त प्रजाजनों के लिये धर्मकी, राष्ट्रधर्म की शिक्षा अनिवार्य बनायें । ताकि भविष्य में ऐसा आवाहन करने का अवसर ही न आये, शिक्षित लोग अपने देश की सेवा को ही अपनी शिक्षा का लक्ष्य मानें । ऐसा करना क्या असम्भव है ? |
| + | |
| + | ==== प्रश्न १४ मान लीजिये कि भारत में रहनेवाला और भारत में प्रवेश करने वाला या अपने आपको धार्मिक कहलानेवाला प्रत्येक व्यक्ति अंग्रेजी से पूर्ण रूप से अपरिचित हो जाय तो क्या होगा ? ==== |
| + | उत्तर |
| + | # यह तो बड़ी आपदा होगी, दैवी आपदा होगी । अंग्रेजी के अभाव में हम विश्व भर के आधुनिक ज्ञान से वंचित हो जायेंगे । हमें विश्व के अन्य देशों में जाने में असुविधा हो जायेगी । ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र के अधिकतर ग्रन्थ अंग्रेजी में होते हैं । हम उनसे वंचित हो जायेंगे। अतः ऐसा नहीं होना चाहिये, हो भी नहीं सकता, आप केवल भयभीत कर रहे हैं। |
| + | # हमारे देश में कई ऐसे लोग हैं जिनकी प्रथम भाषा अंग्रेजी है । कई ऐसे हैं जिन्हें मातृभाषा और अंग्रेजी ऐसी दो ही भाषायें आती हैं । अंग्रेजी के अभाव में वे भारत के ही अन्य प्रान्तों के निवासियों के साथ वार्तालाप नहीं कर पायेंगे । |
| + | # अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय और महाविद्यालय बन्द हो जायेंगे । अंग्रेजी के समाचार पत्र और वाहिनियाँ बन्द हो जायेंगी । उन्हें भारी नुकसान होगा। इस नुकसान को हम किस प्रकार भरपाई करेंगे ? |
| + | # हमारा सरकारी कामकाज अधिकांश अंग्रेजी में होता है, विशेष रूप से उच्चस्तरीय कामकाज तो अंग्रेजी में ही होता है । यदि अंग्रेजी नहीं रही तो यह सारा कामकाज ठप्प हो जायेगा । |
| + | # आज के जमाने में अंग्रेजी नहीं आना कैसे चल सकता है ? यह जमाना वैश्विकता का है और विश्व की भाषा अंग्रेजी है। हम विश्व के अन्य देशों से अलग थलग पड़ जायेंगे, अकेले पड जायेंगे । नहीं, यह नहीं हो सकता । हम उसे होने नहीं देगे। |
| + | # अंग्रेजी भले ही विदेशी भाषा हो, हमें दो सो वर्ष गुलामी में रखने वालों की भाषा हो तो भी अंग्रेजी का स्वीकार तो हमें करना ही होगा । हमें अंग्रेजों से बैर हो सकता है, अब तो वह भी नहीं होना चाहिये क्योंकि अब वे यहां नहीं है, परन्तु केवल उनकी भाषा है इसलिये अंग्रेजी से विमुख होना ठीक नहीं है। यह तो हमारी उदारता का अभाव है। |
| + | <nowiki>******************</nowiki> |
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| + | हम देख सकते हैं कि इन तर्कों में खास कोई वजूद नहीं है, केवल अंग्रेजी का मोह ही है। ऐसा नहीं है कि देश बिना अंग्रेजी के चल नहीं सकता, उल्टे लोगोंं को अंग्रेजी से भी संस्कृत सीखना अधिक सुविधाजनक है। हमें इस बात का कष्ट नहीं है कि संस्कृत नहीं आने के कारण हम अपने ही देश के कितने मूल्यवान ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। देश की सम्पर्कभाषा बहुत सरलता से हिन्दी हो जायेगी। |
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| + | भारत के लोग यदि अंग्रेजी छोडकर हिन्दी और संस्कृत बोलना प्रारम्भ करेंगे, अंग्रेजी नहीं बोलेंगे ऐसा दृढतापूर्वक कहेंगे तो तुरन्त अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिन्दी और संस्कृत का अध्यापन आरम्भ हो जायेगा क्योंकि विश्व को भारत के साथ सम्पर्क बनाये रखने की आवश्यकता है। |
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| + | सरकारी कामकाज तो वैसे भी हिन्दी अथवा प्रादेशिक भाषा में ही होना चाहिये, वैसा नहीं करना ही अंग्रेजी नहीं जाननेवालों के प्रति अपराध है अतः वे सब उच्च पदस्थ अधिकारी अपराध करने से बच जायेंगे । |
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| + | लगता ऐसा है कि समस्या अंग्रेजी की नहीं है, हमारे हीनताबोध की है। हीनताबोध मनोवैज्ञानिक समस्या है, बौद्धिक नहीं । मनोवैज्ञानिक समस्या बौद्धिक उपायों से सुलझ नहीं सकतीं । यहाँ दिये गये तर्क तर्क नहीं, मनोभाव हैं । उनके तार्किक उत्तर कोई सुनता भी नहीं है तो मानने का तो प्रश्न ही नहीं। उस पर क्रियान्वयन की तो कोई सम्भावना ही नहीं है। |
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| + | अंग्रेजी जैसे राष्ट्रीय संकट का उपाय जब बौद्धिक प्रयासों से नहीं होता और मनोवैज्ञानिक उपाय करने का हमारा साहस नहीं होता तब दैवी सहारा ही कार्यसाधक होता है । इसलिये यहाँ चमत्कार की बात की गई है। अंग्रेजी अब मनुष्य के नहीं, दैव के बस की बात है। |
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| + | ==== प्रश्न १५ मान लिजीये कि विश्वभर से बिजली भी दैवयोग से अलोप हो जाय तो क्या होगा ? ==== |
| + | उत्तर |
| + | # विश्व फिर आदि मानव की दुनिया बन जायेगा। |
| + | # विश्व फिर बैलगाडी के युग में चला जायेगा। |
| + | # विश्व की गति रुक जायेगी। |
| + | # विश्व फिर पिछड जायेगा। |
| + | # सारे वैज्ञानिक आविष्कार विफल हो जायेंगे । यन्त्रसामग्री बेकार हो जायेगी। |
| + | # जीवन असुविधाओं से भर जायेगा। |
| + | # कारखाने, वाहन, उत्पादन आदि सब बन्द हो जायेंगे तो हमारा जीवन दूभर हो जायेगा । |
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| + | फिर वही मनोवैज्ञानिक समस्या । उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व विश्व जी रहा था । संस्कृति और सभ्यता के अनेक शिखर अनेक प्रजाओं ने सर किये थे । 'बैलगाडी के युग' में सब काम हाथ से करने पडते थे, पैरों से चलना पडता था परन्तु सब काम अच्छे से होते थे, लोगोंं का स्वास्थ्य अच्छा रहता था, लोगोंं को आराम से बैठकर वार्तालाप करने का समय मिलता था। |
| + | |
| + | बिजली आई, यन्त्र आये, हम काम करना भूल गये, काम करने की क्षमता खो गई । बिजली आई, यन्त्र आये, वाहन बने, गति बढी, मन की चंचलता और उत्तेजना बढी और शरीर और मन का स्वास्थ्य खो गया । इसमें भी मनुष्य सोचविचार कर समझदारी से कोई उपाय करने वाला नहीं है इसलिये दैव का सहारा लेने की नौबत आई है। |
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| + | ==== प्रश्न १६ जनसंख्या एक समस्या बनी है। विश्व में सब सुखी हों इसलिये जनसंख्या कितनी होनी चाहिये ? जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिये क्या उपाय हो सकते हैं ? ==== |
| + | उत्तर |
| + | # देश की भूमि और संसाधनों के अनुपात में जनसंख्या होनी चाहिये । उदाहरण के लिये भारत की भूमि और संसाधनों की तुलना में देखें तो जनसंख्या अधिक है। अमेरिका की भूमि भारत से तीन गना अधिक है और जनसंख्या तीन गुना कम । वास्तविक दृष्टि से भारत से अमेरिका की जनसंख्या नौ गुना कम मानी जानी चाहिये । |
| + | # जब जनसंख्या अधिक होती है तब अन्न, वस्त्र, औषधि आदि सामग्री का अभाव निर्माण होता है । उस अभाव को भरने का कोई उपाय नहीं होता क्योंकि इनका स्रोत प्राकृतिक संसाधन ही होते हैं । |
| + | # जनसंख्या कम करने हेतु जनमानस प्रबोधन की बहुत आवश्यकता होती है। भारत जैसे देश में तो कानून भी बनाये गये हैं । गर्भनिरोधक साधनों का प्रचार भी खूब चलता है। |
| + | # ऐसा कहते हैं कि शिक्षा बढती है वेसे बच्चोंं को जन्म देने की प्रवृत्ति कम होती है । अतः शिक्षा व्यवस्था अच्छी करना एक उपाय है। |
| + | # इसी प्रकार से जब मानसिक समस्यायें कम होती है तब भी कामप्रवृत्ति कम होती है जिसका प्रभाव जनसंख्या पर होता है। |
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| + | |
| + | जनसंख्या को लेकर जो सरकारी प्रचार हो रहा है उसका ही प्रभाव सर्वत्र दिखाई देता है । परिस्थिति को समझने के दूसरे भी आयाम होते हैं । जरा इस प्रकार समझें।। |
| + | # ऐसा कहते हैं कि प्रकृति जिसे भी जन्म देती है उसके पोषण की भी व्यवस्था साथ साथ बनाती है। इसलिये जिसने जन्म लिया उसका निभाव होता ही है। ऐसे में यदि कोई भूखों मरता है या अभावग्रस्त होता है तो मानना चाहिये कि हमारी व्यवस्था में कोई कमी है। |
| + | # प्रकृति जिसे भी जन्म देती है उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है परन्तु एक व्यक्ति की भी इच्छाओं की पूर्ति करना उसके लिये सम्भव नहीं होता क्योंकि इच्छायें अनन्त होती है और उनकी पूर्ति हो ही नहीं सकती । इस कथन के आधार पर देखें तो जनसंख्या अपने आपमें कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता, प्रश्न व्यवस्था का ही होता है। |
| + | # असविधायें, कष्ट, दारिद्य एक ओर तो इच्छाओं पर संयम नहीं करने के कारण बढे हैं । दसरी ओर मनुष्य की काम करने की वृत्ति और अभ्यास कम हो गये हैं इस कारण से बढे हैं । जब विद्युत, भाप, पेट्रोल आदि नहीं होते तब मनुष्य के हाथ काम करते हैं और पैर गति करते हैं । काम में व्यस्त रहने के कारण इच्छाओं पर अपने आप नियन्त्रण होता है और उत्पादन की मात्रा बढती है । परिणामस्वरूप अभाव कम होते हैं । वास्तव में जनसंख्या यह समस्या नहीं है अपितु सम्पत्ति है। |
| + | # जब मनुष्य काम करता है तब जनसंख्या बढने से काम करने वाले हाथ बढते हैं और आर्थिक विकास होता है । जब यन्त्र काम करते हैं तब जनसंख्या बढ़ने से खानेवाले मुँह बढते हैं और दारिद्य बढता है। इससे फिर सिद्ध होता है कि जनसंख्या समस्या नहीं है हमारी शैली ही समस्या है। |
| + | # प्रकृति के अनुकूल रहकर जीवन की व्यवस्था करने से सुख, सन्तोष, सहुलियत, आराम आदि में वृद्धि होती है, मनोविकार पैदा नहीं होते इसलिये फालतू की व्यवस्थायें और फालतू के खर्च भी कम होते हैं। अभाव खटकते नहीं क्योंकि अधिकतर अभाव इच्छाओं को लेकर होते हैं । |
| + | वास्तव में कौन सी परिस्थिति, कौनसी घटना, कौनसी बात समस्या है या नहीं है यह तय करना पर्याप्त विवेक की अपेक्षा करता है। |
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| + | ==== प्रश्न १७ मनुष्य का शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा हो इसके क्या उपाय हैं ? आज इसमें कौन कौन से अवरोध हैं ? ==== |
| + | उत्तर |
| + | # यह एकदम पाँचवीं सातवीं कक्षा का प्रश्न है। मनुष्य के शरीर स्वास्थ्य हेतु पौष्टिक आहार, पर्याप्त निद्रा, आरामदायक वख, अनुकूल तापमान, शुद्ध पानी, समुचित व्यायाम और काम के अनुपात में आराम की आवश्यकता है। आज का प्रदूषण, अशुद्ध पानी और चारों ओर फैली गन्दगी इसके बडे अवरोध हैं। |
| + | # शरीर स्वास्थ्य के लिये क्या आवश्यक है यह तो सब जानते हैं स्वास्थ्य के अवरोध कौन से हैं यह भी जानते हैं परन्तु कठिनाई यह है कि अवरोध दूर करने के लिये कोई सक्षम नहीं है। |
| + | # आज का आपाधापी का जीवन और वैश्विक तापमान में वृद्धि की बहुत बड़ी समस्या है। रसायणों के कारण भी स्वास्थ्य खराब होता है। बडा अवरोध तो यह है कि शरीर अस्वस्थ हो जाने के बाद औषध सबके लिये सुलभ नहीं है, आराम सुलभ नहीं है। |
| + | # मनुष्य की दिनचर्या और जीवनचर्या अत्यन्त असन्तुलित बन गई है। इस कारण से शरीर का स्वास्थ्य खराब होता है । इसे ठीक करना ही उपाय है। |
| + | ऐसा लगता है कि शरीरस्वास्थ्य के बारे में लोग जानते हैं । स्वास्थ्य ठीक करने हेतु क्या उपाय है यह भी जानते हैं । केवल कुछ बातें जोडने की आवश्यकता है। |
| + | # दिनचर्या में सोने, जागने, भोजन करने के समय का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है। |
| + | # भोजन बनाने में सिन्थेटिक पदार्थों या सिन्थेटिक प्रक्रिया से बने पदार्थों का सेवन हानिकारक है। |
| + | # सिन्थेटिक वस्त्र भी शरीर स्वास्थ्य के लिये प्रतिकूलता निर्माण करते हैं । |
| + | # यन्त्र से पानी का शुद्धीकरण, फ्रिज, माइक्रोवेव, मिक्सर, ग्राइण्डर आदि स्वास्थ्य के शत्रु हैं । |
| + | # व्यायाम और श्रम नहीं करना हमारी राष्ट्रीय आपदा बन गई है। जिन्हें करना पडता है वे मजदरी में करते हैं इसलिये उसका लाभ नहीं होता । तथापि वे काम नहीं करने वालों की अपेक्षा कम अस्वस्थ होते हैं। |
| + | # मनोविकार शरीर स्वास्थ्य के महाशत्रु हैं। आज की अनेक बिमारियाँ मनोविकार से ही पैदा हुई हैं। लोभ, लालच, परिग्रह, द्वेष, चिन्ता आदि ये मनोविकार हैं जो शरीर स्वास्थ्य को हानि पहँचाते हैं। |
| + | # हमारे घरों, कार्यालयों, विद्यालयों की बेन्च, कुर्सी, सोफा पर बैठने की व्यवस्था खडे खडे भोजन बानाने, करने, भाषण, करने, गाने की व्यवस्था भी घुटने और कमर के दर्द पैदा करने वाली है। |
| + | ऐसी तो अनेक बातें हैं जो हमारी दिनचर्या और जीवनचर्या का अंग बन गई है। इन्हें बदले बिना अथवा दूर किये बिना हमारे शरीर स्वास्थ्यलाभ नहीं कर सकते हैं । शरीर ही अस्वस्थ है तो मन, बुद्धि, चित्त आदि का स्वास्थ्य भी संकट में पड जाता है । इसलिये समझदार प्रजा को शरीरस्वास्थ्य की चिन्ता समझदारी पूर्वक करनी चाहिये । |
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| + | ==== प्रश्न १८ विश्व के समस्त वर्तमान विश्वविद्यालय विश्व के समस्त संकटों के उद्गमस्थान हैं । क्या आप इससे सहमत हैं ? कैसे ? ==== |
| + | उत्तर |
| + | # यह एक आत्यन्तिक कथन है । विद्याकेन्द्रों में ज्ञान प्राप्त होता है, व्यक्ति बुद्धिमान बनता है, उसका विकास होता है । विद्याकेन्द्र संकटों के निवारण के लिये होता है, वह संकटों को जन्म देने वाला कैसे हो सकता है ? |
| + | # विश्वविद्यालयों में ज्ञान मिलता है तभी तो ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में विश्व इतनी प्रगति कर सकता है। विश्वविद्यालय नहीं होंगे तो यन्त्रों की खोज, रोगों की चिकित्सा, व्यापार, हिसाबकिताब कैसे हो सकेगा ? लोगोंं को नौकरी कैसे मिलेगी ? विश्वविद्यालय संकटों का निवारण करनेवाले होते हैं । उनको बढाने वाले नहीं । |
| + | # विश्वविद्यालय भगवानने नहीं बनाये हैं। मनुष्य ने बनाये हैं। यदि वे संकट ही निर्माण करते हैं तो मनुष्य उन्हें बनायेगा ही नहीं । कोई अपने ही हाथों संकट कैसे मोल ले सकता है ? |
| + | # आप कदाचित संस्कारहीन शिक्षा की बात करते हैं। यह बात सही है कि आज की शिक्षा मनुष्य को अच्छा बनाने में, उसका चरित्र बनाने में विफल रही है। उसका यह उद्देश्य ही नहीं रह गया है। इस अर्थ में विश्वविद्यालय संस्कारहीन व्यक्तियों का निर्माण कर रहे हैं। इसलिये संकट पैदा हो रहे हैं। परन्तु संस्कार हीनता के लिये क्या विश्वविद्यालयों को दोष देना उचित है, या राजनीति और आर्थिक क्षेत्र का भ्रष्टाचार भी उतना ही दोषी है ? |
| + | # मैं अपकी बात से सहमत हूँ। विश्वविद्यालयों में धर्म और संस्कृति की शिक्षा होनी ही चाहिये । चरित्र निर्माण की शिक्षा होनी ही चाहिये । देशभक्ति और सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा होनी ही चाहिये । केवल विज्ञान, तन्त्रज्ञान, संगणक, मैनेजमेण्ट की शिक्षा पर्याप्त नहीं है । विश्वविद्यालयों की शिक्षा में बहुत सुधार होने की आवश्यकता है । परन्तु मैं उन्हें संकटों की जड़ नहीं कहूँगा । उनकी कमियाँ दूर करनी चाहिये इतना ही कहूँगा। |
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| + | इन सब अभिप्रायों में एक बात छूट जाती है। समस्या संस्कारहीनता की नहीं, विपरीत ज्ञान की है। ज्ञान मुक्ति दिलाता है, विपरीत ज्ञान संकट पैदा करता है । वर्तमान विश्वविद्यालय समस्या इसलिये बने हैं कि वे विपरीत ज्ञान देते हैं। इनमें पढाये जाने वाले विषयों के आधारभूत सिद्धान्त विषमता निर्माण करने वाले हैं। विपरीत ज्ञान का मुद्दा न समझने के कारण हम धर्म और संस्कृति के विषय तो पढाते हैं परन्तु अर्थशास्त्र, तन्त्रज्ञान आदि विषयों को उनसे अलग रखते हैं । इस स्थिति में हम धर्म और संस्कृति के बारे में जानकारी देते हैं, अर्थशास्त्र, विज्ञान, मैनेजमेण्ट आदि का आधार धर्म और संस्कृति होना चाहिये इसे भूल जाते हैं। इस स्थिति में धर्म और संस्कृति जानकारी प्राप्त करने के विषय रह जाते हैं. आचरण के विषय नहीं बनते, व्यापार धर्म के आधार पर चलना चाहिये ऐसी समझ विकसित नहीं होती। हम समझ नहीं पाते कि तन्त्रज्ञान यह सामाजिक विषय है। हम इस बात को नहीं समझ पाते हैं कि भौतिक विज्ञान के ज्ञान से यन्त्र केवल बनते हैं, उनके उपयोग की व्यवस्था तो समाजशास्त्रीय ज्ञान से होती है । यदि समाजशास्त्र विपरीत है तो तन्त्रज्ञान भी विपरीत होगा। |
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| + | वर्तमान विश्वविद्यालय भौतिकवादी. जड़वादी दृष्टि से अध्ययन के समस्त विषयों की रचना और योजना करते हैं। वे मनुष्य को और समाज को अधिक से अधिक भौतिकवादी बनाने का ही काम करते हैं । इस की दृष्टि जड़वादी है, तन्त्रज्ञान राक्षसी है, अर्थशास्त्र शोषण और विनाश का कारण है, मैनेजमेन्ट शोषण और विनाश की कला सिखाता है। विज्ञान आतंकवादियों के हाथ में संहारकशस्त्र देता है । संक्षेप में कहें तो वर्तमान विश्वविद्यालय शिक्षा की ऐसी योजना कर रहे हैं जो कुछ गिनेचुने लोगोंं और एक दो राष्ट्रों को तत्काल अथवा अल्पकाल के लिये तो सुख और समृद्धि देती है परन्तु समूची मानवजाति को और सृष्टि को चिरकाल तक दुःख देती है। यह ऐसी योजना है जो सुख के स्रोतों को नष्ट कर सुख की कल्पना करती है। विश्वविद्यालय चाहें तो अपना स्वरूप बदल कर चिरन्तर सुख, शान्ति और समृद्धि का स्रोत भी बन सकते हैं । जो कथन है वह वर्तमान विश्वविद्यालयों के लिये है, सही ज्ञानेकन्द्रों के लिये नहीं । |
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| ==References== | | ==References== |
− | <references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे | + | <references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |
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