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ऐसी स्थिति में भारतीय स्वरूप का आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय बनाना सरल कार्य नहीं है। परन्तु करना अनिवार्य है ऐसा समझकर इन सभी अवरोधों को पार कर कैसे बनेगा इस दिशा में ही विचार करना चाहिये । यह सब हमारी पूर्वतैयारी होगी। इस तैयारी के विषय में हमें कुछ इन चरणों में विचार करना होगा।  
 
ऐसी स्थिति में भारतीय स्वरूप का आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय बनाना सरल कार्य नहीं है। परन्तु करना अनिवार्य है ऐसा समझकर इन सभी अवरोधों को पार कर कैसे बनेगा इस दिशा में ही विचार करना चाहिये । यह सब हमारी पूर्वतैयारी होगी। इस तैयारी के विषय में हमें कुछ इन चरणों में विचार करना होगा।  
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१४. आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का स्वरूप और उसकी आवश्यकताओं का प्रारूप बनाकर संचार माध्यमों के द्वारा देशभर में व्यापक रूप में प्रचारित कर सबसे सहयोग का निवेदन करना चाहिये । आर्थिक आवश्यकता कम तो नहीं होगी। अतः व्यापक
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. आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का स्वरूप और उसकी आवश्यकताओं का प्रारूप बनाकर संचार माध्यमों के द्वारा देशभर में व्यापक रूप में प्रचारित कर सबसे सहयोग का निवेदन करना चाहिये । आर्थिक आवश्यकता कम तो नहीं होगी। अतः व्यापक सहयोग की आवश्यकता रहेगी।
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२. आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय बनाने की आवश्यकता समझाकर देश के अनेक विश्वव्यापी सांस्कृतिक संगठनों को ऐसा विश्वविद्यालय प्रारम्भ करने हेतु निवेदन करना चाहिये। उनके पास व्यवस्थाओं की सुलभता होती है।
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३. केन्द्र और राज्य सरकार के शिक्षामन्त्रियों, मुख्य मन्त्रियों और प्रधानमंत्री से भेंट कर इस विश्वविद्यालय के प्रारूप पर चर्चा और उसके संचालन में सरकार की ओर से आनेवाले प्रतिरोधों और अवरोधों को दूर करने हेतु संवाद करना चाहिये । उसके बाद समर्थन की भी अपेक्षा करनी चाहिये ।
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४. देश के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के उत्तम अध्यापकों को इस कार्य में जुडने हेतु आवाहन करना चाहिये । इसी प्रकार से छात्रों को भी आवाहन करना चाहिये।
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५. विद्यार्थियों और अध्यापकों को ज्ञानसाधना हेतु सिद्ध करना चाहिये।
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६. पाँच वर्ष की अध्ययन की योजना बनाकर विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में वितरित करनी चाहिये । जो जहाँ है वहाँ अध्ययन शुरू करे ऐसा निवेदन करना चाहिये।
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७. प्रासंगिक और व्यक्तिगत अध्ययन आज भी बहुत हो रहा है। इस अध्ययन को समग्रता का अंग बनाने की योजना करनी चाहिये।
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८. समग्रता में चिन्तन और अध्ययन हेतु अध्यापकों के समूहों को साथ बैठकर योजना बनानी होगी। विषयसूची बनाकर उसका विभाजन कर, समय-सीमा निर्धारण कर नियोजित पद्धति से काम करना होगा।
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९. विधिवत आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय होने से पूर्व मुक्त विश्वविद्यालय, चल विश्वविद्यालय, लोक विश्वविद्यालय आदि रूप में भी कार्य हो सकता है। लघु रूप में ग्रन्थालय का प्रारम्भ हो सकता है । छुट्टियों में विद्यार्थियों और अध्यापकों के लिये अध्ययन और अनुसन्धान के प्रकल्प प्रारम्भ हो सकते हैं ।
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१०. लोगों को कमाई, मनोरंजन, अन्य व्यस्ततार्ये कम कर खर्च और समय बचाकर इस कार्य में जुड़ने हेतु आवाहन किया जा सकता है।
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११. सभी कार्यों के आर्थिक सन्दर्भ नहीं होते । सेवा के रूप में भी अनेक काम करने होते हैं इस बात का स्मरण करवाना चाहिये।
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१२. विश्वविद्यालय शुरू होने से पूर्व अध्यापकों और विद्यार्थियों की मानसिक और बौद्धिक सिद्धता बनाने के प्रयास होना आवश्यक है।
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१३. साहित्यनिर्माण का कार्य विश्वविद्यालय प्रारम्भ होने से पूर्व भी हो सकता है।
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१४. तात्पर्य यह है कि औपचारिक प्रारम्भ होना ही प्रारम्भ है ऐसा नहीं है । देखा जाय तो अनौपचारिक रूप में तो भारत को बचाये रखना, भारत को भारत बनाने और विश्व को भी उपदेश देने का कार्य तो अभी भी हो रहा है । वह यदि नियोजित पद्धति से, एक उद्देश्य से, साथ मिलकर समवेत रूप में होगा तो अधिक प्रभावी ढंग से होगा। एक समय निश्चित रूप से आनेवाला है जब विश्व की सभी आसुरी शक्तियाँ और देवी शक्तियाँ संगठित होकर आमने सामने खडी होंगी। छोटे छोटे युद्ध, आतंकवादी हमले, बाजार और इण्टरनेट के माध्यम से आक्रमण तो चल ही रहा है परन्तु निर्णायक युद्ध भी शीघ्र ही होने वाला है। आज चल रहा है उस मार्ग पर चलकर विश्व बच नहीं सकता। बिना युद्ध के विश्व मार्ग नहीं बदलेगा। इस युद्ध में मुख्य भूमिका निभाने के लिये भारत को सिद्ध होना है। यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति ।
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१५. आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के मापदण्ड वर्तमान में भारत के शिक्षाक्षेत्र की स्थिति ऐसी है कि विद्यार्थी आठ वर्ष तक पढता है तो भी उसे लिखना और पढ़ना नहीं आता । वह दसवीं या बारहवीं में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होता है तो भी उसे पढे हुए विषयों का ज्ञान नहीं होता। अब तो विद्यार्थियों की आमधारणा बन गई है कि उत्तीर्ण होने के लिये पढने की नहीं चतुराई की आवश्यकता होती है। लोगों की भी धारणा बन गई है कि पढे लिखे को व्यवहारज्ञान या जीवनविषयक ज्ञान होना आवश्यक नहीं । शिक्षित लोगों का सर्वमान्य लक्षण है भाषाशुद्धि और अभिजात्य । आज दो में से एक भी नहीं है।
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आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में इस धारणा को सर्वथा बदलने की आवश्यकता रहेगी। सत्रह अठारह वर्ष का युवक दिन के बारह पन्द्रघण्टे अध्ययन नहीं करता तो वह विश्वविद्यालय का विद्यार्थी कहा जाने योग्य नहीं होगा। यदि सात्त्विक भोजन, पर्याप्त व्यायाम और योगाभ्यास के माध्यम से वह अपनी शारीरिक, मानसिक
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और बौद्धिक क्षमताओं का विकास नहीं करेगा तो वह अध्ययन करने के लायक ही नहीं होगा। यदि बाजार में जाकर उचित दाम पर आवश्यक वस्तुओं की गुणवत्ता परख कर खरीदी करने की कुशलता विकसित नहीं करेगा तो वह अध्ययन करने के लायक ही नहीं बनेगा। यदि कष्ट सहने की क्षमता विकसित नहीं करेगा, सुविधाओं का आकर्षण नहीं छोड़ेगा तो अध्ययन करने के लायक ही नहीं बनेगा।
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विश्वविद्यालय में प्रवेश से पूर्व इस प्रकार की योग्यता विद्यार्थियों को प्राप्त करनी होगी। प्रश्न यह है कि फिर विद्यार्थी ऐसे विश्वविद्यालय में क्यों आयेगा ? जब अन्यत्र शिक्षा सुलभ है । तब ऐसे कठोर परिश्रम की अपेक्षा करने वाले विश्वविद्यालय में क्यों कोई जाय ? परन्तु इस देश में कुछ अच्छे लोग भी होते हैं। उनमें विद्याप्रीति है, कठिनाई से प्राप्त होनेवाली बातों का आकर्षण है, जिज्ञासा है और महान उद्देश्ययुक्त काम में जुड़ने की आकांक्षा भी है। ऐसे लोगों के लिये आज अवसर नहीं है। आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय ऐसा अवसर देगा । इसलिये उसके मापदण्ड उच्च प्रकार के होंगे।
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जिस प्रकार अध्ययन की योग्यता चाहिये उस प्रकार से अध्ययन के विनियोग के विषय में भी स्पष्टता चाहिये । इस अध्ययन का उपयोग केवल व्यक्तिगत आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये नहीं करना है अपितु जिस उद्दश्य से विश्वविद्यालय बना है उस उद्देश्य की पूर्ति के कार्य में सहभागी होने हेतु करना है । आज व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के नाम पर शुल्क देने के अलावा विद्यालय या शिक्षाक्षेत्र या समाज या देश के प्रति कर्तव्य की पर्ति । की कोई अपेक्षा ही नहीं की जाती। परीक्षा पूर्ण होते ही विश्वविद्यालय और विद्यार्थी का सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। अध्यापकों का भी ऐसा ही है। विश्वविद्यालय छोडकर दूसरा व्यवसाय, दूसरा विश्वविद्यालय अत्यन्त सरलता से अपनाया जाता है। विश्वविद्यालय से मिलने वाला वेतन बन्द हुआ कि सम्बन्ध भी समाप्त हो जाता है। इस आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में ऐसा नहीं होगा । अध्ययन के बाद भी सेवा निवृत्ति के बाद भी विद्यार्थी और अध्यापक विश्वविद्यालय के साथ जुड़े रहेंगे, किंबहुना औपचारिक सेवानिवृत्ति और अध्ययन की पूर्णता होगी भी नहीं। विश्वविद्यालय का कार्य एक मिशन होगा जिसमें सब अपनी अपनी क्षमता से सहभागी होंगे।
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इसी प्रकार से व्यवसाय बदलना भी सम्भव नहीं होगा।
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विश्वविद्यालय की योजना के अनुसार भारतीय शास्त्रों का ही अध्ययन होगा । अतः उस प्रकार के छात्र ही इसमें अध्ययन हेतु आयेंगे।
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विश्वविद्यालय की स्थापना की प्रक्रिया में ही सरकार का नियन्त्रण नहीं होगा ऐसी कल्पना की गई है। अब अन्य विश्वविद्यालयों के समान पाठ्यक्रम होने चाहिये जिससे विश्वविद्यालय बदलने में कठिनाई न हो ऐसा दबाव बन सकता है परन्तु ऐसा करना सम्भव नहीं होगा क्योंकि अन्य विश्वविद्यालय यूरोपीय ज्ञानसंकल्पना के अनुसार चलेंगे परन्तु आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय भारतीय ज्ञानपरंपरा में चलेगा इस बात की स्पष्टता करनी होगी।
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इस विश्वविद्यालय में आवश्यक नहीं होगा कि नियत समय में ही पाठ्यक्रम पूर्ण होगा, नियत स्वरूप में ही परीक्षा यें होंगी सबके लिये समान अवधि रहेगा । विद्यार्थी की क्षमता और तत्परता के अनुसार कमअधिक समय लग सकता है।
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संक्षेप में विश्वविद्यालय के मापदण्ड भी भारतीय पद्धति के अनुसार होंगे।
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आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय काम करने लगेगा तब संकल्पनायें और व्यवहार कालक्रम में स्पष्ट होते जायेंगे ।
    
==References==
 
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