आर्न्तर्रा्ट्रीय विश्वविद्यालय
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अध्याय ४२
विश्व को सहायक बनने हेतु भारत क्या करे इसका विचार करना चाहिये, केवल चिन्ता करने से काम नहीं चलेगा।
हमें एक आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना करनी चाहिये । ऐसा विश्वविद्यालय वास्तव में आन्तर्राष्ट्रीय स्तर और स्वरूप क्या होता है इसका नमूना प्रस्तुत करने हेतु होना चाहिये। इस विश्वविद्यालय में अध्ययन का स्वरूप कुछ इस प्रकार का हो सकता है...
१. विश्व के देशों के सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन की योजना बनानी चाहिये।
इतिहास का वर्तमान स्वरूप राजकीय इतिहास का है। शासकों को केन्द्र में रखकर सारी बातों का अध्ययन होता है। सबके अध्ययन में शासकों के स्थान पर प्रजाओं को केन्द्र में रखकर अध्ययन की योजना बनानी चाहिये।
ऐसे अध्ययन हेतु प्रथम विश्व की प्रजाओं के कुछ समूह भी बना सकते हैं। प्राथमिक स्वरूप बनाकर अध्ययन प्रारम्भ करना और बाद में आवश्यकता के अनुसार समूह बदलते जा सकें ऐसी सम्भावना हो सकती है । अध्ययन में इस प्रकार का लचीलापन हो सकता है।
इतिहास के अध्ययन के लिये हम प्राचीन काल से आज तक आने की दिशा न पकडें । हम आज जहाँ हैं वहाँ से आरम्भ करें और अतीत की ओर चलें । यह अपेक्षाकृत सरल होगा और व्यावहारिक भी क्योंकि अध्ययन के लिये हमें जीवित सन्दर्भ प्राप्त होंगे।
अध्ययन का स्वरूप व्यापक रखना आवश्यक रहेगा । एक छोटा मुद्दा पकडकर उसकी गहराई तक जाकर छानबीन करने के स्थान पर या एक छोटा प्रदेश चुनकर उसका अतीत में पहुंचने तक का अध्ययन करने के स्थान पर स्थान और प्रजाओं का व्यापक रूप में चयन कर अध्ययन प्रारम्भ करना चाहिये।
अध्ययन हेतु हमें उन उन देशों में जाकर दो पाँच वर्ष तक रहने की योजना बनानी चाहिये । व्यावहारिक कारणों से वर्ष के आठ मास उस देश में और चार मास भारत में विश्वविद्यालय केन्द्र में रहना उचित रहेगा। इसमें अध्येता को आवश्यक लगे ऐसा परिवर्तन किया जा सकता है।
इस अध्ययन के लिये उस देश के विद्वज्जन और सामान्यजन दोनों की सहायता प्राप्त की जा सकती है। उस देश का विश्वविद्यालय और शासन हमारे सहयोगी हो सकते हैं। उस देश का अध्ययन किया हो अथवा कर रहे हों ऐसे अन्य देशों के विद्वानों के साथ सम्पर्क स्थापित करना भी आवश्यक रहेगा।
उस देश का वर्तमान जीवन जानना प्रारम्भ बिन्दु रहेगा। अर्थव्यवस्था, अर्थ के सम्बन्ध में दृष्टि, समाजव्यवस्था के मूल सिद्धान्त, कानून की दृष्टि, धार्मिक आस्थायें, शिक्षा का स्वरूप, शासन का स्वरूप, प्रजामानस आदि हमारे अध्ययन के विषय बनेंगे। लोगोंं के साथ बातचीत, प्रजाजीवन का अवलोकन, विद्वज्जनों से चर्चा और लिखित साहित्य हमारे साधन होंगे।
वर्तमान से प्रारम्भ कर प्रजा के अतीत की ओर जाने का क्रम बनाना चाहिये। इन प्रजाओं का मूल कहाँ कहां है, वे किसी दूसरे देश से कब और क्यों यहां आये हैं, उनसे पहले यहाँ कौन रहता था, वे आज कहाँ है इसकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिये । वर्तमान में और अतीत में इस प्रजा का दूसरी कौन सी प्रजाओं के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध रहा है, वे आज किस देश से प्रभावित हो रहे हैं यह भी जानना चाहिये । इस देश का पौराणिक साहित्य इस देश का कैसा परिचय देता है और अपने अतीत से वर्तमान किस प्रकार अलग अथवा समान है यह जानना भी उपयोगी रहेगा । वर्तमान से अतीत में और अतीत से वर्तमान में देश की भाषा, वेशभूषा, खानपान, घरों की रचना, सम्प्रदाय, शिक्षा किस प्रकार बदलते रहे हैं यह जानना । । उपयोगी रहेगा। इस देश का नाम, भूगोल, विवाह पद्धति, परिवाररचना भी जानना चाहिये ।
इस प्रकार से विश्व के इतिहास की मोटे तौर पर रूपरेखा हमारे पास तैयार होगी। विश्व को नियन्त्रित करने वाले, नियमन में रखने वाले तत्त्व कौन से हैं यह भी समझ में आयेगा । विश्वजीवन में इन देशों का कैसा योगदान है, ये कितने उपकारक, अपकारक या तटस्थ हैं इसका भी आकलन हम कर सकेंगे । हमारा अध्ययन राजकीय प्रभावों से मुक्त और सांस्कृतिक प्रवाहों के प्रति संवेदनशील होना चाहिये । हमारी इतिहास दृष्टि हमारी ही होगी।
हम जिस देश का अध्ययन कर रहे हैं उस देश की जीवनदृष्टि और विश्वदृष्टि क्या है और किन विविध रूपों में वह अभिव्यक्त हो रही है, देश की समस्यायें और उपलब्धियाँ क्या है, राष्ट्रजीवन का प्रवाह किस गति से किस और बह रहा है, उसमें अवरोध हैं कि नहीं, यदि हैं तो उनका स्वरूप कैसा है, उन अवरोधों को दूर करने का प्रजा का पुरुषार्थ कैसा है आदि बातें हमारे अध्ययन का विषय रहेंगी।
संक्षेप में इस देश का तत्त्वज्ञान और व्यवहार हमारे अध्ययन का विषय रहेगा।
२. विश्व के विभिन्न सम्प्रदायों का अध्ययन
धर्म निरपेक्षता, पन्थनिरपेक्षता, सेकुलरिझम, धार्मिक सहिष्णुता, साम्प्रदायिक सद्भाव, निधार्मिकता, साम्प्रदायिक कट्टरता आदि बातों का महान कोलाहल विश्व में मचा हुआ है । इस्लाम और इसाइयत विश्व के अर्थकारण, समाजकारण, राजकारण, लोकजीवन आदि को प्रभावित कर रहे हैं, यहाँ तक कि शिक्षा भी इनसे मुक्त नहीं है। धर्मान्तरण का बहुत बडा अभियान इन दोनों सम्प्रदायों के जन्मकाल से ही आरम्भ हुआ है और पूरा विश्व इसकी चपेट में आया हुआ है। इस स्थिति में सम्प्रदायों का अध्ययन करना आवश्यक रहेगा।
अध्ययन का एक प्रमुख मुद्दा इस्लाम और इसाइयत के प्रादुर्भाव से पूर्व सम्प्रदायों की स्थिति और स्वरूप कैसे थे इसका आकलन करने का रहेगा। ये दोनों सम्प्रदाय किससे प्रभावित हुए और किस रूप में अन्यसम्प्रदायों को प्रभावित कर रहे हैं यह जानना होगा।
सम्प्रदायों को लेकर हमारे अध्ययन के मुद्दे कुछ इस प्रकार के हो सकते हैं...
सम्प्रदायों की जीवनदृष्टि और विश्वदृष्टि कैसी है। वे जन्मजन्मान्तर में विश्वास करते हैं कि नहीं । अन्य सम्प्रदायों के लोगोंं के साथ इसके सम्बन्ध कैसे हैं । वे अपने सम्प्रदाय की श्रेष्ठ कनिष्ठ के रूप में तुलना करते है कि नहीं। उनका पंचमहाभूतों, वनस्पति और प्राणियों के साथ कैसा सम्बन्ध है ? पापपुण्य, अच्छाई बुराई, स्वर्ग नर्क आदि के बारे में उनकी कल्पना क्या है। उनके देवी देवता कौन हैं । उनका तत्त्वज्ञान क्या है। उनकी उपासना का स्वरूप कैसा है। उनके कर्मकाण्ड कैसे हैं। भौतिक विज्ञान, व्यापार, राजनीति, शिक्षा, परिवार आदि समाजजीवन के विभिन्न आयामों के साथ उनके साम्प्रदायिक जीवन का सम्बन्ध कैसा है। नीति, सदाचार, संस्कार, कर्तव्य, रीतिरिवाज आदि का सम्प्रदाय के साथ कैसा सम्बन्ध है । इनके धर्मग्रन्थ और शास्त्रग्रन्थ कौन से हैं किस भाषा में लिखे हुए हैं। इनके सम्प्रदाय प्रवर्तक कौन हैं, कैसे हैं। इनके धर्मगुरु किस परम्परा से बनते हैं। परम्परा निर्वहण की इनकी पद्धति कैसी है।
इन मुद्दों पर सम्प्रदायों के अध्ययन के बाद इनका जब संकलन करेंगे तब सम्प्रदाय समूह बनने लगेंगे। जीवनदृष्टि, विश्वदृष्टि और कर्मकाण्डों की पद्धति को लेकर समानता और भिन्नता के आधार पर ये समूह बनेंगे । इस्लाम और इसाइयत का इनके ऊपर कैसे प्रभाव हुआ है इसके आधार पर ये समूह बनेंगे।
भारत में कुछ विशिष्ट संकल्पनायें हैं। वे हैं अध्यात्म, धर्म और आत्मतत्त्व । विश्व के सभी सम्प्रदायों में इन संकल्पनाओं का अस्तित्व है कि नहीं और यदि है तो उन का स्वरूप कैसा है इसका अध्ययन बहुत ही रोचक रहेगा। भारत में साम्प्रदायिक सद्भाव, कट्टरता और धर्मान्तरण कठिन समस्या बने हुए हैं । विश्व के विभिन्न देशों में विभिन्न सम्प्रदायों में ऐसी स्थिति है कि नहीं यह जानना भी उपयोगी रहेगा । सम्प्रदाय परिवर्तन करने से क्या होता है यह भी जानना चाहिये।
भारत में जो धर्म संकल्पना है उसी को हिन्दुत्व कहा जाता है। हिन्दुत्व को मानक के रूप में रखकर सभी सम्प्रदायों का तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिये।
इस अध्यनय के आधार पर विश्व की साम्प्रदायिक समस्याओं के निराकरण के उपाय हमें अधिक अच्छी तरह से प्राप्त होंगे । इस प्रकार का अध्ययन विश्व के अन्यान्य देशों के लिये भी उपयोगी होगा।
३. ज्ञानविज्ञान और शिक्षा की स्थिति का अध्ययन
ज्ञानविज्ञान और शिक्षा की स्थिति का अध्ययन किसी भी देश की ज्ञानात्मक स्थिति कैसी है उसके उपर उसका विकसित और विकासशील स्वरूप ध्यान में आता है। विकास का वर्तमान आर्थिक मापदण्ड छोडकर हमें ज्ञानात्मक मापदण्ड अपनाना चाहिये और उसके आधार पर देशों का मूल्यांकन करना चाहिये । ज्ञानविज्ञान और शिक्षा की स्थिति जानने के लिये इस प्रकार के मुद्दे हो सकते हैं...
- इस देश के शाखग्रन्थ कौन से हैं । वे किन लोगोंं ने लिखे हैं। किस भाषा में लिखे हैं।
- इन शाखग्रन्थों की रचना करने वालों की योग्यता किस प्रकार की होनी चाहिये ऐसा विद्वानों का और सामान्यजनों का मत हैं।
- इन शास्त्रग्रन्थों की आधारभूत धारणायें कौन सी हैं ।
- ये शास्त्रग्रंथ कब या कब कब लिखे गये हैं । समय समय पर उनमें क्या परिवर्तन अथवा रूपान्तरण होते रहे हैं । ये परिवर्तन किन लोगोंं ने किस आशय से किये हैं । रूपान्तरण की आवश्यकता क्यों लगी।
- वर्तमान में इन शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन कौन करता है, क्यों करता है।
- ये शास्त्रग्रन्थ किन किन बातों के लिये प्रमाण माने जाते हैं।
- प्रजा के दैनन्दिन जीवन, राजकाज, अर्थव्यवहार, धार्मिक आस्थायें, शिक्षा आदि के साथ इन शाखग्रन्थों का क्या सम्बन्ध है।
- शास्त्रग्रन्थ और तत्त्वज्ञान, शास्त्रग्रन्थ और विज्ञान, शास्त्रग्रन्थ और राजनीति किस प्रकार एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।
- विज्ञान को हम केवल भौतिक विज्ञान ही न मानें अपितु ज्ञान तक पहुँचने की, शास्त्रों की रचना की प्रक्रिया मानें और उसकी स्थिति देश देश में कैसी है इसका आकलन करें । वैज्ञानिक दृष्टिकोण की क्या स्थिति है इसका भी विचार करें।
- देश में खानपान का, वेशभूषा का, दिनचर्या का, ऋतुचर्या का, जीवनचर्या का, मकान और सड़कें बनाने का कोई शास्त्रीय खुलासा होता है कि नहीं यह जानने से पता चलता है कि विज्ञान की स्थिति क्या है।
- देश का आरोग्यशास्त्र और चिकित्साशास्त्र कैसे विकसित हुआ है । शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की क्या कल्पना है।
- विवाह, परिवाररचना और शिशुसंगोपन की क्या परम्परा है, क्या व्यवस्था है और क्या मान्यता है । विवाह की क्या पद्धति है।
- परम्परा और आधुनिकता का समन्वय किस प्रकार किया जाता है।
- देश भौतिकवादी है, आध्यात्मिक है या दोनों का अशास्त्रीय सम्मिश्रण है।
- देश में शिक्षा का स्वरूप कैसा है । किस आयु में शिक्षा आरम्भ होती है, तब तक चलती है । किस भाषा में दी जाती है।
- विद्यालय कौनव चलाता है । शुल्क की क्या व्यवस्था है । शिक्षक कैसे होते हैं । किस प्रकार नियुक्त किये जाते हैं । वेतन की क्या स्थिति है।
- शिक्षा प्राप्त करने वाली जनसंख्या का क्या प्रतिशत है ।
- शिक्षा का अर्थार्जन के साथ कैसा सम्बन्ध है ।
- शइक्षा का कैसा शास्त्र विकसित हुआ है । शिक्षा ज्ञान, विज्ञान, धर्म, सम्प्रदाय, व्यवहारजीवन, नीति सदाचार आदि की किस रूप में कितनी वाहक है।
- देश की अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और सम्प्रदायव्यवस्था को कितनी और किस प्रकार प्रभावित करती है।
- तकनीकी शिक्षा का देश के शिक्षाक्षेत्र में क्या स्थान ।
- देश में कितने शोधसंस्थान, विश्वविद्यालय और महाविद्यालय हैं । किन विषयों का अध्ययन और अनुसन्धान होता है।
- आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय हैं कि नहीं । राष्ट्रीय स्तर के हैं कि नहीं।
- राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालयों की क्या पहचान है ।
- शिक्षाविभाग को भारत में मानव संसाधन विकास मन्त्रालय कहा जाता है । इन देशों में क्या कहा जाता है।
- इस देश में अनुसन्धान कैसे होता है । अनुसन्धान का प्रजाजीवन के साथ क्या सम्बन्ध है।
- जिस प्रकार भारत में पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा जैसे विभाग हैं उस प्रकार इन देशों में कौन से विभाजन किया जाता है । उच्चशिक्षा का अनुपात कैसा है।
- शिक्षित बेरोजगारी, शिक्षा और चरित्र, शिक्षा और सामाजिकता, शिक्षा और भ्रष्टाचार का क्या सम्बन्ध है।
- अध्ययन हेतु विदेशों में जाने का प्रचलन कितना है । किन देशों में जाने का प्रचलन है ।
- समाजजीवन में शिक्षा की अनिवार्यता कितनी प्रतीत होती है । बिना शिक्षा के अर्थार्जन हो सकता है कि नहीं । आर्थिक नहीं तो शिक्षा के क्या प्रयोजन होते हैं।
- आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के छात्र अपने अध्यापकों के मार्गदर्शन में ऐसा अध्ययन कर सकते हैं। एक एक देश के ऐसे अध्ययन के बाद एकत्र चर्चा होना आवश्यक है। इस चर्चा के आधार पर विश्वस्थिति का आकलन हो सकता है । इन देशों के संकट क्या हैं और उनके निराकरण के उपाय क्या हैं यह समझना और उन देशों की सहायता करने के लिये प्रस्तुत होना आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का काम है। यहाँ के छात्रों को ऐसा अनुभव अधिक से अधिक मात्रा में मिलना चाहिये जिससे उनका दृष्टिकोण व्यापक बने । तटस्थतापूर्वक और सहृदयतापूर्वक अध्ययन करना आवश्यक है। भारत का इन देशों के साथ सम्बन्ध भी जुडना चाहिये । इसलिये इस अध्ययन में राष्ट्रीय दृष्टि होना भी आवश्यक है।
४. देशों की आर्थिक, राजनीतिक, भौगोलिक स्थिति का अध्ययन
यह अध्ययन बहुत ही रोचक रहेगा। कुछ इस प्रकार की जानकारी एकत्रित की जा सकती है।
- देश का क्षेत्र कितना है। यह क्षेत्र काल प्रवाह में कितना, किस प्रकार, किस रूप में बदलता रहा है । वर्तमान क्षेत्र कब से है। वर्तमान नाम क्या है। पूर्व में कौन कौन से नाम रहे हैं। वर्तमान नामकरण कैसे हुआ।
- देश की सीमायें प्राकृतिक हैं कि मानवसर्जित । इसे ठीक से समझना होगा। विश्व में भौगोलिक दृष्टि से दो शब्द प्रचलित हैं एक है देश और दूसरा है महाद्वीप । इन दोनों की रचना प्राकृतिक आधार पर होती है। समुद्र से जो विभाजित होते हैं वे महाद्वीप और पर्वतों से जो विभाजित होते हैं वे देश कहे जाते हैं। अखण्ड भारत की सीमायें प्राकृतिक हैं। उसके उत्तर में पर्वत है और शेष तीनों दिशाओं में समुद्र है। परन्तु पाकिस्तान, बंगलादेश, अफघानिस्थान आदि देशों की सीमायें मानवसर्जित हैं । देशों की सीमाओं की जानकारी से पता चलता है कि ये देश किसी युद्ध जैसे मानवसर्जित संकट के अथवा राजनीति के परिणामस्वरूप बने हैं। इन संकटों का निराकरण करने पर वे पुनःएक हो सकते हैं।
- देश का तापमान, वर्षा, ऋतुर्ये आदि कैसे हैं । पानी की और भूमि के उपजाऊपन की स्थिति कैसी है। अनाज, सब्जी, फल, औषधी, वनस्पति, प्राणी, अरण्य आदि की स्थिति कैसी है । प्राकृतिक स्थिति के आधार पर इनकी रचना कैसी बनाई गई है।
- इन देशों के अर्थोत्पादन की व्यवस्था कैसी है। जनसंख्या का विनियोग उत्पादन के क्षेत्र में फैला होता है। मानव और प्राणियों की ऊर्जा और विद्युत आदि की ऊर्जा का यन्त्रों के संचालन हेतु कैसा अनुपात है। इसका पर्यावरण पर क्या परिणाम होता है।
- ५. देश की भौतिक समृद्धि के आधार कौन से है। भौतिक समृद्धि के लिये आवश्यक प्राकृतिक सम्पदा, कार्यकुशलता, काम करने की वृत्ति और बुद्धिसम्पदा का अनुपात कैसा है। कारीगरी के क्षेत्र में विविधता, उत्कृष्टता और सृजनशीलता कितने हैं।
- उत्पादन कितना विकेन्द्रित है और वितरण की व्यवस्था कितनी कम खर्चीली है।।
- जीडीपी के मापदण्ड के अनुसार देश विकसित, विकासशील या अविकसित है। जीडीपी को छोड दिया जाय तो देश भौतिक समृद्धि के आधार पर देश कौन से श्रेणी में होगा।
- देश के विदेशव्यापार, विदेशी या आन्तर्राष्ट्रीय, ऋण, आयात और निकास की स्थिति कैसी है ?
- शिक्षित रोजगारी, अशिक्षित रोजगारी, शिक्षित बेरोजगारी, अशिक्षित बेरोजगारी का अनुपात कैसा है। उत्पादक और अनुत्पादक व्यवसायों का अनुपात कैसा है।
- नौकरी करने वाले और स्वतन्त्र व्यवसाय कनरे वालों का अनुपात कैसा है।
- देश में विदेशी कम्पनियाँ और देश की विदेशों में व्यापार करने वाली कम्पनियों का अनुपात कैसा है।
- विदेशों में पढ़ने और व्यवसाय करने वाले नागरिकों का अनुपात कैसा है।
- आर्थिक क्षेत्र में रिश्वतखोरी, कालाधन, भ्रष्टाचार, करचोरी, मिलावट आदि की स्थिति कैसी है।
- देश में कौन सी शासनपद्धति है । परापूर्व से कौन सी पद्धति रही है।
- साम्यवादी, समाजवादी, भौतिकवादी, सम्प्रदायवादी, राष्ट्रवादी आदि में से या इससे अन्य कौन सी विचारधारा से देश चलता है।
- आतंकवाद, घूसखोरी, विदेशी आक्रमणों की क्या स्थिति है । अपनी रक्षा करने की देश की सामरिक स्थिति कैसी है।
- राजकीय, आर्थिक, ज्ञानात्मक, सांस्कृतिक में से किसका कितना वर्चस्व है।
इस प्रकार की जानकारी प्राप्त करने से देशों की राजकीय, आर्थिक, बौद्धिक सामर्थ्य का पता चलता है। अमेरिका जैसा देश इन देशों पर क्या असर करता है या कर सकता है इसका भी पता चलेगा। विश्व के सांस्कृतिक इतिहास में इनका क्या स्थान है इसकी भी जानकारी प्राप्त होगी। उनके लिये हम क्या कर सकते हैं इसका आकलन भी हम कर पायेंगे । इनकी हमारे साथ समरसता हो सकती है कि नहीं और यदि हों, तो कैसे इसका भी विचार हम कर पायेंगे।
५. विश्व के देश भारत को जानें
कभी तो ऐसा समय था जब पश्चिम भारत को सँपेरों और मदारियों का देश समझता था। कभी तो ऐसा समय था जब विदेशों से मेधावी विद्यार्थी भारत में अध्ययन करने के लिये आते थे । एक समय था जब भारत का विदेश व्यापार बहुत बडा था । एक समय था जब भारत के लोग विश्व के सभी देशों में संस्कृति का सन्देश लेकर पहुँचते थे। एक समय था जब भारत सोने की चिडिया के रूप में पहचाना जाता था। एक समय था जब भारत हिन्दुस्थान के रूप में पहचाना जाता था।
आज विश्व में भारत की पहचान एक समर्थ परन्तु गरीब, पिछडे और विकासशील देश के रूप में है। परंतु हम जानते हैं कि यह सही नहीं है।
इस स्थिति में हमारे लिये दो काम करणीय हैं । एक तो हमें यह करना है कि हम स्वयं अपने देश को जानें । हमारे अतीत और वर्तमान के विषय में जानें । हम अपने आपको ठीक भी करें।
भारत को भारत बनने की महती आवश्यकता है। सनातन भारत और वर्तमान भारत एकदूसरे से बहुत भिन्न है। सनातन भारत वर्तमान भारत के अन्दर जी रहा है परन्तु वह बहुत दबा हुआ है। कभी कभी तो उसके अस्तित्व का भी पता न चले इतना दबा हुआ है। वर्तमान भारत पश्चिम की छाया में जी रहा है। पर्याप्त मात्रा में बदला है और बदल रहा है । हमें अपने आपको पुनः धार्मिक बनाना होगा। भारत भारत बने इसका अर्थ क्या है और वह कैसे होगा इसकी चर्चा पूर्व विभाग में हमने की है । उस भारत की जानकारी हम विश्व को दें। यह पहला कार्य है।
दूसरा कार्य है हम भारत का परिचय विश्व को दें। अर्थात् वह परिचय सनातन भारत का हो, वर्तमान भारत का नहीं । हमारे जो लोग विदशों में जाकर बसे हैं उनके माध्यम से विश्व भारत को पहचानता है। हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक संगठनों के प्रमुख तथा कार्यकर्ता विदेशों में जाते हैं। उनके माध्यम से विश्व भारत को जानता है । हमारे विद्यार्थी, अध्यापक, वैज्ञानिक, पर्यटक विदेशों में जाते हैं । उनके माध्यम से विश्व को भारत का परिचय होता है । उसी प्रकार से विदेशों से इन्हीं कारणों से लोग भारत में आते हैं तब उनके माध्यम से भी विश्व को भारत का परिचय होता है। परन्तु यह परिचय सनातन और वर्तमान भारत का मिश्रण है। भारत स्वयं भी अपने आपको सनातन कम और वर्तमान अधिक मात्रामें जानता है।
इस स्थिति में यह आवश्यक है कि विश्व भारत को सही रूप में जाने भारत के आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को विश्व सनातन भारत को जाने ऐसी योजना बनानी होगी।
इस जानकारी के प्रमुख मुद्दे कुछ इस प्रकार रहेंगे...
- भारत आध्यात्मिक देश है, विश्व में प्राचीनतम देश है, विश्व में सर्वाधिक आयु वाला देश है, चिरंजीव देश है।
- भारत जीवन को और विश्व को समग्रता में देखता है, एकात्म दृष्टि से देखता है।
- भारत भौतिक, जैविक, मानसिक, बौद्धिक, चैतसिक और आध्यात्मिक पहलुओं का एक साथ विचार करता है । ये सारे पहलू एकदूसरे से भिन्न, एकदूसरे से स्वतन्त्र नहीं है। वे सब एक समग्र के ही विभिन्न पहलू हैं । उनका एकदूसरे के साथ और पूर्ण के साथ समरस एकात्म सम्बन्ध है।
- भारत मनुष्य को श्रेष्ठ मानता है परन्तु श्रेष्ठता के साथ वह अपने से कनिष्ठ के प्रति क्षमा, उदारता, दया, स्नेह और रक्षण के कर्तव्य को जोड़ता है, अधिकार को नहीं।
- भारत संस्कृति और समृद्धि को एक दूसरे के पूरक के रूप में साथ साथ रखता है। समृद्धि से संस्कृति की रक्षा होती है और संस्कृति से समृद्धि हितकारी होती है।
- भारत सजीव निर्जीव सभी पदार्थों में परमात्मा है ऐसा ही मानता है और सबकी स्वतन्त्रसत्ता का आदर करता है।
- भारत मनुष्य से अपेक्षा करता है कि सृष्टि के साथ वह स्नेह, कृतज्ञता, दोहन एवं रक्षण का सम्बन्ध बनाये। ऐसा करने से पर्यावरण के प्रदूषण का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
- भारत पर्यावरण को केवल भौतिक रूप में नहीं देखता और केवल वायु, जल और भूमि का प्रदूषण नहीं होने देने की चिन्ता नहीं करता। वह विचारों का, भावनाओं का, वृत्तियों का, वाणी का और बुद्धि का प्रदूषण भी न हो ऐसा चाहता है।
- भारत का अर्थशास्त्र, राजशास्त्र, समाजशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, उद्योगतन्त्र धर्म के अविरोधी है इसलिये सबक लिये हितकारी है ।
- भारत अध्यात्मनिष्ठ धर्मपरायण देश है। उसकी धर्म संकल्पना सम्प्रदाय संकल्पना से अलग है, अधिक व्यापक है और सर्वसमावेशक है।
- भारत की आकांक्षा सदा से ही सब सुखी हों, सब निरामय हों, सब का कल्याण हो, किसी को कोई दुःख न हो ऐसी ही रही है। इसके अनुकूल ही भारत का व्यवहार और व्यवस्थायें बनती हैं। विश्व के सन्दर्भ में भारत की कल्पना 'सर्व खलु इदं ब्रह्म' की है। विश्व को भारत का ऐसा परिचय प्राप्त हो इस दृष्टि से आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में साहित्य की निर्मिति होनी चाहिये । विश्व के लोगोंं के लिये कार्यक्रम होने चाहिये । विश्वविद्यालय के लोगोंं को विश्व के देशों में जाना चाहिये। आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की शाखायें भी विदेशों में होनी चाहिये।
- आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में एक ओर तो विश्वअध्ययन केन्द्र होना चाहिये और दूसरा भारत अध्ययन केन्द्र भी होना चाहिये । वर्तमान की स्थिति ऐसी है कि भारत पश्चिम के प्रभाव में जी रहा है, उसकी सारी व्यवस्थायें पश्चिमी हो गई हैं, भारत को अपने आपके विषय में कोई जानकारी नहीं है, पश्चिम की दृष्टि से भारत अपने आपको देखता है, पश्चिम की बुद्धि से अपने शास्त्रों को जानता है । इस समय भारत की प्रथम आवश्यकता है अपने आपको सही रूप में जानने की। भारत भारत बने, वर्तमान भारत अपने आपको सनातन भारत में परिवर्तित करे इस हेतु से भारत अध्ययन केन्द्र कार्यरत होना चाहिये । इसमें धार्मिक जीवनदृष्टि, भारत की विचारधारा, भारत की संस्कृति परम्परा, भारत की अध्यात्म और धर्म संकल्पना, भारत की शिक्षा संकल्पना, भारत के दैनन्दिन जीवन व्यवहार में और विभिन्न व्यवस्थाओं में अनुस्यूत आध्यात्मिक दृष्टि आदि विषय होने चाहिये। धार्मिक जीवन व्यवस्था और विश्व की अन्य जीवनव्यवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन, भारत की विश्व में भूमिका आदि विषयों में अध्ययन होना चाहिये । वर्तमान भारत में पश्चिमीकरण के परिणाम स्वरूप क्या क्या समस्यायें निर्माण हुई हैं और उनका समाधान कर हम भारत को पश्चिमीकरण से कैसे मुक्त कर सकते हैं इस विषय का भी अध्ययन होना चाहिये । संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी आन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत संस्थाओं के माध्यम से अमेरिका किस प्रकार अन्य देशों सहित भारत को अपने चंगुल में रखे हुए है इसका भी विश्लेषणात्मक अध्ययन होना चाहिये।
इस अध्ययन केन्द्र में अध्ययन के साथ अनुसन्धान भी निहित है। यह अनुसन्धान ज्ञानात्मक आधार पर व्यावहारिक प्रश्नों के निराकरण हेतु होना चाहिये । केवल अनुसन्धान और व्यावहारिक अनुसन्धान का अनुपात तीस और सत्तर प्रतिशत का होना चाहिये ।
दोनों अध्ययन केन्द्रों में विश्व के अनेक देशों से तेजस्वी विद्यार्थी अध्ययन हेतु आयें ऐसी इसकी प्रतिष्ठा बननी चाहिये परन्तु इण्टरनेट के इस युग में विज्ञापन के माध्यम से प्रचार हो और प्रतिष्ठा बने ऐसा मार्ग नहीं अपनाना चाहिये । प्रतिष्ठा ज्ञान को ही, संस्था की नहीं । इसलिये इण्टरनेट के माध्यम से ज्ञान के सर्वत्र पहुँचाने की व्यवस्था की जा सकती है। हम मौन रहें और अन्य लोग प्रशंसा करें इस लायक हों यह सही धार्मिक मार्ग है।
13 .आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का चरित्र राष्ट्रीय होना अपेक्षित है । राष्ट्रीय का अर्थ है धार्मिक जीवनदृष्टि के अनुसार उसका अधिष्ठान लिये । इसका चरित्र ज्ञानात्मक होना चाहिये। भारत में ज्ञान को कार्यकुशलता, भावना, विचार, बुद्धिमत्ता, विज्ञान, संस्कार आदि सभी बातों से उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया गया है। ज्ञान आत्मतत्त्व का लक्षण है। श्रीमद् भगवद् गीता में कहा है, 'न हि ज्ञानेन सद्दश पवित्रमिहे विद्यते' - इस संसार में ज्ञान जैसा पवित्र और कुछ नहीं है। इस ज्ञान का ही अधिष्ठान विश्वविद्यालय को होना चाहिये । राष्ट्रीयता और ज्ञानात्मक अधिष्ठान के साथ । साथ व्यावहारिक और वैश्विक सन्दर्भो को नहीं भूलना चाहिये, युगानुकूलता और देशानुकूलता के आयामों को भी नहीं भूलना चाहिये। सनातन का अर्थ प्राचीन नहीं होता, चिरपुरातन और नित्यनूतन ऐसा होता है। विश्वविद्यालय के चरित्र में ये सारे तत्त्वदिखाई देने चाहिये।
14. आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में एक विश्वस्तरीय सन्दर्भ ग्रन्थालय होना चाहिये । उसमें देशभर में जो राष्ट्रीय विचार का प्राचीनतम और अर्वाचीनतम साहित्य एकत्रित करना चाहिये । साथ ही अपने देश में जो अराष्ट्रीय धारायें चलती है उसका परिचय देने वाला साहित्य भी होना चाहिये। तीसरा प्रकार है विश्वभर में भारत के विषय में सही और गलत धारणा से, उचित और अनुचित प्रयोजन से, अच्छी और बुरी नियत से निर्मित साहित्य है वह भी होना चाहिये । देशविदेश की शिक्षा, संस्कृति, धर्म, तत्त्वज्ञान विषयक पत्रिकायें आनी चाहिये । आकारप्रकार में यह ग्रन्थालय नालन्दा के धर्मगंज का स्मरण दिलाने वाला होना चाहिये जो छ: छ: मंजिलों के नौ भवनों का बना हुआ था। इस सम्पूर्ण विश्वविद्यालय का चरित्र तक्षशिला का स्मरण दिलाने वाला होना चाहिये जिसकी आयु ग्यारहसौ वर्ष की थी और जो सिकन्दर के आक्रमण को परावर्तित करने का तथा आततायी सम्राट को राज्यभ्रष्ट करने का तथा उसका स्थान ले सके ऐसा सम्राट निर्माण करने का सामर्थ्य रखता था।
15. परन्तु आन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का प्राण तो वहाँ के अध्यापकऔर विद्यार्थी ही हो सकते हैं। तक्षशिला का यश उसकी कुलपति परम्परा और चाणक्य तथा जीवक जैसे अध्यापकों के कारण से है, भवन और ग्रन्थालय से नहीं। इसलिये सर्वाधिक चिन्ता इनके विषय में ही करनी चाहिये । देशभर से विद्वान, देशभक्त, जिज्ञासु, अध्ययनशील, विश्वकल्याण की भावना वाले अध्यापकों और विद्यार्थियों को इस विश्वविद्यालय में अध्ययन-अध्यापन-अनुसन्धान हेतु आमन्त्रित करना चाहिये । देशभर के महाविद्यालयों और विद्यालयों के विद्यार्थियों का प्रयत्नपूर्वक चयन करना चाहिये । साथ ही दस वर्ष के बाद अच्छे विद्यार्थी और बीस वर्ष के बाद अच्छे अध्यापक प्राप्त हों इस विशिष्ट हेतु से गर्भाधान से शिक्षा देनेवाला विद्यालय भी आरम्भ करना चाहिये। ये ऐसे विद्यार्थी होंगे जो भविष्य में इसी विश्वविद्यालय में कार्यरत होंगे। ऐसा विश्वविद्यालय शीघ्रातिशीघ्र प्रारम्भ होना चाहिये।
16. इस विश्वविद्यालय की सारी व्यवस्थायें पूर्णरूप से धार्मिक होनी चाहिये । वास्तुशास्त्र, स्थापत्यशास्त्र, पर्यावरण आदि का विचार कर भवन, फर्नीचर, मैदान, बगीचा, पानी और स्वच्छता आदि की व्यवस्थायें बननी चाहिये । उदाहरण के लिये
- विश्वविद्यालय परिसर में कोई पेट्रोल संचालित वाहन प्रवेश नहीं करेगा, उनके स्थान पर रथ, पालखी, साइकिल, रिक्सा आदि अवश्य होंगे।
- विद्यालय परिसर में, अथवा कम से कम भवनों के कक्षों में पादत्राण का प्रयोग नहीं होगा।
- इस विश्वविद्यालय में धार्मिक वेश पहनकर ही प्रवेश हो सकेगा । विदेशी भी धार्मिक वेश पहनेंगे।
- भोजन सात्त्विक और शुद्ध शाकाहारी होगा।
- इस विश्वविद्यालय में अध्ययन अध्यापन करने वाले हाथ से होने वाले कामों में हाथ बँटायेंगे। बिना कारसेवा के कोई नहीं रहेगा।
- विश्वविद्यालय में बैठने की व्यवस्था धार्मिक रहेगी। आपात्कालीन व्यवस्थायें अधार्मिक हो सकती हैं परन्तु शीघ्रातिशीघ्र उनका त्याग करने की मानसिकता विकसित होगी।
- विश्वविद्यालय में सिन्थेटिक पदार्थों और सिन्थेटिसीझम का पूर्ण निषेध रहेगा।
- विद्युत का प्रयोग नहीं करने का साहस भी दिखाना होगा।
- विश्वविद्यालय में भोजन की व्यवस्था में किसी स्वास्थ्य और पर्यावरण विरोधी यन्त्रों, मसालों और खाद्य सामग्री का प्रयोग नहीं होगा।
- विश्वविद्यालय का भवन प्राकृतिक सामग्री का प्रयोग कर बनाया जायेगा।
इन बातों का अर्थ यह नहीं है कि सब कुछ असुविधा से भरा हुआ होगा। उल्टे अधिक सुविधापूर्ण हो इसका ध्यान रखा जायेगा। हमें पर्यावरण रक्षा, स्वास्थ्य और सुविधा एकदूसरे के अविरोधी हो सकते हैं यही सिद्ध करना होगा । इसी दृष्टि से सारे आयोजन किये जायेंगे। अध्ययन का समय, अध्ययन की पद्धति, अध्ययन के सन्दर्भ, दिनचर्या, ऋतुचर्या आदि सभी बातें धार्मिक बनानी होंगी। साथ ही अध्यापकों और विद्यार्थियों के लिये अध्ययन अध्यापन के अनुकूल आचारशैली भी अपनानी होगी। विदेशों से आने वाले विद्यार्थी विश्वविद्यालय की जीवनशैली अपनायेंगे, विश्वविद्यालय उनके लिये अपनी शैली में परिवर्तन नहीं करेगा।
विश्वविद्यालय में अध्ययन का माध्यम हिन्दी या संस्कृत रहेगा। विदेशी विद्यार्थी भी इनमें से एक अथवा दोनों का अभ्यास करके आयेंगे। अंग्रेजी भाषा में लिखे गये ग्रन्थों का अध्ययन करने की अनुमति तो रहेगी परन्तु माध्यम अंग्रेजी नहीं होगा।
६. सरकार की भूमिका
आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को भारत सरकार का अनुमोदन अवश्य होना चाहिये । यह सरकार की भी प्रतिष्ठा का विषय बनेगा । परन्तु यह विश्वविद्यालय सरकारी नहीं होगा। भारत सरकार की पहल से नहीं बनेगा । अन्य विश्वविद्यालयों के समान संसद में प्रस्ताव विधेयक पारित कर, कानून बनाकर, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की मान्यता लेकर यह नहीं बनेगा। अध्यापकों की पहल से बनेगा। अध्यापकों की बनी हुई आचार्य परिषद अपने में से ही योग्य व्यक्ति को कुलपति नियुक्त करेगी और कुलपति के नेतृत्व में आचार्य परिषद विश्वविद्यालय का संचालन करेगी। भारत सरकार, उद्योगसमूह, जनसामान्य अर्थ का सहयोग करेंगे परन्तु नियन्त्रण नहीं।
इस विश्वविद्यालय की शैक्षिक गतिविधियों का आयोजन नियोजन विश्वविद्यालय स्वयं करेगा। सर्व प्रकार की जिम्मेदारी विश्वविद्यालय स्वयं वहन करेगा, समाज सहयोग करेगा। अध्यापकों के ज्ञान और चरित्र से तथा सरकार और देश की आवश्यकता विषयक जागृति से प्रेरित होकर विश्वविद्यालय को सहयोग अवश्य मिलेगा। इस विषय में भी वह तक्षशिला विद्यापीठ का ही अनुसरण करेगा।
इस विश्वविद्यालय के प्रमाणपत्रों की प्रतिष्ठा देश के और विदेशों के विश्वविद्यालयों में होगी। अनेक विश्वविद्यालय इसके शैक्षिक पक्ष को अपनाना चाहेंगे। इस विषय में विश्वविद्यालय संगठनात्मक काम भी करेगा अन्य विश्वविद्यालयों को अपने कार्य में सहभागी बनायेगा।
१२. यह विश्वविद्यालय वर्तमान समय की आवश्यकता को पहचानकर लोकशिक्षा और परिवार शिक्षा का कार्यक्रम भी नियमित रूप से चलायेगा । वास्तव में शिक्षा से सम्बन्धित सभी पक्षों का एक साथ समग्रता में विचार करना ही विश्वविद्यालय का मुख्य प्रयोजन रहेगा । विश्व को मार्गदर्शन करने हेतु भारत को समर्थ बनाना मुख्य मार्ग है । सभी समस्याओं का ज्ञानात्मक हल ढूँढना सही पद्धति है। सम्पूर्ण ज्ञान को व्यवहारक्षम बनाना अनिवार्य आवश्यकता है। इन बातों को आधारभूत सूत्र बनाकर विश्वविद्यालय को शीघ्रातिशीघ्र कार्यरत करना चाहिये ।
वैश्विक संकटों का निवारण केवल इच्छा करने से नहीं होगा, प्रत्यक्षा काम करने से होगा, शिक्षा का एक ऐसा स्वरूप खडा करना जो सबको उपयोगी लगे, उसमें सबकी सहभागिता हो, यह आज की आवश्यकता है। हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि ऐसा आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय शीघ्र ही हो।
१३. आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय बनाने हेतु पूर्वतैयारी : ऐसा विश्वविद्यालय बनाने का काम सरल नहीं है । भारत का वर्तमान शैक्षिक वातावरण अत्यन्त विपरीत है। धार्मिक शास्त्रों का अध्ययन शिक्षा की मुख्य धारा में नहीं होता है। जहाँ होता है वहाँ वर्तमान समय के व्यावहारिक सन्दर्भो के बिना होता है।।
सर्वसामान्य जनजीवन पश्चिमीप्रभाव से ग्रस्त है। पश्चिम हमारे घरों की रसोई और शयन कक्षों तक घुस गया है। युवा, किशोर, बाल धार्मिक नामक कोई जीवनदृष्टि होती है ऐसी कल्पना से भी अनभिज्ञ हैं। अंग्रेजी माध्यम में पढनेवाले भारत में ही अधार्मिक बनकर रहते हैं। विश्वविद्यालयों के बारे में मनीषी कहते हैं कि ये विश्वविद्यालय भारत में अवश्य हैं परन्तु उनमें भारत नहीं है । भारत बनाने की बात तो दूर की है । जितना बचा है उतने भारत को भी वे भारत रहने देना नहीं चाहते हैं । राष्ट्रविरोधी गतिविधियाँ भारत के ही पैसे से पूरजोर में चलती हैं। ऐसे कई वर्ग हैं जो भारत से रक्षण पोषण और सुविधायें तो अधिकारपूर्वक चाहते हैं परन्तु धार्मिक बनकर रहना नहीं चाहते । सरकार धार्मिक शिक्षा का समर्थन नहीं कर रही है। प्रशासक वर्ग अभी भी ब्रिटीशों का उत्तराधिकारी बनकर ही व्यवहार करता है।
ऐसी स्थिति में धार्मिक स्वरूप का आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय बनाना सरल कार्य नहीं है। परन्तु करना अनिवार्य है ऐसा समझकर इन सभी अवरोधों को पार कर कैसे बनेगा इस दिशा में ही विचार करना चाहिये । यह सब हमारी पूर्वतैयारी होगी। इस तैयारी के विषय में हमें कुछ इन चरणों में विचार करना होगा।
१. आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का स्वरूप और उसकी आवश्यकताओं का प्रारूप बनाकर संचार माध्यमों के द्वारा देशभर में व्यापक रूप में प्रचारित कर सबसे सहयोग का निवेदन करना चाहिये । आर्थिक आवश्यकता कम तो नहीं होगी। अतः व्यापक सहयोग की आवश्यकता रहेगी।
२. आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय बनाने की आवश्यकता समझाकर देश के अनेक विश्वव्यापी सांस्कृतिक संगठनों को ऐसा विश्वविद्यालय प्रारम्भ करने हेतु निवेदन करना चाहिये। उनके पास व्यवस्थाओं की सुलभता होती है।
३. केन्द्र और राज्य सरकार के शिक्षामन्त्रियों, मुख्य मन्त्रियों और प्रधानमंत्री से भेंट कर इस विश्वविद्यालय के प्रारूप पर चर्चा और उसके संचालन में सरकार की ओर से आनेवाले प्रतिरोधों और अवरोधों को दूर करने हेतु संवाद करना चाहिये । उसके बाद समर्थन की भी अपेक्षा करनी चाहिये ।
४. देश के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के उत्तम अध्यापकों को इस कार्य में जुडने हेतु आवाहन करना चाहिये । इसी प्रकार से छात्रों को भी आवाहन करना चाहिये।
५. विद्यार्थियों और अध्यापकों को ज्ञानसाधना हेतु सिद्ध करना चाहिये।
६. पाँच वर्ष की अध्ययन की योजना बनाकर विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में वितरित करनी चाहिये । जो जहाँ है वहाँ अध्ययन आरम्भ करे ऐसा निवेदन करना चाहिये।
७. प्रासंगिक और व्यक्तिगत अध्ययन आज भी बहुत हो रहा है। इस अध्ययन को समग्रता का अंग बनाने की योजना करनी चाहिये।
८. समग्रता में चिन्तन और अध्ययन हेतु अध्यापकों के समूहों को साथ बैठकर योजना बनानी होगी। विषयसूची बनाकर उसका विभाजन कर, समय-सीमा निर्धारण कर नियोजित पद्धति से काम करना होगा।
९. विधिवत आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय होने से पूर्व मुक्त विश्वविद्यालय, चल विश्वविद्यालय, लोक विश्वविद्यालय आदि रूप में भी कार्य हो सकता है। लघु रूप में ग्रन्थालय का प्रारम्भ हो सकता है । छुट्टियों में विद्यार्थियों और अध्यापकों के लिये अध्ययन और अनुसन्धान के प्रकल्प प्रारम्भ हो सकते हैं ।
१०. लोगोंं को कमाई, मनोरंजन, अन्य व्यस्ततार्ये कम कर खर्च और समय बचाकर इस कार्य में जुड़ने हेतु आवाहन किया जा सकता है।
११. सभी कार्यों के आर्थिक सन्दर्भ नहीं होते । सेवा के रूप में भी अनेक काम करने होते हैं इस बात का स्मरण करवाना चाहिये।
१२. विश्वविद्यालय आरम्भ होने से पूर्व अध्यापकों और विद्यार्थियों की मानसिक और बौद्धिक सिद्धता बनाने के प्रयास होना आवश्यक है।
१३. साहित्यनिर्माण का कार्य विश्वविद्यालय प्रारम्भ होने से पूर्व भी हो सकता है।
१४. तात्पर्य यह है कि औपचारिक प्रारम्भ होना ही प्रारम्भ है ऐसा नहीं है । देखा जाय तो अनौपचारिक रूप में तो भारत को बचाये रखना, भारत को भारत बनाने और विश्व को भी उपदेश देने का कार्य तो अभी भी हो रहा है । वह यदि नियोजित पद्धति से, एक उद्देश्य से, साथ मिलकर समवेत रूप में होगा तो अधिक प्रभावी ढंग से होगा। एक समय निश्चित रूप से आनेवाला है जब विश्व की सभी आसुरी शक्तियाँ और देवी शक्तियाँ संगठित होकर आमने सामने खडी होंगी। छोटे छोटे युद्ध, आतंकवादी हमले, बाजार और इण्टरनेट के माध्यम से आक्रमण तो चल ही रहा है परन्तु निर्णायक युद्ध भी शीघ्र ही होने वाला है। आज चल रहा है उस मार्ग पर चलकर विश्व बच नहीं सकता। बिना युद्ध के विश्व मार्ग नहीं बदलेगा। इस युद्ध में मुख्य भूमिका निभाने के लिये भारत को सिद्ध होना है। यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति ।
१५. आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के मापदण्ड वर्तमान में भारत के शिक्षाक्षेत्र की स्थिति ऐसी है कि विद्यार्थी आठ वर्ष तक पढता है तो भी उसे लिखना और पढ़ना नहीं आता । वह दसवीं या बारहवीं में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होता है तो भी उसे पढे हुए विषयों का ज्ञान नहीं होता। अब तो विद्यार्थियों की आमधारणा बन गई है कि उत्तीर्ण होने के लिये पढने की नहीं चतुराई की आवश्यकता होती है। लोगोंं की भी धारणा बन गई है कि पढे लिखे को व्यवहारज्ञान या जीवनविषयक ज्ञान होना आवश्यक नहीं । शिक्षित लोगोंं का सर्वमान्य लक्षण है भाषाशुद्धि और अभिजात्य । आज दो में से एक भी नहीं है।
आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में इस धारणा को सर्वथा बदलने की आवश्यकता रहेगी। सत्रह अठारह वर्ष का युवक दिन के बारह पन्द्रघण्टे अध्ययन नहीं करता तो वह विश्वविद्यालय का विद्यार्थी कहा जाने योग्य नहीं होगा। यदि सात्त्विक भोजन, पर्याप्त व्यायाम और योगाभ्यास के माध्यम से वह अपनी शारीरिक, मानसिक
और बौद्धिक क्षमताओं का विकास नहीं करेगा तो वह अध्ययन करने के लायक ही नहीं होगा। यदि बाजार में जाकर उचित दाम पर आवश्यक वस्तुओं की गुणवत्ता परख कर खरीदी करने की कुशलता विकसित नहीं करेगा तो वह अध्ययन करने के लायक ही नहीं बनेगा। यदि कष्ट सहने की क्षमता विकसित नहीं करेगा, सुविधाओं का आकर्षण नहीं छोड़ेगा तो अध्ययन करने के लायक ही नहीं बनेगा।
विश्वविद्यालय में प्रवेश से पूर्व इस प्रकार की योग्यता विद्यार्थियों को प्राप्त करनी होगी। प्रश्न यह है कि फिर विद्यार्थी ऐसे विश्वविद्यालय में क्यों आयेगा ? जब अन्यत्र शिक्षा सुलभ है । तब ऐसे कठोर परिश्रम की अपेक्षा करने वाले विश्वविद्यालय में क्यों कोई जाय ? परन्तु इस देश में कुछ अच्छे लोग भी होते हैं। उनमें विद्याप्रीति है, कठिनाई से प्राप्त होनेवाली बातों का आकर्षण है, जिज्ञासा है और महान उद्देश्ययुक्त काम में जुड़ने की आकांक्षा भी है। ऐसे लोगोंं के लिये आज अवसर नहीं है। आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय ऐसा अवसर देगा । इसलिये उसके मापदण्ड उच्च प्रकार के होंगे।
जिस प्रकार अध्ययन की योग्यता चाहिये उस प्रकार से अध्ययन के विनियोग के विषय में भी स्पष्टता चाहिये । इस अध्ययन का उपयोग केवल व्यक्तिगत आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये नहीं करना है अपितु जिस उद्दश्य से विश्वविद्यालय बना है उस उद्देश्य की पूर्ति के कार्य में सहभागी होने हेतु करना है । आज व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के नाम पर शुल्क देने के अलावा विद्यालय या शिक्षाक्षेत्र या समाज या देश के प्रति कर्तव्य की पर्ति । की कोई अपेक्षा ही नहीं की जाती। परीक्षा पूर्ण होते ही विश्वविद्यालय और विद्यार्थी का सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। अध्यापकों का भी ऐसा ही है। विश्वविद्यालय छोडकर दूसरा व्यवसाय, दूसरा विश्वविद्यालय अत्यन्त सरलता से अपनाया जाता है। विश्वविद्यालय से मिलने वाला वेतन बन्द हुआ कि सम्बन्ध भी समाप्त हो जाता है। इस आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में ऐसा नहीं होगा । अध्ययन के बाद भी सेवा निवृत्ति के बाद भी विद्यार्थी और अध्यापक विश्वविद्यालय के साथ जुड़े रहेंगे, किंबहुना औपचारिक सेवानिवृत्ति और अध्ययन की पूर्णता होगी भी नहीं। विश्वविद्यालय का कार्य एक मिशन होगा जिसमें सब अपनी अपनी क्षमता से सहभागी होंगे।
इसी प्रकार से व्यवसाय बदलना भी सम्भव नहीं होगा।
विश्वविद्यालय की योजना के अनुसार धार्मिक शास्त्रों का ही अध्ययन होगा । अतः उस प्रकार के छात्र ही इसमें अध्ययन हेतु आयेंगे।
विश्वविद्यालय की स्थापना की प्रक्रिया में ही सरकार का नियन्त्रण नहीं होगा ऐसी कल्पना की गई है। अब अन्य विश्वविद्यालयों के समान पाठ्यक्रम होने चाहिये जिससे विश्वविद्यालय बदलने में कठिनाई न हो ऐसा दबाव बन सकता है परन्तु ऐसा करना सम्भव नहीं होगा क्योंकि अन्य विश्वविद्यालय यूरोपीय ज्ञानसंकल्पना के अनुसार चलेंगे परन्तु आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय धार्मिक ज्ञानपरंपरा में चलेगा इस बात की स्पष्टता करनी होगी।
इस विश्वविद्यालय में आवश्यक नहीं होगा कि नियत समय में ही पाठ्यक्रम पूर्ण होगा, नियत स्वरूप में ही परीक्षा यें होंगी सबके लिये समान अवधि रहेगा । विद्यार्थी की क्षमता और तत्परता के अनुसार कमअधिक समय लग सकता है।
संक्षेप में विश्वविद्यालय के मापदण्ड भी धार्मिक पद्धति के अनुसार होंगे।
आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय काम करने लगेगा तब संकल्पनायें और व्यवहार कालक्रम में स्पष्ट होते जायेंगे ।
References
धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे