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=== अध्याय ४२ ===
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विश्व को सहायक बनने हेतु भारत क्या करे इसका विचार करना चाहिये, केवल चिन्ता करने से काम नहीं चलेगा।
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हमें एक आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना करनी चाहिये । ऐसा विश्वविद्यालय वास्तव में आन्तर्राष्ट्रीय स्तर और स्वरूप क्या होता है इसका नमूना प्रस्तुत करने हेतु होना चाहिये। इस विश्वविद्यालय में अध्ययन का स्वरूप कुछ इस प्रकार का हो सकता है...
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==== १. विश्व के देशों के सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन की योजना बनानी चाहिये। ====
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इतिहास का वर्तमान स्वरूप राजकीय इतिहास का है। शासकों को केन्द्र में रखकर सारी बातों का अध्ययन होता है। सबके अध्ययन में शासकों के स्थान पर प्रजाओं को केन्द्र में रखकर अध्ययन की योजना बनानी चाहिये।
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ऐसे अध्ययन हेतु प्रथम विश्व की प्रजाओं के कुछ समूह भी बना सकते हैं। प्राथमिक स्वरूप बनाकर अध्ययन प्रारम्भ करना और बाद में आवश्यकता के अनुसार समूह बदलते जा सकें ऐसी सम्भावना हो सकती है । अध्ययन में इस प्रकार का लचीलापन हो सकता है।
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इतिहास के अध्ययन के लिये हम प्राचीन काल से आज तक आने की दिशा न पकडें । हम आज जहाँ हैं वहाँ से शुरू करें और अतीत की ओर चलें । यह अपेक्षाकृत सरल होगा और व्यावहारिक भी क्योंकि अध्ययन के लिये हमें जीवित सन्दर्भ प्राप्त होंगे।
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अध्ययन का स्वरूप व्यापक रखना आवश्यक रहेगा । एक छोटा मुद्दा पकडकर उसकी गहराई तक जाकर छानबीन करने के स्थान पर या एक छोटा प्रदेश चुनकर उसका अतीत में पहुंचने तक का अध्ययन करने के स्थान पर स्थान और प्रजाओं का व्यापक रूप में चयन कर अध्ययन प्रारम्भ करना चाहिये।
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अध्ययन हेतु हमें उन उन देशों में जाकर दो पाँच वर्ष तक रहने की योजना बनानी चाहिये । व्यावहारिक कारणों से वर्ष के आठ मास उस देश में और चार मास भारत में विश्वविद्यालय केन्द्र में रहना उचित रहेगा। इसमें अध्येता को आवश्यक लगे ऐसा परिवर्तन किया जा सकता है।
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इस अध्ययन के लिये उस देश के विद्वज्जन और सामान्यजन दोनों की सहायता प्राप्त की जा सकती है। उस देश का विश्वविद्यालय और शासन हमारे सहयोगी हो सकते हैं। उस देश का अध्ययन किया हो अथवा कर रहे हों ऐसे अन्य देशों के विद्वानों के साथ सम्पर्क स्थापित करना भी आवश्यक रहेगा।
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उस देश का वर्तमान जीवन जानना प्रारम्भ बिन्दु रहेगा। अर्थव्यवस्था, अर्थ के सम्बन्ध में दृष्टि, समाजव्यवस्था के मूल सिद्धान्त, कानून की दृष्टि, धार्मिक आस्थायें, शिक्षा का स्वरूप, शासन का स्वरूप, प्रजामानस आदि हमारे अध्ययन के विषय बनेंगे। लोगों के साथ बातचीत, प्रजाजीवन का अवलोकन, विद्वज्जनों से चर्चा और लिखित साहित्य हमारे साधन होंगे।
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वर्तमान से प्रारम्भ कर प्रजा के अतीत की ओर जाने का क्रम बनाना चाहिये। इन प्रजाओं का मूल कहाँ कहां है, वे किसी दूसरे देश से कब और क्यों यहां आये हैं, उनसे पहले यहाँ कौन रहता था, वे आज कहाँ है इसकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिये । वर्तमान में और अतीत में इस प्रजा का दूसरी कौन सी प्रजाओं के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध रहा है, वे आज किस देश से प्रभावित हो रहे हैं यह भी जानना चाहिये । इस देश का पौराणिक साहित्य इस देश का कैसा परिचय देता है और अपने अतीत से वर्तमान किस प्रकार अलग अथवा समान है यह जानना भी उपयोगी रहेगा । वर्तमान से अतीत में और अतीत से वर्तमान में देश की भाषा, वेशभूषा, खानपान, घरों की रचना, सम्प्रदाय, शिक्षा किस प्रकार बदलते रहे हैं यह जानना । । उपयोगी रहेगा। इस देश का नाम, भूगोल, विवाह पद्धति, परिवाररचना भी जानना चाहिये ।
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इस प्रकार से विश्व के इतिहास की मोटे तौर पर रूपरेखा हमारे पास तैयार होगी। विश्व को नियन्त्रित करने वाले, नियमन में रखने वाले तत्त्व कौन से हैं यह भी समझ में आयेगा । विश्वजीवन में इन देशों का कैसा योगदान है, ये कितने उपकारक, अपकारक या तटस्थ हैं इसका भी आकलन हम कर सकेंगे । हमारा अध्ययन राजकीय प्रभावों से मुक्त और सांस्कृतिक प्रवाहों के प्रति संवेदनशील होना चाहिये । हमारी इतिहास दृष्टि हमारी ही होगी।
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हम जिस देश का अध्ययन कर रहे हैं उस देश की जीवनदृष्टि और विश्वदृष्टि क्या है और किन विविध रूपों में वह अभिव्यक्त हो रही है, देश की समस्यायें और उपलब्धियाँ क्या है, राष्ट्रजीवन का प्रवाह किस गति से किस और बह रहा है, उसमें अवरोध हैं कि नहीं, यदि हैं तो उनका स्वरूप कैसा है, उन अवरोधों को दूर करने का प्रजा का पुरुषार्थ कैसा है आदि बातें हमारे अध्ययन का विषय रहेंगी।
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संक्षेप में इस देश का तत्त्वज्ञान और व्यवहार हमारे अध्ययन का विषय रहेगा।
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==== विश्व के विभिन्न सम्प्रदायों का अध्ययन ====
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धर्म निरपेक्षता, पन्थनिरपेक्षता, सेकुलरिझम, धार्मिक सहिष्णुता, साम्प्रदायिक सद्भाव, निधार्मिकता, साम्प्रदायिक कट्टरता आदि बातों का महान कोलाहल विश्व में मचा हुआ है । इस्लाम और इसाइयत विश्व के अर्थकारण, समाजकारण, राजकारण, लोकजीवन आदि को प्रभावित कर रहे हैं, यहाँ तक कि शिक्षा भी इनसे मुक्त नहीं है। धर्मान्तरण का बहुत बडा अभियान इन दोनों सम्प्रदायों के जन्मकाल से ही शुरू हुआ है और पूरा विश्व इसकी चपेट में आया हुआ है। इस स्थिति में सम्प्रदायों का अध्ययन करना आवश्यक रहेगा।
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<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
 
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे

Revision as of 11:47, 14 January 2020

अध्याय ४२

विश्व को सहायक बनने हेतु भारत क्या करे इसका विचार करना चाहिये, केवल चिन्ता करने से काम नहीं चलेगा।

हमें एक आन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना करनी चाहिये । ऐसा विश्वविद्यालय वास्तव में आन्तर्राष्ट्रीय स्तर और स्वरूप क्या होता है इसका नमूना प्रस्तुत करने हेतु होना चाहिये। इस विश्वविद्यालय में अध्ययन का स्वरूप कुछ इस प्रकार का हो सकता है...

१. विश्व के देशों के सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन की योजना बनानी चाहिये।

इतिहास का वर्तमान स्वरूप राजकीय इतिहास का है। शासकों को केन्द्र में रखकर सारी बातों का अध्ययन होता है। सबके अध्ययन में शासकों के स्थान पर प्रजाओं को केन्द्र में रखकर अध्ययन की योजना बनानी चाहिये।

ऐसे अध्ययन हेतु प्रथम विश्व की प्रजाओं के कुछ समूह भी बना सकते हैं। प्राथमिक स्वरूप बनाकर अध्ययन प्रारम्भ करना और बाद में आवश्यकता के अनुसार समूह बदलते जा सकें ऐसी सम्भावना हो सकती है । अध्ययन में इस प्रकार का लचीलापन हो सकता है।

इतिहास के अध्ययन के लिये हम प्राचीन काल से आज तक आने की दिशा न पकडें । हम आज जहाँ हैं वहाँ से शुरू करें और अतीत की ओर चलें । यह अपेक्षाकृत सरल होगा और व्यावहारिक भी क्योंकि अध्ययन के लिये हमें जीवित सन्दर्भ प्राप्त होंगे।

अध्ययन का स्वरूप व्यापक रखना आवश्यक रहेगा । एक छोटा मुद्दा पकडकर उसकी गहराई तक जाकर छानबीन करने के स्थान पर या एक छोटा प्रदेश चुनकर उसका अतीत में पहुंचने तक का अध्ययन करने के स्थान पर स्थान और प्रजाओं का व्यापक रूप में चयन कर अध्ययन प्रारम्भ करना चाहिये।

अध्ययन हेतु हमें उन उन देशों में जाकर दो पाँच वर्ष तक रहने की योजना बनानी चाहिये । व्यावहारिक कारणों से वर्ष के आठ मास उस देश में और चार मास भारत में विश्वविद्यालय केन्द्र में रहना उचित रहेगा। इसमें अध्येता को आवश्यक लगे ऐसा परिवर्तन किया जा सकता है।

इस अध्ययन के लिये उस देश के विद्वज्जन और सामान्यजन दोनों की सहायता प्राप्त की जा सकती है। उस देश का विश्वविद्यालय और शासन हमारे सहयोगी हो सकते हैं। उस देश का अध्ययन किया हो अथवा कर रहे हों ऐसे अन्य देशों के विद्वानों के साथ सम्पर्क स्थापित करना भी आवश्यक रहेगा।

उस देश का वर्तमान जीवन जानना प्रारम्भ बिन्दु रहेगा। अर्थव्यवस्था, अर्थ के सम्बन्ध में दृष्टि, समाजव्यवस्था के मूल सिद्धान्त, कानून की दृष्टि, धार्मिक आस्थायें, शिक्षा का स्वरूप, शासन का स्वरूप, प्रजामानस आदि हमारे अध्ययन के विषय बनेंगे। लोगों के साथ बातचीत, प्रजाजीवन का अवलोकन, विद्वज्जनों से चर्चा और लिखित साहित्य हमारे साधन होंगे।

वर्तमान से प्रारम्भ कर प्रजा के अतीत की ओर जाने का क्रम बनाना चाहिये। इन प्रजाओं का मूल कहाँ कहां है, वे किसी दूसरे देश से कब और क्यों यहां आये हैं, उनसे पहले यहाँ कौन रहता था, वे आज कहाँ है इसकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिये । वर्तमान में और अतीत में इस प्रजा का दूसरी कौन सी प्रजाओं के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध रहा है, वे आज किस देश से प्रभावित हो रहे हैं यह भी जानना चाहिये । इस देश का पौराणिक साहित्य इस देश का कैसा परिचय देता है और अपने अतीत से वर्तमान किस प्रकार अलग अथवा समान है यह जानना भी उपयोगी रहेगा । वर्तमान से अतीत में और अतीत से वर्तमान में देश की भाषा, वेशभूषा, खानपान, घरों की रचना, सम्प्रदाय, शिक्षा किस प्रकार बदलते रहे हैं यह जानना । । उपयोगी रहेगा। इस देश का नाम, भूगोल, विवाह पद्धति, परिवाररचना भी जानना चाहिये ।

इस प्रकार से विश्व के इतिहास की मोटे तौर पर रूपरेखा हमारे पास तैयार होगी। विश्व को नियन्त्रित करने वाले, नियमन में रखने वाले तत्त्व कौन से हैं यह भी समझ में आयेगा । विश्वजीवन में इन देशों का कैसा योगदान है, ये कितने उपकारक, अपकारक या तटस्थ हैं इसका भी आकलन हम कर सकेंगे । हमारा अध्ययन राजकीय प्रभावों से मुक्त और सांस्कृतिक प्रवाहों के प्रति संवेदनशील होना चाहिये । हमारी इतिहास दृष्टि हमारी ही होगी।

हम जिस देश का अध्ययन कर रहे हैं उस देश की जीवनदृष्टि और विश्वदृष्टि क्या है और किन विविध रूपों में वह अभिव्यक्त हो रही है, देश की समस्यायें और उपलब्धियाँ क्या है, राष्ट्रजीवन का प्रवाह किस गति से किस और बह रहा है, उसमें अवरोध हैं कि नहीं, यदि हैं तो उनका स्वरूप कैसा है, उन अवरोधों को दूर करने का प्रजा का पुरुषार्थ कैसा है आदि बातें हमारे अध्ययन का विषय रहेंगी।

संक्षेप में इस देश का तत्त्वज्ञान और व्यवहार हमारे अध्ययन का विषय रहेगा।

विश्व के विभिन्न सम्प्रदायों का अध्ययन

धर्म निरपेक्षता, पन्थनिरपेक्षता, सेकुलरिझम, धार्मिक सहिष्णुता, साम्प्रदायिक सद्भाव, निधार्मिकता, साम्प्रदायिक कट्टरता आदि बातों का महान कोलाहल विश्व में मचा हुआ है । इस्लाम और इसाइयत विश्व के अर्थकारण, समाजकारण, राजकारण, लोकजीवन आदि को प्रभावित कर रहे हैं, यहाँ तक कि शिक्षा भी इनसे मुक्त नहीं है। धर्मान्तरण का बहुत बडा अभियान इन दोनों सम्प्रदायों के जन्मकाल से ही शुरू हुआ है और पूरा विश्व इसकी चपेट में आया हुआ है। इस स्थिति में सम्प्रदायों का अध्ययन करना आवश्यक रहेगा।

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे