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# दान, भिक्षा, यज्ञ आदि आर्थिक व्यवस्थायें आर्थिक से भी अधिक सांस्कृतिक निहितार्थ बताती हैं । अर्थ को धर्म तथा संस्कृति के अधीन बनाने के ये सोचे समझे उपाय हैं । आज के समय में हम ऐसे और भी उपाय सोच सकते हैं।  
 
# दान, भिक्षा, यज्ञ आदि आर्थिक व्यवस्थायें आर्थिक से भी अधिक सांस्कृतिक निहितार्थ बताती हैं । अर्थ को धर्म तथा संस्कृति के अधीन बनाने के ये सोचे समझे उपाय हैं । आज के समय में हम ऐसे और भी उपाय सोच सकते हैं।  
 
# अर्थ के बिना अधिकतम आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके ऐसे व्यवहारों का विकास करना चाहिये । भारत में इसका खूब प्रचलन था। आज भी जागरुकतापूर्वक देखने से दिखाई देता है। इससे जीडीपी अवश्य कम होगा । परन्तु संस्कृति का मूल्य चुकाकर हम जीडीपी नहीं बढ़ा सकते । जीडीपी का बलिदान देकर संस्कृति को बल प्रदान कर सकते हैं।
 
# अर्थ के बिना अधिकतम आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके ऐसे व्यवहारों का विकास करना चाहिये । भारत में इसका खूब प्रचलन था। आज भी जागरुकतापूर्वक देखने से दिखाई देता है। इससे जीडीपी अवश्य कम होगा । परन्तु संस्कृति का मूल्य चुकाकर हम जीडीपी नहीं बढ़ा सकते । जीडीपी का बलिदान देकर संस्कृति को बल प्रदान कर सकते हैं।
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==== ३. अर्थ के प्रभाव से मुक्ति ====
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१. पश्चिम का एक लक्षण यह है कि वह सारी बातों को अर्थ के सन्दर्भ से ही देखता है । अर्थ के आधार पर ही वह सारी बातों का मूल्य आँकता है। यह बात अत्यन्त विघातक है, निकृष्ट दर्जे की है। भारत को अपने जीवनविचार में अर्थ के सन्दर्भ को छोड़ने की आवश्यकता है। भारत जब तक पश्चिम की चपेट में नहीं आया था तब तक ऐसा था भी नहीं । इसलिये अर्थ के सन्दर्भ को छोडना भारत के लिये भारत होना है, अपनी मूल स्वाभाविक स्थिति में लौटना है।
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इसका सबसे पहला व्यावहारिक उपाय है जीवन की धारणा करने वाली, मनुष्य को उन्नत बनानेवाली, सृष्टि का कल्याण करनेवाली जितनी भी बातें हैं उन्हें अर्थ के सन्दर्भ से मुक्त कर देना । वर्तमान स्थिति में यह बडा कठिन मामला है यह सत्य है, कठिन है इसलिये अव्यावहारिक लगता है यह भी सत्य है परन्तु भारत को भारत बनने की दिशा में यह एक अति महत्त्वपूर्ण कदम है।
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पानी जीवन को धारण करता है, औषधि शरीर को स्वस्थ बनाती है, विद्या जीवन को उन्नत बनाती है इसलिये इनका व्यापार नहीं किया जाना चाहिये यह अत्यन्त सादी और स्वाभाविक समझ भारत में बनी हुई थी । परिणाम स्वरूप भारत में कोई भूखा नहीं मरता था । भुखमरी का संकट अन्न को बेचने खरीदने का पदार्थ बना देने के कारण से निर्माण हुआ है। हम यह सिद्धान्त बना सकते हैं कि सांस्कृतिक मूल्य की बातों को अर्थ के अधीन बना देने से सांस्कृतिक संकट निर्माण होते हैं।
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भारत का मानस यह बात अच्छी तरह समझता है। इसलिये ज्ञान का दान करना है, उसका पैसा नहीं लेना है इसमें कोई आश्चर्य नहीं । बिमार व्यक्ति का उपचार कर उसे रोगमुक्त करना चिकित्सा का शास्त्र जाननेवाले के लिये स्वाभाविक है, उसका पैसा कैसे लिया जा सकता है ? सदुपदेश से किसी को सही मार्ग पर चलना सिखाने के पैसे नहीं लिये जाते । भारत के लिये जो इतना स्वाभाविक है उसे ही आज भारत अव्यावहारिक मानने लगा है। भारत को इससे मुक्त होकर अपने जीवनविचार की प्रतिष्ठा करनी होगी। उस विचार को कृति में उतारकर ही उसकी प्रतिष्ठा होगी।
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भारत में होटेल, हॉस्पिटल, न्यायालय और विश्वविद्यालय यदि एक रात्रि में बन्द कर दिये जाय तो क्या होगा इसकी कल्पना करें । सारे समाचार माध्यम, सारे शिक्षित लोग एक स्वर में, अत्यन्त चिन्तित और भयभीत होकर कहेंगे कि लोग भूखों मर जायेंगे, रोग बढ़ जायेंगे, अज्ञान का प्रवर्तन होगा और झगडे, हिंसा, मारामारी, लूट, डकैती आदि बढ़ जायेंगे । परन्तु कुछ लोग अवश्य कहेंगे कि ऐसा कुछ नहीं होगा, उल्टे अज्ञान, विपरीत ज्ञान, अस्वास्थ्य, भुखमरी आदि से मुक्ति मिल जायेगी।
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ये सब बन्द कर इसके पर्याय का विचार करना होगा। होटेल बन्द कर सदाव्रत चलाना, हॉस्पिटल बन्द कर डॉक्टरों को प्रजा के स्वास्थ्य हेतु जिम्मेदार बनाया जाय, विश्वविद्यालयों को बन्द कर प्रजा के अज्ञान को दर करने की जिम्मेदारी शिक्षकों को दी जाय और समस्त अर्थव्यवहार को बन्द कर दिया जाय तो भुखमरी, अज्ञान, अस्वास्थ्य, असंस्कारिता का संकट बहुत ही कम हो जायेगा । इन सारे संकटों का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारण तो अर्थ का सन्दर्भ ही है ।
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ये सारी बातें अव्यावहारिक लगने का कारण हमारा अज्ञान और आत्मविस्मृति है। हमारी परम्परा और हमारे शास्त्र दोनों इसे व्यावहारिक, स्वाभाविक और आवश्यक मानते हैं । अब भारत के वर्तमान मनीषियों को चाहिये कि वे अर्थनिरपेक्ष आहारव्यवस्था, चिकित्साव्यवस्था, न्यायव्यवस्था और शिक्षाव्यवस्था को व्यावहारिक बनाने हेतु चरणबद्ध उपाययोजना बतायें।
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८. इन व्यवस्थाओं को अर्थनिरपेक्ष बनाने हेतु अनेक छोटे छोटे उपायों से प्रारम्भ करना होगा । उदाहरण के लिये होटेल का खाना नहीं खाना', 'अन्नदान को अपने दैनन्दिन व्यवहार का अंग बनाना', 'उपदेश देने के पैसे नहीं लेना', 'यथासम्भव घरेलू उपचार से रोगमुक्त होना' आदि बातों को लेकर भारी मात्रा में समाजप्रबोधन करने की योजना बनानी चाहिये ।
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९. किसी भी प्रकार के विवादों को साथ मिलकर सुलझाने के व्यवहार को प्रतिष्ठा देने का प्रचलन बढाना चाहिये । दो के बीच में तीसरे का दखल परस्पर अविश्वास और असहयोग के कारण ही होता है । इसे कम करना अच्छा है, कम नहीं कर सकना अपनी दुर्बलता है ऐसे भाव का प्रसार करना चाहिये ।
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१०. अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना प्रथम तो अपनी स्वयं की जिम्मेदारी है । अपना काम कर लेने के बाद दूसरे का काम भी कर देना संस्कारिता है। किसी भी प्रकार के स्वार्थ, भय, लोभ, लालच के बिना आदर, श्रद्धा, स्नेह और दया से किसी का काम कर देना सेवा है, भय, लोभ, लालच या विवशता से दूसरे का काम करना गुलामी है, जिसे आज नौकरी कहा जाता है। सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु क्षमता प्राप्त करना अच्छा है । इस प्रकार के समीकरण विचार और व्यवहार के क्षेत्र में प्रतिष्ठित करने चाहिये । भारत के विद्वत्क्षेत्र का यह दायित्व है।
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११. आज विकसित और विकासशील देशों की गणना के लिये जीडीपी का निकष अपनाया जाता है। जीडीपी की गणना में भौतिक पदार्थ और सेवा का समावेश होता है । सेवा में शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक इन तीनों स्तरों के कार्यों का समावेश होता है। इसके परिणाम और आज की विश्व की स्थिति दर्शाती है कि यह व्यवहार संकटों को जन्म देता है । यह विचार और व्यवहार प्राथमिक स्वरूप की और अपरिपक्व बुद्धि का लक्षण है । यह भारत का विचार नहीं है इसका त्याग करना होगा।
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१२. इसके स्थान पर सेवा की संकल्पना को प्रतिष्ठित करना होगा । निःस्वार्थ भाव, लोभलालच, भय का अभाव, किसी भी प्रकार की विवशता का अभाव, स्नेह, दया, सख्य का भाव सेवा के प्रेरक तत्त्व है । सेवा अर्थ से परे हैं। अर्थ के संस्पर्श से सेवा प्रदूषित होती है । पश्चिम ने सेवा को अर्थ के अधीन बनाया है, भारत ने उसे अर्थ से मुक्त करना है। सेवा संकल्पना को प्रतिष्ठित कर भारत भारत बन सकता है।
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१३. भारत में आज भी अर्थ निरपेक्षता की इस मूल भावना का प्रचलन पर्याप्त मात्रा में है । भूकम्प, बाढ, त्सुनामी जैसे प्राकृतिक संकटों के समय लोग सेवा करते हैं, धर्मोपदेश हेतु पैसे नहीं माँगे जाते, सामाजिक संस्थाओं में लोग निःशुल्क काम करते हैं, धार्मिक संस्थाओं में बिना पैसे लिये लोग काम करते हैं, ऋग्णों की निःशुल्क परिचर्या होती ही है, अनेक अवसरों पर नियमित और नैमित्तिक भंडारे होते हैं, निःशुल्क पानी पिलाने की व्यवस्था होती है। यह मात्रा लक्षणीय है।
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१४. परन्तु अनेक बुद्धिमान लोग इन कार्यों को कौर्पोरेटजगत का हिस्सा बनाने का परामर्श देते हैं और स्वयं प्रयास भी करते हैं । वे इसे आधुनिकता कहते हैं । परन्तु यह तो बचे हुए भारत को अभारत बनाने का परामर्श है। हमें ऐसे विद्वानों को सामान्यजन की सेवा का परामर्श देना चाहिये क्योंकि सामान्यजन के अर्थनिरपेक्ष सेवा के व्यवहार से भारत भारत है ।
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१५. सर्व प्रकार के मानवीय सम्बन्धों में विवाहसम्बन्ध सबसे निकट सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध को अर्थनिरपेक्ष बनाने की आवश्यकता है। पतिपत्नी जिस मकान में रहते हैं वह मकान घर है।। अर्थसापेक्ष व्यवस्था में जिसके नाम पर मकान है उसका ही माना जाता है और दूसरा उसके मकान में रहने वाला है, विवाह के करार के तहत प्राप्त अधिकार से रहता है। परन्तु भारत में मकान भले ही पति के नाम पर हो घर तो गृहिणी का ही होता है, गृहिणी के घर में शेष सारे रहते हैं। 'गृहिणी' और 'गृहस्थ' का शब्दार्थ भी वही है । यह संस्कारिता है, भौतिकता से संस्कारिता का महत्त्व अधिक है।
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१६. विवाहविच्छेद की कीमत पैसे में चुकाई जाती है। मानहानि की कीमत पैसे में चुकाई जाती है दुर्घटना में अंगहानि या मृत्यु की कीमत भी पैसे में चुकाई जाती है। यह एकात्म सम्बन्ध, सम्मान और जीवहानि से भी ऊपर पैसे को प्रतिष्ठा देने की पद्धति है। पैसे में कीमत चुका देने के बाद सर्वप्रकार के अपराध बोध से भी मुक्ति मिल जाती है । यह अप्रगत मानसिकता का ही लक्षण है। भारत में ऐसा नहीं चलता, यदि चलता है तो नहीं चलना चाहिये ।
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१७. विकास की आर्थिक संकल्पना को छोडना चाहिये । पश्चिम ने इसे माना है और उसके प्रभाव से विश्व के सभी देशों ने इसका स्वीकार किया है। भारत को इसे छोडने का साहस दिखाना चाहिये। भारत को आग्रहपूर्वक कहना चाहिये कि विकास की संकल्पना सांस्कृतिक होती है, आर्थिक नहीं । अपने लिये तो भारत ने इसका स्वीकार कर ही लेना चाहिये ।
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१८. पश्चिम ने अनेक श्रेष्ठ बातों को तो अर्थ के अधीन बना दिया परन्तु अर्थ को केवल पैसे में अर्थात् द्रव्य में सीमित कर दिया । सारी बातें सिक्कों में परिवर्तित करने की प्रक्रिया जीवन को निर्जीवता की ओर ले जाती हैं और व्यवहारों और विचारों को यान्त्रिक बना देती हैं। भारत को सिक्कों का मानक बदलने की आवश्यकता है।
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१९. भारत ने अर्थ को बहुत व्यापक अर्थ दिया है। उसे पुरुषार्थ माना है । व्यक्ति को समर्थ बनकर अर्थार्जन करना चाहिये ऐसा भी प्रतिपादन किया है। समृद्धि,
    
==References==
 
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