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'ऑह' मिस्टर साहस्राबुढिये (सहस्रबुद्धे) ?फिर एक
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'ऑह' मिस्टर साहस्राबुढिये (सहस्रबुद्धे) ?फिर एक बार सुपरसेल्समेनशीप शुरू हुई। दफनभूमि के सौदे पर सहमत करने के लिये फिर एक बार उसने अपनी सभी शक्तियाँ दांव पर लगाई। अगर साहब भारत में होते और अग्निसंस्कार वाले ने 'साहब बांस सीधे आये हैं, चार आपके लिये अलग रख दूं क्या ?' ऐसा पूछा होता तो साहब ने उसको जिंदा ही ननामी पर बांधा होता । पर यह अमेरिका था। साहब ने नम्रता से कहा,'थेक्यु, थेंक्यु सो मच । पर हमारे धर्म में बेरियल नहीं होता क्रिमेशन होता है।। इझंट धेट बार्बर ? गुड नाइट । दूसरी ओर से उसने कहा, क्या यह जंगालियत नहीं है? शुभरात्री । यह कथा काल्पनिक नहीं है । मात्र पात्रों के नाम बदले हैं।
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जहाँ जीवन माने कुछ बेच के धनवान होने का अवसर इतना ही होता है वहाँ मुर्दे गाडने की भूमि बेचीए या पिढियों को बरबाद करनेवाले हशीश,गांजे जैसे मादक द्रव्य, सबकुछ उस संस्कृति के अनुरूप ही है। शस्त्रों की बिक्री कम हो जाएगी इस भय के मारे जिसे कोई लेनादेना नहीं ऐसे देश में जाकर बोम्ब गिरा देना, हम क्या बेच रहे हैं और उसका क्या परिणाम होगा उसके बारे में बिना कुछ सोचे बेचते रहना, उसके नये नये बाझार खोजना, विज्ञापन के नये नये तरीके खोजना,और उपर से बिक्रेताओं की जानलेवा स्पर्धा । बाझार में आनेवाला प्रतिस्पर्धी का सामान नष्ट करते करते प्रतिस्पर्धी को ही कैसे नष्ट किया जाय उसकी योजनाएं बनाना । ग्राहक की विवेकबुद्धि ही नष्ट करना। यह सब करते समय कोई विधिनिषेध का पालन नहीं करना । १२-१३ साल के बच्चों को मादक द्रव्य बेचनेवाले व्यापारियों के समक्ष उन बच्चों का भविष्य आता ही नहीं है। टीवी पर हत्या कैसे करना' उसकी शास्त्रीयशिक्षा देनेवालों को हम बालमन पर कैसे संस्कार कर रहे हैं इसकी कोई चिन्ता नहीं है । पूरे दिन मारधाड की फिल्में आती रहती हो तब बीच में 'सीसमी स्ट्रीट' जैसे कितने भी शैक्षिक कार्यक्रम कर लें, पर उन बच्चों के सामने तो गोलियों की बौछार कर मुर्दो के ढेर लगाता हिरो और ऐसे हिरो को नग्न होकर आलिंगन देनेवाली हिरोइन्स ही रहते हैं। मात्र १५ साल की आयु में जीवन के सभी विलास बिना किसी जिम्मेवारी के भोग । लेने के बाद आगे की जिदगी में किसी न किसीप्रकार की कृत्रिम उत्तेजना के बिना जीना ही असंभव हो जाता है। इसीमें से फीर मोटरसाइकल्स लेकर बेफाम घूमना शुरू हो जाता है । अनजान युगलों का बेफाम सहशयन शुरू होता है और इन सब का अतिरेक होने के बाद उसका नशा भी बेअसर हो जाता है। फिर उत्तेजना बढाने के लिये सायकेडेलिक विद्युतदीपों और कान बेहरे कर देने वाले संगीत में बेहोश होने के प्रयास शुरू हो जाते हैं।
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और अंत में दिमाग में इन सबका कीचड ही बच जाता है।
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अपने साधुओं के जैसे अखाडे होते हैं उसी प्रकार हिप्पियों के पेडस' होते हैं। अपने साधुओं की तरह ये लोग भी गंजेरी होते हैं । मादक पदार्थों के कारण इंस्टंट' समाधि लगती है। फिर यह थोक में हशीश गाँजा बेचनेवाली टोलियाँ बनती है। उनका वह गैरकानुनी व्यापार, आपस का खूनखराबा, उसी में से बना माफिया जैसा भयानक संगठन तो आंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी गतिविधियाँ चलाता है। मानवहत्या तो वहाँ रोजाना की चीज है।
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न्यूयोर्क, शिकागो, डिट्रोइट आदि शहर यमपुरी जैसी भयपुरियाँ बन चुके हैं। कहीं काले-गोरे का संघर्ष, कहीं अत्याधुनिक लूटखसोट और उनके संगठनों के बीच के संघर्ष और इस सब को मिलनेवाली बेशूमार प्रसिद्धि । सभी चीजों का अनापशनाप उत्पादन । डिट्रोइट का फॉर्ड मोटर का कारखाना देखने गया था वहाँ करीब करीब प्रतिमिनिट एक कार तैयार होती है। कारखाने के एक छोर पर लोहे का रस खौलता रहता है। सरकते पट्टे पर उसका प्रवास शुरू होता है। उसके पतरे बनते हैं, उनको आकार मिलता है, चारों तरफ से अलग अलग पुर्जे आते हैं, कंप्युटर की सहायता से जो भी रंग की मोटर चाहिये उस रंग के पार्टस योग्य स्थान पर आ जाते हैं,तीन चार फीट गहरी नालियों में उसे कसनेवाले कारीगर रहते हैं, आये हुए पुों को वे जोडते जाते हैं, दरवाजे, लाइट्स जुड़ते जाते हैं और देखते देखते मोटर तैयार हो जाती है । अंत में उसमें पेट्रोल डलता है और कार रास्ते पर आती है। प्रतिदिन आठ- नौ सौ कार्स बनती है । यह तो फॉर्ड के एक कारखाने की बात हुई । ऐसे असंख्य कारखाने प्रतिदिन हजारों कार्स तैयार करते हैं। फीर कुशल विज्ञापनकर्ता नये नये प्रकार से उसका गुणगान करते हैं और मोटर्स का स्तुतिपाठ निरंतर चलता रहता है । रेडियो -सिनेमा-टीवी सभी जगह निरंतर यही चलता रहता है। अमेरिका में अब करीब करीब सब के पास कार है । नया मोडेल आता है तो गत वर्ष वाली कार पुरानी हो जाती है । लोग हमें पिछडा कहेंगे ऐसा भय भी रहता है। पुरानी कार सस्ते में निकाल देना और नयी खरीदना चलता रहता है।
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इतना ही नहीं तो ये सभी चीजें किश्तों में मिलती है। अमेरिका में हर घर में दिखनेवाला फ्रीझ, फर्निचर, अनेक प्रकार के विद्युत उपकरण,मकान आदि सब किश्तों में प्राप्य है । अर्थात चीजें खरीदते जाना और उसके पैसे भरने के लिये कमाते जाना, उसमें भी निरंतर बदलती रहनेवाली फैशंस । विंटर फैशन, समर फैशन, ख्रिसमस फैशन । गत जाडे में पहना हुआ कोट इस जाडे में निकम्मा हो जाता है। गत माह का गाउन आज नहीं चलेगा। सास ने पहनी हुई बनारसी साडी आज पुत्रवधू भी पहन रही है यह द्रश्य वहाँ संभव ही नहीं है। फेंक दो। गाउन तो लोगों को दिखता भी है पर अंतर्वखों की फैशन भी हरमाह बदलती है। महिलाओं की केशभूषा करनेवालों का व्यवसाय जोर में चलता है। अब तो ९० प्रतिशत महिलाएं विविध फैशन की विम्स ही पहनती है। और हर महिला के पास असंख्य विग्झ । यह तो हुई तारुण्य खो रही महिलाओं की मशक्कत । छे दशक पूर्ण कर चूकी वृद्धाएं भी चेहरे की झुरींयाँ ढकने के लिये निरंतर प्रयासरत । नवयौवनाएं अब बाल खुला रख चीथडे पहन कर घुमने में जीवन की धन्यता मानती है । पर एक बार पचीसी पर पहुंचते ही वह पुरानी हो जाती है। फिर शुरू होती है स्थायी साथी की खोज । अगर सौभाग्य से वह मिल गया तो भाग्य, नहीं तो जीवन कटि पतंग की तरह दिशाहीन होकर एकाकी वार्धक्य की ओर बढता है।
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इस दिग्भ्रमित समाज में सर चकरा देनेवाली अस्थिरता ही सत्य है । परिवारसंस्था तो इतनी चरमरा गई है कि यह जहाज कहाँ और कब डूबेगा यह समज में भी नहीं आता है। मोटर सुलभ और रास्ते चौडे और चमकते होने के कारण लोग सौ -डेढसौ मील से व्यवसाय करने आते हैं । धनिक लोग अपने निजी विमानों में आते हैं। इसलिये उपनगरों में पूरा पुरुषवर्ग दिनभर घर से बाहर रहता है। अधिकांश महिलाएं भी काम पर जाती है। उसमें से अनेक समस्याएँ और उन समस्याओं से भी अधिक भयानक नये नये अनाचार । उसमें से एक है 'स्वेपिंग वाइफ'। अनेक युगल शरीरसुख के लिये आपस में अदलबदल करते हैं । प्रतिदिन नावीन्य के पीछे भटकने के पागलपन में से यह एक नया पागलपन । इन भयंकर लीलाओं में भी और एक अगाध लीला माने समलैंगिक पुरुषों की शादियाँ । विवाह में वधु का अस्तित्व ही नहीं । दोनो वर ।
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इस विकृति का भयंकर परिणाम यह हुआ है कि अगर कोई दो मित्र साथ साथ घुम रहे हैं तो वह अनैसर्गिक माना जाता है। समसंभोगी लोगों का भी एक संप्रदाय बना है। उनके अधिवेशन भी होते हैं। यह है 'गे' माने 'आनंदी' संप्रदाय । विचित्र आनंद । विवाह के कानूनों में परिवर्तन करने के लिये यह लोग आंदोलन कर रहे हैं। परिणाम स्वरूप माता पिता को एक नया डर, 'अपना बेटा घर में बहु लाएगा कि जमाई ? यह हमारे बेटे का पति' ऐसा परिचय कराने के दिन आ रहे हैं क्या ऐसा डर ।
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प्रतिदिन कुछ नया चाहिये । मन और शरीर को नया रोमांच चाहिये । आँखों को नया द्रश्य चाहिये । गरमी की छुट्टियाँ आते ही कार-स्कूटर तो क्या पर मोटर से जुडा पूरा मकान लेकर लोग सेंकडो मील घुमते रहते हैं । एक जमाने में कम से कम मकान तो स्थिर वस्तु थी। पर अब तो उसे भी पहिये लग गये हैं। एक्दम घर जैसे घर । दिवान खंड, रसोई, शयनखण्ड आदि सब तैयार । उसमें बैठ के लोग भटकते रहते हैं। ऐसे घरों के लिये स्थान स्थान पर बडे मैदान हैं। पैसा देकर उसे आरक्षित करा लेना रहता है।
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कुछ सुंदर जंगलों में जाकर तंबुओं में रहना, खुले में रहना । पर उन जंगलों में भी छुट्टियों के दिनों में हजारों तंबु लगे रहते हैं । याने वहाँ पर भी वैसी ही भीडभाड । मात्र मन को समझाना कि हम शहर से दूर आये हैं। वहाँ भी पोर्टेबल टीवी हैं। रात रात भर उदंड नाचगान चलते हैं, पर शांति मिलने की एक आशा भी है।
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ऐसी इस दिशाहीन घुमक्कड में से ही दुनियाभर मे घुमते अमेरिकन टुरिस्टों का उदय हुआ होगा। 'टुरीझम एक बडा व्यवसाय हो गया है इतना ही नहीं तो अमेरिकन टुरिस्टों को अपने देश में खिंचकर ले जाने की स्पर्धा भी शुरू हुई है। कोई भी प्राचीन इमारत या द्रश्यों को निरंतर अपने केमेरे में कैद करते फिरते ये टूरिस्टों को पागल ही कहा जा सकता है। भारत के स्मशान भी अब 'टुरिस्ट एटेक्शन सेंटर्स' बन चुके हैं । हिंदु अग्निसंस्कार का इन लोगों में अति विकृत आकर्षण है। जहाँ जीवन किट पतंग की तरह है ऐसी झोंपडपट्टियाँ देखने का इन्हें ताजमहाल से भी अधिक आकर्षण है। समृद्ध अमेरिका के लोगों को उसमें न्यू और एक्साइटिंग' कुछ मिल जाता है। उन्हें एक्साइटमेंट कहाँ से मिलेगा यह कहा ही नहीं जा सकता है। एक भारतीय नाटक में एक व्यक्ति शक्कर में से बने हाथी और उंट बेचता है । यहाँ तो मिठाईवाले चोकलेट में से आदमकद मनुष्य बनाते हैं। द्रश्य होता है सोये हुए जीवित मनुष्य जैसा । उसके फटे पेट में आंतें भी रहती है । उसे चीर कर यह मनुष्यभोगी लोग उसका कलेजा, नाक, कान, आँखें खाते हैं।
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'हाउ एक्साइटिंग !
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इस 'हाउ एक्साइटिंग' में से ही सारी समस्याएँ निर्माण होती हैं। कई हत्याएँ मात्र ‘एक्साइटमेंट' के लिये होती है। एक सौंदर्यप्रसाधन गृह में एक युवक गया और और वहाँ बाल बनवा रही आठ- दस महिलाओं को उसने अकारण ही पिस्तौल से मार दिया। उसमें उसे निर्हेतुक आनंद था । अपने देश में दारिद्रय के कारण मृत्यु सस्ती है पर अमेरिका में तो विपुल संपत्ति के कारण मृत्यु सस्ती है । पर वहाँ प्राकृतिक मौत बहुत महंगी है। 'दफन' की बात
    
==References==
 
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