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चिंता का विषय यह है कि अति उन्नत समझे जाने वाले इन राष्ट्रों का एक बड़ा तबका आज आर्थिक रूप से अनिश्चितता में जी रहा है।
 
चिंता का विषय यह है कि अति उन्नत समझे जाने वाले इन राष्ट्रों का एक बड़ा तबका आज आर्थिक रूप से अनिश्चितता में जी रहा है।
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कुछ राष्ट्र तो दिवालियेपन के कगार पर खड़े दिखाई दे रहे हैं, जिन्हें संभालने में इनकी सामूहिक ताकत लगी हुई है व विचलित नज़र आ रही है। जिनके पास समृद्धि है वह भी भविष्य के प्रति अनिश्चित हैं, ऐसा स्पष्ट दिखाई दे रहा है। बेरोजगारी व गरीबी की ऐसी मार पड़ रही है कि इन राष्ट्रों की आम जनता बुरी तरह से आतंकित है और यह कह रही है कि मात्र एक प्रतिशत लोगों के हाथों में ही इन राष्ट्रों के धन व सत्ता दोनों की पकड़ सीमित होती जा रही है। बहुमत का विश्वास सरकारी व्यवस्थाओं व राज नेताओं पर से उठता जा रहा है। राज नेता भी ज्यादातर पुराने प्रयासों में गलतियाँ बता कर स्वयं को नए मसीहा के रूप में प्रस्तुत करने में ही व्यस्त हैं। अति उन्नत राष्ट्र से ये राष्ट्र मात्र ३०-४० वर्षों में ऐसी नाजुक स्थिति में कैसे पहुंचे हैं तथा इन समस्याओं की जड़ कहां है, इस पर चर्चा करने वाले कम ही दिखाई पड़ते हैं। आर्थिक सोच में कोई मूलभूत दिशा-भूल हो रही है, ऐसा कहने के बजाय, बाजार में सामर्थ्यवान ही टिक पायेगा, यह एक कुमंत्र ही समस्या पर टिप्पणी के रूप में हर कोई व्यक्त करता नज़र आता है, और सामर्थ्यवान याने क्या, इस बात का पूरा चिंतन किये बिना ही, ये सब विकसित कहलाने वाले राष्ट्र ज्यादा से ज्यादा सामर्थ्यवान बनने के नए नए रास्ते पाने के विभिन्न प्रयोगों में पिछले कुछ दशकों से लगे हुए हैं । यूरोप के देशों को लगता है कि वे अमेरिका से जनसंख्या में बहुत छोटे हैं, इसलिए यदि एकजुट हो जायें तो उनका सामर्थ्य बढ़ जायेगा। मगर फिर यूरोप के जो राष्ट्र आर्थिक व अन्य दृष्टियों में ज्यादा शक्तिशाली रहे हैं उनमें आपस में होड़ ख़तम ही नहीं हो पाती कि बड़ा कौन है । उन्हें चिन्ता लगी रहती है कि कमजोर राष्ट्र कहीं उनका फायदा तो नहीं उठा रहे, साथ जुड़ने में उनके अपने राष्ट्र का कितना लाभ या स्वार्थ-सिद्धि होगी, इसका विचार किये बिना ये राष्ट्र एक दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि स्वयं की ही चिंता तथा उन्नति की लालसा में, मात्र आर्थिक दृष्टि से एक होने का प्रयास करते हुए दिखाई दे रहे हैं । यूरोप के इस एक होने के प्रयास के मध्य अचानक ही, ब्रिटेन ने हाँथ खींच लिए (जो ब्रेक्सिट के नाम से मशहूर है) । ब्रिटेन के नागरिक और नेता दोनों पूरी तरह भ्रम में हैं कि यूरोप के साथ रहना है कि नहीं । मामला लगभग ५०/ ५० का है। बहुत थोड़े मतों से आज उन्हों ने तय किया हैं कि साथ रहना उनके हित में नहीं है । थोड़े समय बाद बात पलट भी सकती है, फिर नए खेल शुरू होंगे कि साथ ही रहते तो अच्छा होता । यह गंभीर स्थिति है उन देशों की जो विश्व को आर्थिक दिशा देने का दावा करते हैं। बेरोजगारी से पीड़ित जनता आन्दोलन करने के अलावा कुछ नहीं कर सकती। नेता भी सार्थक चिंतन करने के बजाय सिर्फ लुभावने वायदे के जरिये सत्ता पाने पर सोचेंगे, ऐसी ही स्थिति अभी दिखाई देती है। ये लोग मूल में जाकर विचार कर रहे होंगे ऐसा प्रत्यक्ष व प्रभावी रूप से दिखाई नहीं देता।
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कुछ राष्ट्र तो दिवालियेपन के कगार पर खड़े दिखाई दे रहे हैं, जिन्हें संभालने में इनकी सामूहिक ताकत लगी हुई है व विचलित नज़र आ रही है। जिनके पास समृद्धि है वह भी भविष्य के प्रति अनिश्चित हैं, ऐसा स्पष्ट दिखाई दे रहा है। बेरोजगारी व गरीबी की ऐसी मार पड़ रही है कि इन राष्ट्रों की आम जनता बुरी तरह से आतंकित है और यह कह रही है कि मात्र एक प्रतिशत लोगों के हाथों में ही इन राष्ट्रों के धन व सत्ता दोनों की पकड़ सीमित होती जा रही है। बहुमत का विश्वास सरकारी व्यवस्थाओं व राज नेताओं पर से उठता जा रहा है। राज नेता भी ज्यादातर पुराने प्रयासों में गलतियाँ बता कर स्वयं को नए मसीहा के रूप में प्रस्तुत करने में ही व्यस्त हैं। अति उन्नत राष्ट्र से ये राष्ट्र मात्र ३०-४० वर्षों में ऐसी नाजुक स्थिति में कैसे पहुंचे हैं तथा इन समस्याओं की जड़ कहां है, इस पर चर्चा करने वाले कम ही दिखाई पड़ते हैं। आर्थिक सोच में कोई मूलभूत दिशा-भूल हो रही है, ऐसा कहने के बजाय, बाजार में सामर्थ्यवान ही टिक पायेगा, यह एक कुमंत्र ही समस्या पर टिप्पणी के रूप में हर कोई व्यक्त करता नज़र आता है, और सामर्थ्यवान याने क्या, इस बात का पूरा चिंतन किये बिना ही, ये सब विकसित कहलाने वाले राष्ट्र ज्यादा से ज्यादा सामर्थ्यवान बनने के नए नए रास्ते पाने के विभिन्न प्रयोगों में पिछले कुछ दशकों से लगे हुए हैं । यूरोप के देशों को लगता है कि वे अमेरिका से जनसंख्या में बहुत छोटे हैं, इसलिए यदि एकजुट हो जायें तो उनका सामर्थ्य बढ़ जायेगा। मगर फिर यूरोप के जो राष्ट्र आर्थिक व अन्य दृष्टियों में ज्यादा शक्तिशाली रहे हैं उनमें आपस में होड़ ख़तम ही नहीं हो पाती कि बड़ा कौन है । उन्हें चिन्ता लगी रहती है कि कमजोर राष्ट्र कहीं उनका फायदा तो नहीं उठा रहे, साथ जुड़ने में उनके अपने राष्ट्र का कितना लाभ या स्वार्थ-सिद्धि होगी, इसका विचार किये बिना ये राष्ट्र एक दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि स्वयं की ही चिंता तथा उन्नति की लालसा में, मात्र आर्थिक दृष्टि से एक होने का प्रयास करते हुए दिखाई दे रहे हैं । यूरोप के इस एक होने के प्रयास के मध्य अचानक ही, ब्रिटेन ने हाँथ खींच लिए (जो ब्रेक्सिट के नाम से मशहूर है) । ब्रिटेन के नागरिक और नेता दोनों पूरी तरह भ्रम में हैं कि यूरोप के साथ रहना है कि नहीं । मामला लगभग ५०/ ५० का है। बहुत थोड़े मतों से आज उन्हों ने तय किया हैं कि साथ रहना उनके हित में नहीं है । थोड़े समय बाद बात पलट भी सकती है, फिर नए खेल आरम्भ होंगे कि साथ ही रहते तो अच्छा होता । यह गंभीर स्थिति है उन देशों की जो विश्व को आर्थिक दिशा देने का दावा करते हैं। बेरोजगारी से पीड़ित जनता आन्दोलन करने के अलावा कुछ नहीं कर सकती। नेता भी सार्थक चिंतन करने के बजाय सिर्फ लुभावने वायदे के जरिये सत्ता पाने पर सोचेंगे, ऐसी ही स्थिति अभी दिखाई देती है। ये लोग मूल में जाकर विचार कर रहे होंगे ऐसा प्रत्यक्ष व प्रभावी रूप से दिखाई नहीं देता।
    
=== आर्थिक विषमता में लगातार वृद्धि  टेक्नोलोजी का दुरुपयोग ===
 
=== आर्थिक विषमता में लगातार वृद्धि  टेक्नोलोजी का दुरुपयोग ===

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