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स्वयं को विकसित कहने वाले राष्ट्र तथा अन्य राष्ट्र भी, जो इस दौड़ में शामिल हैं, उन सबकी एक और भी विकराल समस्या है वह है आर्थिक विषमता अर्थात् राष्ट्रीय धन का अधिकतम प्रतिशत धीरे धीरे मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सीमित होना । यदि विश्व के आर्थिक इतिहास पर दृष्टि डालें तो बढ़ती हुई आर्थिक विषमता ही एक ऐसा आर्थिक बिन्दु है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है ।  
 
स्वयं को विकसित कहने वाले राष्ट्र तथा अन्य राष्ट्र भी, जो इस दौड़ में शामिल हैं, उन सबकी एक और भी विकराल समस्या है वह है आर्थिक विषमता अर्थात् राष्ट्रीय धन का अधिकतम प्रतिशत धीरे धीरे मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सीमित होना । यदि विश्व के आर्थिक इतिहास पर दृष्टि डालें तो बढ़ती हुई आर्थिक विषमता ही एक ऐसा आर्थिक बिन्दु है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है ।  
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राष्ट्र में आर्थिक तेजी हो या मंदी, आर्थिक-विषमता का शिकंजा दोनों ही हालत में बिना लगाम के बढ़ ही रहा है अर्थात् कम से कम लोगों की मुट्ठी में ज्यादा से ज्यादा धन का सिमटता जाना । और इस कारण से कहने को तो ये सारे राष्ट्र प्रजातान्त्रिक हैं, मगर हकीकत में तो पैसे की ताकत ही तय कर रही हैं कि क्या खाना, क्या पहनना, कैसे रहना, कैसे चलना, क्या जरूरी है, क्या बेकार है, और यह भी कि किसे वोट देना या क्यों देना । जब बाजार ही सब तय करेगा तो आर्थिक ताकत ही एकमात्र ताकत बनेगी यह स्वाभाविक ही है। निरंतर बढती हुई विषमता के कारण कितने ही प्रकार कि सामाजिक असंतुलन व समस्याओं का प्रभाव दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। यह प्रश्न अत्यंत गंभीर है। उदहारण के रूप में, आज टेक्नोलोजी की ताकत का दुरुपयोग इस हद तक संभव है कि शिक्षा की प्रक्रिया से चिन्तन करने की प्रक्रिया को समूल नष्ट करने का दुष्प्रयास भी दिखाई देने लगा है।
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राष्ट्र में आर्थिक तेजी हो या मंदी, आर्थिक-विषमता का शिकंजा दोनों ही हालत में बिना लगाम के बढ़ ही रहा है अर्थात् कम से कम लोगों की मुट्ठी में ज्यादा से ज्यादा धन का सिमटता जाना । और इस कारण से कहने को तो ये सारे राष्ट्र प्रजातान्त्रिक हैं, मगर हकीकत में तो पैसे की ताकत ही तय कर रही हैं कि क्या खाना, क्या पहनना, कैसे रहना, कैसे चलना, क्या आवश्यक है, क्या बेकार है, और यह भी कि किसे वोट देना या क्यों देना । जब बाजार ही सब तय करेगा तो आर्थिक ताकत ही एकमात्र ताकत बनेगी यह स्वाभाविक ही है। निरंतर बढती हुई विषमता के कारण कितने ही प्रकार कि सामाजिक असंतुलन व समस्याओं का प्रभाव दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। यह प्रश्न अत्यंत गंभीर है। उदहारण के रूप में, आज टेक्नोलोजी की ताकत का दुरुपयोग इस हद तक संभव है कि शिक्षा की प्रक्रिया से चिन्तन करने की प्रक्रिया को समूल नष्ट करने का दुष्प्रयास भी दिखाई देने लगा है।
    
आज जानकारी की सहज उपलब्धता साफ्टवेयर के विभिन्न कम्पनियों द्वारा इस तरह प्रदान होने लगी है कि विद्यार्थी बिना चिन्तन किये ही जो बातें उसे आसानी से उपलब्ध है उन्हें ही सही मान कर सिखने में लगा हुआ है। ऐसे में, शिक्षा का अर्थ मानसिक विकास व अनुसन्धान न होकर आने वाली पीढ़ियों को मात्र नकल करने वाले बन्दर बनाना रह जाये तो सम्पूर्ण विश्व की कैसी भारी दुर्गती हो सकती है?
 
आज जानकारी की सहज उपलब्धता साफ्टवेयर के विभिन्न कम्पनियों द्वारा इस तरह प्रदान होने लगी है कि विद्यार्थी बिना चिन्तन किये ही जो बातें उसे आसानी से उपलब्ध है उन्हें ही सही मान कर सिखने में लगा हुआ है। ऐसे में, शिक्षा का अर्थ मानसिक विकास व अनुसन्धान न होकर आने वाली पीढ़ियों को मात्र नकल करने वाले बन्दर बनाना रह जाये तो सम्पूर्ण विश्व की कैसी भारी दुर्गती हो सकती है?

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