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{{ToBeEdited}}=== समग्रता में परिवर्तन ===
 
{{ToBeEdited}}=== समग्रता में परिवर्तन ===
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१. आज परिवर्तन की भाषा तो सर्वत्र बोली जाती है । प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा हो, चाहे विश्वविद्यालयीन, परिवर्तन होते ही रहते हैं। परिवर्तन संसार का नियम है ऐसा सूत्र भी सर्वश्र सुनाई देता है । परंतु शिक्षा में आज जो परिवर्तन अपेक्षित है वह ऐसा छोटा मोटा या केवल काल के प्रवाह में होने वाला परिवर्तन नहीं है । परिवर्तन भारतीय चिन्तन के अनुसार होना अपेक्षित है । वर्तमान शिक्षाव्यवस्था को समग्रता में देखकर शिक्षा के सम्पूर्ण मंत्र, तंत्र और यंत्र को परिवर्तित करने की आवश्यकता है । इसे ही हम आमूल परितर्वन कहते हैं। ऐसे समग्रता में परिवर्तन किये बिना हम शिक्षा की जिन समस्याओं की बात करते हैं उनका निराकरण होना सम्भव नहीं है ।
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१. आज परिवर्तन की भाषा तो सर्वत्र बोली जाती है । प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा हो, चाहे विश्वविद्यालयीन, परिवर्तन होते ही रहते हैं। परिवर्तन संसार का नियम है ऐसा सूत्र भी सर्वश्र सुनाई देता है । परंतु शिक्षा में आज जो परिवर्तन अपेक्षित है वह ऐसा छोटा मोटा या केवल काल के प्रवाह में होने वाला परिवर्तन नहीं है । परिवर्तन धार्मिक चिन्तन के अनुसार होना अपेक्षित है । वर्तमान शिक्षाव्यवस्था को समग्रता में देखकर शिक्षा के सम्पूर्ण मंत्र, तंत्र और यंत्र को परिवर्तित करने की आवश्यकता है । इसे ही हम आमूल परितर्वन कहते हैं। ऐसे समग्रता में परिवर्तन किये बिना हम शिक्षा की जिन समस्याओं की बात करते हैं उनका निराकरण होना सम्भव नहीं है ।
    
२. हमें छोटे छोटे परिवर्तन की बात तो झट से समझ में आती है । जैसे कि हम पाठ योजना में नवाचार की बात करते हैं, पाठ्यपुस्तकों में समय समय पर परिवर्तन करते हैं, पाठ्यक्रमों में भी परिवर्तन होता रहता है, कभी हम परीक्षा की पद्धतियों में परिवर्तन करते हैं, कभी कुछ नये विषय जुड़ जाते हैं । संस्कारों की शिक्षा, मूल्यशिक्षा जैसी बातें भी अब अग्रहपूर्वक जुड़ने लगी हैं । इनमें हमारा समय, धन, बुद्धि आदि कम खर्च नहीं हो रहे हैं । हम प्रामाणिक नहीं है ऐसा भी नहीं है। फिर भी हम शिक्षा के वर्तमान स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इसका कारण यह है कि मूल बातें विचार में न लेकर हम ऊपरी परिवर्तन में ही लगे हैं । परिवर्तन के लिये शिक्षा के सभी पहलुओं का एक साथ विचार करने की आवश्यकता है ।
 
२. हमें छोटे छोटे परिवर्तन की बात तो झट से समझ में आती है । जैसे कि हम पाठ योजना में नवाचार की बात करते हैं, पाठ्यपुस्तकों में समय समय पर परिवर्तन करते हैं, पाठ्यक्रमों में भी परिवर्तन होता रहता है, कभी हम परीक्षा की पद्धतियों में परिवर्तन करते हैं, कभी कुछ नये विषय जुड़ जाते हैं । संस्कारों की शिक्षा, मूल्यशिक्षा जैसी बातें भी अब अग्रहपूर्वक जुड़ने लगी हैं । इनमें हमारा समय, धन, बुद्धि आदि कम खर्च नहीं हो रहे हैं । हम प्रामाणिक नहीं है ऐसा भी नहीं है। फिर भी हम शिक्षा के वर्तमान स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इसका कारण यह है कि मूल बातें विचार में न लेकर हम ऊपरी परिवर्तन में ही लगे हैं । परिवर्तन के लिये शिक्षा के सभी पहलुओं का एक साथ विचार करने की आवश्यकता है ।
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१२. शिक्षा को हमने अप्रत्याशित रूप से संस्थागत बना दिया है। संस्था को फिर आर्थिक दृष्टि से और प्रशासनिक दृष्टि से शासनमान्य होना ही पड़ता है । कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पंजीकृत हुए बिना संस्था चल नहीं सकती । पंजीकृत होते ही उसमें वस्तुनिष्ठता आ जाती है । वस्तुनिष्ठता यह शब्द हमें अच्छा लगता है क्योंकि उसका अर्थ हम पक्षपातरहितता करते हैं। परंतु व्यवहार में वस्तुनिष्ठता यान्त्रिकता बन जाती है । वस्तुनिष्ठता, मूल्यांकन, प्रमाणपत्र, पदवी आदिका महत्त्व इतना बढ़ जाता है कि अब विद्यालय नामक संस्था से बाहर, बिना परीक्षा उत्तीर्ण किये, बिना प्रमाणपत्र प्राप्त किये कोई शिक्षा होती है यह बात ही हम भूल गये हैं । इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब प्रमाणपत्र भी अथार्जिन का साधन है, ज्ञानवान होने का प्रमाण नहीं । शिक्षा अपने स्वभाव से ही इतनी अधिक संस्थागत नहीं हो सकती । वह तो जन्मपूर्व से ही शुरू होती है, घर में, आँगन में, खेल के मैदानों में, मन्दिर में, बाजारों में अर्थात्‌ सर्वत्र होती है। वह जीवन के क्रम के साथ जुड़ी हुई रहती है, जीवन के हर पहलू में अनुस्यूत रहती है । संस्थागत स्वरूप तो उसके पूर्ण स्वरूप का एक छोटा सा हिस्सा होता है, वह भी हमेशा अनिवार्य नहीं होता । वर्तमान में हमने शिक्षा के केवल संस्थागत स्वरूप को मान्यता देकर अपने आपको संकट में डाल दिया है । अतः परिवर्तन का हमारा दूसरा प्रयास शिक्षा को इतने अधिक संस्थाकरण से मुक्त करने की दिशा में होना चाहिए ।
 
१२. शिक्षा को हमने अप्रत्याशित रूप से संस्थागत बना दिया है। संस्था को फिर आर्थिक दृष्टि से और प्रशासनिक दृष्टि से शासनमान्य होना ही पड़ता है । कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पंजीकृत हुए बिना संस्था चल नहीं सकती । पंजीकृत होते ही उसमें वस्तुनिष्ठता आ जाती है । वस्तुनिष्ठता यह शब्द हमें अच्छा लगता है क्योंकि उसका अर्थ हम पक्षपातरहितता करते हैं। परंतु व्यवहार में वस्तुनिष्ठता यान्त्रिकता बन जाती है । वस्तुनिष्ठता, मूल्यांकन, प्रमाणपत्र, पदवी आदिका महत्त्व इतना बढ़ जाता है कि अब विद्यालय नामक संस्था से बाहर, बिना परीक्षा उत्तीर्ण किये, बिना प्रमाणपत्र प्राप्त किये कोई शिक्षा होती है यह बात ही हम भूल गये हैं । इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब प्रमाणपत्र भी अथार्जिन का साधन है, ज्ञानवान होने का प्रमाण नहीं । शिक्षा अपने स्वभाव से ही इतनी अधिक संस्थागत नहीं हो सकती । वह तो जन्मपूर्व से ही शुरू होती है, घर में, आँगन में, खेल के मैदानों में, मन्दिर में, बाजारों में अर्थात्‌ सर्वत्र होती है। वह जीवन के क्रम के साथ जुड़ी हुई रहती है, जीवन के हर पहलू में अनुस्यूत रहती है । संस्थागत स्वरूप तो उसके पूर्ण स्वरूप का एक छोटा सा हिस्सा होता है, वह भी हमेशा अनिवार्य नहीं होता । वर्तमान में हमने शिक्षा के केवल संस्थागत स्वरूप को मान्यता देकर अपने आपको संकट में डाल दिया है । अतः परिवर्तन का हमारा दूसरा प्रयास शिक्षा को इतने अधिक संस्थाकरण से मुक्त करने की दिशा में होना चाहिए ।
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१३. आधुनिकता और वैश्विकता की संकल्पनाओं ने हमें गहरे संकट में डाल दिया है । इन दोनों संज्ञाओं के सही अर्थ को छोड़कर हमने उनका अर्थ पाश्चात्य ऐसा ही कर दिया है । “आधुनिक शब्द संस्कृत शब्द “अधुना' से बना है । अधुना' का अर्थ है 'अब' या “अभी' अर्थात्‌ “वर्तमान' । शाश्वत सिद्धान्तों का वर्तमान स्वरूप कैसा होता है इसका चिन्तन भारत में प्राचीन काल से, अर्थात्‌ जबसे चिन्तन शुरू हुआ तबसे होता रहा है । इसी प्रक्रिया में हमारे स्मृति साहित्य की रचना हुई है। इसे हम युगानुकूल चिन्तन कहते हैं। युगानुकूल का ही. अर्थ आधुनिकता है । आधुनिकता भारतीय भी हो सकती है और पाश्चात्य भी । इसलिये परिवर्तन का विचार करते समय हमें पाश्चात्य ही आधुनिक है इस धारणा से मुक्त होना होगा । इस धारणा से मुक्त होकर ही हम पाश्चात्यीकरण से मुक्त हो पायेंगे । इसी प्रकार हमें इस बात में भी स्पष्ट होना होगा कि भारतीयता और वैश्विकता में कोई अन्तर नहीं है । भारत ने
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१३. आधुनिकता और वैश्विकता की संकल्पनाओं ने हमें गहरे संकट में डाल दिया है । इन दोनों संज्ञाओं के सही अर्थ को छोड़कर हमने उनका अर्थ पाश्चात्य ऐसा ही कर दिया है । “आधुनिक शब्द संस्कृत शब्द “अधुना' से बना है । अधुना' का अर्थ है 'अब' या “अभी' अर्थात्‌ “वर्तमान' । शाश्वत सिद्धान्तों का वर्तमान स्वरूप कैसा होता है इसका चिन्तन भारत में प्राचीन काल से, अर्थात्‌ जबसे चिन्तन शुरू हुआ तबसे होता रहा है । इसी प्रक्रिया में हमारे स्मृति साहित्य की रचना हुई है। इसे हम युगानुकूल चिन्तन कहते हैं। युगानुकूल का ही. अर्थ आधुनिकता है । आधुनिकता धार्मिक भी हो सकती है और पाश्चात्य भी । इसलिये परिवर्तन का विचार करते समय हमें पाश्चात्य ही आधुनिक है इस धारणा से मुक्त होना होगा । इस धारणा से मुक्त होकर ही हम पाश्चात्यीकरण से मुक्त हो पायेंगे । इसी प्रकार हमें इस बात में भी स्पष्ट होना होगा कि धार्मिकता और वैश्विकता में कोई अन्तर नहीं है । भारत ने
    
१४. हमेशा वैश्विक संदर्भ में ही विचार और व्यवहार किया है । भारत की आकांक्षा “सर्वे भवन्तु सुखिन:' रही है । भारत हमेशा मानव धर्म के सन्दर्भ में ही विचार करता है । अपने ध्येय को भी भारत “कृण्वन्तो विश्वमार्यमू' कहकर ही प्रस्तुत करता है । इसलिये भारत के लिए वैश्विकता नयी बात नहीं है । वैश्विकता का सम्बन्ध केवल पाश्चात्य के साथ नहीं है ।
 
१४. हमेशा वैश्विक संदर्भ में ही विचार और व्यवहार किया है । भारत की आकांक्षा “सर्वे भवन्तु सुखिन:' रही है । भारत हमेशा मानव धर्म के सन्दर्भ में ही विचार करता है । अपने ध्येय को भी भारत “कृण्वन्तो विश्वमार्यमू' कहकर ही प्रस्तुत करता है । इसलिये भारत के लिए वैश्विकता नयी बात नहीं है । वैश्विकता का सम्बन्ध केवल पाश्चात्य के साथ नहीं है ।
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१५. नये सिरे से परिवर्तन का विचार करते समय हमें भारतीय अध्यात्म विचार को ध्यान में लेना पड़ेगा । आज हमारा सारा चिन्तन बुद्धिनिष्ठ हो गया है। बुद्धिनिष्ठ चिन्तन के आधार पर ही देश की सारी व्यवस्थायें बनी हैं और व्यवहार की रचना हुई है । परन्तु भारतीय चिन्तन बुद्धिनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होता है । श्रीमटू भगवदू गीता में श्रीमगवान कहते हैं,
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१५. नये सिरे से परिवर्तन का विचार करते समय हमें धार्मिक अध्यात्म विचार को ध्यान में लेना पड़ेगा । आज हमारा सारा चिन्तन बुद्धिनिष्ठ हो गया है। बुद्धिनिष्ठ चिन्तन के आधार पर ही देश की सारी व्यवस्थायें बनी हैं और व्यवहार की रचना हुई है । परन्तु धार्मिक चिन्तन बुद्धिनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होता है । श्रीमटू भगवदू गीता में श्रीमगवान कहते हैं,
    
'''''इंद्रियाणि पराण्याहु: इंट्रियेश्य: पर मन: ।'''''  
 
'''''इंद्रियाणि पराण्याहु: इंट्रियेश्य: पर मन: ।'''''  
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अर्थात्‌ इंट्रियाँ विषयों से परे हैं, मन इंद्रियों से परे है, मन से परे बुद्धि है और बुद्धि से परे जो है वह “'वह' है अर्थात्‌ आत्मतत्त्व है ।
 
अर्थात्‌ इंट्रियाँ विषयों से परे हैं, मन इंद्रियों से परे है, मन से परे बुद्धि है और बुद्धि से परे जो है वह “'वह' है अर्थात्‌ आत्मतत्त्व है ।
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हम समझने लगे हैं कि अध्यात्म और भौतिकता में अन्तर है अथवा विरोध है, भौतिक अथवा दैनंदिन व्यवहारों में अध्यात्मिकता बाधा बनती है और आध्यात्मिक बनना है तो भौतिकता छोडनी पड़ती है । वास्तव में इस प्रकार का विभाजन ही ठीक नहीं है। आध्यात्मिकता का अधिष्ठान लेकर भौतिक जीवन की रचना करना भारतीय जीवनरचना का वैशिक्य है। अत: अध्यात्मविचार को समझना आवश्यक है ।
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हम समझने लगे हैं कि अध्यात्म और भौतिकता में अन्तर है अथवा विरोध है, भौतिक अथवा दैनंदिन व्यवहारों में अध्यात्मिकता बाधा बनती है और आध्यात्मिक बनना है तो भौतिकता छोडनी पड़ती है । वास्तव में इस प्रकार का विभाजन ही ठीक नहीं है। आध्यात्मिकता का अधिष्ठान लेकर भौतिक जीवन की रचना करना धार्मिक जीवनरचना का वैशिक्य है। अत: अध्यात्मविचार को समझना आवश्यक है ।
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१६ एक और सूत्र भी ध्यान में लेने की आवश्यकता होगी । शिक्षा राष्ट्रीय होती है, व्यक्तिगत नहीं । व्यक्ति अकेला कभी भी जी नहीं सकता । समाज के बिना और सृष्टि के बिना उसका जीवन सम्भव ही नहीं है । cafe, समष्टि और सृष्टि में जीवन एक और अखण्ड है और इस अखण्ड जीवन में आत्मतत्त्व अनुस्यूत है । भारतीय समाजजीवन की रचना इस सूत्र के आधार पर हुई है और शिक्षा के माध्यम से इस रचना को विचार और व्यवहार में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने की व्यवस्था की गई है । शिक्षा का वर्तमान स्वरूप ऐसा नहीं है । वर्तमान शिक्षा व्यक्ति का लाभ और उस लाभ के लिये अन्यों का उपयोग कैसे हो यह सिखाती है । इस प्रकार की शिक्षा न तो व्यक्ति के लिये और न तो समाज के लिये लाभकारी होती है । कुछ लाभ यदि दिखाई देता भी है तो वह बहुत कम और बहुत अल्पकालीन होता है । यह शिक्षा राष्ट्र को समृद्ध, सुसंस्कृत, ज्ञानवान, पराक्रमी नहीं बना सकती । परिवर्तन की योजना करते समय हमें व्यक्तिगत सन्दर्भ को छोडकर राष्ट्रीय सन्दर्भ का स्वीकार करना होगा | व्यावहारिक चिन्तन के इतने पहलू देखने के बाद हमें प्रत्यक्ष योजना पर विचार करना प्राप्त है । योजना करते समय कुछ इस प्रकार से विचार करना होगा...
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१६ एक और सूत्र भी ध्यान में लेने की आवश्यकता होगी । शिक्षा राष्ट्रीय होती है, व्यक्तिगत नहीं । व्यक्ति अकेला कभी भी जी नहीं सकता । समाज के बिना और सृष्टि के बिना उसका जीवन सम्भव ही नहीं है । cafe, समष्टि और सृष्टि में जीवन एक और अखण्ड है और इस अखण्ड जीवन में आत्मतत्त्व अनुस्यूत है । धार्मिक समाजजीवन की रचना इस सूत्र के आधार पर हुई है और शिक्षा के माध्यम से इस रचना को विचार और व्यवहार में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने की व्यवस्था की गई है । शिक्षा का वर्तमान स्वरूप ऐसा नहीं है । वर्तमान शिक्षा व्यक्ति का लाभ और उस लाभ के लिये अन्यों का उपयोग कैसे हो यह सिखाती है । इस प्रकार की शिक्षा न तो व्यक्ति के लिये और न तो समाज के लिये लाभकारी होती है । कुछ लाभ यदि दिखाई देता भी है तो वह बहुत कम और बहुत अल्पकालीन होता है । यह शिक्षा राष्ट्र को समृद्ध, सुसंस्कृत, ज्ञानवान, पराक्रमी नहीं बना सकती । परिवर्तन की योजना करते समय हमें व्यक्तिगत सन्दर्भ को छोडकर राष्ट्रीय सन्दर्भ का स्वीकार करना होगा | व्यावहारिक चिन्तन के इतने पहलू देखने के बाद हमें प्रत्यक्ष योजना पर विचार करना प्राप्त है । योजना करते समय कुछ इस प्रकार से विचार करना होगा...
    
=== ज्ञानात्मक पक्ष ===
 
=== ज्ञानात्मक पक्ष ===
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१७. हमें सर्व प्रथम परिवर्तन का ज्ञानात्मक पक्ष ध्यान में लेना चाहिये । विद्यालयों, महाविद्यालयों में जो पढ़ाया जाता है उसका स्वरूप भारतीय नहीं है। सामाजिक शास्त्रों के सिद्धान्त, प्राकृतिक विज्ञानों की दृष्टि व्यक्तिगत विकास की संकल्पना, जीवनरचना और सृष्टिचना की समझ आदि सब जडवादी, अनात्मवादी जीवनदृष्टि के आधार पर विकसित किये गये हैं । हम यह सब विगत आठ दस पीढ़ियों से पढ़ते आये हैं । यह बहुत स्वाभाविक है कि छोटी आयु से जो पढ़ाया जाता है उसीके अनुसार मानस बनता है, विचार और व्यवहार बनते हैं । ऐसा मानस फिर व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन की व्यवस्थायें बनाता है । देश उसी आधार पर चलता है । देश उसी आधार पर चलने लगता है । धीरे धीरे देश की जीवन रचना में परिवर्तन होने लगता है। यह परिवर्तन जब सम्पूर्ण हो जाता है तब देश का चरित्र पूर्ण रूप से बदल जाता है । जब तक यह परिवर्तन पूर्ण नहीं होता तब तक देश की अपनी मूल जीवन रचना और शिक्षा के माध्यम से बदलने वाली नयी रचना में संघर्ष होता रहता है । देश की मूल रचना अपने आपको बचाने के लिये प्रयास करती रहती है । वह सरलता से अपने आपको हारने नहीं देती । हमारे देश की जितनी भी अधिकृत ताकतें हैं वे सब विपरीत दिशा की शिक्षा के पक्ष में हैं । परंतु हमारे पूर्वजों की महान तपश्चर्या और अपनी जीवनरचना और जीवनदृष्टि की आन्तरिक ताकत के बल के कारण हम इतने शतकों में भी नष्ट नहीं हुए हैं। हम क्षीणप्राण अवश्य हुए हैं परंतु गतप्राण नहीं हुए हैं । हम गतप्राण न हों इसलिये हमें अब अपना ध्यान कक्षाकक्ष में पढ़ाये जानेवाले विषयों के विषयवस्तु की ओर केन्द्रित करना पड़ेगा । हमें विषयों की संकल्पनायें बदलनी होंगी, आधारभूत परिभाषायें बदलनी होंगी, पाठ्यक्रम बदलने होंगे, पठनपाठन की पद्धति बदलनी होगी । इसके लिये हमें अपने शोध, अनुसंधान और अध्ययन की पद्धतियों को भी बदलना होगा । यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा । यह सबसे पहले करना होगा क्योंकि इसे किये बिना बाकी सारे परिवर्तन पाश्चात्य ढाँचे को ही मजबूत बनानेवाले सिद्ध होंगे। आज भी लगभग वही हो रहा है । प्रयास तो हम बहुत कर रहे हैं परन्तु स्वना नहीं बदल रही है ।
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१७. हमें सर्व प्रथम परिवर्तन का ज्ञानात्मक पक्ष ध्यान में लेना चाहिये । विद्यालयों, महाविद्यालयों में जो पढ़ाया जाता है उसका स्वरूप धार्मिक नहीं है। सामाजिक शास्त्रों के सिद्धान्त, प्राकृतिक विज्ञानों की दृष्टि व्यक्तिगत विकास की संकल्पना, जीवनरचना और सृष्टिचना की समझ आदि सब जडवादी, अनात्मवादी जीवनदृष्टि के आधार पर विकसित किये गये हैं । हम यह सब विगत आठ दस पीढ़ियों से पढ़ते आये हैं । यह बहुत स्वाभाविक है कि छोटी आयु से जो पढ़ाया जाता है उसीके अनुसार मानस बनता है, विचार और व्यवहार बनते हैं । ऐसा मानस फिर व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन की व्यवस्थायें बनाता है । देश उसी आधार पर चलता है । देश उसी आधार पर चलने लगता है । धीरे धीरे देश की जीवन रचना में परिवर्तन होने लगता है। यह परिवर्तन जब सम्पूर्ण हो जाता है तब देश का चरित्र पूर्ण रूप से बदल जाता है । जब तक यह परिवर्तन पूर्ण नहीं होता तब तक देश की अपनी मूल जीवन रचना और शिक्षा के माध्यम से बदलने वाली नयी रचना में संघर्ष होता रहता है । देश की मूल रचना अपने आपको बचाने के लिये प्रयास करती रहती है । वह सरलता से अपने आपको हारने नहीं देती । हमारे देश की जितनी भी अधिकृत ताकतें हैं वे सब विपरीत दिशा की शिक्षा के पक्ष में हैं । परंतु हमारे पूर्वजों की महान तपश्चर्या और अपनी जीवनरचना और जीवनदृष्टि की आन्तरिक ताकत के बल के कारण हम इतने शतकों में भी नष्ट नहीं हुए हैं। हम क्षीणप्राण अवश्य हुए हैं परंतु गतप्राण नहीं हुए हैं । हम गतप्राण न हों इसलिये हमें अब अपना ध्यान कक्षाकक्ष में पढ़ाये जानेवाले विषयों के विषयवस्तु की ओर केन्द्रित करना पड़ेगा । हमें विषयों की संकल्पनायें बदलनी होंगी, आधारभूत परिभाषायें बदलनी होंगी, पाठ्यक्रम बदलने होंगे, पठनपाठन की पद्धति बदलनी होगी । इसके लिये हमें अपने शोध, अनुसंधान और अध्ययन की पद्धतियों को भी बदलना होगा । यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा । यह सबसे पहले करना होगा क्योंकि इसे किये बिना बाकी सारे परिवर्तन पाश्चात्य ढाँचे को ही मजबूत बनानेवाले सिद्ध होंगे। आज भी लगभग वही हो रहा है । प्रयास तो हम बहुत कर रहे हैं परन्तु स्वना नहीं बदल रही है ।
    
=== स्वतन्त्र और स्वायत्त रचना ===
 
=== स्वतन्त्र और स्वायत्त रचना ===
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=== स्वतन्त्र प्रयोग ===
 
=== स्वतन्त्र प्रयोग ===
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१९, शिक्षा के ऐसे प्रयोग भी करने होंगे जहाँ हम पूर्ण रूप  से भारतीय ज्ञानधारा पर आधारित शिक्षा दे सकें । ऐसे प्रयोग केन्द्र चलाने के लिये संस्थासंचालक, शिक्षक और अभिभावकों का एक परस्पर अनुकूल मानस वाला समूह चाहिए । ऐसे प्रयोग केन्द्र प्रथम तो प्रयोग के रूप में ही चलेंगे परंतु बाद में स्थान स्थान पर चलने चाहिये । वे अनेक लोगों के द्वारा, अनेक स्थानों पर, विभिन्‍न प्रकार की परिस्थितियों में भी चलाये जा सकें ऐसे व्यावहारिक और लचीलापन लिये होने चाहिये । सर्वमान्य और सर्वस्वीकृत होने की क्षमता वाले होने चाहिये । व्यक्ति को और समाज को एक साथ लाभ करने वाले होने चाहिए ।
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१९, शिक्षा के ऐसे प्रयोग भी करने होंगे जहाँ हम पूर्ण रूप  से धार्मिक ज्ञानधारा पर आधारित शिक्षा दे सकें । ऐसे प्रयोग केन्द्र चलाने के लिये संस्थासंचालक, शिक्षक और अभिभावकों का एक परस्पर अनुकूल मानस वाला समूह चाहिए । ऐसे प्रयोग केन्द्र प्रथम तो प्रयोग के रूप में ही चलेंगे परंतु बाद में स्थान स्थान पर चलने चाहिये । वे अनेक लोगों के द्वारा, अनेक स्थानों पर, विभिन्‍न प्रकार की परिस्थितियों में भी चलाये जा सकें ऐसे व्यावहारिक और लचीलापन लिये होने चाहिये । सर्वमान्य और सर्वस्वीकृत होने की क्षमता वाले होने चाहिये । व्यक्ति को और समाज को एक साथ लाभ करने वाले होने चाहिए ।
    
=== परिवार शिक्षा और परिवार में शिक्षा ===
 
=== परिवार शिक्षा और परिवार में शिक्षा ===
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२०. हमें स्थापित ढाँचे के बाहर निकलकर भी विचार करना होगा । जरा सा विचार करने पर ध्यान में आता है कि व्यक्तिविकास की हो या राष्ट्रनिरमाण की, चस्रिनिर्माण की हो या कौशलबविकास की, अधथर्जिन के लायक बनाने की हो या व्यवहारज्ञान की, अधिकांश शिक्षा परिवार में होती है । चरित्रनिर्माण की शिक्षा तो गर्भावस्था में और शिशु-अवस्था में होती है । सभी प्रकार की इस शिक्षा को देने वाले होते हैं मातापिता । हमारे शास्त्र, हमारी परम्परा, हमारा अनुभव और हमारी सामान्य बुद्धि कहती है कि माता बालक की प्रथम गुरु है । दूसरा क्रम पिता का है । शिक्षक का क्रम तीसरा होता है । अधिकांश शिक्षा घर में शिशु अवस्था में मिलने वाले संस्कारों के माध्यम से ही होती रही है । परिवार का एक और भी बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान है । वंशपस्म्परा के माध्यम से और भी अनेक प्रकार की परम्परायें बनाए रखने का कार्य भी परिवार में ही होता है । अत: परिवार संस्कृति रक्षा का, न केवल रक्षा का, संस्कृति के संवर्धन का भी बहुत बड़ा केन्द्र है । परिवारव्यवस्था विश्व के समाजजीवन को दी हुई भारत की अनुपम देन है । जीवन का समग्रता में आकलन करने वाली बुद्धि की यह देन है। मातापिता का स्थान शिक्षक नहीं ले सकता और घर का स्थान विद्यालय नहीं ले सकता । आज परिवारव्यवस्था शिथिल हो गई है और परिवार में मिलने वाली शिक्षा भी प्रभावी नहीं रही है । इस स्थिति में हमें परिवारव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की व्यवस्था शिक्षा के माध्यम से करनी होगी । परिवार भारतीय समाजरचना की मूल इकाई है । इसलिए परिवार के सुदूृढ़ीकरण से राष्ट्र जीवन भी सुल्यवस्थित होगा ।
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२०. हमें स्थापित ढाँचे के बाहर निकलकर भी विचार करना होगा । जरा सा विचार करने पर ध्यान में आता है कि व्यक्तिविकास की हो या राष्ट्रनिरमाण की, चस्रिनिर्माण की हो या कौशलबविकास की, अधथर्जिन के लायक बनाने की हो या व्यवहारज्ञान की, अधिकांश शिक्षा परिवार में होती है । चरित्रनिर्माण की शिक्षा तो गर्भावस्था में और शिशु-अवस्था में होती है । सभी प्रकार की इस शिक्षा को देने वाले होते हैं मातापिता । हमारे शास्त्र, हमारी परम्परा, हमारा अनुभव और हमारी सामान्य बुद्धि कहती है कि माता बालक की प्रथम गुरु है । दूसरा क्रम पिता का है । शिक्षक का क्रम तीसरा होता है । अधिकांश शिक्षा घर में शिशु अवस्था में मिलने वाले संस्कारों के माध्यम से ही होती रही है । परिवार का एक और भी बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान है । वंशपस्म्परा के माध्यम से और भी अनेक प्रकार की परम्परायें बनाए रखने का कार्य भी परिवार में ही होता है । अत: परिवार संस्कृति रक्षा का, न केवल रक्षा का, संस्कृति के संवर्धन का भी बहुत बड़ा केन्द्र है । परिवारव्यवस्था विश्व के समाजजीवन को दी हुई भारत की अनुपम देन है । जीवन का समग्रता में आकलन करने वाली बुद्धि की यह देन है। मातापिता का स्थान शिक्षक नहीं ले सकता और घर का स्थान विद्यालय नहीं ले सकता । आज परिवारव्यवस्था शिथिल हो गई है और परिवार में मिलने वाली शिक्षा भी प्रभावी नहीं रही है । इस स्थिति में हमें परिवारव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की व्यवस्था शिक्षा के माध्यम से करनी होगी । परिवार धार्मिक समाजरचना की मूल इकाई है । इसलिए परिवार के सुदूृढ़ीकरण से राष्ट्र जीवन भी सुल्यवस्थित होगा ।
    
=== "अनौपचारिक" को अधिक महत्त्व ===
 
=== "अनौपचारिक" को अधिक महत्त्व ===
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. मान्यता देने हेतु उसे शास्त्रीय आधार देना होगा । इस दिशा में अध्ययन और अनुसन्धान की गतिविधियों को मोडना होगा । इससे न केवल उसे प्रतिष्ठा प्राप्त होगी, वह परिष्कृत भी होगा और आधुनिक भी होगा ।
 
. मान्यता देने हेतु उसे शास्त्रीय आधार देना होगा । इस दिशा में अध्ययन और अनुसन्धान की गतिविधियों को मोडना होगा । इससे न केवल उसे प्रतिष्ठा प्राप्त होगी, वह परिष्कृत भी होगा और आधुनिक भी होगा ।
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. शिक्षा को भारतीय अर्थ में और भारतीय पद्धति से स्वायत्त बनाने हेतु शिक्षकों को दायित्वबोध से युक्त बनाना होगा और सम्मानित करना होगा ।
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. शिक्षा को धार्मिक अर्थ में और धार्मिक पद्धति से स्वायत्त बनाने हेतु शिक्षकों को दायित्वबोध से युक्त बनाना होगा और सम्मानित करना होगा ।
    
. परिवर्तन की योजना समग्रता में बनानी होगी, इसका सन्दर्भ देशव्यापी बनाना होगा, इसकी योजना दीर्घकालीन बनानी होगी |
 
. परिवर्तन की योजना समग्रता में बनानी होगी, इसका सन्दर्भ देशव्यापी बनाना होगा, इसकी योजना दीर्घकालीन बनानी होगी |

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