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८. यही कि यह सब पढ़ाया नहीं जाता । ब्रिटीशों ने शिक्षा का अंग्रेजीकरण अर्थात्‌ यूरोपीकरण अर्थात्‌ पश्चिमीकरण किया उसका एक आयाम यह है कि भारत के विद्यार्थियों को युरोप की जानकारी दी जाय और भारत विषयक जानकारी नहीं दी जाय जिससे वे अपना गौरव भूल जाय और यूरोप को महान मानें । दस पीढ़ियों के बाद भारत विषयक अज्ञान होना स्वाभाविक है ।
 
८. यही कि यह सब पढ़ाया नहीं जाता । ब्रिटीशों ने शिक्षा का अंग्रेजीकरण अर्थात्‌ यूरोपीकरण अर्थात्‌ पश्चिमीकरण किया उसका एक आयाम यह है कि भारत के विद्यार्थियों को युरोप की जानकारी दी जाय और भारत विषयक जानकारी नहीं दी जाय जिससे वे अपना गौरव भूल जाय और यूरोप को महान मानें । दस पीढ़ियों के बाद भारत विषयक अज्ञान होना स्वाभाविक है ।
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९. प्रश्न यह उठ सकता है कि ब्रिटीशों ने भारत की प्रजा को भारत के विषय में अज्ञान रखना अपना स्वार्थ समझा यह समझ में आता है परन्तु स्वतन्त्र भारत में इसमें परिवर्तन क्यों नहीं किया गया ?  यह कितना विचित्र है कि भारत के विश्वविद्यालय दुनिया का ज्ञान तो देते हैं परन्तु भारत का नहीं देते । भारत विषयक जानकारी भी भारतीय नहीं है ऐसे लोग ही देते हैं ।
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९. प्रश्न यह उठ सकता है कि ब्रिटीशों ने भारत की प्रजा को भारत के विषय में अज्ञान रखना अपना स्वार्थ समझा यह समझ में आता है परन्तु स्वतन्त्र भारत में इसमें परिवर्तन क्यों नहीं किया गया ?  यह कितना विचित्र है कि भारत के विश्वविद्यालय दुनिया का ज्ञान तो देते हैं परन्तु भारत का नहीं देते । भारत विषयक जानकारी भी धार्मिक नहीं है ऐसे लोग ही देते हैं ।
    
१०. सामान्य बुद्धि को विचित्र लगने वाली बातें और उठने वालें प्रश्नों का उत्तर यह है कि सन १९४७ में जब सत्ता का हस्तान्तरण हुआ और ब्रिटीशों ने भारत की सत्ता भारत के लोगों के हाथ में सौंपी तब सत्ता का केवल हस्तान्तरण हुआ । देश को चलाने वाला तन्त्र ब्रिटीश ही रहा । लोग बदले व्यवस्था नहीं । अतः विश्वविद्यालय वही रहे, संचालन वही रहा, स्कूलों कोलेजों में पाठ्यपुस्तक वही रहे, जानकारी वही रही । विश्वविद्यालयों से लेकर प्राथमिक विद्यालयों तक की संख्या बढी, शिक्षा तो वही रही ।
 
१०. सामान्य बुद्धि को विचित्र लगने वाली बातें और उठने वालें प्रश्नों का उत्तर यह है कि सन १९४७ में जब सत्ता का हस्तान्तरण हुआ और ब्रिटीशों ने भारत की सत्ता भारत के लोगों के हाथ में सौंपी तब सत्ता का केवल हस्तान्तरण हुआ । देश को चलाने वाला तन्त्र ब्रिटीश ही रहा । लोग बदले व्यवस्था नहीं । अतः विश्वविद्यालय वही रहे, संचालन वही रहा, स्कूलों कोलेजों में पाठ्यपुस्तक वही रहे, जानकारी वही रही । विश्वविद्यालयों से लेकर प्राथमिक विद्यालयों तक की संख्या बढी, शिक्षा तो वही रही ।
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११. अंग्रेज जो सिखाते थे, उनसे शिक्षा प्राप्त किये हुए भारतीय भी वही सिखाते थे । सत्ता के हस्तान्तरण से इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ । अंग्रेजी शिक्षा का यह वटवृक्ष बहुत फैला है, उसकी शाखायें भूमि में जाकर नये वृक्ष के रूप में पनप रही हैं । उस वृक्ष का जीवनरस युरोप है । फिर उसमें वेद उपनिषद आदि कैसे आयेंगे ?
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११. अंग्रेज जो सिखाते थे, उनसे शिक्षा प्राप्त किये हुए धार्मिक भी वही सिखाते थे । सत्ता के हस्तान्तरण से इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ । अंग्रेजी शिक्षा का यह वटवृक्ष बहुत फैला है, उसकी शाखायें भूमि में जाकर नये वृक्ष के रूप में पनप रही हैं । उस वृक्ष का जीवनरस युरोप है । फिर उसमें वेद उपनिषद आदि कैसे आयेंगे ?
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१२. सत्ता प्राप्त किये हुए भारतीयों ने पर-तन्त्र छोडकर शिक्षा में अपना तन्त्र क्यों नहीं अपनाया ? इसलिये कि भारत के पढेलिखे लोग मानते थे कि युरोपीय ज्ञान से ही देश का विकास हो सकता है । जब सरकार ही ऐसा मानती है तब शिक्षा अपने qa वाली अर्थात्‌ भारतीय कैसे बनेगी । फिर भारत के लोगों को भारत का ज्ञान कैसे मिलेगा ?
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१२. सत्ता प्राप्त किये हुए धार्मिकों ने पर-तन्त्र छोडकर शिक्षा में अपना तन्त्र क्यों नहीं अपनाया ? इसलिये कि भारत के पढेलिखे लोग मानते थे कि युरोपीय ज्ञान से ही देश का विकास हो सकता है । जब सरकार ही ऐसा मानती है तब शिक्षा अपने qa वाली अर्थात्‌ धार्मिक कैसे बनेगी । फिर भारत के लोगों को भारत का ज्ञान कैसे मिलेगा ?
    
१३. तथ्य तो यह है कि आज दुनिया के पास जितना ज्ञान है उतना तो भारत के पास था ही और आज भी ग्रन्थों में और कुछ लोगों के मस्तिष्क में और हृदय में है ही, परन्तु दुनिया के पास नहीं है वह भी भारत के पास है । केवल उसे सिखाने की आवश्यकता है । सिखाने लगें तो बहुत अल्प समय में खोई हुई अस्मिता पुनः वापस प्राप्त कर लेंगे । सरकार, देशभक्तों और बौद्धिकों को यह करने की आवश्यकता है ।
 
१३. तथ्य तो यह है कि आज दुनिया के पास जितना ज्ञान है उतना तो भारत के पास था ही और आज भी ग्रन्थों में और कुछ लोगों के मस्तिष्क में और हृदय में है ही, परन्तु दुनिया के पास नहीं है वह भी भारत के पास है । केवल उसे सिखाने की आवश्यकता है । सिखाने लगें तो बहुत अल्प समय में खोई हुई अस्मिता पुनः वापस प्राप्त कर लेंगे । सरकार, देशभक्तों और बौद्धिकों को यह करने की आवश्यकता है ।
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२३. सरकारी कानून वर्ण, जाति, सम्प्रदाय के भेद नहीं मानता है परन्तु चुनाव इसके आधार पर ही लडे जाते हैं। भारत को सार्वभौम प्रजासत्ताक देश कहा जाता है परन्तु सभी क्षेत्रों के विकास के मानक युरोप और अमेरिका के अपनाये जाते हैं ।   
 
२३. सरकारी कानून वर्ण, जाति, सम्प्रदाय के भेद नहीं मानता है परन्तु चुनाव इसके आधार पर ही लडे जाते हैं। भारत को सार्वभौम प्रजासत्ताक देश कहा जाता है परन्तु सभी क्षेत्रों के विकास के मानक युरोप और अमेरिका के अपनाये जाते हैं ।   
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२४. सरकार भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा बढाना चाहती है परन्तु अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को प्रतिष्टा देती है । सरकार के प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही बात करते हैं । सरकारी पत्रव्यवहार अंग्रेजी में चलता है । प्रशासनिक अधिकारी मानो अंग्रेजों के प्रतिनिधि हैं क्योंकि सत्तान््तरण के समय अंग्रेज सत्ता इनके हाथों में सौंप कर गये थे । सरकार प्रजा की प्रतिनिधि है जबकि अधिकारी अंग्रेजों के दोनों के बीच में किस प्रकार का समन्वय होता है यह तो भुक्तभोगी ही अच्छी तरह से बता सकते हैं ।   
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२४. सरकार धार्मिक भाषाओं की प्रतिष्ठा बढाना चाहती है परन्तु अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को प्रतिष्टा देती है । सरकार के प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही बात करते हैं । सरकारी पत्रव्यवहार अंग्रेजी में चलता है । प्रशासनिक अधिकारी मानो अंग्रेजों के प्रतिनिधि हैं क्योंकि सत्तान््तरण के समय अंग्रेज सत्ता इनके हाथों में सौंप कर गये थे । सरकार प्रजा की प्रतिनिधि है जबकि अधिकारी अंग्रेजों के दोनों के बीच में किस प्रकार का समन्वय होता है यह तो भुक्तभोगी ही अच्छी तरह से बता सकते हैं ।   
    
२५. विचारधाराओं का, मतमतान्तरों का, अपेक्षाओं का, आकांक्षाओं का संघर्ष चलता ही रहता है और आशान्ति और असुरक्षा का वातावरण बनता है । निश्चयात्मिका बुद्धि का अभाव दिखाई देता है। सम्पूर्ण देश मानो प्रवाह पतित बनकर घसीटा जा रहा है। गन्तव्य क्या है इसका भी पता नहीं, मार्ग कौनसा है इसकी भी निश्चिति नहीं । बिना नियमन के देश चल रहा है ।   
 
२५. विचारधाराओं का, मतमतान्तरों का, अपेक्षाओं का, आकांक्षाओं का संघर्ष चलता ही रहता है और आशान्ति और असुरक्षा का वातावरण बनता है । निश्चयात्मिका बुद्धि का अभाव दिखाई देता है। सम्पूर्ण देश मानो प्रवाह पतित बनकर घसीटा जा रहा है। गन्तव्य क्या है इसका भी पता नहीं, मार्ग कौनसा है इसकी भी निश्चिति नहीं । बिना नियमन के देश चल रहा है ।   

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