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पश्चिम का जीवनविषयक तर्क इस प्रकार का है इसलिये कामनापूर्ति के लिये आपाधापी करना उसके जीवनयापन का पर्याय बन गया है।
 
पश्चिम का जीवनविषयक तर्क इस प्रकार का है इसलिये कामनापूर्ति के लिये आपाधापी करना उसके जीवनयापन का पर्याय बन गया है।
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कामनाओं का स्वभाव ऐसा है कि एक कामना पूर्ण करो तो दस जगती है। अतः कामनापूर्ति के प्रयासों का कभी अन्त नहीं होता । इसलिये संसाधन सदा कम ही पडते हैं। 'और चाहिये', 'और चाहिये' के मन्त्र का ही रटण निरन्तर चलता है। कामना का दूसरा स्वभाव यह होता है कि एक पदार्थ से मिलनेवाला सुख क्रमशः कम होता जाता है। प्रथम अनुभव में जो पदार्थ अत्यन्त प्रिय और सुखकारक लगता है वही पुराना होते होते कम प्रिय और फिर अप्रिय होने लगता है। इसलिये मन को निरन्तर नये की चाह रहती है। इसमें से पदार्थ के बनावट के, पैकिंग के, प्रस्तुतिकरण के नये नये तरीके निर्माण होते हैं, नये नये फैशन, खाद्य पदार्थों के नये नये स्वाद निर्माण किये जाते हैं। फिर भी अतृप्ति बनी रहती है। इसमें से उन्माद पैदा होता है। उन्माद से गति का जन्म होता है। मन स्वभाव से चंचल भी होता है । चंचलता भी गति को जन्म देती है। इसमें से तेज गति की ललक पैदा होती है। इसलिये तेजगति के वाहन बनाये जाते हैं । गति बढाने के निरन्तर प्रयास चलते हैं। मोटरसाइकिल, कार, ट्रेन, वायुयान आदि की गति बढाना मनुष्य के लिये चुनौती बन जाता है। गति बढाने में सफलता का और तेज गति के वाहन से यात्रा करने में साहस का अनुभव होता है। इसका भी कहीं अन्त नहीं है।
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कामनाओं का स्वभाव ऐसा है कि एक कामना पूर्ण करो तो दस जगती है। अतः कामनापूर्ति के प्रयासों का कभी अन्त नहीं होता । इसलिये संसाधन सदा कम ही पडते हैं। 'और चाहिये', 'और चाहिये' के मन्त्र का ही रटण निरन्तर चलता है। कामना का दूसरा स्वभाव यह होता है कि एक पदार्थ से मिलनेवाला सुख क्रमशः कम होता जाता है। प्रथम अनुभव में जो पदार्थ अत्यन्त प्रिय और सुखकारक लगता है वही पुराना होते होते कम प्रिय और फिर अप्रिय होने लगता है। इसलिये मन को निरन्तर नये की चाह रहती है। इसमें से पदार्थ के बनावट के, पैकिंग के, प्रस्तुतिकरण के नये नये तरीके निर्माण होते हैं, नये नये फैशन, खाद्य पदार्थों के नये नये स्वाद निर्माण किये जाते हैं। तथापि अतृप्ति बनी रहती है। इसमें से उन्माद पैदा होता है। उन्माद से गति का जन्म होता है। मन स्वभाव से चंचल भी होता है । चंचलता भी गति को जन्म देती है। इसमें से तेज गति की ललक पैदा होती है। इसलिये तेजगति के वाहन बनाये जाते हैं । गति बढाने के निरन्तर प्रयास चलते हैं। मोटरसाइकिल, कार, ट्रेन, वायुयान आदि की गति बढाना मनुष्य के लिये चुनौती बन जाता है। गति बढाने में सफलता का और तेज गति के वाहन से यात्रा करने में साहस का अनुभव होता है। इसका भी कहीं अन्त नहीं है।
    
इस उन्माद का दूसरा स्वरूप है ऊँचे स्वर वाला संगीत और उतेजना पूर्ण नृत्य । इसे भी पराकाष्ठा तक पहुँचाने के प्रयास निरन्तर होते रहते हैं । येन केन प्रकारेण कामनाओं की पूर्ति करने की चाह, अधिक से अधिक कामनाओं की पूर्ति के प्रयास उन्हें शान्ति से, स्थिरतापूर्वक बैठने नहीं देते । गति उनके जीवन का मुख्य लक्षण बन गया है।  
 
इस उन्माद का दूसरा स्वरूप है ऊँचे स्वर वाला संगीत और उतेजना पूर्ण नृत्य । इसे भी पराकाष्ठा तक पहुँचाने के प्रयास निरन्तर होते रहते हैं । येन केन प्रकारेण कामनाओं की पूर्ति करने की चाह, अधिक से अधिक कामनाओं की पूर्ति के प्रयास उन्हें शान्ति से, स्थिरतापूर्वक बैठने नहीं देते । गति उनके जीवन का मुख्य लक्षण बन गया है।  
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वर्तमान में योगविद्या को विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। योग आत्मसाक्षात्कार तक पहुँचने की प्रक्रिया दर्शानेवाला विज्ञान है । इसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है अर्थात् यह अन्तःकरण की प्रक्रियाओं को निरूपित करनेवाला विज्ञान है। परन्तु पश्चिम ने इसे अन्नमय और प्राणमय कोश के साथ जोडकर सीमित कर दिया है । योग को एक और व्यायाम के साथ और दूसरी ओर चिकित्सा के साथ जोड दिया है। दोनों आयामों में उसका सम्बन्ध शरीर के साथ ही स्थापित होता है । अन्नमय और प्राणमय कोशों  के साथ योग के तीसरे और चौथे अंगों अर्थात् आसन और प्राणायाम का सम्बन्ध अवश्य है परन्तु ये सम्पूर्ण योगविज्ञान के अंग हैं, वे भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नहीं । सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग तो समाधि है जिसके लिये शेष सात अंग हैं । समाधि भौतिक विज्ञान से नहीं अपितु आत्मविज्ञान से सम्बन्धित है । परन्तु पश्चिमने आसन और प्राणायाम को ही योग का केन्द्रवर्ती विषय बनाकर उसका स्वीकार किया। ध्यान के लिये संज्ञा अवश्य है, आत्मसाक्षात्कार जैसी संकल्पना भी है परन्तु उनके मापन की पद्धति भौतिक विज्ञान पर आधारित है। इस अर्थ में योग की उनकी समझ धार्मिक समझ से सर्वथा भिन्न है।
 
वर्तमान में योगविद्या को विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। योग आत्मसाक्षात्कार तक पहुँचने की प्रक्रिया दर्शानेवाला विज्ञान है । इसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है अर्थात् यह अन्तःकरण की प्रक्रियाओं को निरूपित करनेवाला विज्ञान है। परन्तु पश्चिम ने इसे अन्नमय और प्राणमय कोश के साथ जोडकर सीमित कर दिया है । योग को एक और व्यायाम के साथ और दूसरी ओर चिकित्सा के साथ जोड दिया है। दोनों आयामों में उसका सम्बन्ध शरीर के साथ ही स्थापित होता है । अन्नमय और प्राणमय कोशों  के साथ योग के तीसरे और चौथे अंगों अर्थात् आसन और प्राणायाम का सम्बन्ध अवश्य है परन्तु ये सम्पूर्ण योगविज्ञान के अंग हैं, वे भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नहीं । सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग तो समाधि है जिसके लिये शेष सात अंग हैं । समाधि भौतिक विज्ञान से नहीं अपितु आत्मविज्ञान से सम्बन्धित है । परन्तु पश्चिमने आसन और प्राणायाम को ही योग का केन्द्रवर्ती विषय बनाकर उसका स्वीकार किया। ध्यान के लिये संज्ञा अवश्य है, आत्मसाक्षात्कार जैसी संकल्पना भी है परन्तु उनके मापन की पद्धति भौतिक विज्ञान पर आधारित है। इस अर्थ में योग की उनकी समझ धार्मिक समझ से सर्वथा भिन्न है।
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जैसा योग का है वैसा ही मनोविज्ञान का है। मन शरीर और प्राण से परे हैं, अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी है। परन्तु पश्चिम मन को भी भौतिक जगत के मापदण्डों से ही समझता है। मन और बुद्धि को एक ही अन्तःकरण के दो आयामों के रूप में नहीं अपितु एकदूसरे से पृथक् मान्यता है। वास्तव में इस ब्रह्माण्ड में भौतिक विश्व के साथ साथ मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त हैं यह उसके दायरे से बाहर है। केवल मनुष्य में ही मन, बुद्धि आदि होता है, सृष्टि में नहीं ऐसी उसकी समझ है इसलिये उसका विश्व का आकलन भी अधूरा ही रह जाता है। अर्थात् विज्ञान और उसकी प्रक्रियाओं को भौतिक विज्ञान के साथ जोडकर उसने अपने ज्ञान और विज्ञान के विश्व को जडवादी बना दिया है। यह विश्व का एकांगी बोध है। सृष्टि जड और चेतन दोनों तत्त्वों से बनी है, पश्चिम इसे केवल जड के अंग से ही देखता है। पश्चिम के लिये दो अंग हैं पदार्थ और ऊर्जा । वह इन दोनों के लिये मेटर एण्ड लाइफ कहता है। परन्तु लाइफ और ऊर्जा में अन्तर है। लाइफ के लिये भारत में जीवन शब्द का प्रयोग होता है। अंग्रेजी में भी ऊर्जा के लिये एनर्जी शब्द का प्रयोग होता है परन्तु प्राणमय कोश को वे ऊर्जा के रूप में ही जानते हैं। भारत की संकल्पनात्मक शब्दावली में ये दोनों, अर्थात् पदार्थ और ऊर्जा, जड हैं। पश्चिम इस विश्व को जड का ही विस्तार मानता है उनके विज्ञान को उसके साथ जोडकर ही समझता है।
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जैसा योग का है वैसा ही मनोविज्ञान का है। मन शरीर और प्राण से परे हैं, अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी है। परन्तु पश्चिम मन को भी भौतिक जगत के मापदण्डों से ही समझता है। मन और बुद्धि को एक ही अन्तःकरण के दो आयामों के रूप में नहीं अपितु एकदूसरे से पृथक् मान्यता है। वास्तव में इस ब्रह्माण्ड में भौतिक विश्व के साथ साथ मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त हैं यह उसके दायरे से बाहर है। केवल मनुष्य में ही मन, बुद्धि आदि होता है, सृष्टि में नहीं ऐसी उसकी समझ है इसलिये उसका विश्व का आकलन भी अधूरा ही रह जाता है। अर्थात् विज्ञान और उसकी प्रक्रियाओं को भौतिक विज्ञान के साथ जोडकर उसने अपने ज्ञान और विज्ञान के विश्व को जड़वादी बना दिया है। यह विश्व का एकांगी बोध है। सृष्टि जड़ और चेतन दोनों तत्त्वों से बनी है, पश्चिम इसे केवल जड़ के अंग से ही देखता है। पश्चिम के लिये दो अंग हैं पदार्थ और ऊर्जा । वह इन दोनों के लिये मेटर एण्ड लाइफ कहता है। परन्तु लाइफ और ऊर्जा में अन्तर है। लाइफ के लिये भारत में जीवन शब्द का प्रयोग होता है। अंग्रेजी में भी ऊर्जा के लिये एनर्जी शब्द का प्रयोग होता है परन्तु प्राणमय कोश को वे ऊर्जा के रूप में ही जानते हैं। भारत की संकल्पनात्मक शब्दावली में ये दोनों, अर्थात् पदार्थ और ऊर्जा, जड़ हैं। पश्चिम इस विश्व को जड़ का ही विस्तार मानता है उनके विज्ञान को उसके साथ जोडकर ही समझता है।
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भारत की दृष्टि से यह संकल्पनात्मक संज्ञाओं का घालमेल है। अकेले जड के बोध से ब्रह्माण्ड तो क्या, किसी भी छोटे या क्षुद्र पदार्थ का भी बोध नहीं हो सकता। प्राण को ही चेतन मानना सही नहीं है । तात्पर्य यह है कि सृष्टि के और जीवन के आकलन में ही अन्तर पड जाता है। जिस प्रकार किसी भी बिन्दु पर खडे रहकर देखने पर पूर्व और पश्चिम एकदूसरे से विपरीत दिशा में होते हैं वैसा ही सृष्टि के आकलन के बारे में भारत और पश्चिमी जगत का है।
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भारत की दृष्टि से यह संकल्पनात्मक संज्ञाओं का घालमेल है। अकेले जड़ के बोध से ब्रह्माण्ड तो क्या, किसी भी छोटे या क्षुद्र पदार्थ का भी बोध नहीं हो सकता। प्राण को ही चेतन मानना सही नहीं है । तात्पर्य यह है कि सृष्टि के और जीवन के आकलन में ही अन्तर पड जाता है। जिस प्रकार किसी भी बिन्दु पर खडे रहकर देखने पर पूर्व और पश्चिम एकदूसरे से विपरीत दिशा में होते हैं वैसा ही सृष्टि के आकलन के बारे में भारत और पश्चिमी जगत का है।
    
पश्चिम की यह विज्ञान और वैज्ञानिकता की संकल्पना सृष्टि के और जीवन के, पदार्थों के और मनुष्यों के स्वभाव और व्यवहारों के रहस्यों का आकलन सही प्रकार से, पूर्ण रूप से नहीं कर सकती । भारत का दर्शन पश्चिम से अत्यन्त व्यापक है। केवल व्यापक ही नहीं तो अलग है और अधिक गहरा है।
 
पश्चिम की यह विज्ञान और वैज्ञानिकता की संकल्पना सृष्टि के और जीवन के, पदार्थों के और मनुष्यों के स्वभाव और व्यवहारों के रहस्यों का आकलन सही प्रकार से, पूर्ण रूप से नहीं कर सकती । भारत का दर्शन पश्चिम से अत्यन्त व्यापक है। केवल व्यापक ही नहीं तो अलग है और अधिक गहरा है।
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पश्चिम की विज्ञान की समझ और उसकी जीवनदृष्टि का एकदूसरे के साथ सीधा सम्बन्ध है। जो दृष्टि जन्मजन्मान्तर को मानती नहीं है, जो पूर्वजन्म के संस्कार, कर्म ओर कर्मफल के सिद्धान्त को समझती नहीं है, जो दृष्टि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आन्तरिक एकत्व के सम्बन्ध को देख नहीं सकती है उसकी विज्ञान दृष्टि भी जडवादी हो इसमें कोई आश्चर्य नहीं । ऐसे विज्ञान को प्रतिष्ठा देना स्वयं जीवन के लिये हानिकारक है। वास्तव में पश्चिम की जीवनदृष्टि ने विश्व में जो आतंक मचाया है उसमें विज्ञान उसका बहुत बडा सहयोगी रहा है । इस विज्ञान के मापदण्ड से किसी भी बात का मूल्यांकन करने पर विपरीत परिणाम होते हैं।
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पश्चिम की विज्ञान की समझ और उसकी जीवनदृष्टि का एकदूसरे के साथ सीधा सम्बन्ध है। जो दृष्टि जन्मजन्मान्तर को मानती नहीं है, जो पूर्वजन्म के संस्कार, कर्म ओर कर्मफल के सिद्धान्त को समझती नहीं है, जो दृष्टि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आन्तरिक एकत्व के सम्बन्ध को देख नहीं सकती है उसकी विज्ञान दृष्टि भी जड़वादी हो इसमें कोई आश्चर्य नहीं । ऐसे विज्ञान को प्रतिष्ठा देना स्वयं जीवन के लिये हानिकारक है। वास्तव में पश्चिम की जीवनदृष्टि ने विश्व में जो आतंक मचाया है उसमें विज्ञान उसका बहुत बडा सहयोगी रहा है । इस विज्ञान के मापदण्ड से किसी भी बात का मूल्यांकन करने पर विपरीत परिणाम होते हैं।
    
पश्चिम ने विज्ञान को धर्म और अध्यात्म के विरोध में खडा कर दिया है इतना ही नहीं तो विज्ञान को अध्यात्म से श्रेष्ठ घोषित किया है। मूलतः यह कुतर्क का बहुत बडा उदाहरण है। अध्यात्म और विज्ञान एक समूह की संकल्पनायें हैं ही नहीं जिससे उनकी तुलना कर तरतम सम्बन्ध निश्चित किया जा सके। भारत में जिसे धर्म और अध्यात्म कहते हैं वे तो पश्चिम के लिये सर्वथा अपरिचित संकल्पना है। उनके ही ज्ञानविश्व का, अपरिपक्व संकल्पनाओं का अपरिपक्क परन्तु बलवान झगडा विश्व में छाया हुआ है। भारत भी उसमें उलझ गया है। विश्व के ज्ञानक्षेत्र के लिये यदि विपरीत बात है तो वह भारत का उलझना ही है क्योंकि भारत ही यदि उलझेगा तो उलझे हुए विश्व को सुलझने में कौन सहायता करेगा ? भारत को प्रथम तो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से मुक्त होकर अपने आपमें सुलझ जाना है और उस दिन वह पश्चिम सहित विश्व को सही मार्ग दिखाने की भूमिका निभायेगा।
 
पश्चिम ने विज्ञान को धर्म और अध्यात्म के विरोध में खडा कर दिया है इतना ही नहीं तो विज्ञान को अध्यात्म से श्रेष्ठ घोषित किया है। मूलतः यह कुतर्क का बहुत बडा उदाहरण है। अध्यात्म और विज्ञान एक समूह की संकल्पनायें हैं ही नहीं जिससे उनकी तुलना कर तरतम सम्बन्ध निश्चित किया जा सके। भारत में जिसे धर्म और अध्यात्म कहते हैं वे तो पश्चिम के लिये सर्वथा अपरिचित संकल्पना है। उनके ही ज्ञानविश्व का, अपरिपक्व संकल्पनाओं का अपरिपक्क परन्तु बलवान झगडा विश्व में छाया हुआ है। भारत भी उसमें उलझ गया है। विश्व के ज्ञानक्षेत्र के लिये यदि विपरीत बात है तो वह भारत का उलझना ही है क्योंकि भारत ही यदि उलझेगा तो उलझे हुए विश्व को सुलझने में कौन सहायता करेगा ? भारत को प्रथम तो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से मुक्त होकर अपने आपमें सुलझ जाना है और उस दिन वह पश्चिम सहित विश्व को सही मार्ग दिखाने की भूमिका निभायेगा।
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तन्त्रज्ञान का शाब्दिक अर्थ भले ही अलग हो तो भी वह टैकनोलोजी के लिये स्वीकृत शब्द है। पश्चिम की टैकनोलोजी से आज सारा विश्व अभिभूत है।
 
तन्त्रज्ञान का शाब्दिक अर्थ भले ही अलग हो तो भी वह टैकनोलोजी के लिये स्वीकृत शब्द है। पश्चिम की टैकनोलोजी से आज सारा विश्व अभिभूत है।
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उन्नीसवीं शताब्दी में भाप का इन्जन, टेलीफोन तथा विद्युत की ऊर्जा की खोज से नई टैकनोलोजी की आरम्भआत हुई। सूत पहले भी काता जाता था और वस्त्र पहले भी बुने जाते थे परन्तु उस समय सूत कातने वाले और वस्त्र बुने वाले यन्त्र थे वे मनुष्य के हाथ की ऊर्जा से चलते थे। विश्व की जीवनशैली बदल देने वाले यन्त्र नहीं हैं, यन्त्रों को संचालित करने वाली ऊर्जा है। बिजली भाप, पेट्रोल और अब अणु ऊर्जा ने भारी बदल किया है । इस ऊर्जा के आविष्कार से पूर्व जिस ऊर्जा से यन्त्र संचालित होते थे वह ऊर्जा मनुष्य का और पशु का बल था। जैसे कि कुएं से पानी निकालने का काम सरल बनाने हेतु घिटनी थी परन्तु घडे को खींचने वाले मनुष्य के हाथ होते थे । जमीन जोतने के लिये हल था परन्तु हल को चलानेवाले बैल होते थे । परिवहन के साधन भी थे, केवल भूमि पर नहीं तो जलमार्ग से यात्रा के लिये भी वाहन थे परन्तु उन्हें चलाने में मनुष्य और पशुओं की ऊर्जा प्रयुक्त होती थी। उन्नीसवीं शताब्दी में जैसे ही अन्य ऊर्जाओं का आविष्कार हुआ परिवहन, यातायात, पदार्थों के उत्पादन आदि क्षेत्रों में बडा तहलका मच गया । टैकनोलोजी का स्वरूप ही बदल गया।
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उन्नीसवीं शताब्दी में भाप का इन्जन, टेलीफोन तथा विद्युत की ऊर्जा की खोज से नई टैकनोलोजी की आरम्भआत हुई। सूत पहले भी काता जाता था और वस्त्र पहले भी बुने जाते थे परन्तु उस समय सूत कातने वाले और वस्त्र बुने वाले यन्त्र थे वे मनुष्य के हाथ की ऊर्जा से चलते थे। विश्व की जीवनशैली बदल देने वाले यन्त्र नहीं हैं, यन्त्रों को संचालित करने वाली ऊर्जा है। बिजली भाप, पेट्रोल और अब अणु ऊर्जा ने भारी बदल किया है । इस ऊर्जा के आविष्कार से पूर्व जिस ऊर्जा से यन्त्र संचालित होते थे वह ऊर्जा मनुष्य का और पशु का बल था। जैसे कि कुएं से पानी निकालने का काम सरल बनाने हेतु घिटनी थी परन्तु घड़े को खींचने वाले मनुष्य के हाथ होते थे । जमीन जोतने के लिये हल था परन्तु हल को चलानेवाले बैल होते थे । परिवहन के साधन भी थे, केवल भूमि पर नहीं तो जलमार्ग से यात्रा के लिये भी वाहन थे परन्तु उन्हें चलाने में मनुष्य और पशुओं की ऊर्जा प्रयुक्त होती थी। उन्नीसवीं शताब्दी में जैसे ही अन्य ऊर्जाओं का आविष्कार हुआ परिवहन, यातायात, पदार्थों के उत्पादन आदि क्षेत्रों में बडा तहलका मच गया । टैकनोलोजी का स्वरूप ही बदल गया।
    
शुद्ध भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में जिज्ञासा से प्रेरित होकर जो आविष्कार हुए वे निश्चितरूप से प्रशंसनीय ही थे। परन्तु अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धियुक्त मनुष्य के हाथ में जब प्रभावी साधन आता है तो उसका प्रयोग कैसा होगा यह सहज ही समझ में आनेवाली बात है। विज्ञान एक प्रभावी साधन है, वह न तो अच्छा होता है न बुरा, उसका प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि उसके प्रयोग का परिणाम अच्छा होगा कि बुरा । विज्ञान के आविष्कार हुए तब पश्चिम की खुशी और गर्व की सीमा नहीं रही। दैवयोग से उस समय इंग्लैण्ड का आधिपत्य विश्व के बड़े हिस्से पर था । इसलिये विज्ञान के आविष्कारों से जन्मे उत्साह और आनन्द का प्रभाव अन्य देशों पर भी पडा।
 
शुद्ध भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में जिज्ञासा से प्रेरित होकर जो आविष्कार हुए वे निश्चितरूप से प्रशंसनीय ही थे। परन्तु अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धियुक्त मनुष्य के हाथ में जब प्रभावी साधन आता है तो उसका प्रयोग कैसा होगा यह सहज ही समझ में आनेवाली बात है। विज्ञान एक प्रभावी साधन है, वह न तो अच्छा होता है न बुरा, उसका प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि उसके प्रयोग का परिणाम अच्छा होगा कि बुरा । विज्ञान के आविष्कार हुए तब पश्चिम की खुशी और गर्व की सीमा नहीं रही। दैवयोग से उस समय इंग्लैण्ड का आधिपत्य विश्व के बड़े हिस्से पर था । इसलिये विज्ञान के आविष्कारों से जन्मे उत्साह और आनन्द का प्रभाव अन्य देशों पर भी पडा।

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