Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "फिर भी" to "तथापि"
Line 1: Line 1: −
{{ToBeEdited}}
  −
__NOINDEX__
   
{{One source}}
 
{{One source}}
   Line 10: Line 8:  
पश्चिम का जीवनविषयक तर्क इस प्रकार का है इसलिये कामनापूर्ति के लिये आपाधापी करना उसके जीवनयापन का पर्याय बन गया है।
 
पश्चिम का जीवनविषयक तर्क इस प्रकार का है इसलिये कामनापूर्ति के लिये आपाधापी करना उसके जीवनयापन का पर्याय बन गया है।
   −
कामनाओं का स्वभाव ऐसा है कि एक कामना पूर्ण करो तो दस जगती है। अतः कामनापूर्ति के प्रयासों का कभी अन्त नहीं होता । इसलिये संसाधन हमेशा कम ही पडते हैं। 'और चाहिये', 'और चाहिये' के मन्त्र का ही रटण निरन्तर चलता है। कामना का दूसरा स्वभाव यह होता है कि एक पदार्थ से मिलनेवाला सुख क्रमशः कम होता जाता है। प्रथम अनुभव में जो पदार्थ अत्यन्त प्रिय और सुखकारक लगता है वही पुराना होते होते कम प्रिय और फिर अप्रिय होने लगता है। इसलिये मन को निरन्तर नये की चाह रहती है। इसमें से पदार्थ के बनावट के, पैकिंग के, प्रस्तुतिकरण के नये नये तरीके निर्माण होते हैं, नये नये फैशन, खाद्य पदार्थों के नये नये स्वाद निर्माण किये जाते हैं। फिर भी अतृप्ति बनी रहती है। इसमें से उन्माद पैदा होता है। उन्माद से गति का जन्म होता है। मन स्वभाव से चंचल भी होता है । चंचलता भी गति को जन्म देती है। इसमें से तेज गति की ललक पैदा होती है। इसलिये तेजगति के वाहन बनाये जाते हैं । गति बढाने के निरन्तर प्रयास चलते हैं। मोटरसाइकिल, कार, ट्रेन, वायुयान आदि की गति बढाना मनुष्य के लिये चुनौती बन जाता है। गति बढाने में सफलता का और तेज गति के वाहन से यात्रा करने में साहस का अनुभव होता है। इसका भी कहीं अन्त नहीं है।
+
कामनाओं का स्वभाव ऐसा है कि एक कामना पूर्ण करो तो दस जगती है। अतः कामनापूर्ति के प्रयासों का कभी अन्त नहीं होता । इसलिये संसाधन सदा कम ही पडते हैं। 'और चाहिये', 'और चाहिये' के मन्त्र का ही रटण निरन्तर चलता है। कामना का दूसरा स्वभाव यह होता है कि एक पदार्थ से मिलनेवाला सुख क्रमशः कम होता जाता है। प्रथम अनुभव में जो पदार्थ अत्यन्त प्रिय और सुखकारक लगता है वही पुराना होते होते कम प्रिय और फिर अप्रिय होने लगता है। इसलिये मन को निरन्तर नये की चाह रहती है। इसमें से पदार्थ के बनावट के, पैकिंग के, प्रस्तुतिकरण के नये नये तरीके निर्माण होते हैं, नये नये फैशन, खाद्य पदार्थों के नये नये स्वाद निर्माण किये जाते हैं। तथापि अतृप्ति बनी रहती है। इसमें से उन्माद पैदा होता है। उन्माद से गति का जन्म होता है। मन स्वभाव से चंचल भी होता है । चंचलता भी गति को जन्म देती है। इसमें से तेज गति की ललक पैदा होती है। इसलिये तेजगति के वाहन बनाये जाते हैं । गति बढाने के निरन्तर प्रयास चलते हैं। मोटरसाइकिल, कार, ट्रेन, वायुयान आदि की गति बढाना मनुष्य के लिये चुनौती बन जाता है। गति बढाने में सफलता का और तेज गति के वाहन से यात्रा करने में साहस का अनुभव होता है। इसका भी कहीं अन्त नहीं है।
    
इस उन्माद का दूसरा स्वरूप है ऊँचे स्वर वाला संगीत और उतेजना पूर्ण नृत्य । इसे भी पराकाष्ठा तक पहुँचाने के प्रयास निरन्तर होते रहते हैं । येन केन प्रकारेण कामनाओं की पूर्ति करने की चाह, अधिक से अधिक कामनाओं की पूर्ति के प्रयास उन्हें शान्ति से, स्थिरतापूर्वक बैठने नहीं देते । गति उनके जीवन का मुख्य लक्षण बन गया है।  
 
इस उन्माद का दूसरा स्वरूप है ऊँचे स्वर वाला संगीत और उतेजना पूर्ण नृत्य । इसे भी पराकाष्ठा तक पहुँचाने के प्रयास निरन्तर होते रहते हैं । येन केन प्रकारेण कामनाओं की पूर्ति करने की चाह, अधिक से अधिक कामनाओं की पूर्ति के प्रयास उन्हें शान्ति से, स्थिरतापूर्वक बैठने नहीं देते । गति उनके जीवन का मुख्य लक्षण बन गया है।  
Line 63: Line 61:  
उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र ने केन्द्रीकरण कर दिया है। यन्त्र एक साथ अधिक उत्पादन करता है, तेज गति से उत्पादन करता है इसलिये उत्पादन का केन्द्रीकरण होना अपरिहार्य है। उत्पादन के साथ साथ मालिकी का भी केन्द्रीकरण होता है । मालिकों की संख्या कम और मालिकी का क्षेत्र बढता जाता है । साथ ही काम करनेवाले लोग भी अनावश्यक बन जाते हैं। बेरोजगारी का जनक भी यही है। इस व्यवस्था में अरबोंपति और खरबोंपति तो बनते हैं परन्तु वे गिनेचुने ही होते हैं, अरबों और खरबों बेरोजगार, बिना कामकाज के लोग भी साथ साथ पैदा होते हैं।
 
उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र ने केन्द्रीकरण कर दिया है। यन्त्र एक साथ अधिक उत्पादन करता है, तेज गति से उत्पादन करता है इसलिये उत्पादन का केन्द्रीकरण होना अपरिहार्य है। उत्पादन के साथ साथ मालिकी का भी केन्द्रीकरण होता है । मालिकों की संख्या कम और मालिकी का क्षेत्र बढता जाता है । साथ ही काम करनेवाले लोग भी अनावश्यक बन जाते हैं। बेरोजगारी का जनक भी यही है। इस व्यवस्था में अरबोंपति और खरबोंपति तो बनते हैं परन्तु वे गिनेचुने ही होते हैं, अरबों और खरबों बेरोजगार, बिना कामकाज के लोग भी साथ साथ पैदा होते हैं।
   −
कामनापूर्ति के लिये ठोस भौतिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उनका उत्पादन केन्द्रीकृत हो जाने के कारण बेरोजगार लोगों की संख्या बढती है। उन्हें जीवित रहने के लिये और कामनाओं की पूर्ति के लिये पदार्थों की तो आवश्यकता रहती ही है। इसकी पूर्ति के लिये अनेक अनुत्पादक गतिविधियाँ शुरू होती हैं। इसमें से ही आज के अनेक महान शब्दों अथवा महान संकल्पनाओं का जन्म हुआ है। इनमें एक है मैनेजमेण्ट, दसरा है मनोरंजन उद्योग, शिक्षाउद्योग, स्वास्थ्यउद्योग आदि । घटनाओं और पदार्थों को ही नहीं तो मनुष्यों को मैनेज किया जाता है। लोग दो भागों में बँटे हैं, एक हैं मैनेज करने वाले और दूसरे हैं मैनेज होने वाले । मैनेज करनेवालों की भी एक श्रेणीबद्ध शृंखला बनती है - बडा मैनेजर और छोटा मैनेजर । मैनेजमेन्ट वर्तमान विश्वविद्यालयों का एक प्रतिष्ठित विषय है। संगीत, नृत्य, नाटक, काव्य आदि मनोरंजन उद्योग के पदार्थ बन गये हैं। उनका सारा मूल्य पैसे में रूपान्तरित हो गया है। सारी सृजनशीलता और कल्पनाशीलता पैसे के अधीन बन गई है । उसकी सार्थकता ही पैसे से है। शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था नहीं रह गई है अपितु ज्ञान को अर्थ के अधीन बनाने की व्यवस्था है। विश्वविद्यालयों का दर्जा तय करने वालों में एक प्रमुख आयाम उसकी अर्थोत्पादकता भी है । सेवा भी अर्थ के अधीन एक पदार्थ है। अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा 'सर्विस सैक्टर - सेवा क्षेत्र' है जिसमें भौतिक पदार्थों को छोडकर अन्य सभी मार्गों से दूसरों का काम कर पैसा कमाया जाता है।
+
कामनापूर्ति के लिये ठोस भौतिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उनका उत्पादन केन्द्रीकृत हो जाने के कारण बेरोजगार लोगोंं की संख्या बढती है। उन्हें जीवित रहने के लिये और कामनाओं की पूर्ति के लिये पदार्थों की तो आवश्यकता रहती ही है। इसकी पूर्ति के लिये अनेक अनुत्पादक गतिविधियाँ आरम्भ होती हैं। इसमें से ही आज के अनेक महान शब्दों अथवा महान संकल्पनाओं का जन्म हुआ है। इनमें एक है मैनेजमेण्ट, दसरा है मनोरंजन उद्योग, शिक्षाउद्योग, स्वास्थ्यउद्योग आदि । घटनाओं और पदार्थों को ही नहीं तो मनुष्यों को मैनेज किया जाता है। लोग दो भागों में बँटे हैं, एक हैं मैनेज करने वाले और दूसरे हैं मैनेज होने वाले । मैनेज करनेवालों की भी एक श्रेणीबद्ध शृंखला बनती है - बडा मैनेजर और छोटा मैनेजर । मैनेजमेन्ट वर्तमान विश्वविद्यालयों का एक प्रतिष्ठित विषय है। संगीत, नृत्य, नाटक, काव्य आदि मनोरंजन उद्योग के पदार्थ बन गये हैं। उनका सारा मूल्य पैसे में रूपान्तरित हो गया है। सारी सृजनशीलता और कल्पनाशीलता पैसे के अधीन बन गई है । उसकी सार्थकता ही पैसे से है। शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था नहीं रह गई है अपितु ज्ञान को अर्थ के अधीन बनाने की व्यवस्था है। विश्वविद्यालयों का दर्जा तय करने वालों में एक प्रमुख आयाम उसकी अर्थोत्पादकता भी है । सेवा भी अर्थ के अधीन एक पदार्थ है। अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा 'सर्विस सैक्टर - सेवा क्षेत्र' है जिसमें भौतिक पदार्थों को छोडकर अन्य सभी मार्गों से दूसरों का काम कर पैसा कमाया जाता है।
    
भारत की दृष्टि से यह अर्थव्यवस्था नहीं है, अनर्थ व्यवस्था है। यह अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धि का लक्षण है। यह विनाशक है इसमें तो कोई सन्देह नहीं।
 
भारत की दृष्टि से यह अर्थव्यवस्था नहीं है, अनर्थ व्यवस्था है। यह अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धि का लक्षण है। यह विनाशक है इसमें तो कोई सन्देह नहीं।
Line 88: Line 86:  
बड़े तंत्र में अधिक वेतन मिले इसके लिए दिये जाने वाले वेतनमान के कारण में आज का अर्थतंत्र, बिचौलिये व्यक्ति, प्रशासनिक तंत्र और क्षुद्र व्यापारियों द्वारा सेवाओं की मोटी जंजीरें खड़ी कर दी गई हैं । हम सब इस भार तले कुचले जा रहे हैं। क्यों कि इस पद्धति से लगाये हुए व्यक्ति मात्र तन्त्र को ही और अधिक मजबूत करते हैं । ये लोग कभी भी कोई सीधा उत्पादन नहीं करते, परन्तु ग्राहकों को तो उनका वेतन वस्तु के मूल के रूप में चुकाना ही पड़ता है।
 
बड़े तंत्र में अधिक वेतन मिले इसके लिए दिये जाने वाले वेतनमान के कारण में आज का अर्थतंत्र, बिचौलिये व्यक्ति, प्रशासनिक तंत्र और क्षुद्र व्यापारियों द्वारा सेवाओं की मोटी जंजीरें खड़ी कर दी गई हैं । हम सब इस भार तले कुचले जा रहे हैं। क्यों कि इस पद्धति से लगाये हुए व्यक्ति मात्र तन्त्र को ही और अधिक मजबूत करते हैं । ये लोग कभी भी कोई सीधा उत्पादन नहीं करते, परन्तु ग्राहकों को तो उनका वेतन वस्तु के मूल के रूप में चुकाना ही पड़ता है।
   −
लाभ की सतत गिनती वेतन के बदले... खर्च के अर्थात् मनुष्य के बदले मशीनें उपयोग में लेने के लिए गुणा-भाग करती ही रहती है । अर्थात् काम मिला है, उन व्यक्तियों के मस्तक पर भी सतत चिंता की तलवार लटकती रहती है । इस गलाकाट स्पर्धा में टिकने की माथाफोड़ी अनेक लोगों की स्वतन्त्र विचार करने की शक्ति को भी घटाती है, ऐसा नवीनतम शोधों का निष्कर्ष है।
+
लाभ की सतत गिनती वेतन के बदले... खर्च के अर्थात् मनुष्य के बदले मशीनें उपयोग में लेने के लिए गुणा-भाग करती ही रहती है । अर्थात् काम मिला है, उन व्यक्तियों के मस्तक पर भी सतत चिंता की तलवार लटकती रहती है । इस गलाकाट स्पर्धा में टिकने की माथाफोड़ी अनेक लोगोंं की स्वतन्त्र विचार करने की शक्ति को भी घटाती है, ऐसा नवीनतम शोधों का निष्कर्ष है।
    
आज के इस तंत्र में काम और बुद्धि के मध्य का सम्बन्ध टूट गया है। इस कारण से तंत्र भी टूटने की कगार पर है। आज के उद्योग में काम करने वाले कारीगर को अपने काम की कोई जवाबदारी है, ऐसा लगता ही नहीं है । इसी प्रकार अपने काम का गौरव भी अनुभव में नहीं आता । इस कारण से वस्तुओं की कलात्मकता और कारीगिरी भी घटती जा रही है। कामदार के मनमें काम का हेतु मात्र पैसा कमाना है, जबकि मालिक के मनमें इसका एक मात्र हेतु लाभ कमाना है।
 
आज के इस तंत्र में काम और बुद्धि के मध्य का सम्बन्ध टूट गया है। इस कारण से तंत्र भी टूटने की कगार पर है। आज के उद्योग में काम करने वाले कारीगर को अपने काम की कोई जवाबदारी है, ऐसा लगता ही नहीं है । इसी प्रकार अपने काम का गौरव भी अनुभव में नहीं आता । इस कारण से वस्तुओं की कलात्मकता और कारीगिरी भी घटती जा रही है। कामदार के मनमें काम का हेतु मात्र पैसा कमाना है, जबकि मालिक के मनमें इसका एक मात्र हेतु लाभ कमाना है।
Line 100: Line 98:  
इसका सबसे भयंकर परिणाम तो यह आया है कि जिन्दगी का मुख्य समय अथवा जो काम करने के लिए पीछे जाता है वह समय का एक प्रकार का बिगाड़ है। इसमें से जितने पैसे मिलते हैं, उतने खर्च करना ही उसका अर्थ है । जिन्दगी का हेतु शाम को, रविवार को या छुट्टी के दिन ही है। कार्य का इस प्रकार का अर्थघटन करने से अधिक आत्मघाती अन्य विचार और क्या हो सकता है ?
 
इसका सबसे भयंकर परिणाम तो यह आया है कि जिन्दगी का मुख्य समय अथवा जो काम करने के लिए पीछे जाता है वह समय का एक प्रकार का बिगाड़ है। इसमें से जितने पैसे मिलते हैं, उतने खर्च करना ही उसका अर्थ है । जिन्दगी का हेतु शाम को, रविवार को या छुट्टी के दिन ही है। कार्य का इस प्रकार का अर्थघटन करने से अधिक आत्मघाती अन्य विचार और क्या हो सकता है ?
   −
वास्तविकता में तो हमारे लिए हमारे कार्य का अर्थ नकारात्मक होना ही नहीं चाहिए कि उसकी भरपाई पैसों से की जा सके । गाँधीजीने अमूल्य सलाह दी थी, 'अपने कार्य का मूल्य पैसों में मत आँको । हमारा कार्य दूसरे लोगों की सेवा में काम आये, उसमें आँको । व्यक्ति को कार्य करने का आकर्षण यह होना चाहिए कि मेरा कार्य उसे पसन्द आया । दूसरों की सेवा करने के लिए स्वयं अपना तम मन लगा दे। और एक सच्चे सैनिक की भाँति समाज के लिए मरने को भी उद्यत हो जाय । क्योंकि अन्त में जो मरने के लिए तैयार नहीं, उसे क्या पता कि जीना क्या होता है ? '
+
वास्तविकता में तो हमारे लिए हमारे कार्य का अर्थ नकारात्मक होना ही नहीं चाहिए कि उसकी भरपाई पैसों से की जा सके । गाँधीजीने अमूल्य सलाह दी थी, 'अपने कार्य का मूल्य पैसों में मत आँको । हमारा कार्य दूसरे लोगोंं की सेवा में काम आये, उसमें आँको । व्यक्ति को कार्य करने का आकर्षण यह होना चाहिए कि मेरा कार्य उसे पसन्द आया । दूसरों की सेवा करने के लिए स्वयं अपना तम मन लगा दे। और एक सच्चे सैनिक की भाँति समाज के लिए मरने को भी उद्यत हो जाय । क्योंकि अन्त में जो मरने के लिए तैयार नहीं, उसे क्या पता कि जीना क्या होता है ? '
   −
ऐसा कब होगा ? कैसे होगा ? ऐसी आदर्श व्यवस्था किस प्रकार स्थापित हो ? इसका उत्तर हमने पहले विचारा है । आजकल बड़ी भारी मशीने और बड़े वैश्विक बाजार के लिए थोक उत्पादन का जो तंत्र है, उनके स्थान पर स्थानीय उपभोग हेतु स्थानीय उत्पादन तंत्र शुरु करके हो सकती है। और इसका प्रारम्भ गाँव में कपड़े का उत्पादन सादे चरखे के द्वारा हो सकता है। इस तरह से कपड़ें का उत्पादन करने से गाँव के लोगों का भी बहुत फायदा है तथा पैसे, तकनीक, सरकार तथा यह सब व्यवस्था करने वालों की गरज भी नहीं रहती । गाँव वाले स्वतन्त्रता पूर्वक अपना काम स्वयं कर सकते हैं।
+
ऐसा कब होगा ? कैसे होगा ? ऐसी आदर्श व्यवस्था किस प्रकार स्थापित हो ? इसका उत्तर हमने पहले विचारा है । आजकल बड़ी भारी मशीने और बड़े वैश्विक बाजार के लिए थोक उत्पादन का जो तंत्र है, उनके स्थान पर स्थानीय उपभोग हेतु स्थानीय उत्पादन तंत्र आरम्भ करके हो सकती है। और इसका प्रारम्भ गाँव में कपड़े का उत्पादन सादे चरखे के द्वारा हो सकता है। इस तरह से कपड़ें का उत्पादन करने से गाँव के लोगोंं का भी बहुत फायदा है तथा पैसे, तकनीक, सरकार तथा यह सब व्यवस्था करने वालों की गरज भी नहीं रहती । गाँव वाले स्वतन्त्रता पूर्वक अपना काम स्वयं कर सकते हैं।
   −
कपड़े के कारण बाद में अन्य उद्योग भी शुरु होने से गाँव अति समृद्ध बन सकता है । प्रत्येक को उनमें कार्यकरने के अवसर मिल सकते हैं। मात्र कार्य मिलेगा इतना ही नहीं तो अर्थपूर्ण कार्य मिलेगा, कार्य करने का आनन्द मिलेगा। कार्य करके आजीविका मिलेगी इतना ही नहीं तो समाज को कुछ प्रदान करने का सन्तोष मिलेगा। गौरव मिलेगा। आजकल की गलाकाट स्पर्धा के वातावरण में प्रतिस्पर्धी को पछाड़ने का हेतु मुख्य होता है । उसके स्थान पर किसी का शोषण किये बिना और अपना भी शोषण हुए बिना सब कार्य कर सकें। जिससे कार्य का बोझ मिटकर प्रेमपूर्वक तथा आनन्दपूर्वक सबकी सेवा हो सके । ऐसा कार्य करने से जीवन की सार्थकता मिलती है।
+
कपड़े के कारण बाद में अन्य उद्योग भी आरम्भ होने से गाँव अति समृद्ध बन सकता है । प्रत्येक को उनमें कार्यकरने के अवसर मिल सकते हैं। मात्र कार्य मिलेगा इतना ही नहीं तो अर्थपूर्ण कार्य मिलेगा, कार्य करने का आनन्द मिलेगा। कार्य करके आजीविका मिलेगी इतना ही नहीं तो समाज को कुछ प्रदान करने का सन्तोष मिलेगा। गौरव मिलेगा। आजकल की गलाकाट स्पर्धा के वातावरण में प्रतिस्पर्धी को पछाड़ने का हेतु मुख्य होता है । उसके स्थान पर किसी का शोषण किये बिना और अपना भी शोषण हुए बिना सब कार्य कर सकें। जिससे कार्य का बोझ मिटकर प्रेमपूर्वक तथा आनन्दपूर्वक सबकी सेवा हो सके । ऐसा कार्य करने से जीवन की सार्थकता मिलती है।
    
कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुरने कहा है कि 'जिन दिनों संस्कृति विविध रूपा नहीं होती, उन दिनों में विद्वान और ऋषि, वीर और दानवीर धनवान की तुलना में अधिक पूजे जाते हैं। उन्हें सम्मान देकर मानवता स्वयं सम्मान पाती है। मात्र पैसा कमाने वाले को तो लोग शंका की नजरों से देखते...'
 
कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुरने कहा है कि 'जिन दिनों संस्कृति विविध रूपा नहीं होती, उन दिनों में विद्वान और ऋषि, वीर और दानवीर धनवान की तुलना में अधिक पूजे जाते हैं। उन्हें सम्मान देकर मानवता स्वयं सम्मान पाती है। मात्र पैसा कमाने वाले को तो लोग शंका की नजरों से देखते...'
   −
जिस प्रकार आज की राजनीति में राष्ट्रों के अनहद अहम का टकराव बन गया है, उसी प्रकार आजीविका प्राप्त करने का तरीका भी व्यक्ति की आत्यन्तिक स्पर्धा की खटपट बन गई है ....... और फिर व्यक्ति तो व्यक्ति है । इसलिए इसे अपने धन्धे में मात्र रोजरोज की रोटी ही नहीं अपितु सनातन सत्य भी कमाना है।  
+
जिस प्रकार आज की राजनीति में राष्ट्रों के अनहद अहम का टकराव बन गया है, उसी प्रकार आजीविका प्राप्त करने का तरीका भी व्यक्ति की आत्यन्तिक स्पर्धा की खटपट बन गई है ....... और फिर व्यक्ति तो व्यक्ति है । अतः इसे अपने धन्धे में मात्र रोजरोज की रोटी ही नहीं अपितु सनातन सत्य भी कमाना है।  
 +
# गाँधी, मोहनदास करमचन्द, सर्वोदय (रस्किन का अन टु दि लास्ट से साभार) अहमदाबाद, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, १९२२, पृ. १७, १९५७ की आवृत्ति में ।
 +
# टोवर्ड्स युनिवर्सिल मेन, नई दिल्ली : एशिया पब्लिसिंग हाउस, १९६१ पृष्ठ ३१-३२ और ४९ से व्यथा और विकल्प से साभार
   −
१. गाँधी, मोहनदास करमचन्द, सर्वोदय (रस्किन का अन टु दि लास्ट से साभार) अहमदाबाद, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, १९२२, पृ. १७, १९५७ की आवृत्ति में ।
+
== पश्चिम का विज्ञान विषयक अवैज्ञानिक दृष्टिकोण ==
 
  −
२. टोवर्ड्स युनिवर्सिल मेन, नई दिल्ली : एशिया पब्लिसिंग हाउस, १९६१ पृष्ठ ३१-३२ और ४९ से व्यथा और विकल्प से साभार
  −
 
  −
== पश्चिम का विज्ञानं विषयक अवैज्ञानिक दृष्टिकोण ==
   
ज्ञानविश्व में 'विज्ञान' संज्ञा की बडी प्रतिष्ठा है। भारत के शास्त्रों में तो विज्ञान की बडी सरल व्याख्या की गई है है। ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया और पद्धति को विज्ञान कहते हैं। यह बुद्धिनिष्ठ है। जीवन के सर्वक्षेत्रों में इसकी व्याप्ति है। शरीरविज्ञान से लेकर अध्यात्मविज्ञान तक और पदार्थविज्ञान से लेकर सृष्टिविज्ञान तक इसकी व्याप्ति है। यह पृथ्वी, जल, ग्रह, नक्षत्र, मन, बुद्धि आत्मा आदि क्या हैं यह भी बताता है और भोजन कैसे बनाया जाता है यहां से लेकर आत्मरक्षात्कार कैसे होता है यह भी बताता है। भोजन के पदार्थ खाने के बाद क्या क्या होता है से लेकर समाधि अवस्था में पहुँचने पर क्या होता है यह भी समझाना है। विश्व की सभी घटनाओं, व्यवहारों, स्थितियों, प्रक्रियाओं का ज्ञानात्मक विवरण देना विज्ञान का काम है।
 
ज्ञानविश्व में 'विज्ञान' संज्ञा की बडी प्रतिष्ठा है। भारत के शास्त्रों में तो विज्ञान की बडी सरल व्याख्या की गई है है। ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया और पद्धति को विज्ञान कहते हैं। यह बुद्धिनिष्ठ है। जीवन के सर्वक्षेत्रों में इसकी व्याप्ति है। शरीरविज्ञान से लेकर अध्यात्मविज्ञान तक और पदार्थविज्ञान से लेकर सृष्टिविज्ञान तक इसकी व्याप्ति है। यह पृथ्वी, जल, ग्रह, नक्षत्र, मन, बुद्धि आत्मा आदि क्या हैं यह भी बताता है और भोजन कैसे बनाया जाता है यहां से लेकर आत्मरक्षात्कार कैसे होता है यह भी बताता है। भोजन के पदार्थ खाने के बाद क्या क्या होता है से लेकर समाधि अवस्था में पहुँचने पर क्या होता है यह भी समझाना है। विश्व की सभी घटनाओं, व्यवहारों, स्थितियों, प्रक्रियाओं का ज्ञानात्मक विवरण देना विज्ञान का काम है।
   Line 121: Line 117:  
वर्तमान में योगविद्या को विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। योग आत्मसाक्षात्कार तक पहुँचने की प्रक्रिया दर्शानेवाला विज्ञान है । इसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है अर्थात् यह अन्तःकरण की प्रक्रियाओं को निरूपित करनेवाला विज्ञान है। परन्तु पश्चिम ने इसे अन्नमय और प्राणमय कोश के साथ जोडकर सीमित कर दिया है । योग को एक और व्यायाम के साथ और दूसरी ओर चिकित्सा के साथ जोड दिया है। दोनों आयामों में उसका सम्बन्ध शरीर के साथ ही स्थापित होता है । अन्नमय और प्राणमय कोशों  के साथ योग के तीसरे और चौथे अंगों अर्थात् आसन और प्राणायाम का सम्बन्ध अवश्य है परन्तु ये सम्पूर्ण योगविज्ञान के अंग हैं, वे भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नहीं । सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग तो समाधि है जिसके लिये शेष सात अंग हैं । समाधि भौतिक विज्ञान से नहीं अपितु आत्मविज्ञान से सम्बन्धित है । परन्तु पश्चिमने आसन और प्राणायाम को ही योग का केन्द्रवर्ती विषय बनाकर उसका स्वीकार किया। ध्यान के लिये संज्ञा अवश्य है, आत्मसाक्षात्कार जैसी संकल्पना भी है परन्तु उनके मापन की पद्धति भौतिक विज्ञान पर आधारित है। इस अर्थ में योग की उनकी समझ धार्मिक समझ से सर्वथा भिन्न है।
 
वर्तमान में योगविद्या को विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। योग आत्मसाक्षात्कार तक पहुँचने की प्रक्रिया दर्शानेवाला विज्ञान है । इसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है अर्थात् यह अन्तःकरण की प्रक्रियाओं को निरूपित करनेवाला विज्ञान है। परन्तु पश्चिम ने इसे अन्नमय और प्राणमय कोश के साथ जोडकर सीमित कर दिया है । योग को एक और व्यायाम के साथ और दूसरी ओर चिकित्सा के साथ जोड दिया है। दोनों आयामों में उसका सम्बन्ध शरीर के साथ ही स्थापित होता है । अन्नमय और प्राणमय कोशों  के साथ योग के तीसरे और चौथे अंगों अर्थात् आसन और प्राणायाम का सम्बन्ध अवश्य है परन्तु ये सम्पूर्ण योगविज्ञान के अंग हैं, वे भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नहीं । सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग तो समाधि है जिसके लिये शेष सात अंग हैं । समाधि भौतिक विज्ञान से नहीं अपितु आत्मविज्ञान से सम्बन्धित है । परन्तु पश्चिमने आसन और प्राणायाम को ही योग का केन्द्रवर्ती विषय बनाकर उसका स्वीकार किया। ध्यान के लिये संज्ञा अवश्य है, आत्मसाक्षात्कार जैसी संकल्पना भी है परन्तु उनके मापन की पद्धति भौतिक विज्ञान पर आधारित है। इस अर्थ में योग की उनकी समझ धार्मिक समझ से सर्वथा भिन्न है।
   −
जैसा योग का है वैसा ही मनोविज्ञान का है। मन शरीर और प्राण से परे हैं, अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी है। परन्तु पश्चिम मन को भी भौतिक जगत के मापदण्डों से ही समझता है। मन और बुद्धि को एक ही अन्तःकरण के दो आयामों के रूप में नहीं अपितु एकदूसरे से पृथक् मान्यता है। वास्तव में इस ब्रह्माण्ड में भौतिक विश्व के साथ साथ मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त हैं यह उसके दायरे से बाहर है। केवल मनुष्य में ही मन, बुद्धि आदि होता है, सृष्टि में नहीं ऐसी उसकी समझ है इसलिये उसका विश्व का आकलन भी अधूरा ही रह जाता है। अर्थात् विज्ञान और उसकी प्रक्रियाओं को भौतिक विज्ञान के साथ जोडकर उसने अपने ज्ञान और विज्ञान के विश्व को जडवादी बना दिया है। यह विश्व का एकांगी बोध है। सृष्टि जड और चेतन दोनों तत्त्वों से बनी है, पश्चिम इसे केवल जड के अंग से ही देखता है। पश्चिम के लिये दो अंग हैं पदार्थ और ऊर्जा । वह इन दोनों के लिये मेटर एण्ड लाइफ कहता है। परन्तु लाइफ और ऊर्जा में अन्तर है। लाइफ के लिये भारत में जीवन शब्द का प्रयोग होता है। अंग्रेजी में भी ऊर्जा के लिये एनर्जी शब्द का प्रयोग होता है परन्तु प्राणमय कोश को वे ऊर्जा के रूप में ही जानते हैं। भारत की संकल्पनात्मक शब्दावली में ये दोनों, अर्थात् पदार्थ और ऊर्जा, जड हैं। पश्चिम इस विश्व को जड का ही विस्तार मानता है उनके विज्ञान को उसके साथ जोडकर ही समझता है।
+
जैसा योग का है वैसा ही मनोविज्ञान का है। मन शरीर और प्राण से परे हैं, अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी है। परन्तु पश्चिम मन को भी भौतिक जगत के मापदण्डों से ही समझता है। मन और बुद्धि को एक ही अन्तःकरण के दो आयामों के रूप में नहीं अपितु एकदूसरे से पृथक् मान्यता है। वास्तव में इस ब्रह्माण्ड में भौतिक विश्व के साथ साथ मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त हैं यह उसके दायरे से बाहर है। केवल मनुष्य में ही मन, बुद्धि आदि होता है, सृष्टि में नहीं ऐसी उसकी समझ है इसलिये उसका विश्व का आकलन भी अधूरा ही रह जाता है। अर्थात् विज्ञान और उसकी प्रक्रियाओं को भौतिक विज्ञान के साथ जोडकर उसने अपने ज्ञान और विज्ञान के विश्व को जड़वादी बना दिया है। यह विश्व का एकांगी बोध है। सृष्टि जड़ और चेतन दोनों तत्त्वों से बनी है, पश्चिम इसे केवल जड़ के अंग से ही देखता है। पश्चिम के लिये दो अंग हैं पदार्थ और ऊर्जा । वह इन दोनों के लिये मेटर एण्ड लाइफ कहता है। परन्तु लाइफ और ऊर्जा में अन्तर है। लाइफ के लिये भारत में जीवन शब्द का प्रयोग होता है। अंग्रेजी में भी ऊर्जा के लिये एनर्जी शब्द का प्रयोग होता है परन्तु प्राणमय कोश को वे ऊर्जा के रूप में ही जानते हैं। भारत की संकल्पनात्मक शब्दावली में ये दोनों, अर्थात् पदार्थ और ऊर्जा, जड़ हैं। पश्चिम इस विश्व को जड़ का ही विस्तार मानता है उनके विज्ञान को उसके साथ जोडकर ही समझता है।
   −
भारत की दृष्टि से यह संकल्पनात्मक संज्ञाओं का घालमेल है। अकेले जड के बोध से ब्रह्माण्ड तो क्या, किसी भी छोटे या क्षुद्र पदार्थ का भी बोध नहीं हो सकता। प्राण को ही चेतन मानना सही नहीं है । तात्पर्य यह है कि सृष्टि के और जीवन के आकलन में ही अन्तर पड जाता है। जिस प्रकार किसी भी बिन्दु पर खडे रहकर देखने पर पूर्व और पश्चिम एकदूसरे से विपरीत दिशा में होते हैं वैसा ही सृष्टि के आकलन के बारे में भारत और पश्चिमी जगत का है।
+
भारत की दृष्टि से यह संकल्पनात्मक संज्ञाओं का घालमेल है। अकेले जड़ के बोध से ब्रह्माण्ड तो क्या, किसी भी छोटे या क्षुद्र पदार्थ का भी बोध नहीं हो सकता। प्राण को ही चेतन मानना सही नहीं है । तात्पर्य यह है कि सृष्टि के और जीवन के आकलन में ही अन्तर पड जाता है। जिस प्रकार किसी भी बिन्दु पर खडे रहकर देखने पर पूर्व और पश्चिम एकदूसरे से विपरीत दिशा में होते हैं वैसा ही सृष्टि के आकलन के बारे में भारत और पश्चिमी जगत का है।
    
पश्चिम की यह विज्ञान और वैज्ञानिकता की संकल्पना सृष्टि के और जीवन के, पदार्थों के और मनुष्यों के स्वभाव और व्यवहारों के रहस्यों का आकलन सही प्रकार से, पूर्ण रूप से नहीं कर सकती । भारत का दर्शन पश्चिम से अत्यन्त व्यापक है। केवल व्यापक ही नहीं तो अलग है और अधिक गहरा है।
 
पश्चिम की यह विज्ञान और वैज्ञानिकता की संकल्पना सृष्टि के और जीवन के, पदार्थों के और मनुष्यों के स्वभाव और व्यवहारों के रहस्यों का आकलन सही प्रकार से, पूर्ण रूप से नहीं कर सकती । भारत का दर्शन पश्चिम से अत्यन्त व्यापक है। केवल व्यापक ही नहीं तो अलग है और अधिक गहरा है।
   −
पश्चिम की विज्ञान की समझ और उसकी जीवनदृष्टि का एकदूसरे के साथ सीधा सम्बन्ध है। जो दृष्टि जन्मजन्मान्तर को मानती नहीं है, जो पूर्वजन्म के संस्कार, कर्म ओर कर्मफल के सिद्धान्त को समझती नहीं है, जो दृष्टि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आन्तरिक एकत्व के सम्बन्ध को देख नहीं सकती है उसकी विज्ञान दृष्टि भी जडवादी हो इसमें कोई आश्चर्य नहीं । ऐसे विज्ञान को प्रतिष्ठा देना स्वयं जीवन के लिये हानिकारक है। वास्तव में पश्चिम की जीवनदृष्टि ने विश्व में जो आतंक मचाया है उसमें विज्ञान उसका बहुत बडा सहयोगी रहा है । इस विज्ञान के मापदण्ड से किसी भी बात का मूल्यांकन करने पर विपरीत परिणाम होते हैं।
+
पश्चिम की विज्ञान की समझ और उसकी जीवनदृष्टि का एकदूसरे के साथ सीधा सम्बन्ध है। जो दृष्टि जन्मजन्मान्तर को मानती नहीं है, जो पूर्वजन्म के संस्कार, कर्म ओर कर्मफल के सिद्धान्त को समझती नहीं है, जो दृष्टि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आन्तरिक एकत्व के सम्बन्ध को देख नहीं सकती है उसकी विज्ञान दृष्टि भी जड़वादी हो इसमें कोई आश्चर्य नहीं । ऐसे विज्ञान को प्रतिष्ठा देना स्वयं जीवन के लिये हानिकारक है। वास्तव में पश्चिम की जीवनदृष्टि ने विश्व में जो आतंक मचाया है उसमें विज्ञान उसका बहुत बडा सहयोगी रहा है । इस विज्ञान के मापदण्ड से किसी भी बात का मूल्यांकन करने पर विपरीत परिणाम होते हैं।
    
पश्चिम ने विज्ञान को धर्म और अध्यात्म के विरोध में खडा कर दिया है इतना ही नहीं तो विज्ञान को अध्यात्म से श्रेष्ठ घोषित किया है। मूलतः यह कुतर्क का बहुत बडा उदाहरण है। अध्यात्म और विज्ञान एक समूह की संकल्पनायें हैं ही नहीं जिससे उनकी तुलना कर तरतम सम्बन्ध निश्चित किया जा सके। भारत में जिसे धर्म और अध्यात्म कहते हैं वे तो पश्चिम के लिये सर्वथा अपरिचित संकल्पना है। उनके ही ज्ञानविश्व का, अपरिपक्व संकल्पनाओं का अपरिपक्क परन्तु बलवान झगडा विश्व में छाया हुआ है। भारत भी उसमें उलझ गया है। विश्व के ज्ञानक्षेत्र के लिये यदि विपरीत बात है तो वह भारत का उलझना ही है क्योंकि भारत ही यदि उलझेगा तो उलझे हुए विश्व को सुलझने में कौन सहायता करेगा ? भारत को प्रथम तो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से मुक्त होकर अपने आपमें सुलझ जाना है और उस दिन वह पश्चिम सहित विश्व को सही मार्ग दिखाने की भूमिका निभायेगा।
 
पश्चिम ने विज्ञान को धर्म और अध्यात्म के विरोध में खडा कर दिया है इतना ही नहीं तो विज्ञान को अध्यात्म से श्रेष्ठ घोषित किया है। मूलतः यह कुतर्क का बहुत बडा उदाहरण है। अध्यात्म और विज्ञान एक समूह की संकल्पनायें हैं ही नहीं जिससे उनकी तुलना कर तरतम सम्बन्ध निश्चित किया जा सके। भारत में जिसे धर्म और अध्यात्म कहते हैं वे तो पश्चिम के लिये सर्वथा अपरिचित संकल्पना है। उनके ही ज्ञानविश्व का, अपरिपक्व संकल्पनाओं का अपरिपक्क परन्तु बलवान झगडा विश्व में छाया हुआ है। भारत भी उसमें उलझ गया है। विश्व के ज्ञानक्षेत्र के लिये यदि विपरीत बात है तो वह भारत का उलझना ही है क्योंकि भारत ही यदि उलझेगा तो उलझे हुए विश्व को सुलझने में कौन सहायता करेगा ? भारत को प्रथम तो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से मुक्त होकर अपने आपमें सुलझ जाना है और उस दिन वह पश्चिम सहित विश्व को सही मार्ग दिखाने की भूमिका निभायेगा।
Line 134: Line 130:  
तन्त्रज्ञान का शाब्दिक अर्थ भले ही अलग हो तो भी वह टैकनोलोजी के लिये स्वीकृत शब्द है। पश्चिम की टैकनोलोजी से आज सारा विश्व अभिभूत है।
 
तन्त्रज्ञान का शाब्दिक अर्थ भले ही अलग हो तो भी वह टैकनोलोजी के लिये स्वीकृत शब्द है। पश्चिम की टैकनोलोजी से आज सारा विश्व अभिभूत है।
   −
उन्नीसवीं शताब्दी में भाप का इन्जन, टेलीफोन तथा विद्युत की ऊर्जा की खोज से नई टैकनोलोजी की शुरूआत हुई। सूत पहले भी काता जाता था और वस्त्र पहले भी बुने जाते थे परन्तु उस समय सूत कातने वाले और वस्त्र बुने वाले यन्त्र थे वे मनुष्य के हाथ की ऊर्जा से चलते थे। विश्व की जीवनशैली बदल देने वाले यन्त्र नहीं हैं, यन्त्रों को संचालित करने वाली ऊर्जा है। बिजली भाप, पेट्रोल और अब अणु ऊर्जा ने भारी बदल किया है । इस ऊर्जा के आविष्कार से पूर्व जिस ऊर्जा से यन्त्र संचालित होते थे वह ऊर्जा मनुष्य का और पशु का बल था। जैसे कि कुएं से पानी निकालने का काम सरल बनाने हेतु घिटनी थी परन्तु घडे को खींचने वाले मनुष्य के हाथ होते थे । जमीन जोतने के लिये हल था परन्तु हल को चलानेवाले बैल होते थे । परिवहन के साधन भी थे, केवल भूमि पर नहीं तो जलमार्ग से यात्रा के लिये भी वाहन थे परन्तु उन्हें चलाने में मनुष्य और पशुओं की ऊर्जा प्रयुक्त होती थी। उन्नीसवीं शताब्दी में जैसे ही अन्य ऊर्जाओं का आविष्कार हुआ परिवहन, यातायात, पदार्थों के उत्पादन आदि क्षेत्रों में बडा तहलका मच गया । टैकनोलोजी का स्वरूप ही बदल गया।
+
उन्नीसवीं शताब्दी में भाप का इन्जन, टेलीफोन तथा विद्युत की ऊर्जा की खोज से नई टैकनोलोजी की आरम्भआत हुई। सूत पहले भी काता जाता था और वस्त्र पहले भी बुने जाते थे परन्तु उस समय सूत कातने वाले और वस्त्र बुने वाले यन्त्र थे वे मनुष्य के हाथ की ऊर्जा से चलते थे। विश्व की जीवनशैली बदल देने वाले यन्त्र नहीं हैं, यन्त्रों को संचालित करने वाली ऊर्जा है। बिजली भाप, पेट्रोल और अब अणु ऊर्जा ने भारी बदल किया है । इस ऊर्जा के आविष्कार से पूर्व जिस ऊर्जा से यन्त्र संचालित होते थे वह ऊर्जा मनुष्य का और पशु का बल था। जैसे कि कुएं से पानी निकालने का काम सरल बनाने हेतु घिटनी थी परन्तु घड़े को खींचने वाले मनुष्य के हाथ होते थे । जमीन जोतने के लिये हल था परन्तु हल को चलानेवाले बैल होते थे । परिवहन के साधन भी थे, केवल भूमि पर नहीं तो जलमार्ग से यात्रा के लिये भी वाहन थे परन्तु उन्हें चलाने में मनुष्य और पशुओं की ऊर्जा प्रयुक्त होती थी। उन्नीसवीं शताब्दी में जैसे ही अन्य ऊर्जाओं का आविष्कार हुआ परिवहन, यातायात, पदार्थों के उत्पादन आदि क्षेत्रों में बडा तहलका मच गया । टैकनोलोजी का स्वरूप ही बदल गया।
    
शुद्ध भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में जिज्ञासा से प्रेरित होकर जो आविष्कार हुए वे निश्चितरूप से प्रशंसनीय ही थे। परन्तु अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धियुक्त मनुष्य के हाथ में जब प्रभावी साधन आता है तो उसका प्रयोग कैसा होगा यह सहज ही समझ में आनेवाली बात है। विज्ञान एक प्रभावी साधन है, वह न तो अच्छा होता है न बुरा, उसका प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि उसके प्रयोग का परिणाम अच्छा होगा कि बुरा । विज्ञान के आविष्कार हुए तब पश्चिम की खुशी और गर्व की सीमा नहीं रही। दैवयोग से उस समय इंग्लैण्ड का आधिपत्य विश्व के बड़े हिस्से पर था । इसलिये विज्ञान के आविष्कारों से जन्मे उत्साह और आनन्द का प्रभाव अन्य देशों पर भी पडा।
 
शुद्ध भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में जिज्ञासा से प्रेरित होकर जो आविष्कार हुए वे निश्चितरूप से प्रशंसनीय ही थे। परन्तु अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धियुक्त मनुष्य के हाथ में जब प्रभावी साधन आता है तो उसका प्रयोग कैसा होगा यह सहज ही समझ में आनेवाली बात है। विज्ञान एक प्रभावी साधन है, वह न तो अच्छा होता है न बुरा, उसका प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि उसके प्रयोग का परिणाम अच्छा होगा कि बुरा । विज्ञान के आविष्कार हुए तब पश्चिम की खुशी और गर्व की सीमा नहीं रही। दैवयोग से उस समय इंग्लैण्ड का आधिपत्य विश्व के बड़े हिस्से पर था । इसलिये विज्ञान के आविष्कारों से जन्मे उत्साह और आनन्द का प्रभाव अन्य देशों पर भी पडा।
   −
विज्ञान की सहायता से टैकनोलोजी का अद्भुत विकास हुआ। मनुष्य का जीवन असंख्य प्रकार की सुविधों से भर गया। एक भी काम ऐसा नहीं था जो यन्त्र की सहायता से न हो । यातायात के साधन बढ गये । यातायात की गति भी बढी । सडकें, पुल, पहाड़ों पर चढने हेतु रस्सी मार्ग, पहाडों के बीच में से जाने हेतु बोगदे, पानी पर चलने वाले जहाजों के साथ साथ पानी के अन्दर चलने वाले जहाज, आकाश मार्ग से जाने हेतु हवाई जहाज, अवकाशयान, बहुमंजिला मकान, उपर चढते हेतु उद्वाहक, फर्नीचर बनाने हेतु यन्त्र और उन यन्त्रों को बनाने हेतु यन्त्र... सर्वत्र यन्त्र ही यन्त्र दिखाई देने लगे । घरों के बैठक कक्षों, शयन कक्षों, भोजन कक्षों, रसोई, स्नानघर, बगीचा आदि सर्वत्र छोटे बड़े, सरल कठिन सारे काम यन्त्रों के सहारे होने लगे। आज भी नये नये यन्त्र बनाने का यह सिलसिला जारी ही है। आज की संगणक की क्रान्ति ने जादू कर दिया है।
+
विज्ञान की सहायता से टैकनोलोजी का अद्भुत विकास हुआ। मनुष्य का जीवन असंख्य प्रकार की सुविधों से भर गया। एक भी काम ऐसा नहीं था जो यन्त्र की सहायता से न हो । यातायात के साधन बढ गये । यातायात की गति भी बढी । सडकें, पुल, पहाड़ों पर चढने हेतु रस्सी मार्ग, पहाडों के मध्य में से जाने हेतु बोगदे, पानी पर चलने वाले जहाजों के साथ साथ पानी के अन्दर चलने वाले जहाज, आकाश मार्ग से जाने हेतु हवाई जहाज, अवकाशयान, बहुमंजिला मकान, उपर चढते हेतु उद्वाहक, फर्नीचर बनाने हेतु यन्त्र और उन यन्त्रों को बनाने हेतु यन्त्र... सर्वत्र यन्त्र ही यन्त्र दिखाई देने लगे । घरों के बैठक कक्षों, शयन कक्षों, भोजन कक्षों, रसोई, स्नानघर, बगीचा आदि सर्वत्र छोटे बड़े, सरल कठिन सारे काम यन्त्रों के सहारे होने लगे। आज भी नये नये यन्त्र बनाने का यह सिलसिला जारी ही है। आज की संगणक की क्रान्ति ने जादू कर दिया है।
    
भौतिक विज्ञान और उसकी सहायता से विकसित अद्भुत तन्त्रज्ञान का यदि एकांगी विचार ही करना है तो उसकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है। परन्तु उसके विश्वव्यापी जीवनलक्षी परिणामों का विचार भी करना है तो मामला गम्भीर है। और ऐसा विचार करना ही होगा, क्योंकि जीवन के लिये विज्ञान और तन्त्रज्ञान होते हैं न कि विज्ञान और तन्त्रज्ञान के लिये जीवन ।
 
भौतिक विज्ञान और उसकी सहायता से विकसित अद्भुत तन्त्रज्ञान का यदि एकांगी विचार ही करना है तो उसकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है। परन्तु उसके विश्वव्यापी जीवनलक्षी परिणामों का विचार भी करना है तो मामला गम्भीर है। और ऐसा विचार करना ही होगा, क्योंकि जीवन के लिये विज्ञान और तन्त्रज्ञान होते हैं न कि विज्ञान और तन्त्रज्ञान के लिये जीवन ।
Line 150: Line 146:  
यन्त्रों का एक साथी उत्पाद है पेट्रोलियम और दूसरा है प्लास्टिक । इन दोनों ने सुविधा तो बहुत निर्माण की है परन्तु पर्यावरण का महासंकट भी पैदा किया है। सारा विश्व आज ग्लोबल वोर्मिग - वैश्विक तापमान वृद्धि - से चिन्तित है। तापमान बढ़ने का कारण पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही तो है। विश्व के अनेक देशों को त्सुनामी, भूकम्प, अतिवृष्टि, अकाल, हिमवर्षा जैसे प्राकृतिक संकटों का सामना करना पड़ रहा है । ऋतुओं का सन्तुलन बिगड रहा है । एक और गर्मी बढ रही है तो दूसरी ओर ठण्ड भी बढ़ रही है । यह बदल भी नियमित नहीं है । इन संकटों का कारण भी पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही है।
 
यन्त्रों का एक साथी उत्पाद है पेट्रोलियम और दूसरा है प्लास्टिक । इन दोनों ने सुविधा तो बहुत निर्माण की है परन्तु पर्यावरण का महासंकट भी पैदा किया है। सारा विश्व आज ग्लोबल वोर्मिग - वैश्विक तापमान वृद्धि - से चिन्तित है। तापमान बढ़ने का कारण पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही तो है। विश्व के अनेक देशों को त्सुनामी, भूकम्प, अतिवृष्टि, अकाल, हिमवर्षा जैसे प्राकृतिक संकटों का सामना करना पड़ रहा है । ऋतुओं का सन्तुलन बिगड रहा है । एक और गर्मी बढ रही है तो दूसरी ओर ठण्ड भी बढ़ रही है । यह बदल भी नियमित नहीं है । इन संकटों का कारण भी पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही है।
   −
परन्तु अब मन की स्थिति ऐसी हो गई है कि संकट भी झेले नहीं जा सकते हैं और संकटों के कारणों को भी छोडा नहीं जा सकता है। विश्व सम्मेलनों में संकटों की चर्चा की जाती है परन्तु उपाय ऐसे होते हैं जो संकटों को और बढायें । यन्त्रों ने मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का ह्रास किया है। सुविधा और शक्ति दोनों परस्पर विरोधी बन गये हैं। वाहनों के कारण गति बढी तो साथ साथ पैरों की चलने की क्षमता कम हुई, कैलकुलेटर ने गिनती करना शुरू किया तो बुद्धि की गणनक्षमता कम हुई, संगणक ने जानकारी का संग्रह करना शुरू किया तो स्मरणशक्ति और खोजी वृत्ति कम हुई, टीवी ने नृत्यगीत के कार्यक्रम शुरू किये तो हृदय की रसानुभूति की शक्ति कम हुई, साथ ही साथ सृजनशीलता भी कम हुई, यन्त्रों ने वस्त्र बुनना, छपाई करना और रंगना शुरू किया तो वस्त्र से सम्बन्धित कारीगरी का ह्रास हुआ। यन्त्रों ने सर्व प्रकार की कारीगरी के साथ जुड़े सृजनशीलता, कल्पनाशीलता, कौशल, निपुणता, उत्कृष्टता, विविधता, मौलिकता और उसमें से मिलने वाले आनन्द को नष्ट कर दिया, एक सर्जक और निर्माता को मजदूर बना दिया । एक और सर्जक नहीं रहा तो दूसरी ओर भावक भी नहीं रहा । यह बहुत बड़ा सांस्कृतिक नुकसान है। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि यह सब खोने का खेद भी नहीं रहा । श्रेष्ठ का कनिष्ठ बनाने का यह तरीका है।
+
परन्तु अब मन की स्थिति ऐसी हो गई है कि संकट भी झेले नहीं जा सकते हैं और संकटों के कारणों को भी छोडा नहीं जा सकता है। विश्व सम्मेलनों में संकटों की चर्चा की जाती है परन्तु उपाय ऐसे होते हैं जो संकटों को और बढायें । यन्त्रों ने मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का ह्रास किया है। सुविधा और शक्ति दोनों परस्पर विरोधी बन गये हैं। वाहनों के कारण गति बढी तो साथ साथ पैरों की चलने की क्षमता कम हुई, कैलकुलेटर ने गिनती करना आरम्भ किया तो बुद्धि की गणनक्षमता कम हुई, संगणक ने जानकारी का संग्रह करना आरम्भ किया तो स्मरणशक्ति और खोजी वृत्ति कम हुई, टीवी ने नृत्यगीत के कार्यक्रम आरम्भ किये तो हृदय की रसानुभूति की शक्ति कम हुई, साथ ही साथ सृजनशीलता भी कम हुई, यन्त्रों ने वस्त्र बुनना, छपाई करना और रंगना आरम्भ किया तो वस्त्र से सम्बन्धित कारीगरी का ह्रास हुआ। यन्त्रों ने सर्व प्रकार की कारीगरी के साथ जुड़े सृजनशीलता, कल्पनाशीलता, कौशल, निपुणता, उत्कृष्टता, विविधता, मौलिकता और उसमें से मिलने वाले आनन्द को नष्ट कर दिया, एक सर्जक और निर्माता को मजदूर बना दिया । एक और सर्जक नहीं रहा तो दूसरी ओर भावक भी नहीं रहा । यह बहुत बड़ा सांस्कृतिक नुकसान है। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि यह सब खोने का खेद भी नहीं रहा । श्रेष्ठ का कनिष्ठ बनाने का यह तरीका है।
   −
यन्त्रों ने जिस प्रकार एक एक मनुष्य की सर्व प्रकार की शक्तियों का ह्रास किया है उसी प्रकार समाज में भी वर्गों वर्गों में असन्तुलन निर्माण कर दिया है। मालिक और नोकर का भेद तो है ही, काम करवाने वालों और करवाने वालों का भेद तो है ही, काम करने को हेय मानने की वृत्तितो है ही, साथ में जीवन की अनेक सुन्दर और श्रेष्ठ बातों की कीमत पैसे से आँकना भी शुरू हो गया है । नृत्य, गीत, संगीत की कला के जानकार कम हो गये, वै पैसे लेकर ही अपनी कला की प्रस्तुति करते हैं और असंख्य लोग केवल दर्शक और श्रोता बनकर निष्क्रिय मनोरंजन प्राप्त करते हैं । अर्थात् गायक और भावक एक नहीं है । गायक को पैसा मिलता है, सुननेवाले को केवल सुनने का आनन्द मिलता है, गाने का नहीं । गायक और भावक के बीच में यन्त्र आ गये हैं। अब तो यन्त्रों का दखल इतना बढ़ गया है कि गायक को भी पता नहीं होता कि वह गाता है वह किस रूप में प्रस्तुत होगा। सर्व प्रकार के सृजन और निर्माता का यही हाल हुआ है। यह स्थिति समाज को मानसिक विघटन तक ले जाती है। व्यक्तित्व का विघटन तो इससे होता ही है।
+
यन्त्रों ने जिस प्रकार एक एक मनुष्य की सर्व प्रकार की शक्तियों का ह्रास किया है उसी प्रकार समाज में भी वर्गों वर्गों में असन्तुलन निर्माण कर दिया है। मालिक और नोकर का भेद तो है ही, काम करवाने वालों और करवाने वालों का भेद तो है ही, काम करने को हेय मानने की वृत्तितो है ही, साथ में जीवन की अनेक सुन्दर और श्रेष्ठ बातों की कीमत पैसे से आँकना भी आरम्भ हो गया है । नृत्य, गीत, संगीत की कला के जानकार कम हो गये, वै पैसे लेकर ही अपनी कला की प्रस्तुति करते हैं और असंख्य लोग केवल दर्शक और श्रोता बनकर निष्क्रिय मनोरंजन प्राप्त करते हैं । अर्थात् गायक और भावक एक नहीं है । गायक को पैसा मिलता है, सुननेवाले को केवल सुनने का आनन्द मिलता है, गाने का नहीं । गायक और भावक के मध्य में यन्त्र आ गये हैं। अब तो यन्त्रों का दखल इतना बढ़ गया है कि गायक को भी पता नहीं होता कि वह गाता है वह किस रूप में प्रस्तुत होगा। सर्व प्रकार के सृजन और निर्माता का यही हाल हुआ है। यह स्थिति समाज को मानसिक विघटन तक ले जाती है। व्यक्तित्व का विघटन तो इससे होता ही है।
    
भारत की दृष्टि से यह अत्यन्त आत्मघाती कृति है। भारत यन्त्रों का निर्माण और उपयोग करना नहीं जानता है ऐसा तो नहीं है । श्रेष्ठ प्रकार की सुविधायें, कारीगरी, कला, दैनन्दिन उपयोग की वस्तुयें, शिल्प, स्थापत्य आदि के क्षेत्र में उत्कृष्टता और श्रेष्ठता के शिखर भारत ने सर किये हैं। वैभव और उपभोग के मामले में भारत की बराबरी करने वाला अब तक कोई नहीं रहा है। भारत तो क्या इजिप्त के पिरामिड भी स्थापत्य के उत्तम नमूने रहे हैं । इनमें यन्त्रों का प्रयोग हुआ ही है। परन्तु वे व्यक्ति और समाज के लिये विघटनकारी सिद्ध नहीं हुए थे। पश्चिम जब यन्त्रों का आविष्कार और प्रयोग करता है तब उसका परिणाम घातक होता है।
 
भारत की दृष्टि से यह अत्यन्त आत्मघाती कृति है। भारत यन्त्रों का निर्माण और उपयोग करना नहीं जानता है ऐसा तो नहीं है । श्रेष्ठ प्रकार की सुविधायें, कारीगरी, कला, दैनन्दिन उपयोग की वस्तुयें, शिल्प, स्थापत्य आदि के क्षेत्र में उत्कृष्टता और श्रेष्ठता के शिखर भारत ने सर किये हैं। वैभव और उपभोग के मामले में भारत की बराबरी करने वाला अब तक कोई नहीं रहा है। भारत तो क्या इजिप्त के पिरामिड भी स्थापत्य के उत्तम नमूने रहे हैं । इनमें यन्त्रों का प्रयोग हुआ ही है। परन्तु वे व्यक्ति और समाज के लिये विघटनकारी सिद्ध नहीं हुए थे। पश्चिम जब यन्त्रों का आविष्कार और प्रयोग करता है तब उसका परिणाम घातक होता है।

Navigation menu