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इस अर्थसंकल्पना के आधार पर पश्चिम ने अपनी विकास की संकल्पना को विश्व पर थोपा है। इसके आधार पर विश्व के देशों को विकसित और विकासशील ऐसी श्रेणियों में विभाजित किया है। इसी संकल्पना के आधार पर विश्व पर आधिपत्य जमाने का प्रयास किया है। शस्रों का, पेट्रोलियम का और मादक द्रव्यों का व्यापार उनके लिये समृद्धि की कुंजी है। युद्धों को प्रोत्साहन देना उन्हें लाभदायक लगता है। मादक द्रव्यों का सेवन उनके अपने लिये मजदूरी भी है और दूसरी ओर पैसा कमाने का सरल उपाय भी है।
 
इस अर्थसंकल्पना के आधार पर पश्चिम ने अपनी विकास की संकल्पना को विश्व पर थोपा है। इसके आधार पर विश्व के देशों को विकसित और विकासशील ऐसी श्रेणियों में विभाजित किया है। इसी संकल्पना के आधार पर विश्व पर आधिपत्य जमाने का प्रयास किया है। शस्रों का, पेट्रोलियम का और मादक द्रव्यों का व्यापार उनके लिये समृद्धि की कुंजी है। युद्धों को प्रोत्साहन देना उन्हें लाभदायक लगता है। मादक द्रव्यों का सेवन उनके अपने लिये मजदूरी भी है और दूसरी ओर पैसा कमाने का सरल उपाय भी है।
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भारत की सहज बुद्धि का कथन है, 'अर्थातुराणां न गुरुर्न बन्धुः' - जिनके ऊपर अर्थ सवार हो गया है उसके लिये कोई गुरु नहीं है, कोई स्वजन नहीं है। अर्थ से पीडित पश्चिम ने विश्व में अनात्मीयता का रोग फैला दिया
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भारत की सहज बुद्धि का कथन है, 'अर्थातुराणां न गुरुर्न बन्धुः' - जिनके ऊपर अर्थ सवार हो गया है उसके लिये कोई गुरु नहीं है, कोई स्वजन नहीं है। अर्थ से पीडित पश्चिम ने विश्व में अनात्मीयता का रोग फैला दिया है। इस रोग की चपेट में विश्व के सारे देश विभिन्न कारणों से आ गये हैं। कोई दुर्बल हैं इसलिये, कोई प्रभावित हो गये हैं इसलिये, भारत जैसे लोग हीनता बोध से ग्रस्त हो गये हैं इसलिये और कोई समर्थ बनने की स्पर्धा में हार गये हैं इसलिये पश्चिम की अर्थसंकल्पना का स्वीकार कर चुके हैं। यह एक महारोग है जिससे विश्व को मुक्त करना भारत जैसे समर्थ राष्ट्र के लिये ही सम्भव है, यदि वह अपने हीनताबोध से मुक्त होकर अपने आपको समर्थ माने तो।
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=== कार्य का आत्मघाती अर्थघटन ===
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'''नंदिनी जोशी'''
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हमारे समाज में वेतन का ढाँचा कितना विचित्र है, तनिक इस ओर तो देखिए ।
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किसी सरकारी अधिकारी को या बैंक के ऑफिसर को या किसी बड़ी कम्पनी के सेल्स मेनेजर को बहुत ऊँचा वेतन मिलता है। और जासूसों को तो इनसे भी अधिक । जबकि गली में झाडू लगाने वालों को या खेत मजदूर को इतना कम वेतन मिलता है कि उन पर दया आती है। वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य की सबसे पहली आवश्यकताएँ साफ रस्ते और अनाज है।
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आज वेतन का सम्बन्ध कार्य की उपयोगिता अथवा अन्य किसी आदर्श के साथ नहीं रहा । आज यह सम्बन्ध, व्यक्ति को काम कितने बड़े तंत्र में मिला है इसके साथ जुड़ गया है। किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के कार ड्राइवर को तो अच्छा वेतन मिलता है, परन्तु उसी गाँव की प्राथमिक शाला के शिक्षक को इतना कम वेतन मिलता है कि उसे अपनी गृहस्थी चलाने में भी पापड़ बेलने पड़ते हैं । यह कारण ऐसा है जिसे हम दूर कर सकते हैं ।
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इनके कारण आज मनुष्य को 'अर्थभोगी जीव' की भाँति देखा जाता है। वैज्ञानकिों से लेकर कलाकारों तक सब को अपनी खोज और कला सेवा के लिए नहीं अपितु वे कितने _पैसे या सत्ता प्राप्त करने में काम आयेंगे इस आधार पर भुनाये जाने के काम आते हैं । ज्ञान और कला को समस्त मानवजाति की प्रगति की राह में प्रकाश फैलाने के लिए मुक्त रहने देने के स्थान पर वे उन्हें थोड़ी नफाखोरी की एषणाओं को पूर्ण करने की हद तक ले आये हैं।
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बड़े तंत्र में अधिक वेतन मिले इसके लिए दिये जाने वाले वेतनमान के कारण में आज का अर्थतंत्र, बिचौलिये व्यक्ति, प्रशासनिक तंत्र और क्षुद्र व्यापारियों द्वारा सेवाओं की मोटी जंजीरें खड़ी कर दी गई हैं । हम सब इस भार तले कुचले जा रहे हैं। क्यों कि इस पद्धति से लगाये हुए व्यक्ति मात्र तन्त्र को ही और अधिक मजबूत करते हैं । ये लोग कभी भी कोई सीधा उत्पादन नहीं करते, परन्तु ग्राहकों को तो उनका वेतन वस्तु के मूल के रूप में चुकाना ही पड़ता है।
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लाभ की सतत गिनती वेतन के बदले... खर्च के अर्थात् मनुष्य के बदले मशीनें उपयोग में लेने के लिए गुणा-भाग करती ही रहती है । अर्थात् काम मिला है, उन व्यक्तियों के मस्तक पर भी सतत चिंता की तलवार लटकती रहती है । इस गलाकाट स्पर्धा में टिकने की माथाफोड़ी अनेक लोगों की स्वतन्त्र विचार करने की शक्ति को भी घटाती है, ऐसा नवीनतम शोधों का निष्कर्ष है।
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आज के इस तंत्र में काम और बुद्धि के मध्य का सम्बन्ध टूट गया है। इस कारण से तंत्र भी टूटने की कगार पर है। आज के उद्योग में काम करने वाले कारीगर को अपने काम की कोई जवाबदारी है, ऐसा लगता ही नहीं है । इसी प्रकार अपने काम का गौरव भी अनुभव में नहीं आता । इस कारण से वस्तुओं की कलात्मकता और कारीगिरी भी घटती जा रही है। कामदार के मनमें काम का हेतु मात्र पैसा कमाना है, जबकि मालिक के मनमें इसका एक मात्र हेतु लाभ कमाना
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आज के समाज में कार्य का जिस प्रकार से विचार किया जाता है, वह अत्यधिक भयावह है। कार्य को पैसा कमाने के साधन के रूप में देखा जा रहा है। इसके द्वारा जो पैसे मिलते हैं, उनके अतिरिक्त यह भार स्वरूप है । व्यक्ति बिना पैसे मुफ्त में काम नहीं करता, जबकी अधिकाधिक छट्टी लेना तथा कम से कम काम करना यह उसका ध्येय बन गया है।
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वास्तव में तो इसका बिल्कुल विपरीत होना चाहिए । कार्य तो व्यक्ति जीवन का मुख्य ध्येय और आत्मिक आनन्द होना चाहिए । व्यक्ति के व्यक्तित्व को, उसकी शक्तियों को कार्य के द्वारा बाहर आने का अवसर मिलना चाहिए । कार्य को तो जीवन अर्थपूर्ण, हेतुपूर्ण, आनन्दपूर्ण बनाने के साधन के रूप में देखना चाहिए । कार्य के द्वारा आजीविका चलाने का हेतु तो आनुवांशिक रूप में अनायास प्राप्त होना चाहिए।
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परन्तु आज के तंत्र में तो व्यक्ति केवल पैसे कमाने के लिए ही कार्य करता है। और इस प्रकार से कमाये हुए पैसे का उपयोग शेष समय में जीवन का आनन्द लेने के लिए करता है।
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इसका सबसे भयंकर परिणाम तो यह आया है कि जिन्दगी का मुख्य समय अथवा जो काम करने के लिए पीछे जाता है वह समय का एक प्रकार का बिगाड़ है। इसमें से जितने पैसे मिलते हैं, उतने खर्च करना ही उसका अर्थ है । जिन्दगी का हेतु शाम को, रविवार को या छुट्टी के दिन ही है। कार्य का इस प्रकार का अर्थघटन करने से अधिक आत्मघाती अन्य विचार और क्या हो सकता है ?
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वास्तविकता में तो हमारे लिए हमारे कार्य का अर्थ नकारात्मक होना ही नहीं चाहिए कि उसकी भरपाई पैसों से की जा सके । गाँधीजीने अमूल्य सलाह दी थी, 'अपने कार्य का मूल्य पैसों में मत आँको । हमारा कार्य दूसरे लोगों की सेवा में काम आये, उसमें आँको । व्यक्ति को कार्य करने का आकर्षण यह होना चाहिए कि मेरा कार्य उसे पसन्द आया । दूसरों की सेवा करने के लिए स्वयं अपना तम मन लगा दे। और एक सच्चे सैनिक की भाँति समाज के लिए मरने को भी उद्यत हो जाय । क्योंकि अन्त में जो मरने के लिए तैयार नहीं, उसे क्या पता कि जीना क्या होता है ?
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ऐसा कब होगा ? कैसे होगा ? ऐसी आदर्श व्यवस्था किस प्रकार स्थापित हो ? इसका उत्तर हमने पहले विचारा है । आजकल बड़ी भारी मशीने और बड़े वैश्विक बाजार के लिए थोक उत्पादन का जो तंत्र है, उनके स्थान पर स्थानीय उपभोग हेतु स्थानीय उत्पादन तंत्र शुरु करके हो सकती है। और इसका प्रारम्भ गाँव में कपड़े का उत्पादन सादे चरखे के द्वारा हो सकता है। इस तरह से कपड़ें का उत्पादन करने से गाँव के लोगों का भी बहुत फायदा है तथा पैसे, तकनीक, सरकार तथा यह सब व्यवस्था करने वालों की गरज भी नहीं रहती । गाँव वाले स्वतन्त्रता पूर्वक अपना काम स्वयं कर सकते हैं।
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कपड़े के कारण बाद में अन्य उद्योग भी शुरु होने से गाँव अति समृद्ध बन सकता है । प्रत्येक को उनमें कार्यकरने के अवसर मिल सकते हैं। मात्र कार्य मिलेगा इतना ही नहीं तो अर्थपूर्ण कार्य मिलेगा, कार्य करने का आनन्द मिलेगा। कार्य करके आजीविका मिलेगी इतना ही नहीं तो समाज को कुछ प्रदान करने का सन्तोष मिलेगा। गौरव मिलेगा। आजकल की गलाकाट स्पर्धा के वातावरण में प्रतिस्पर्धी को पछाड़ने का हेतु मुख्य होता है । उसके स्थान पर किसी का शोषण किये बिना और अपना भी शोषण हुए बिना सब कार्य कर सकें। जिससे कार्य का बोझ मिटकर प्रेमपूर्वक तथा आनन्दपूर्वक सबकी सेवा हो सके । ऐसा कार्य करने से जीवन की सार्थकता मिलती है।
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कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकरने कहा है कि 'जिन दिनों संस्कृति विविध रूपा नहीं होती, उन दिनों में विद्वान और ऋषि, वीर और दानवीर धनवान की तुलना में अधिक पूजे जाते हैं। उन्हें सम्मान देकर मानवता स्वयं सम्मान पाती है। मात्र पैसा कमाने वाले को तो लोग शंका की नजरों से देखते...'
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जिस प्रकार आज की राजनीति में राष्ट्रों के अनहद अहम का टकराव बन गया है, उसी प्रकार आजीविका प्राप्त करने का तरीका भी व्यक्ति की आत्यन्तिक स्पर्धा की खटपट बन गई है ....... और फिर व्यक्ति तो व्यक्ति है । इसलिए इसे अपने धन्धे में मात्र रोजरोज की रोटी ही नहीं अपितु सनातन सत्य भी कमाना है।
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१. गाँधी, मोहनदास करमचन्द, सर्वोदय (रस्किन का अन टु दि लास्ट से साभार) अहमदाबाद, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, १९२२, पृ. १७, १९५७ की आवृत्ति में ।
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२. टोवर्ड्स युनिवर्सिल मेन, नई दिल्ली : एशिया पब्लिसिंग हाउस, १९६१ पृष्ठ ३१-३२ और ४९ से व्यथा और विकल्प से साभार
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=== पश्चिम का विज्ञानं विषयक अवैज्ञानिक दृष्टिकोण ===
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ज्ञानविश्व में 'विज्ञान' संज्ञा की बडी प्रतिष्ठा है। भारत के शास्त्रों में तो विज्ञान की बडी सरल व्याख्या की गई है है। ज्ञान तक पहुँचने की प्रक्रिया और पद्धति को विज्ञान कहते हैं। यह बुद्धिनिष्ठ है। जीवन के सर्वक्षेत्रों में इसकी व्याप्ति है। शरीरविज्ञान से लेकर अध्यात्मविज्ञान तक और पदार्थविज्ञान से लेकर सृष्टिविज्ञान तक इसकी व्याप्ति है। यह पृथ्वी, जल, ग्रह, नक्षत्र, मन, बुद्धि आत्मा आदि क्या हैं यह भी बताता है और भोजन कैसे बनाया जाता है यहां से लेकर आत्मरक्षात्कार कैसे होता है यह भी बताता है। भोजन के पदार्थ खाने के बाद क्या क्या होता है से लेकर समाधि अवस्था में पहँचने पर क्या होता है यह भी समझाना है। विश्व की सभी घटनाओं, व्यवहारों, स्थितियों, प्रक्रियाओं का ज्ञानात्मक विवरण देना विज्ञान का काम है।
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परन्तु पश्चिम ने विज्ञान को अत्यन्त सीमित क्षेत्र में बद्ध कर दिया है। शास्त्रीय दृष्टि से नहीं अपितु कामदृष्टि और अर्थदृष्टि से प्रेरित होकर पश्चिम ने विश्व में भौतिक विज्ञान को ही विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। भारत की भाषा में कहें तो अन्नमय और प्राणमय कोश भौतिक विज्ञान के दायरे में आता है। भौतिक विज्ञान को पदार्थ विज्ञान भी कहा जाता है। इससे ब्रह्माण्ड में व्याप्त पंचमहाभूत और उन्हें संचालित करनेवाले और नियमन में रखने वाले तत्त्वों का बोध होता है। इस दृष्टि से गुरुत्वाकर्षण का नियम, सापेक्षता, पदार्थों के गुणधर्म, पदार्थों का व्यवहार, ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति, गति और प्रभाव मनुष्य के भी शरीर और प्राणों का स्वभाव आदि सब भौतिक विज्ञान के दायरे में आता है। पश्चिम इसे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानता है, इतना महत्त्वपूर्ण कि शेष सारी बातों के लिये भौतिक विज्ञान के ही मानक लागू किये जाते हैं। एक दो उदाहरण देखना उपयोगी रहेगा।
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वर्तमान में योगविद्या को विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। योग आत्मसाक्षात्कार तक पहुँचने की प्रक्रिया दर्शानेवाला विज्ञान है । इसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है अर्थात् यह अन्तःकरण की प्रक्रियाओं को निरूपित करनेवाला विज्ञान है। परन्तु पश्चिम ने इसे अन्नमय और प्राणमय कोश के साथ जोडकर सीमित कर दिया है । योग को एक और व्यायाम के साथ और दूसरी ओर चिकित्सा के साथ जोड दिया है। दोनों आयामों में उसका सम्बन्ध शरीर के साथ ही स्थापित होता है । अन्नमय और प्राणमय कोशों  के साथ योग के तीसरे और चौथे अंगों अर्थात् आसन और प्राणायाम का सम्बन्ध अवश्य है परन्तु ये सम्पूर्ण योगविज्ञान के अंग हैं, वे भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नहीं । सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग तो समाधि है जिसके लिये शेष सात अंग हैं । समाधि भौतिक विज्ञान से नहीं अपितु आत्मविज्ञान से सम्बन्धित है । परन्तु पश्चिमने आसन और प्राणायाम को ही योग का केन्द्रवर्ती विषय बनाकर उसका स्वीकार किया। ध्यान के लिये संज्ञा अवश्य है, आत्मसाक्षात्कार जैसी संकल्पना भी है परन्तु उनके मापन की पद्धति भौतिक विज्ञान पर आधारित है। इस अर्थ में योग की उनकी समझ भारतीय समझ से सर्वथा भिन्न है।
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जैसा योग का है वैसा ही मनोविज्ञान का है। मन शरीर और प्राण से परे हैं, अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी है। परन्तु पश्चिम मन को भी भौतिक जगत के मापदण्डों से ही समझता है। मन और बुद्धि को एक ही अन्तःकरण के दो आयामों के रूप में नहीं अपितु एकदूसरे से पृथक् मान्यता है। वास्तव में इस ब्रह्माण्ड में भौतिक विश्व के साथ साथ मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त हैं यह उसके दायरे से बाहर है। केवल मनुष्य में ही मन, बुद्धि आदि होता है, सृष्टि में नहीं ऐसी उसकी समझ है इसलिये उसका विश्व का आकलन भी अधूरा ही रह जाता है। अर्थात् विज्ञान और उसकी प्रक्रियाओं को भौतिक विज्ञान के साथ जोडकर उसने अपने ज्ञान और विज्ञान के विश्व को जडवादी बना दिया है। यह विश्व का एकांगी बोध है। सृष्टि जड और चेतन दोनों तत्त्वों से बनी है, पश्चिम इसे केवल जड के अंग से ही देखता है। पश्चिम के लिये दो अंग हैं पदार्थ और ऊर्जा । वह इन दोनों के लिये मेटर एण्ड लाइफ कहता है। परन्तु लाइफ और ऊर्जा में अन्तर है। लाइफ के लिये भारत में जीवन शब्द का प्रयोग होता है। अंग्रेजी में भी ऊर्जा के लिये एनर्जी शब्द का प्रयोग होता है परन्तु प्राणमय कोश को वे ऊर्जा के रूप में ही जानते हैं। भारत की संकल्पनात्मक शब्दावली में ये दोनों, अर्थात् पदार्थ और ऊर्जा, जड हैं। पश्चिम इस विश्व को जड का ही विस्तार मानता है उनके विज्ञान को उसके साथ जोडकर ही समझता है।
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भारत की दृष्टि से यह संकल्पनात्मक संज्ञाओं का घालमेल है। अकेले जड के बोध से ब्रह्माण्ड तो क्या, किसी भी छोटे या क्षुद्र पदार्थ का भी बोध नहीं हो सकता। प्राण को ही चेतन मानना सही नहीं है । तात्पर्य यह है कि सृष्टि के और जीवन के आकलन में ही अन्तर पड जाता है। जिस प्रकार किसी भी बिन्दु पर खडे रहकर देखने पर पूर्व और पश्चिम एकदूसरे से विपरीत दिशा में होते हैं वैसा ही सृष्टि के आकलन के बारे में भारत और पश्चिमी जगत का है।
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पश्चिम की यह विज्ञान और वैज्ञानिकता की संकल्पना सृष्टि के और जीवन के, पदार्थों के और मनुष्यों के स्वभाव और व्यवहारों के रहस्यों का आकलन सही प्रकार से, पूर्ण रूप से नहीं कर सकती । भारत का दर्शन पश्चिम से अत्यन्त व्यापक है। केवल व्यापक ही नहीं तो अलग है और अधिक गहरा है।
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पश्चिम की विज्ञान की समझ और उसकी जीवनदृष्टि का एकदूसरे के साथ सीधा सम्बन्ध है। जो दृष्टि जन्मजन्मान्तर को मानती नहीं है, जो पूर्वजन्म के संस्कार, कर्म ओर कर्मफल के सिद्धान्त को समझती नहीं है, जो दृष्टि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आन्तरिक एकत्व के सम्बन्ध को देख नहीं सकती है उसकी विज्ञान दृष्टि भी जडवादी हो इसमें कोई आश्चर्य नहीं । ऐसे विज्ञान को प्रतिष्ठा देना स्वयं जीवन के लिये हानिकारक है। वास्तव में पश्चिम की जीवनदृष्टि ने विश्व में जो आतंक मचाया है उसमें विज्ञान उसका बहुत बडा सहयोगी रहा है । इस विज्ञान के मापदण्ड से किसी भी बात का मूल्यांकन करने पर विपरीत परिणाम होते हैं।
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पश्चिम ने विज्ञान को धर्म और अध्यात्म के विरोध में खडा कर दिया है इतना ही नहीं तो विज्ञान को अध्यात्म से श्रेष्ठ घोषित किया है। मूलतः यह कुतर्क का बहुत बडा उदाहरण है। अध्यात्म और विज्ञान एक समूह की संकल्पनायें हैं ही नहीं जिससे उनकी तुलना कर तरतम सम्बन्ध निश्चित किया जा सके। भारत में जिसे धर्म और अध्यात्म कहते हैं वे तो पश्चिम के लिये सर्वथा अपरिचित संकल्पना है। उनके ही ज्ञानविश्व का, अपरिपक्व संकल्पनाओं का अपरिपक्क परन्तु बलवान झगडा विश्व में छाया हुआ है। भारत भी उसमें उलझ गया है। विश्व के ज्ञानक्षेत्र के लिये यदि विपरीत बात है तो वह भारत का उलझना ही है क्योंकि भारत ही यदि उलझेगा तो उलझे हुए विश्व को सुलझने में कौन सहायता करेगा ? भारत को प्रथम तो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से मुक्त होकर अपने आपमें सुलझ जाना है और उस दिन वह पश्चिम सहित विश्व को सही मार्ग दिखाने की भूमिका निभायेगा।
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=== पश्चिम में तंत्रज्ञान का कहर ===
    
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