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उत्पादनप्रक्रिया में जबसे इंधन की ऊर्जा से संचालित यन्त्रों का उपयोग होने लगा है तब से काम करने वाले मजदूर की कठिनाई और बढी है। अब वह केवल मालिक का ही नहीं तो यन्त्र का भी दास बन गया है। अब उत्पादन भी वह नहीं कर रहा है। नौकर के रूप में भी उसका काम यन्त्र को चलने में सहायक होना है। यन्त्र जैसी निर्जीव सत्ता के साथ उसे अनुकूलन करना पड़ता है। मनुष्य अपने आपको हीन अनुबव करने लगता है।
 
उत्पादनप्रक्रिया में जबसे इंधन की ऊर्जा से संचालित यन्त्रों का उपयोग होने लगा है तब से काम करने वाले मजदूर की कठिनाई और बढी है। अब वह केवल मालिक का ही नहीं तो यन्त्र का भी दास बन गया है। अब उत्पादन भी वह नहीं कर रहा है। नौकर के रूप में भी उसका काम यन्त्र को चलने में सहायक होना है। यन्त्र जैसी निर्जीव सत्ता के साथ उसे अनुकूलन करना पड़ता है। मनुष्य अपने आपको हीन अनुबव करने लगता है।
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उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र ने केन्द्रीकरण कर दिया है। यन्त्र एक साथ अधिक उत्पादन करता है, तेज गति से उत्पादन करता है इसलिये उत्पादन का केन्द्रीकरण होना अपरिहार्य है। उत्पादन के साथ साथ मालिकी का भी केन्द्रीकरण होता है । मालिकों की संख्या कम और मालिकी का क्षेत्र बढता जाता है । साथ ही काम करनेवाले लोग भी अनावश्यक बन जाते हैं। बेरोजगारी का जनक भी यही है। इस व्यवस्था में अरबोंपति और खरबोंपति तो बनते हैं परन्तु वे गिनेचुने ही होते हैं, अरबों और खरबों बेरोजगार,
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उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र ने केन्द्रीकरण कर दिया है। यन्त्र एक साथ अधिक उत्पादन करता है, तेज गति से उत्पादन करता है इसलिये उत्पादन का केन्द्रीकरण होना अपरिहार्य है। उत्पादन के साथ साथ मालिकी का भी केन्द्रीकरण होता है । मालिकों की संख्या कम और मालिकी का क्षेत्र बढता जाता है । साथ ही काम करनेवाले लोग भी अनावश्यक बन जाते हैं। बेरोजगारी का जनक भी यही है। इस व्यवस्था में अरबोंपति और खरबोंपति तो बनते हैं परन्तु वे गिनेचुने ही होते हैं, अरबों और खरबों बेरोजगार, बिना कामकाज के लोग भी साथ साथ पैदा होते हैं।
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कामनापूर्ति के लिये ठोस भौतिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उनका उत्पादन केन्द्रीकृत हो जाने के कारण बेरोजगार लोगों की संख्या बढती है। उन्हें जीवित रहने के लिये और कामनाओं की पूर्ति के लिये पदार्थों की तो आवश्यकता रहती ही है। इसकी पूर्ति के लिये अनेक अनुत्पादक गतिविधियाँ शुरू होती हैं। इसमें से ही आज के अनेक महान शब्दों अथवा महान संकल्पनाओं का जन्म हुआ है। इनमें एक है मैनेजमेण्ट, दसरा है मनोरंजन उद्योग, शिक्षाउद्योग, स्वास्थ्यउद्योग आदि । घटनाओं और पदार्थों को ही नहीं तो मनुष्यों को मैनेज किया जाता है। लोग दो भागों में बँटे हैं, एक हैं मैनेज करने वाले और दूसरे हैं मैनेज होने वाले । मैनेज करनेवालों की भी एक श्रेणीबद्ध शृंखला बनती है - बडा मैनेजर और छोटा मैनेजर । मैनेजमेन्ट वर्तमान विश्वविद्यालयों का एक प्रतिष्ठित विषय है। संगीत, नृत्य, नाटक, काव्य आदि मनोरंजन उद्योग के पदार्थ बन गये हैं। उनका सारा मूल्य पैसे में रूपान्तरित हो गया है। सारी सृजनशीलता और कल्पनाशीलता पैसे के अधीन बन गई है । उसकी सार्थकता ही पैसे से है। शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था नहीं रह गई है अपितु ज्ञान को अर्थ के अधीन बनाने की व्यवस्था है। विश्वविद्यालयों का दर्जा तय करने वालों में एक प्रमुख आयाम उसकी अर्थोत्पादकता भी है । सेवा भी अर्थ के अधीन एक पदार्थ है। अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा 'सर्विस सैक्टर - सेवा क्षेत्र' है जिसमें भौतिक पदार्थों को छोडकर अन्य सभी मार्गों से दूसरों का काम कर पैसा कमाया जाता है।
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भारत की दृष्टि से यह अर्थव्यवस्था नहीं है, अनर्थ व्यवस्था है। यह अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धि का लक्षण है। यह विनाशक है इसमें तो कोई सन्देह नहीं।
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सबसे पहला तो अर्थ को राष्ट्रीय जीवन में सबसे प्रमुख स्थान देना और कामनाओं की सेवा में प्रस्तुत करना भारत की दृष्टि में घोर सांस्कृतिक अपराध है। अल्पबुद्धि इसलिये क्योंकि वह क्षणिक सुख देकर राष्ट्र के आयुष्य को रोगग्रस्त बनाकर जल्दी नष्ट कर देने वाला है । स्वार्थबुद्धि इसलिये कि वह केवल अपना ही विचार करता है और दूसरों का शोषण करने में उसे संकोच नहीं होता है। दुष्टबुद्धि इसलिये क्योंकि उसमें दया नहीं है और दूसरों को कष्ट पहुँचाना उसे अनुचित नहीं लगता । इससे तो संस्कृति पनप ही नहीं पाती और पनपी हुई संस्कृति नष्ट हो जाती हैं।
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भारत की दृष्टि से बैंक, बीमा और सेवाक्षेत्र अर्थव्यवस्था के अत्यन्त विनाशक आयाम है क्योंकि ये छलनापूर्ण तों से चलते हैं, मानवीय गुणों को नष्ट करते हैं और एक आभासी व्यवस्था पैदा करते हैं जिसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं है । सांस्कृतिक दृष्टि से तो ये अनर्थक हैं ही।
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मनुष्य की श्रेष्ठता समाप्त कर उसे गुलाम बनाना, बुद्धि, कल्पना, सृजन की शक्तियों को निकृष्ट स्तर पर लाना, विश्व को आर्थिक, पर्यावरणीय और आरोग्यकीय संकट में डाल देना इतना ही नहीं तो विनाश के प्रति ले जाना ये पश्चिमी अर्थसंकल्पना के मानवता के प्रति अपराध है।
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इस अर्थसंकल्पना के आधार पर पश्चिम ने अपनी विकास की संकल्पना को विश्व पर थोपा है। इसके आधार पर विश्व के देशों को विकसित और विकासशील ऐसी श्रेणियों में विभाजित किया है। इसी संकल्पना के आधार पर विश्व पर आधिपत्य जमाने का प्रयास किया है। शस्रों का, पेट्रोलियम का और मादक द्रव्यों का व्यापार उनके लिये समृद्धि की कुंजी है। युद्धों को प्रोत्साहन देना उन्हें लाभदायक लगता है। मादक द्रव्यों का सेवन उनके अपने लिये मजदूरी भी है और दूसरी ओर पैसा कमाने का सरल उपाय भी है।
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भारत की सहज बुद्धि का कथन है, 'अर्थातुराणां न गुरुर्न बन्धुः' - जिनके ऊपर अर्थ सवार हो गया है उसके लिये कोई गुरु नहीं है, कोई स्वजन नहीं है। अर्थ से पीडित पश्चिम ने विश्व में अनात्मीयता का रोग फैला दिया
    
==References==
 
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