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१. 'भारत शब्द का अर्थ ही ज्ञान में रत' ऐसा होता है । भारत ऐसा देश है जो अपना सारा व्यवहार ज्ञान के प्रकाश में करता है । ज्ञानोपासना एवं ज्ञानसाधना यहाँ की प्रिय वृत्ति-प्रवृत्ति है। ज्ञान को यहाँ पवित्रतम माना गया है और उसे सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त करनेवाला बताया गया है ।
 
१. 'भारत शब्द का अर्थ ही ज्ञान में रत' ऐसा होता है । भारत ऐसा देश है जो अपना सारा व्यवहार ज्ञान के प्रकाश में करता है । ज्ञानोपासना एवं ज्ञानसाधना यहाँ की प्रिय वृत्ति-प्रवृत्ति है। ज्ञान को यहाँ पवित्रतम माना गया है और उसे सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त करनेवाला बताया गया है ।
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२. वर्तमान भारत आत्मविस्मृति के संकट से ग्रस्त हो गया है क्योंकि भारत की ज्ञानसाधना रुक गई है । विगत दो सौ वर्षों में पश्चिमी शिक्षा के प्रचलन का यह परिणाम है । पश्चिमी शिक्षा ने भारतीय ज्ञानधारा को अवरुद्ध कर दिया है । इस अवरोध को दूर कर
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२. वर्तमान भारत आत्मविस्मृति के संकट से ग्रस्त हो गया है क्योंकि भारत की ज्ञानसाधना रुक गई है । विगत दो सौ वर्षों में पश्चिमी शिक्षा के प्रचलन का यह परिणाम है । पश्चिमी शिक्षा ने धार्मिक ज्ञानधारा को अवरुद्ध कर दिया है । इस अवरोध को दूर कर
    
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ज्ञानधारा को पुनः प्रवाहित करने हेतु अध्ययन करना एक मात्र उपाय है ।
 
ज्ञानधारा को पुनः प्रवाहित करने हेतु अध्ययन करना एक मात्र उपाय है ।
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३. भारतीय ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने हेतु हमें अपने शास्त्रग्रन्थो का अध्ययन करना पड़ेगा । हमारे शाख्रग्रन्थ हैं वेद, उपनिषद, दर्शनों के सूत्रग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण आदि इनके साथ साथ भौतिक विज्ञान के भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जो भारत की भौतिक समृद्धि के लिये मार्गदर्शक रहे हैं ।
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३. धार्मिक ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने हेतु हमें अपने शास्त्रग्रन्थो का अध्ययन करना पड़ेगा । हमारे शाख्रग्रन्थ हैं वेद, उपनिषद, दर्शनों के सूत्रग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण आदि इनके साथ साथ भौतिक विज्ञान के भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जो भारत की भौतिक समृद्धि के लिये मार्गदर्शक रहे हैं ।
    
४. अध्ययन करने की सही पद्धति को अपनाना आवश्यक होगा । सही आलम्बन भी हमें निश्चित करना होगा । इन दो बातों के परिणाम स्वरूप हमें राष्ट्र के जीवन के लिये सही अधिष्ठान और दिशा प्राप्त होगी ।
 
४. अध्ययन करने की सही पद्धति को अपनाना आवश्यक होगा । सही आलम्बन भी हमें निश्चित करना होगा । इन दो बातों के परिणाम स्वरूप हमें राष्ट्र के जीवन के लिये सही अधिष्ठान और दिशा प्राप्त होगी ।
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७. इसी प्रकार अनेक प्रकार के यज्ञ, अनुष्ठान आदि कर्मकाण्ड उनके शुद्ध स्वरूप में हो सकते हैं । यद्यपि इन सब की मात्रा अत्यन्त अल्प है तथापि वेदों का अस्तित्व अभी मिट नहीं गया है यह हमारे देश का महदू भाग्य है ।
 
७. इसी प्रकार अनेक प्रकार के यज्ञ, अनुष्ठान आदि कर्मकाण्ड उनके शुद्ध स्वरूप में हो सकते हैं । यद्यपि इन सब की मात्रा अत्यन्त अल्प है तथापि वेदों का अस्तित्व अभी मिट नहीं गया है यह हमारे देश का महदू भाग्य है ।
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८. साथ ही हमें उपनिषदों का अध्ययन भी करना होगा । उपनिषद् वेदों का ज्ञानकाण्ड है । भारतीय ज्ञानविश्व के लिये यह अध्ययन अनिवार्य है। भारतीय जीवनदृष्टि को सम्यक्‌ रूप में समझने के लिये इनका अध्ययन आवश्यक है ।
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८. साथ ही हमें उपनिषदों का अध्ययन भी करना होगा । उपनिषद् वेदों का ज्ञानकाण्ड है । धार्मिक ज्ञानविश्व के लिये यह अध्ययन अनिवार्य है। धार्मिक जीवनदृष्टि को सम्यक्‌ रूप में समझने के लिये इनका अध्ययन आवश्यक है ।
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९. भारतीय अध्येताओं के लिये यह जीवनदृष्टि को समझना ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और मूल बात है । इस विषय में ही बहुत बडा सम्ध्रम है। पश्चिमी ज्ञानधारा में जिन्होंने अवगाहन किया है ऐसे असंख्य विद्वान आज भारत में हैं जिन्हें जीवनदृष्टि जैसा कुछ होता है, और जीवनदृष्टियों में भी कुछ अन्तर होता है इसका पता ही नहीं है ।
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९. धार्मिक अध्येताओं के लिये यह जीवनदृष्टि को समझना ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और मूल बात है । इस विषय में ही बहुत बडा सम्ध्रम है। पश्चिमी ज्ञानधारा में जिन्होंने अवगाहन किया है ऐसे असंख्य विद्वान आज भारत में हैं जिन्हें जीवनदृष्टि जैसा कुछ होता है, और जीवनदृष्टियों में भी कुछ अन्तर होता है इसका पता ही नहीं है ।
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१०. फिर भारतीय जीवनदृष्टि पश्चिमी जीवनदृष्टि से भिन्न है, सर्वथा भिन्न है इसका पता होने की तो सम्भावना ही नहीं बनती है । फिर भारतीय और पश्चिमी जीवनदृष्टि में क्या अन्तर है और इसके परिणाम क्या होते हैं इसका पता न होना भी स्वाभाविक है । आज भारत में पश्चिमी जीवन दृष्टि को अपनाया गया है और वह शरीर में जिस प्रकार “फोरेन बॉडी' उपट्रव करता रहता है उस प्रकार उपद्रव करता रहता है । और पता ही नहीं है तो आगे की सारी बातें तो अपने आप असम्भव हो जाती हैं ।
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१०. फिर धार्मिक जीवनदृष्टि पश्चिमी जीवनदृष्टि से भिन्न है, सर्वथा भिन्न है इसका पता होने की तो सम्भावना ही नहीं बनती है । फिर धार्मिक और पश्चिमी जीवनदृष्टि में क्या अन्तर है और इसके परिणाम क्या होते हैं इसका पता न होना भी स्वाभाविक है । आज भारत में पश्चिमी जीवन दृष्टि को अपनाया गया है और वह शरीर में जिस प्रकार “फोरेन बॉडी' उपट्रव करता रहता है उस प्रकार उपद्रव करता रहता है । और पता ही नहीं है तो आगे की सारी बातें तो अपने आप असम्भव हो जाती हैं ।
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११. अतः उपनिषदों के अध्ययन का एक उद्देश्य भारतीय जीवनदृष्टि को समझने का होना चाहिये । यदि यह उद्देश्य नहीं रहा तो अध्ययन की पद्धति में अन्तर पड जाता है । इस प्रकार का अध्ययन भी हमारे देश में आज चल ही रहा है ।
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११. अतः उपनिषदों के अध्ययन का एक उद्देश्य धार्मिक जीवनदृष्टि को समझने का होना चाहिये । यदि यह उद्देश्य नहीं रहा तो अध्ययन की पद्धति में अन्तर पड जाता है । इस प्रकार का अध्ययन भी हमारे देश में आज चल ही रहा है ।
    
१२. उदाहरण के लिये देश के अनेक विश्वविद्यालयों में उपनिषदों का अध्ययन होता है । वह संस्कृत विभाग के अन्तर्गत होता है। कुछ अल्पमात्रा में दर्शन विभाग में भी होता है । कदाचित्‌ धर्म और संस्कृति के विभाग में भी होता है । परन्तु यह अध्ययन एक तो अत्यन्त अल्प मात्रा में होता है, दूसरा उसका कोई सन्दर्भ नहीं है ।
 
१२. उदाहरण के लिये देश के अनेक विश्वविद्यालयों में उपनिषदों का अध्ययन होता है । वह संस्कृत विभाग के अन्तर्गत होता है। कुछ अल्पमात्रा में दर्शन विभाग में भी होता है । कदाचित्‌ धर्म और संस्कृति के विभाग में भी होता है । परन्तु यह अध्ययन एक तो अत्यन्त अल्प मात्रा में होता है, दूसरा उसका कोई सन्दर्भ नहीं है ।
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१४. देश में अनेक संन्यासी सम्प्रदाय, मठ, आश्रम आदि चलते हैं । संन्यासियों के लिये, धर्माचार्यों के लिये उपनिषदों का, दर्शन ग्रन्थों का या वेदों का अध्ययन करना अनिवार्य होता है । वर्षों तक ऐसा अध्ययन यहाँ होता भी है । परन्तु यह या तो ज्ञान बढ़ाने के लिये अथवा मोक्ष प्राप्त करने के लिये होता है । समाज की जीवनशैली बदलना इनके लिये बहुत कठिन होता है । कदाचित यह उद्देश्य भी नहीं होता । हमें इस पद्धति में भी परिवर्तन करना होगा ।
 
१४. देश में अनेक संन्यासी सम्प्रदाय, मठ, आश्रम आदि चलते हैं । संन्यासियों के लिये, धर्माचार्यों के लिये उपनिषदों का, दर्शन ग्रन्थों का या वेदों का अध्ययन करना अनिवार्य होता है । वर्षों तक ऐसा अध्ययन यहाँ होता भी है । परन्तु यह या तो ज्ञान बढ़ाने के लिये अथवा मोक्ष प्राप्त करने के लिये होता है । समाज की जीवनशैली बदलना इनके लिये बहुत कठिन होता है । कदाचित यह उद्देश्य भी नहीं होता । हमें इस पद्धति में भी परिवर्तन करना होगा ।
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१५. बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से अध्ययन का एक नया तरीका भी शुरू हुआ है । संस्कृत में नहीं आपितु अधिकतर अंग्रेजी में भारतीय शाख्रग्रन्थों का अध्ययन होता है । पाश्चात्य पद्धति से जो व्यवस्थायें बनी हुई हैं उनमें भी हमारे ग्रन्थ कितने उपयोगी हैं यह बताना इनका उद्देश्य होता है । उदाहरण के लिये भगवदूगीता में कितनी अध्यापन पद्धतियों का निरूपण मिलता है अथवा व्यवस्थापन के कितने सूत्र मिलते हैं यह बताकर व्यवहार में भी भगवदूगीता कितनी उपयोगी है यह सिद्ध करने का प्रयास होता है । शिक्षा की या व्यवस्थापन की प्रस्थापित पद्धति को बदलने का निर्देश नहीं होता मूल सूत्र वही रहते हैं, उनको समृद्ध कैसे किया जाय इसका विचार होता है । इसे भी बदलना होगा ।
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१५. बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से अध्ययन का एक नया तरीका भी शुरू हुआ है । संस्कृत में नहीं आपितु अधिकतर अंग्रेजी में धार्मिक शाख्रग्रन्थों का अध्ययन होता है । पाश्चात्य पद्धति से जो व्यवस्थायें बनी हुई हैं उनमें भी हमारे ग्रन्थ कितने उपयोगी हैं यह बताना इनका उद्देश्य होता है । उदाहरण के लिये भगवदूगीता में कितनी अध्यापन पद्धतियों का निरूपण मिलता है अथवा व्यवस्थापन के कितने सूत्र मिलते हैं यह बताकर व्यवहार में भी भगवदूगीता कितनी उपयोगी है यह सिद्ध करने का प्रयास होता है । शिक्षा की या व्यवस्थापन की प्रस्थापित पद्धति को बदलने का निर्देश नहीं होता मूल सूत्र वही रहते हैं, उनको समृद्ध कैसे किया जाय इसका विचार होता है । इसे भी बदलना होगा ।
    
१६. एक बहुत छोटा परन्तु सफल प्रयास दिखाई देता है जहाँ उपनिषदों की वास्तव में प्रतिष्ठा हुई है। उदाहरण के लिये. रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शिक्षाचिन्तन औपनिषदिक चिन्तन के प्रकाश में ही विकसित हुआ है । श्री अरविन्द का समग्र जीवन चिन्तन-विचार और व्यवहार सहित-वेद और उपनिषदों के आधार पर ही प्रतिष्ठित हुआ है । विनोबा भावे उसी मालिका में जुडते हैं । महात्मा गांधी भी उसी विचार से अनुप्राणित होकर अपना व्यवहार चिन्तन प्रस्तुत करते हैं । अध्ययन का यह तरीका हमारे लिये उदाहरण स्वरूप हो सकता है ।
 
१६. एक बहुत छोटा परन्तु सफल प्रयास दिखाई देता है जहाँ उपनिषदों की वास्तव में प्रतिष्ठा हुई है। उदाहरण के लिये. रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शिक्षाचिन्तन औपनिषदिक चिन्तन के प्रकाश में ही विकसित हुआ है । श्री अरविन्द का समग्र जीवन चिन्तन-विचार और व्यवहार सहित-वेद और उपनिषदों के आधार पर ही प्रतिष्ठित हुआ है । विनोबा भावे उसी मालिका में जुडते हैं । महात्मा गांधी भी उसी विचार से अनुप्राणित होकर अपना व्यवहार चिन्तन प्रस्तुत करते हैं । अध्ययन का यह तरीका हमारे लिये उदाहरण स्वरूप हो सकता है ।
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१७. यहाँ जितने भी उदाहरण दिये हैं वे सब वर्तमान समय के हैं । उनमें नाम तो जुड ही सकते हैं परन्तु हमें अध्ययन के उद्देश्य एवं आलम्बन को तो निश्चित रूप से व्याख्यायित करना होगा |
 
१७. यहाँ जितने भी उदाहरण दिये हैं वे सब वर्तमान समय के हैं । उनमें नाम तो जुड ही सकते हैं परन्तु हमें अध्ययन के उद्देश्य एवं आलम्बन को तो निश्चित रूप से व्याख्यायित करना होगा |
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१८. भारतीय जीवनदृष्टि को समझना यह प्रथम उद्देश्य है । उस दृष्टि से जीवन की हर व्यवस्था और व्यवहार का दर्शन करना यह दूसरा उद्देश्य है । इस दृष्टि से पश्चिमी व्यवस्था और व्यवहार का दर्शन करना तीसरा उद्देश्य है । और इसके आधार पर जीवन की हर व्यवस्था और व्यवहार में परिवर्तन करना इसका आलम्बन है ।
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१८. धार्मिक जीवनदृष्टि को समझना यह प्रथम उद्देश्य है । उस दृष्टि से जीवन की हर व्यवस्था और व्यवहार का दर्शन करना यह दूसरा उद्देश्य है । इस दृष्टि से पश्चिमी व्यवस्था और व्यवहार का दर्शन करना तीसरा उद्देश्य है । और इसके आधार पर जीवन की हर व्यवस्था और व्यवहार में परिवर्तन करना इसका आलम्बन है ।
    
१९. इस दृष्टि से अध्ययन और अनुसन्धान की प्रक्रिया साथ साथ चलना आवश्यक है । एक और तो उपनिषदों में क्या कहा गया है उसका तत्वार्थ समझना, वेदों में इस सृष्टि का निरूपण, मनुष्य और सृष्टि के सम्बन्ध किस प्रकार निरूपित किये गये हैं, भगवद्गीता कौनसी जीवनदृष्टि समझा रही है इसका तत्वार्थ समझना यह अध्ययन का विषय होगा और दूसरी ओर वर्तमान व्यवस्थाओं में और व्यवहार में किस प्रकार आमूल परिवर्तन होगा । इसका निरूपण होता जाय यह अनुसन्धान है । इसे व्यावहारिक अनुसन्धान कहा. जायेगा । ऐसे अध्ययन और अनुसन्धान की आज आवश्यकता है ।
 
१९. इस दृष्टि से अध्ययन और अनुसन्धान की प्रक्रिया साथ साथ चलना आवश्यक है । एक और तो उपनिषदों में क्या कहा गया है उसका तत्वार्थ समझना, वेदों में इस सृष्टि का निरूपण, मनुष्य और सृष्टि के सम्बन्ध किस प्रकार निरूपित किये गये हैं, भगवद्गीता कौनसी जीवनदृष्टि समझा रही है इसका तत्वार्थ समझना यह अध्ययन का विषय होगा और दूसरी ओर वर्तमान व्यवस्थाओं में और व्यवहार में किस प्रकार आमूल परिवर्तन होगा । इसका निरूपण होता जाय यह अनुसन्धान है । इसे व्यावहारिक अनुसन्धान कहा. जायेगा । ऐसे अध्ययन और अनुसन्धान की आज आवश्यकता है ।
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२५. नहीं । ज्ञान वैश्विक होता है । ज्ञान के विश्व में कोई अपना पराया नहीं होता । स्वमत आग्रह तत्त्वचिन्तन में नहीं चलता । दुराग्रह तो बिल्कुल नहीं चलता । विवेक ही इसका अधिष्ठान है । निष्पक्षपाती होना ही अपेक्षित है । जहाँ भी जो कुछ भी सत्य है उसका स्वीकार करना ही ज्ञानविश्व का धर्म है । जो शाश्वत है उसमें प्राचीन और अर्वाचीन का भेद नहीं होता । वह चिरपुरातन और नित्यनूतन होता है । अतः जो सत्य है, शाश्वत है, वैश्विक है उसका ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करना चाहिये । इस सिद्धान्त का स्वीकार तो सबको करना ही होगा । जो इसका स्वीकार नहीं करेगा वह ज्ञानविश्व से निष्कासित होगा ।
 
२५. नहीं । ज्ञान वैश्विक होता है । ज्ञान के विश्व में कोई अपना पराया नहीं होता । स्वमत आग्रह तत्त्वचिन्तन में नहीं चलता । दुराग्रह तो बिल्कुल नहीं चलता । विवेक ही इसका अधिष्ठान है । निष्पक्षपाती होना ही अपेक्षित है । जहाँ भी जो कुछ भी सत्य है उसका स्वीकार करना ही ज्ञानविश्व का धर्म है । जो शाश्वत है उसमें प्राचीन और अर्वाचीन का भेद नहीं होता । वह चिरपुरातन और नित्यनूतन होता है । अतः जो सत्य है, शाश्वत है, वैश्विक है उसका ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करना चाहिये । इस सिद्धान्त का स्वीकार तो सबको करना ही होगा । जो इसका स्वीकार नहीं करेगा वह ज्ञानविश्व से निष्कासित होगा ।
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२६. वैश्विक क्या है ? जो सम्पूर्ण विश्व से सम्बन्धित है वह वैश्विक है । विश्व केवल भारतीयों से नहीं बना @ | विश्व में वसुधा मात्र के मनुष्य हैं । विश्व केवल मनुष्यों का नहीं बना है । विश्व में मनुष्य के अलावा प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत हैं । ये सब मिलकर ब्रह्माण्ड बनते हैं । विश्व केवल एक ब्रह्मांड से नहीं बना है । विश्व में अनन्तकोटि ब्रह्मांड है । इन सबका
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२६. वैश्विक क्या है ? जो सम्पूर्ण विश्व से सम्बन्धित है वह वैश्विक है । विश्व केवल धार्मिकों से नहीं बना @ | विश्व में वसुधा मात्र के मनुष्य हैं । विश्व केवल मनुष्यों का नहीं बना है । विश्व में मनुष्य के अलावा प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत हैं । ये सब मिलकर ब्रह्माण्ड बनते हैं । विश्व केवल एक ब्रह्मांड से नहीं बना है । विश्व में अनन्तकोटि ब्रह्मांड है । इन सबका
    
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३८. पश्चिमी जगत की प्रमाण व्यवस्था अत्यन्त संकुचित है। पश्चिम एक ओर बुद्धि प्रामाण्य को स्वीकार करता है, दूसरी ओर भूतप्रामाण्य अर्थात्‌ भौतिकजगत के प्रामाण्य को स्वीकार करता है । तीसरी मर्यादा यह है कि वह मुखरित होकर स्पष्ट रूप से कहे या न कहे पश्चिम अपने को केन्द्र में रखकर स्वतः सापेक्ष प्रमाण को स्वीकार करता है, वैश्विकता को नहीं, जो वैश्विक है उसको मान्य करना ऐसी उसकी प्रवृत्ति नहीं है, जो अपना है वही वैश्विक है ऐसा प्रतिपादन करने की उसकी प्रवृत्ति है । इस प्रकार भारत और पश्चिम एकदूसरे से अत्यन्त भिन्न भूमि पर खडे हैं ।
 
३८. पश्चिमी जगत की प्रमाण व्यवस्था अत्यन्त संकुचित है। पश्चिम एक ओर बुद्धि प्रामाण्य को स्वीकार करता है, दूसरी ओर भूतप्रामाण्य अर्थात्‌ भौतिकजगत के प्रामाण्य को स्वीकार करता है । तीसरी मर्यादा यह है कि वह मुखरित होकर स्पष्ट रूप से कहे या न कहे पश्चिम अपने को केन्द्र में रखकर स्वतः सापेक्ष प्रमाण को स्वीकार करता है, वैश्विकता को नहीं, जो वैश्विक है उसको मान्य करना ऐसी उसकी प्रवृत्ति नहीं है, जो अपना है वही वैश्विक है ऐसा प्रतिपादन करने की उसकी प्रवृत्ति है । इस प्रकार भारत और पश्चिम एकदूसरे से अत्यन्त भिन्न भूमि पर खडे हैं ।
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३९. इसके साथ ही पश्चिम अनुभूति के प्रमाण को नहीं मानता है। पश्चिम के विश्व में अनुभूति जैसी संकल्पना ही नहीं है । भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी शब्द 'रिअलाइझेशन' का अनुवाद 'अनुभूति' किया है परन्तु वह उचित नहीं है । रिअलाइझेशन भी वहाँ बुद्धि से ही सम्बन्धित है बुद्धि से परे नहीं । अतः जो बुद्धि तक ही पहुँचता है उससे अनुभूति अस्पर्श्य ही रहती है ।
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३९. इसके साथ ही पश्चिम अनुभूति के प्रमाण को नहीं मानता है। पश्चिम के विश्व में अनुभूति जैसी संकल्पना ही नहीं है । धार्मिक भाषाओं में अंग्रेजी शब्द 'रिअलाइझेशन' का अनुवाद 'अनुभूति' किया है परन्तु वह उचित नहीं है । रिअलाइझेशन भी वहाँ बुद्धि से ही सम्बन्धित है बुद्धि से परे नहीं । अतः जो बुद्धि तक ही पहुँचता है उससे अनुभूति अस्पर्श्य ही रहती है ।
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४०. इन पश्चिमी बौद्धिकों से प्रभावित भारतीय वौद्धिक भी अनुभूति के प्रमाण को स्वीकार नहीं करते हैं और बुद्धिप्रामाण्य को ही प्रतिष्ठा देते हैं । भारतीय ज्ञानविश्व में वेद और उपनिषद्‌ धर्मप्रामाण्य से तो प्रमाण रूप में स्वीकार्य हैं ही, उससे भी अधिक अनुभूति प्रामाण्य से प्रमाणरूप में स्वीकार्य हैं। आज भारत का ही ज्ञानविश्व इन्हें नकारने की स्थिति में पहुँच गया है । भारतीयता के पक्षधर असंख्य विद्वान वेद्उपनिषदादि से अपरिचित हैं, उनको प्रमाण मानना कि नहीं मानना इस विषय में ट्रिधा बुद्धि वाले हैं और अनुभूति का प्रमाण उन्हें मान्य नहीं है । अनुभूति प्रमाण हो सकती है कि नहीं इसका लेशमात्र विचार किये बिना ही वह प्रमाण नहीं हो सकती ऐसा उनका निष्कर्ष है ।
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४०. इन पश्चिमी बौद्धिकों से प्रभावित धार्मिक वौद्धिक भी अनुभूति के प्रमाण को स्वीकार नहीं करते हैं और बुद्धिप्रामाण्य को ही प्रतिष्ठा देते हैं । धार्मिक ज्ञानविश्व में वेद और उपनिषद्‌ धर्मप्रामाण्य से तो प्रमाण रूप में स्वीकार्य हैं ही, उससे भी अधिक अनुभूति प्रामाण्य से प्रमाणरूप में स्वीकार्य हैं। आज भारत का ही ज्ञानविश्व इन्हें नकारने की स्थिति में पहुँच गया है । धार्मिकता के पक्षधर असंख्य विद्वान वेद्उपनिषदादि से अपरिचित हैं, उनको प्रमाण मानना कि नहीं मानना इस विषय में ट्रिधा बुद्धि वाले हैं और अनुभूति का प्रमाण उन्हें मान्य नहीं है । अनुभूति प्रमाण हो सकती है कि नहीं इसका लेशमात्र विचार किये बिना ही वह प्रमाण नहीं हो सकती ऐसा उनका निष्कर्ष है ।
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४१. भारतीय विद्वान बेदउपनिषद्‌, धर्म, अनुभूति आदि के प्रमाण होने के सामर्थ्य पर सन्देह करते हैं अथवा उन्हें अमान्य करते हैं इसका कारण उनका संस्कृत का अआज्ञान नहीं है । कारण तो विचार का अज्ञान ही है |
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४१. धार्मिक विद्वान बेदउपनिषद्‌, धर्म, अनुभूति आदि के प्रमाण होने के सामर्थ्य पर सन्देह करते हैं अथवा उन्हें अमान्य करते हैं इसका कारण उनका संस्कृत का अआज्ञान नहीं है । कारण तो विचार का अज्ञान ही है |
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४२. अतः अध्ययन के क्षेत्र में हमारे समक्ष दो गट चयन के लिये हैं। एक है धर्मप्रामाण्य, वेदप्रामाण्य, अनुभूतिप्रामाण्य, आत्मप्रामाण्य का गट । दूसरा है केवल बुद्धि प्रामाण्य और भौतिक प्रामाण्य का गट । सीधा अन्तर तो यही है कि प्रथम गट का ही चयन कोई भी करेगा | पश्चिमी प्रमाणव्यवस्था अपने आपपमें सीमित ही है । भारतीय ज्ञानविश्व के लिये यह गौरव का अनुभव करने का विषय है कि उन्होंने कभी भी व्यापकता को छोडा नहीं और परीक्षा के लिये आसान और संकुचित निकष अपनाये नहीं ।
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४२. अतः अध्ययन के क्षेत्र में हमारे समक्ष दो गट चयन के लिये हैं। एक है धर्मप्रामाण्य, वेदप्रामाण्य, अनुभूतिप्रामाण्य, आत्मप्रामाण्य का गट । दूसरा है केवल बुद्धि प्रामाण्य और भौतिक प्रामाण्य का गट । सीधा अन्तर तो यही है कि प्रथम गट का ही चयन कोई भी करेगा | पश्चिमी प्रमाणव्यवस्था अपने आपपमें सीमित ही है । धार्मिक ज्ञानविश्व के लिये यह गौरव का अनुभव करने का विषय है कि उन्होंने कभी भी व्यापकता को छोडा नहीं और परीक्षा के लिये आसान और संकुचित निकष अपनाये नहीं ।
    
४३. तो भी यदि भारत का वर्तमान ज्ञानविश्व इसे अमान्य करता है तो यह दोष अपनी विगत दस पीढ़ियों से
 
४३. तो भी यदि भारत का वर्तमान ज्ञानविश्व इसे अमान्य करता है तो यह दोष अपनी विगत दस पीढ़ियों से
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४६. इसके बाद भी अनुभूति की खोज तो शेष रह जाती है | विश्वविद्यालय के बाहर के क्षेत्र में अनुभूति प्राप्त व्यक्ति को सहज. पहचाना जा सकता है। सामान्यजन के पास भी पहचानने की सहज क्षमता होती है । परन्तु विश्वविद्यालय क्षेत्र श्रद्धावान नहीं होता है। पदवी, पद, प्रतिष्ठा और पैसा उसके अवरोध हैं । अतः विश्वविद्यालय के किसी शुद्ध अन्तःकरण युक्त अध्यापकों को अनुभूति प्राप्त करने की तपश्चर्या करनी चाहिये । अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर ज्ञान की उपासना करने वाले विद्वान को जब मंत्रदर्शन होता है तभी उसे ऋषि कहा जाता था । ऐसे ऋषि ही भारत में ज्ञान और विज्ञान के ज्ञाता और प्रवर्तक थे । ऐसे द्रष्टा अध्यापकों को विश्वविद्यालय क्षेत्र के बाहर भी अनुभूति प्राप्त ऋषि को पहचानना सम्भव होगा |
 
४६. इसके बाद भी अनुभूति की खोज तो शेष रह जाती है | विश्वविद्यालय के बाहर के क्षेत्र में अनुभूति प्राप्त व्यक्ति को सहज. पहचाना जा सकता है। सामान्यजन के पास भी पहचानने की सहज क्षमता होती है । परन्तु विश्वविद्यालय क्षेत्र श्रद्धावान नहीं होता है। पदवी, पद, प्रतिष्ठा और पैसा उसके अवरोध हैं । अतः विश्वविद्यालय के किसी शुद्ध अन्तःकरण युक्त अध्यापकों को अनुभूति प्राप्त करने की तपश्चर्या करनी चाहिये । अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर ज्ञान की उपासना करने वाले विद्वान को जब मंत्रदर्शन होता है तभी उसे ऋषि कहा जाता था । ऐसे ऋषि ही भारत में ज्ञान और विज्ञान के ज्ञाता और प्रवर्तक थे । ऐसे द्रष्टा अध्यापकों को विश्वविद्यालय क्षेत्र के बाहर भी अनुभूति प्राप्त ऋषि को पहचानना सम्भव होगा |
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४७. अभी पढ़ते समय ये बातें कपोल कल्पित लग सकती हैं परन्तु इनका बार बार उच्चारण होगा तो सम्भवता के दायरे में आती जायेंगी । परन्तु तब तक विश्वासपूर्वक हमने वेद्प्रामाण्य को मानना लाभकारी रहेगा ऐसी प्रमाण निश्चिति नहीं होगी तब तक भारतीय शिक्षा की पुनप्रतिष्ठा की कल्पना भी हम नहीं कर सकते । विश्वविद्यालय भारत के ज्ञानप्रवाह के मूल हैं । वहीं पर यदि अनवस्था है तो शेष विश्व की सुस्थिति कैसे हो सकती है ?
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४७. अभी पढ़ते समय ये बातें कपोल कल्पित लग सकती हैं परन्तु इनका बार बार उच्चारण होगा तो सम्भवता के दायरे में आती जायेंगी । परन्तु तब तक विश्वासपूर्वक हमने वेद्प्रामाण्य को मानना लाभकारी रहेगा ऐसी प्रमाण निश्चिति नहीं होगी तब तक धार्मिक शिक्षा की पुनप्रतिष्ठा की कल्पना भी हम नहीं कर सकते । विश्वविद्यालय भारत के ज्ञानप्रवाह के मूल हैं । वहीं पर यदि अनवस्था है तो शेष विश्व की सुस्थिति कैसे हो सकती है ?
    
=== युगानुकूलता ===
 
=== युगानुकूलता ===
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४८. भारतीय ज्ञानविश्व के अन्दर के इस वाद को ही निपटना पहली आवश्यकता है । उससे यदि निपट कर अनुभूति प्रामाण्य, धर्म प्रामाण्य, वेद प्रामाण्य पर सर्वसम्मति हो गई तो दूसरा प्रश्न भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । वह है युगानुकूल निरूपण का ।
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४८. धार्मिक ज्ञानविश्व के अन्दर के इस वाद को ही निपटना पहली आवश्यकता है । उससे यदि निपट कर अनुभूति प्रामाण्य, धर्म प्रामाण्य, वेद प्रामाण्य पर सर्वसम्मति हो गई तो दूसरा प्रश्न भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । वह है युगानुकूल निरूपण का ।
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४९. वेद उपनिषद दर्शनादि के अनुसार हमारा व्यवहार जीवन चलना चाहिये तभी ये प्रमाण सार्थक हैं । यह केवल तात्तविक चर्चा तक सीमित नहीं है, दैनन्दिन जीवन को स्पर्श करने वाला है । उदाहरण के लिये संसद, बाजार, विद्यालय, घर आदि भारतीय शाख्रग्रन्थों द्वारा दी गई दृष्टि के अनुसार चलने चाहिये । तभी भारतीय शास्त्रीय ज्ञान की प्रासंगिकता और प्रतिष्ठा है । आज तो इन चार में से एक भी इन शास्त्रों के अनुसार नहीं चलता है ।
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४९. वेद उपनिषद दर्शनादि के अनुसार हमारा व्यवहार जीवन चलना चाहिये तभी ये प्रमाण सार्थक हैं । यह केवल तात्तविक चर्चा तक सीमित नहीं है, दैनन्दिन जीवन को स्पर्श करने वाला है । उदाहरण के लिये संसद, बाजार, विद्यालय, घर आदि धार्मिक शाख्रग्रन्थों द्वारा दी गई दृष्टि के अनुसार चलने चाहिये । तभी धार्मिक शास्त्रीय ज्ञान की प्रासंगिकता और प्रतिष्ठा है । आज तो इन चार में से एक भी इन शास्त्रों के अनुसार नहीं चलता है ।
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५०. तो उपाय क्या है ? वेदों को हम भारतीय ज्ञानधारा
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५०. तो उपाय क्या है ? वेदों को हम धार्मिक ज्ञानधारा
    
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का स्रोत कहते हैं, तो फिर इस ज्ञानधारा के अनुसार संसद की प्रणाली और सांसदों का व्यवहार, बाजार का उत्पादन और वितरण, विद्यालयों की शिक्षा योजना और परिवार की जीवनशैली बननी चाहिये । इसके लिये भारतीय ज्ञानधारा के मूल सिद्धान्तों का अध्ययन कर, चिन्तन कर वर्तमान आवश्यकताओं, वर्तमान परिस्थिति, वर्तमान सम्भावनाओं को ध्यान में रखकर व्यवस्थाओं और व्यवहार की प्रणाली का निरूपण करना तात्विक अध्ययन से भी अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य है । इसे ही व्यावहारिक अनुसन्धान कहते हैं । आज हमने अनुसन्धान को भी बहुत क्षुद्र और क्षुल्लक बना दिया है। उसका परिष्कार करना चाहिये ।
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का स्रोत कहते हैं, तो फिर इस ज्ञानधारा के अनुसार संसद की प्रणाली और सांसदों का व्यवहार, बाजार का उत्पादन और वितरण, विद्यालयों की शिक्षा योजना और परिवार की जीवनशैली बननी चाहिये । इसके लिये धार्मिक ज्ञानधारा के मूल सिद्धान्तों का अध्ययन कर, चिन्तन कर वर्तमान आवश्यकताओं, वर्तमान परिस्थिति, वर्तमान सम्भावनाओं को ध्यान में रखकर व्यवस्थाओं और व्यवहार की प्रणाली का निरूपण करना तात्विक अध्ययन से भी अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य है । इसे ही व्यावहारिक अनुसन्धान कहते हैं । आज हमने अनुसन्धान को भी बहुत क्षुद्र और क्षुल्लक बना दिया है। उसका परिष्कार करना चाहिये ।
    
५१. यह कार्य श्रेष्ठ कक्षा के अध्ययन अनुसन्धान पीठ का काम है । वर्तमान में जो विश्वविद्यालयों की दुनिया है उससे भिन्न प्रकार की व्यवस्था करने की आवश्यकता रहेगी । इस कार्य के लिये श्रेष्ठ कोटि के संन्यासी, शाख्रवेत्ता, . अनुभूति wo विद्वान तथा विश्वविद्यालयों के जिज्ञासु_ और परिश्रमशील अध्यापकों को एकत्रित करना होगा ।
 
५१. यह कार्य श्रेष्ठ कक्षा के अध्ययन अनुसन्धान पीठ का काम है । वर्तमान में जो विश्वविद्यालयों की दुनिया है उससे भिन्न प्रकार की व्यवस्था करने की आवश्यकता रहेगी । इस कार्य के लिये श्रेष्ठ कोटि के संन्यासी, शाख्रवेत्ता, . अनुभूति wo विद्वान तथा विश्वविद्यालयों के जिज्ञासु_ और परिश्रमशील अध्यापकों को एकत्रित करना होगा ।
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५२. जिस प्रकार अनेक महापुरुष नवीन सम्प्रदायों की स्थापना करते हैं उसी प्रकार किसी विद्वान ने ऐसी पीठ की स्थापना करनी चाहिये और भारतीय ज्ञानधारा को पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने का स्पष्ट लक्ष्य और उसके लिये कार्ययोजना बनानी चाहिये । देशभर में जो भी भारतीय ज्ञानधारा में अवगाहन करना चाहते हैं और समाज का हित चाहते हैं उन्हें इस पीठ की योजना में सम्मिलित करना चाहिये ।  
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५२. जिस प्रकार अनेक महापुरुष नवीन सम्प्रदायों की स्थापना करते हैं उसी प्रकार किसी विद्वान ने ऐसी पीठ की स्थापना करनी चाहिये और धार्मिक ज्ञानधारा को पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने का स्पष्ट लक्ष्य और उसके लिये कार्ययोजना बनानी चाहिये । देशभर में जो भी धार्मिक ज्ञानधारा में अवगाहन करना चाहते हैं और समाज का हित चाहते हैं उन्हें इस पीठ की योजना में सम्मिलित करना चाहिये ।  
    
५३. अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य के व्यावहारिक पक्ष भी विचारणीय है । अध्ययन और अनुसन्धान के आधार पर दैनन्दिन जीवनशैली का निरूपण करना सरल परन्तु महत्त्वपूर्ण विषय है । दैनन्दिन जीवन से सम्बन्धित जितने भी विषय हैं उन सबके जानकारों ने एकत्रित आकर जीवनशैली के सूत्र बनाने चाहिये । उदाहरण के लिये शरीर और मन का स्वास्थ्य, दिनचर्या, शिष्टाचार, नैतिकता अथवा सदाचार, शील और चरित्र, अर्थव्यवहार, शिक्षा जैसे विषय दैनन्दिन जीवनशैली के अंग हैं । इन सबके ज्ञाता विद्वानों ने मिलकर जीवनशैली के सूत्र तैयार करना चाहिये । इन्हें समझाना चाहिये । समझाने हेतु विभिन्न स्वरूपों का प्रयोग हो सकता है । इनका तात्तिक और व्यावहारिक विवेचन भी हो सकता है । इन्हें प्रयोग में लाने हेतु प्रचार, प्रबोधन, प्रशिक्षण की योजना भी आवश्यक है। इन योजना के क्रियान्वयन हेतु विद्यालयों का सहयोग लिया जा सकता है ।
 
५३. अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य के व्यावहारिक पक्ष भी विचारणीय है । अध्ययन और अनुसन्धान के आधार पर दैनन्दिन जीवनशैली का निरूपण करना सरल परन्तु महत्त्वपूर्ण विषय है । दैनन्दिन जीवन से सम्बन्धित जितने भी विषय हैं उन सबके जानकारों ने एकत्रित आकर जीवनशैली के सूत्र बनाने चाहिये । उदाहरण के लिये शरीर और मन का स्वास्थ्य, दिनचर्या, शिष्टाचार, नैतिकता अथवा सदाचार, शील और चरित्र, अर्थव्यवहार, शिक्षा जैसे विषय दैनन्दिन जीवनशैली के अंग हैं । इन सबके ज्ञाता विद्वानों ने मिलकर जीवनशैली के सूत्र तैयार करना चाहिये । इन्हें समझाना चाहिये । समझाने हेतु विभिन्न स्वरूपों का प्रयोग हो सकता है । इनका तात्तिक और व्यावहारिक विवेचन भी हो सकता है । इन्हें प्रयोग में लाने हेतु प्रचार, प्रबोधन, प्रशिक्षण की योजना भी आवश्यक है। इन योजना के क्रियान्वयन हेतु विद्यालयों का सहयोग लिया जा सकता है ।
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=== अध्ययन अनुसन्धान की देशव्यापी योजना ===
 
=== अध्ययन अनुसन्धान की देशव्यापी योजना ===
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६४. अध्ययन और अनुसन्धान के अन्तर्गत और एक महत्त्वपूर्ण विषय है तुलनात्मक अध्ययन का । आज संचार माध्यमों के प्रभाव के परिणाम स्वरूप विश्व के सभी देश एकदूसरे को प्रभावित करते हैं । विगत दो सौ वर्षों में भारतीय शिक्षा का पूर्ण रूप से पश्चिमीकरण हुआ है । अर्थजीवन के केन्द्र में आ जाने के कारण उपभोग प्रधान असंयमी जीवनशैली प्रचलित हो गई है । इस स्थिति में भारतीय ज्ञानधारा का प्रवाह अवरुद्ध हो गया है और अधार्मिक ज्ञानधारा ने उसका स्थान ले लिया है । यह स्थिति अकेले भारत के लिये नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिये और जहाँ से इसका प्रवाह शुरु हुआ है ऐसे स्वयं पश्चिम के लिये भी विनाशक ही सिद्ध हो रही है ।
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६४. अध्ययन और अनुसन्धान के अन्तर्गत और एक महत्त्वपूर्ण विषय है तुलनात्मक अध्ययन का । आज संचार माध्यमों के प्रभाव के परिणाम स्वरूप विश्व के सभी देश एकदूसरे को प्रभावित करते हैं । विगत दो सौ वर्षों में धार्मिक शिक्षा का पूर्ण रूप से पश्चिमीकरण हुआ है । अर्थजीवन के केन्द्र में आ जाने के कारण उपभोग प्रधान असंयमी जीवनशैली प्रचलित हो गई है । इस स्थिति में धार्मिक ज्ञानधारा का प्रवाह अवरुद्ध हो गया है और अधार्मिक ज्ञानधारा ने उसका स्थान ले लिया है । यह स्थिति अकेले भारत के लिये नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिये और जहाँ से इसका प्रवाह शुरु हुआ है ऐसे स्वयं पश्चिम के लिये भी विनाशक ही सिद्ध हो रही है ।
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६५. इसको ध्यान में रखते हुए भारतीय और ज्ञानधारा के विभिन्न विषयों को लेकर तुलनात्मक अध्ययन की एक योजना बनाने की आवश्यकता है । इस अध्ययन को भी अनुभूति प्रामाण्य और धर्मप्रामाण्य के आधार लेकर ही चलाना चाहिये । पश्चिमी ज्ञानधारा से प्रेरित होकर जीवन की जो व्यवस्थायें बनी हैं और बन रही हैं, जो व्यवहार विकसित हो रहा है, जो वृत्तियाँ पनप रही हैं वे कितनी अकल्याणकारी हैं यह तथ्यों के साथ बताना होगा । ऐसे तुलनात्मक अध्ययन से ही भारत और पश्चिम दोनों को पता चलेगा कि भारतीय ज्ञानधारा विश्व के लिये वास्तव में कितनी कल्याणकारी है ।
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६५. इसको ध्यान में रखते हुए धार्मिक और ज्ञानधारा के विभिन्न विषयों को लेकर तुलनात्मक अध्ययन की एक योजना बनाने की आवश्यकता है । इस अध्ययन को भी अनुभूति प्रामाण्य और धर्मप्रामाण्य के आधार लेकर ही चलाना चाहिये । पश्चिमी ज्ञानधारा से प्रेरित होकर जीवन की जो व्यवस्थायें बनी हैं और बन रही हैं, जो व्यवहार विकसित हो रहा है, जो वृत्तियाँ पनप रही हैं वे कितनी अकल्याणकारी हैं यह तथ्यों के साथ बताना होगा । ऐसे तुलनात्मक अध्ययन से ही भारत और पश्चिम दोनों को पता चलेगा कि धार्मिक ज्ञानधारा विश्व के लिये वास्तव में कितनी कल्याणकारी है ।
    
६६. भारत की सरकार और समाज दोनों के लिये निर्देशों के साथ साथ विश्व के अन्यान्य देशों के लिये भी
 
६६. भारत की सरकार और समाज दोनों के लिये निर्देशों के साथ साथ विश्व के अन्यान्य देशों के लिये भी
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७४. इस व्यवस्था में इस प्रकार तो सरकार की सहभागिता सुनिश्चित नहीं हो सकती । इस पद्धति को बदलना सरकार और शिक्षा दोनों के पक्ष में है । इसलिये उसे बदलने का प्रयास प्रथम करना चाहिये । अध्ययन और अध्यापन की सुस्पष्ट योजना बनाकर प्रथम तो देश के विट्रदूवर्ग को इससे सुपरिचित बनाना चाहिये । उनका समर्थन जुटाना चाहिये । संख्याबल नहीं अपितु ज्ञान और निष्ठा का बल बढाना चाहिये । इसे देशव्यापी भी बनाना चाहिये ।
 
७४. इस व्यवस्था में इस प्रकार तो सरकार की सहभागिता सुनिश्चित नहीं हो सकती । इस पद्धति को बदलना सरकार और शिक्षा दोनों के पक्ष में है । इसलिये उसे बदलने का प्रयास प्रथम करना चाहिये । अध्ययन और अध्यापन की सुस्पष्ट योजना बनाकर प्रथम तो देश के विट्रदूवर्ग को इससे सुपरिचित बनाना चाहिये । उनका समर्थन जुटाना चाहिये । संख्याबल नहीं अपितु ज्ञान और निष्ठा का बल बढाना चाहिये । इसे देशव्यापी भी बनाना चाहिये ।
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७५. दूसरे चरण में सरकार के साथ संवाद शुरू करना चाहिये । यह धन, भूमि या मान्यता के लिये नहीं करना चाहिये अपितु उन्हें शिक्षा को भारतीय बनाने का विषय समझाने के लिये करना चाहिये । सभी सांसदों, विधायकों, पार्षदों तक संचार माध्यमों तथा प्रत्यक्ष भेंट के माध्यम से पहुँचना चाहिये । साथ ही हम सरकार का सम्पर्क कर रहे हैं इस विषय से लोगों को भी अवगत करना चाहिये ।
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७५. दूसरे चरण में सरकार के साथ संवाद शुरू करना चाहिये । यह धन, भूमि या मान्यता के लिये नहीं करना चाहिये अपितु उन्हें शिक्षा को धार्मिक बनाने का विषय समझाने के लिये करना चाहिये । सभी सांसदों, विधायकों, पार्षदों तक संचार माध्यमों तथा प्रत्यक्ष भेंट के माध्यम से पहुँचना चाहिये । साथ ही हम सरकार का सम्पर्क कर रहे हैं इस विषय से लोगों को भी अवगत करना चाहिये ।
    
७६. जनप्रतिनिधियों के बाद प्रशासनिक अधिकारियों से सम्पर्क करना चाहिये । उनसे भौतिक लाभ या कानूनी मान्यता आदि नहीं चाहिये यह स्पष्ट करना चाहिये परन्तु अपनी योजना में वैचारिक सहयोग और जहाँ सम्भव है सहभागिता माँगनी चाहिये ।
 
७६. जनप्रतिनिधियों के बाद प्रशासनिक अधिकारियों से सम्पर्क करना चाहिये । उनसे भौतिक लाभ या कानूनी मान्यता आदि नहीं चाहिये यह स्पष्ट करना चाहिये परन्तु अपनी योजना में वैचारिक सहयोग और जहाँ सम्भव है सहभागिता माँगनी चाहिये ।
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८३. अध्ययन अध्यापन की इस योजना के साथ दो काम उसके सहयोगी के रूप में और करने चाहिये । एक काम है संस्कृत भाषा को जनमानस में और व्यवहार में प्रतिष्ठित करना । देशभर के संस्कृत के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को इस काम का सूत्रसंचालन देना चाहिये । साथ ही संस्कृत विश्वविद्यालयों, वेद पाठशालाओं को अध्ययन अनुसन्धान की योजना समझाकर अपने अपने कार्य को इसके अनुरूप ढालने का आग्रह करना चाहिये । दूसरा है बालअवस्था से शुरू होने वाली शिक्षा हेतु पाठ्यक्रम और सामग्री बनाकर ह्वउन्हें प्रत्यक्ष क्रियान्वयन हेतु प्रवृत्त करना । शिशु-अवस्था से भी पूर्व गर्भावस्‍था. और शिशुअवस्था में भी शिक्षा तो होती ही है। उस शिक्षा हेतु मातापिताओं को इस योजना के अन्तर्गत बने पाठ्यक्रमों के आधार पर शिक्षित करना चाहिये ।
 
८३. अध्ययन अध्यापन की इस योजना के साथ दो काम उसके सहयोगी के रूप में और करने चाहिये । एक काम है संस्कृत भाषा को जनमानस में और व्यवहार में प्रतिष्ठित करना । देशभर के संस्कृत के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को इस काम का सूत्रसंचालन देना चाहिये । साथ ही संस्कृत विश्वविद्यालयों, वेद पाठशालाओं को अध्ययन अनुसन्धान की योजना समझाकर अपने अपने कार्य को इसके अनुरूप ढालने का आग्रह करना चाहिये । दूसरा है बालअवस्था से शुरू होने वाली शिक्षा हेतु पाठ्यक्रम और सामग्री बनाकर ह्वउन्हें प्रत्यक्ष क्रियान्वयन हेतु प्रवृत्त करना । शिशु-अवस्था से भी पूर्व गर्भावस्‍था. और शिशुअवस्था में भी शिक्षा तो होती ही है। उस शिक्षा हेतु मातापिताओं को इस योजना के अन्तर्गत बने पाठ्यक्रमों के आधार पर शिक्षित करना चाहिये ।
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८४. भारतीय विद्याओं, जैसे कि आयुर्वेद, ज्योतिष, वेद्विद्या, दर्शन, संगीत, नृत्य आदि की अनेक सरकारी और गैरसरकारी संस्थायें देशभर में चलती हैं। इन संस्थाओं में कमअधिक शुद्ध रूप में इन
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८४. धार्मिक विद्याओं, जैसे कि आयुर्वेद, ज्योतिष, वेद्विद्या, दर्शन, संगीत, नृत्य आदि की अनेक सरकारी और गैरसरकारी संस्थायें देशभर में चलती हैं। इन संस्थाओं में कमअधिक शुद्ध रूप में इन
    
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