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ज्ञानधारा को पुनः प्रवाहित करने हेतु अध्ययन करना एक मात्र उपाय है ।
 
ज्ञानधारा को पुनः प्रवाहित करने हेतु अध्ययन करना एक मात्र उपाय है ।
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३. धार्मिक ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने हेतु हमें अपने शास्त्रग्रन्थो का अध्ययन करना पड़ेगा । हमारे शाख्रग्रन्थ हैं वेद, उपनिषद, दर्शनों के सूत्रग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण आदि इनके साथ साथ भौतिक विज्ञान के भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जो भारत की भौतिक समृद्धि के लिये मार्गदर्शक रहे हैं ।
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३. धार्मिक ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने हेतु हमें अपने शास्त्रग्रन्थो का अध्ययन करना पड़ेगा । हमारे शास्त्रग्रन्थ हैं वेद, उपनिषद, दर्शनों के सूत्रग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण आदि इनके साथ साथ भौतिक विज्ञान के भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जो भारत की भौतिक समृद्धि के लिये मार्गदर्शक रहे हैं ।
    
४. अध्ययन करने की सही पद्धति को अपनाना आवश्यक होगा । सही आलम्बन भी हमें निश्चित करना होगा । इन दो बातों के परिणाम स्वरूप हमें राष्ट्र के जीवन के लिये सही अधिष्ठान और दिशा प्राप्त होगी ।
 
४. अध्ययन करने की सही पद्धति को अपनाना आवश्यक होगा । सही आलम्बन भी हमें निश्चित करना होगा । इन दो बातों के परिणाम स्वरूप हमें राष्ट्र के जीवन के लिये सही अधिष्ठान और दिशा प्राप्त होगी ।
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१४. देश में अनेक संन्यासी सम्प्रदाय, मठ, आश्रम आदि चलते हैं । संन्यासियों के लिये, धर्माचार्यों के लिये उपनिषदों का, दर्शन ग्रन्थों का या वेदों का अध्ययन करना अनिवार्य होता है । वर्षों तक ऐसा अध्ययन यहाँ होता भी है । परन्तु यह या तो ज्ञान बढ़ाने के लिये अथवा मोक्ष प्राप्त करने के लिये होता है । समाज की जीवनशैली बदलना इनके लिये बहुत कठिन होता है । कदाचित यह उद्देश्य भी नहीं होता । हमें इस पद्धति में भी परिवर्तन करना होगा ।
 
१४. देश में अनेक संन्यासी सम्प्रदाय, मठ, आश्रम आदि चलते हैं । संन्यासियों के लिये, धर्माचार्यों के लिये उपनिषदों का, दर्शन ग्रन्थों का या वेदों का अध्ययन करना अनिवार्य होता है । वर्षों तक ऐसा अध्ययन यहाँ होता भी है । परन्तु यह या तो ज्ञान बढ़ाने के लिये अथवा मोक्ष प्राप्त करने के लिये होता है । समाज की जीवनशैली बदलना इनके लिये बहुत कठिन होता है । कदाचित यह उद्देश्य भी नहीं होता । हमें इस पद्धति में भी परिवर्तन करना होगा ।
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१५. बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से अध्ययन का एक नया तरीका भी शुरू हुआ है । संस्कृत में नहीं आपितु अधिकतर अंग्रेजी में धार्मिक शाख्रग्रन्थों का अध्ययन होता है । पाश्चात्य पद्धति से जो व्यवस्थायें बनी हुई हैं उनमें भी हमारे ग्रन्थ कितने उपयोगी हैं यह बताना इनका उद्देश्य होता है । उदाहरण के लिये भगवदूगीता में कितनी अध्यापन पद्धतियों का निरूपण मिलता है अथवा व्यवस्थापन के कितने सूत्र मिलते हैं यह बताकर व्यवहार में भी भगवदूगीता कितनी उपयोगी है यह सिद्ध करने का प्रयास होता है । शिक्षा की या व्यवस्थापन की प्रस्थापित पद्धति को बदलने का निर्देश नहीं होता मूल सूत्र वही रहते हैं, उनको समृद्ध कैसे किया जाय इसका विचार होता है । इसे भी बदलना होगा ।
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१५. बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से अध्ययन का एक नया तरीका भी शुरू हुआ है । संस्कृत में नहीं आपितु अधिकतर अंग्रेजी में धार्मिक शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन होता है । पाश्चात्य पद्धति से जो व्यवस्थायें बनी हुई हैं उनमें भी हमारे ग्रन्थ कितने उपयोगी हैं यह बताना इनका उद्देश्य होता है । उदाहरण के लिये भगवदूगीता में कितनी अध्यापन पद्धतियों का निरूपण मिलता है अथवा व्यवस्थापन के कितने सूत्र मिलते हैं यह बताकर व्यवहार में भी भगवदूगीता कितनी उपयोगी है यह सिद्ध करने का प्रयास होता है । शिक्षा की या व्यवस्थापन की प्रस्थापित पद्धति को बदलने का निर्देश नहीं होता मूल सूत्र वही रहते हैं, उनको समृद्ध कैसे किया जाय इसका विचार होता है । इसे भी बदलना होगा ।
    
१६. एक बहुत छोटा परन्तु सफल प्रयास दिखाई देता है जहाँ उपनिषदों की वास्तव में प्रतिष्ठा हुई है। उदाहरण के लिये. रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शिक्षाचिन्तन औपनिषदिक चिन्तन के प्रकाश में ही विकसित हुआ है । श्री अरविन्द का समग्र जीवन चिन्तन-विचार और व्यवहार सहित-वेद और उपनिषदों के आधार पर ही प्रतिष्ठित हुआ है । विनोबा भावे उसी मालिका में जुडते हैं । महात्मा गांधी भी उसी विचार से अनुप्राणित होकर अपना व्यवहार चिन्तन प्रस्तुत करते हैं । अध्ययन का यह तरीका हमारे लिये उदाहरण स्वरूप हो सकता है ।
 
१६. एक बहुत छोटा परन्तु सफल प्रयास दिखाई देता है जहाँ उपनिषदों की वास्तव में प्रतिष्ठा हुई है। उदाहरण के लिये. रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शिक्षाचिन्तन औपनिषदिक चिन्तन के प्रकाश में ही विकसित हुआ है । श्री अरविन्द का समग्र जीवन चिन्तन-विचार और व्यवहार सहित-वेद और उपनिषदों के आधार पर ही प्रतिष्ठित हुआ है । विनोबा भावे उसी मालिका में जुडते हैं । महात्मा गांधी भी उसी विचार से अनुप्राणित होकर अपना व्यवहार चिन्तन प्रस्तुत करते हैं । अध्ययन का यह तरीका हमारे लिये उदाहरण स्वरूप हो सकता है ।
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४८. धार्मिक ज्ञानविश्व के अन्दर के इस वाद को ही निपटना पहली आवश्यकता है । उससे यदि निपट कर अनुभूति प्रामाण्य, धर्म प्रामाण्य, वेद प्रामाण्य पर सर्वसम्मति हो गई तो दूसरा प्रश्न भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । वह है युगानुकूल निरूपण का ।
 
४८. धार्मिक ज्ञानविश्व के अन्दर के इस वाद को ही निपटना पहली आवश्यकता है । उससे यदि निपट कर अनुभूति प्रामाण्य, धर्म प्रामाण्य, वेद प्रामाण्य पर सर्वसम्मति हो गई तो दूसरा प्रश्न भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । वह है युगानुकूल निरूपण का ।
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४९. वेद उपनिषद दर्शनादि के अनुसार हमारा व्यवहार जीवन चलना चाहिये तभी ये प्रमाण सार्थक हैं । यह केवल तात्तविक चर्चा तक सीमित नहीं है, दैनन्दिन जीवन को स्पर्श करने वाला है । उदाहरण के लिये संसद, बाजार, विद्यालय, घर आदि धार्मिक शाख्रग्रन्थों द्वारा दी गई दृष्टि के अनुसार चलने चाहिये । तभी धार्मिक शास्त्रीय ज्ञान की प्रासंगिकता और प्रतिष्ठा है । आज तो इन चार में से एक भी इन शास्त्रों के अनुसार नहीं चलता है ।
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४९. वेद उपनिषद दर्शनादि के अनुसार हमारा व्यवहार जीवन चलना चाहिये तभी ये प्रमाण सार्थक हैं । यह केवल तात्तविक चर्चा तक सीमित नहीं है, दैनन्दिन जीवन को स्पर्श करने वाला है । उदाहरण के लिये संसद, बाजार, विद्यालय, घर आदि धार्मिक शास्त्रग्रन्थों द्वारा दी गई दृष्टि के अनुसार चलने चाहिये । तभी धार्मिक शास्त्रीय ज्ञान की प्रासंगिकता और प्रतिष्ठा है । आज तो इन चार में से एक भी इन शास्त्रों के अनुसार नहीं चलता है ।
    
५०. तो उपाय क्या है ? वेदों को हम धार्मिक ज्ञानधारा
 
५०. तो उपाय क्या है ? वेदों को हम धार्मिक ज्ञानधारा
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का स्रोत कहते हैं, तो फिर इस ज्ञानधारा के अनुसार संसद की प्रणाली और सांसदों का व्यवहार, बाजार का उत्पादन और वितरण, विद्यालयों की शिक्षा योजना और परिवार की जीवनशैली बननी चाहिये । इसके लिये धार्मिक ज्ञानधारा के मूल सिद्धान्तों का अध्ययन कर, चिन्तन कर वर्तमान आवश्यकताओं, वर्तमान परिस्थिति, वर्तमान सम्भावनाओं को ध्यान में रखकर व्यवस्थाओं और व्यवहार की प्रणाली का निरूपण करना तात्विक अध्ययन से भी अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य है । इसे ही व्यावहारिक अनुसन्धान कहते हैं । आज हमने अनुसन्धान को भी बहुत क्षुद्र और क्षुल्लक बना दिया है। उसका परिष्कार करना चाहिये ।
 
का स्रोत कहते हैं, तो फिर इस ज्ञानधारा के अनुसार संसद की प्रणाली और सांसदों का व्यवहार, बाजार का उत्पादन और वितरण, विद्यालयों की शिक्षा योजना और परिवार की जीवनशैली बननी चाहिये । इसके लिये धार्मिक ज्ञानधारा के मूल सिद्धान्तों का अध्ययन कर, चिन्तन कर वर्तमान आवश्यकताओं, वर्तमान परिस्थिति, वर्तमान सम्भावनाओं को ध्यान में रखकर व्यवस्थाओं और व्यवहार की प्रणाली का निरूपण करना तात्विक अध्ययन से भी अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य है । इसे ही व्यावहारिक अनुसन्धान कहते हैं । आज हमने अनुसन्धान को भी बहुत क्षुद्र और क्षुल्लक बना दिया है। उसका परिष्कार करना चाहिये ।
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५१. यह कार्य श्रेष्ठ कक्षा के अध्ययन अनुसन्धान पीठ का काम है । वर्तमान में जो विश्वविद्यालयों की दुनिया है उससे भिन्न प्रकार की व्यवस्था करने की आवश्यकता रहेगी । इस कार्य के लिये श्रेष्ठ कोटि के संन्यासी, शाख्रवेत्ता, . अनुभूति wo विद्वान तथा विश्वविद्यालयों के जिज्ञासु_ और परिश्रमशील अध्यापकों को एकत्रित करना होगा ।
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५१. यह कार्य श्रेष्ठ कक्षा के अध्ययन अनुसन्धान पीठ का काम है । वर्तमान में जो विश्वविद्यालयों की दुनिया है उससे भिन्न प्रकार की व्यवस्था करने की आवश्यकता रहेगी । इस कार्य के लिये श्रेष्ठ कोटि के संन्यासी, शास्त्रवेत्ता, . अनुभूति wo विद्वान तथा विश्वविद्यालयों के जिज्ञासु_ और परिश्रमशील अध्यापकों को एकत्रित करना होगा ।
    
५२. जिस प्रकार अनेक महापुरुष नवीन सम्प्रदायों की स्थापना करते हैं उसी प्रकार किसी विद्वान ने ऐसी पीठ की स्थापना करनी चाहिये और धार्मिक ज्ञानधारा को पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने का स्पष्ट लक्ष्य और उसके लिये कार्ययोजना बनानी चाहिये । देशभर में जो भी धार्मिक ज्ञानधारा में अवगाहन करना चाहते हैं और समाज का हित चाहते हैं उन्हें इस पीठ की योजना में सम्मिलित करना चाहिये ।  
 
५२. जिस प्रकार अनेक महापुरुष नवीन सम्प्रदायों की स्थापना करते हैं उसी प्रकार किसी विद्वान ने ऐसी पीठ की स्थापना करनी चाहिये और धार्मिक ज्ञानधारा को पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने का स्पष्ट लक्ष्य और उसके लिये कार्ययोजना बनानी चाहिये । देशभर में जो भी धार्मिक ज्ञानधारा में अवगाहन करना चाहते हैं और समाज का हित चाहते हैं उन्हें इस पीठ की योजना में सम्मिलित करना चाहिये ।  
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६१. बाजार कैसे चलेगा, उत्पादन और वितरण की क्या व्यवस्था होगी और व्यक्ति तथा समाज की समृद्धि परस्पर अविरोधी रहकर कैसे बढ़ेगी इसका निरूपण कर उसे सर्वजनसुलभ भाषा में प्रसारित करना चाहिये ।
 
६१. बाजार कैसे चलेगा, उत्पादन और वितरण की क्या व्यवस्था होगी और व्यक्ति तथा समाज की समृद्धि परस्पर अविरोधी रहकर कैसे बढ़ेगी इसका निरूपण कर उसे सर्वजनसुलभ भाषा में प्रसारित करना चाहिये ।
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६२. अर्थात्‌ इस अध्ययन अनुसन्धान के लिये जो पीठ अथवा संस्थान अथवा विश्वविद्यालय बनेगा उसका स्वरूप शाख्राभिमुख और लोकाभिमुख दोनों प्रकार का रहेगा ।
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६२. अर्थात्‌ इस अध्ययन अनुसन्धान के लिये जो पीठ अथवा संस्थान अथवा विश्वविद्यालय बनेगा उसका स्वरूप शास्त्राभिमुख और लोकाभिमुख दोनों प्रकार का रहेगा ।
    
६३. अर्थशास्त्र के समान ही दूसरा केन्द्रवर्ती विषय शिक्षा का होना आवश्यक है । धर्म को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित कर ज्ञानपस्म्परा को बनाये रखना और प्रजा को धर्माचरण में प्रवृत्त करना अर्थात्‌ लोकव्यवहार को धर्माधिष्टित बनाना शिक्षा का ही काम है । इस दृष्टि से शिक्षा का शास्त्र, शिक्षा की व्यवस्था, शिक्षा को सुलभ बनाने के उपाय आदि का अर्थशास्त्र के समान ही तात्विक और व्यावहारिक धरातल पर पहुँच कर निरूपण करना होगा |
 
६३. अर्थशास्त्र के समान ही दूसरा केन्द्रवर्ती विषय शिक्षा का होना आवश्यक है । धर्म को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित कर ज्ञानपस्म्परा को बनाये रखना और प्रजा को धर्माचरण में प्रवृत्त करना अर्थात्‌ लोकव्यवहार को धर्माधिष्टित बनाना शिक्षा का ही काम है । इस दृष्टि से शिक्षा का शास्त्र, शिक्षा की व्यवस्था, शिक्षा को सुलभ बनाने के उपाय आदि का अर्थशास्त्र के समान ही तात्विक और व्यावहारिक धरातल पर पहुँच कर निरूपण करना होगा |

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