Duhkha (दुःख)

From Dharmawiki
Revision as of 22:40, 20 January 2025 by AnuragV (talk | contribs) (नया पृष्ठ निर्माण (दुःख))
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search
ToBeEdited.png
This article needs editing.

Add and improvise the content from reliable sources.

दुःख (बंधन) एक सामूहिक अज्ञान की स्थिति है। भारतीय ज्ञान परम्परा में दर्शन ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे दुःख को आत्यन्तिक केवल वहीं अपने को इस स्थिति से बचा पाते हैं जिनमें विवेक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। विवेक से आत्मा का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाता है। सचराचर लोक में सुख एवं दुःख की अनुभूति प्रत्येक जीव को होती है। कर्माशय की तीव्रता के कारण किसी को तीव्र दुःखानुभूति होती है तो किसी को मन्द दुःख की अनुभूति होती है। दुःख को प्रतिकूल अनुभूति कहा गया है -

प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।

जब इच्छाओं के विपरीत किसी वस्तु का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है अथवा किसी अत्यन्त प्रिय वस्तु का विच्छेद हो जाता है तो दुःख होता है।

परिचय

सांख्य दर्शन में दुःखत्रयाभिघातादिति, तीन प्रकार के दुःख हैं - आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। इनमें आध्यात्मिक दुःख दो प्रकार का है - शारीरिक और मानसिक।

  1. शारीरिक दुःख - वात, पित्त और कफ नामक त्रिदोष की विषमता से उत्पन्न दुःख को शारीरिक दुःख कहते हैं।
  2. मानसिक दुःख - काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, विषाद तथा शब्द, स्पर्श आदि श्रेष्ठ विषयों की प्राप्ति न होने से उत्पन्न दुःख मानसिक दुःख होता है।

ये सभी दुःख आन्तरिक उपायों से साध्य होने के कारण आध्यात्मिक कहलाते हैं। बाह्य उपायों से साध्य दुःख दो प्रकार का होता है। आधिभौतिक और आधिदैविक। इनमें से मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावरों से उत्पन्न होने वाला दुःख आधिभौतिक तथा यक्ष, राक्षस, विनायक, ग्रह इत्यादि के दुष्ट प्रभाव से होने वाला दुःख आधिदैविक कहलाता है।

इस प्रकार इन्हीं त्रिविध दुःखों का सार्वकालिक निवृत्ति ही प्राणिमात्र का परमपुरुषार्थ है।

उद्धरण