Tirtha kshetra (तीर्थ क्षेत्र)

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तीर्थ क्षेत्र भारतीय संस्कृति, धर्म और परंपराओं का अभिन्न हिस्सा हैं। वैदिक साहित्य में तीर्थ शब्द पवित्र स्थान के अर्थ में प्रयोग हुआ है। तीर्थ क्षेत्र न केवल आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रदान करते हैं किन्तु शिक्षा एवं कला के ज्ञान में, स्वास्थ्य के संरक्षण तथा अर्थव्यवस्था के लिये भी सहायक हैं। चार धाम, सात पुरी, द्वादश ज्योतिर्लिंग तथा अनेक नदी, वन, उपवन तीर्थों की श्रेणी में आते हैं, इनके दर्शन, निवास, स्नान, भजन, पूजन, अर्चन आदि की सुस्थिर मान्यता है। तीर्थ क्षेत्रों में अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य, विशुद्ध जलवायु एवं महात्माओं का सत्संग व्यक्ति के मन को शुद्ध एवं पवित्र करता है।

परिचय॥ Introduction

तीर्थ क्षेत्रों की स्थापना करने में हमारे तत्वदर्शी पूर्वजों ने बडी बुद्धिमता का परिचय दिया है। जिन स्थानों पर तीर्थ स्थान स्थापित किये गये हैं वे जलवायु की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी हैं। जिन नदियों का जल विशेष शुद्ध उपयोगी एवं स्वास्थ्यप्रद पाया गया है उनके तटों पर तीर्थ स्थापित किये गये हैं। ऋग्वेद में तीर्थ शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है, जिसमें अनेक स्थलों पर यह मार्ग अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में १०.११४.७ की व्याख्या में सायण ने तीर्थ का अर्थ - "पापोत्तरणसमर्थ" दिया है। अवतरण प्रदेश (नदी का किनारा, घाट), यज्ञ तथा स्थान विशेष के लिये भी तीर्थ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है।[1] गंगा के तट पर सबसे अधिक तीर्थ हैं, क्योंकि गंगा का जल संसार की अन्य नदियों की अपेक्षा अधिक उपयोगी है। उस जल में स्वर्ण, पारा, गंधक तथा अभ्रक जैसे उपयोगी खनिज पदार्थ मिले रहते हैं जिसके संमिश्रण से गंगाजल एक-एक प्रकार की दवा बन जाता है, जिसके प्रयोग से उदर रोग, चर्म रोग तथा रक्त विकार आश्चर्य जनक रीति से अच्छे होते हैं। इन गुणों की उपयोगिता का तीर्थों के निर्माण में प्रधान रूप से ध्यान रखा गया है।[2] तीर्थों के संबंध में मार्कण्डेय पुराण में अगस्त्य ऋषि कहते हैं -

यथा शरीरस्योद्देशाः केचिन्मध्योत्तमाः स्मृताः। तथा पृथिव्यामुद्देशाः केचित् पुण्यतमाः स्मृताः॥ (स्कन्द पुराण)[3]

अर्थात जिस प्रकार मनुष्य शरीर के कुछ अंग जैसे - दक्षिण हस्त, कर्ण अथवा मस्तक इत्यादि अन्य अंगों की अपेक्षा पवित्र माने जाते हैं उसी प्रकार पृथिवी पर कुछ स्थान विशेष रूप से पवित्र माने जाते हैं। तीर्थस्थलों की पवित्रता तीन प्रमुख कारणों से मानी जाती है -

  1. स्थान विशेष की कुछ आश्चर्यजनक प्राकृतिक विशेषताओं के कारण
  2. किसी जलीय स्थल की विशेष तेजस्विता और पवित्रता के कारण
  3. किसी ऋषि, मुनि के वहाँ तपश्चर्या आदि के निमित्त निवास करने के कारण

इस प्रकार से तीर्थ का अर्थ है - वह स्थान जो अपने विलक्षण स्वरूप के कारण पवित्र भावना को जागृत करें। शास्त्रों ने तीर्थयात्रा को अत्यन्त महत्वपूर्ण बताते हुए पवित्र स्थानों के दर्शन, पवित्र जलाशयों में स्नान और पवित्र वातावरण में विचरण की आज्ञा दी है। इस प्रकार से तीर्थयात्रा, तीर्थदर्शन और तीर्थस्नान की परंपरा भारत में बहु प्रचलित है।[4]

तीर्थ की परिभाषा॥ Tirth ki Paribhasha

तीर्थ शब्द प्लवन-तरणार्थक-तॄ धातु से पातॄतुदिवचि० (२/७) इस उणादि सूत्र से थक् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ है -

तरति पापादिकं यस्मात् तत् तीर्थम्।(शब्दकल्पद्रुम)[5]

वह स्थान-विशेष जहां जाने से पापों का क्षय हो जाता है, उसे तीर्थ कहते हैं। इस प्रकार धर्म और मोक्ष की प्राप्ति में तीर्थ बडे सहायक हैं।

तीर्थ का वर्गीकरण॥ Tirth ka Vargikarana

शास्त्रों में तीन प्रकार के तीर्थों का वर्णन है - 1. मानस तीर्थ, 2. जंगम तीर्थ और 3. स्थावर तीर्थ। इनके अतिरिक्त तीर्थों का विभाजन प्रकारान्तर से भी किया गया है - १. नैसर्गिक २. निर्मित। निर्मित तीर्थ भी चार प्रकार के हैं - १. देव २. आसुर ३. आर्ष ४. मानुष। ये पुनः पार्थिव, अन्तरिक्ष तथा पाताल के भेद से तीन प्रकार के हैं।[6]

मानस तीर्थ॥ Manasa Tirtha

मानस तीर्थों के अन्तर्गत धृति, सत्य, अनर्थित्व, मृदुता, ऋजुता, अहिंसा, क्षमा, आनृशंस्य, ज्ञान आदि का वर्णन है। जैसा कि स्कन्द पुराण में कहा गया है -

सत्यं तीर्थं क्षमा तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः। सर्वभूतदयातीर्थं तीर्थमार्जवमेव च॥ दानं तीर्थं.....मानसं तीर्थलक्षणम्॥ (स्कन्द पुराण)[7]

अर्थात मनुष्य के श्रेष्ठ गुण ही मानस तीर्थ हैं। सत्य, क्षमा, दया, इन्द्रिय-निग्रह, ऋजुता=सरलता, दान, मनोनिग्रह, संतोष, ब्रह्मचर्य, विवेक, धृति, तपस्या आदि श्रेष्ठ गुण ही मानस तीर्थ हैं।[8]

जंगम तीर्थ॥ Jangama Tirtha

संतों को संसार का जंगम तीर्थ अर्थात चलता-फिरता तीर्थ कहा जाता है। ये जंगम तीर्थ अपना मन तो पवित्र रखते हैं अपितु सांसारिक लोगों के मलिन-मन की पवित्रता के लिए उपक्रम करते रहते हैं। इसीलिये जंगम तीर्थों में गाय, साधु एवं संतों को लिया गया है। सदाचारी एवं जितेन्द्रिय महापुरुषों का भी वर्णन जंगम तीर्थ रूप से महाभारत में है।[8]

स्थावर तीर्थ॥ Sthavara Tirtha

भूमि पर स्थित स्थल-विशेष की स्थावर तीर्थ या भौम तीर्थ संज्ञा है -

यथा शरीरस्योद्देशाः केचिन्मेध्यतमाः स्मृताः। तथा पृथिव्यामुद्देशाः केचित् पुण्यतमाः स्मृताः॥ (स्कन्द पुराण)[9]

अर्थात जिस प्रकार शरीर के अंग-विशेष मेध्यतम=सर्वाधिक पवित्र, माने गए हैं उसी प्रकार पृथिवी के भी स्थान-विशेष अधिक पवित्र माने गए हैं, जो तीर्थ नाम से जाने जाते हैं। इनकी पवित्रता और पुण्यतमत्व को निरूपित करते हुए आचार्य कहते हैं -

भौमानामपि तीर्थानां पुण्यत्वे कारणं शृणु......प्रभावादद्भुताद्भूमेः सलिलस्य च तेजसः॥ परिग्रहान्मुनीनाञ्च तीर्थानां पुण्यता स्मृता॥ (स्कन्द पुराण)[9]

अर्थात भूमि के अद्भुत प्रभाव, जल के पुण्यतमत्व एवं मुनियों के परिग्रहत्व=त्याग करने के कारण भौम-तीर्थों की पुण्यता कही गयी है।[8]

तीर्थ माहात्म्य॥ Tirtha Mahatmya

तीर्थों में जाने एवं वहाँ दान आदि करने का अत्यधिक माहात्म्य शास्त्रों में वर्णित है जिसका प्रमाण अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। किन्तु यहाँ तीर्थ-माहात्म्य के संकेत के लिए संक्षेप में उनका निरूपण किया जा रहा है -

अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैरिष्टाविपुलदक्षिणैः। न तत् फलमवाप्नोति तीर्थाभिगमनेन यत्॥ तीर्थान्यनुस्मरन् धीरः श्रद्दधानः समाहितः। कृतपापो विशुद्ध्येत किं पुनः शुद्धकर्मकृत्॥ तिर्यग्योनिं न वै गच्छेत् कुदेशे न च जायते॥ (शब्दकल्पद्रुम)[10]

अर्थात अग्निष्टोम आदि यज्ञों के अनुष्ठान के द्वारा इष्टापूर्त कर्मों (वापी-कूप आदि के खनन, बाग-बगीचा आदि के निर्माण) के द्वारा एवं अत्यधिक दक्षिणा देने के द्वारा भी जिस फल की प्राप्ति नहीं होती है उसकी प्राप्ति तीर्थों में जाने से हो जाती है। तीर्थों के बारम्बार अनुस्मरण मात्र से ही धैर्यशाली, श्रद्धावान् एवं मन को स्थिर रखने वाला मनुष्य, जिसने कोई पाप किया हो, वह भी शुद्ध हो जाता है तो जिसने कोई पाप न किया हो उसकी तो बात ही क्या अर्थात निश्चय ही ऐसा उत्तम फल प्राप्त करने वाला होता है। तीर्थ में जाने वाला मनुष्य मृत्यु के पश्चात अगले जन्म में निश्चित ही न तो पक्षी-योनि में जाता है और न ही किसी म्लेच्छ देश में जन्म लेता है। राष्ट्र की एकता, अखण्डता, पारस्परिक सद्भाव, सुख-शांति और भावनात्मक एकता के लिए किये जाने वाले उपायों में भारत राष्ट्र के ऋषियों और मनीषियों ने जो प्रयत्न किये हैं उनमें तीर्थों की स्थापना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। भारतीय कन्या पत्नी बनना तब स्वीकार करती है जब विवाह मण्डप में स्थापित देवी-देवताओं एवं वरिष्ठ सदस्यों आदि के समक्ष अग्नि को साक्षी मानकर होने वाले पति से यह प्रतिज्ञा कराती है कि उसे वह अपने साथ तीर्थों में लेकर जायेंगे, तभी वह वामांगी बनेगी। वैसे तो विवाह पद्धति में कन्या के सात वचन हैं जिनमें राष्ट्रभावना, पर्यावरण और सद्भाव आदि का निरूपण है, उसमें प्रथम वचन इस प्रकार है - [11]

तीर्थव्रतोद्यापनयज्ञदानं मया सह त्वं यदि कान्त! कुर्याः। वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद वाक्यं प्रथमं कुमारी॥ (विवाह पद्धति)

गृहस्थ होने के पूर्व ऐसी प्रतिज्ञा का विधान भारतराष्ट्र की तीर्थ-व्रत की आस्था को आरेखित करता है।

तीर्थ यात्रा की वैज्ञानिकता॥ scientificity of Tirtha Yatra

तीर्थयात्रा लोगों को पवित्र स्थानों की यात्रा करने का अवसर प्रदान करती है। स्वास्थ्य लाभ के दृष्टिकोण से तीर्थयात्रा में पैदल चलने का विशेष महत्व बताया गया है। पैदल चलना शरीर को सुगठित करने और नाडी समूह तथा मांसपेशियों को बलवान बनाने के लिये आवश्यक उपाय है। आयुर्वेद शास्त्रों में प्रमेह चिकित्सा के लिए सौ योजन अर्थात चार सौ कोस पैदल चलने का आदेश दिया है। इस प्रकार से पैदल तीर्थ यात्रा करने से स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है एवं इसके अतिरिक्त देशाटन से ज्ञानवृद्धि होती है वह भी अत्यधिक उपयोगी है।[12] धार्मिक श्रेष्ठ सत्कर्मों में तीर्थ यात्रा को अग्रणी माना गया है एवं उसके दो प्रतिफल माने गये हैं -

  1. पाप नाश - पाप नाश का अर्थ है दुष्कर्मों का प्रायश्चित्त।
  2. पुण्य फल की प्राप्ति - अन्तःकरण शुद्धि एवं आचरण की पवित्रता।

धर्मशास्त्रों में इसी कारण तीर्थ यात्रा के इन दोनों ही माहात्म्यों के प्रतिफलों का स्थान-स्थान पर वर्णन किया है। जैसा कि -

अनुपातकिनस्त्वेते महापातकिनो यथा। अश्वमेधेन शुद्धयन्ति तीर्थानुसरेण च॥ (विष्णु स्मृति)[13]

भाषार्थ - पापी, महापापी सभी अश्वमेध से तथा तीर्थ अनुसरण अर्थात तीर्थ यात्रा से शुद्ध हो जाते हैं। तीर्थयात्रा के समय भावनाएँ उच्चस्तरीय होनी चाहिए। उस अवधि में आत्म-निर्माण और लोक कल्याण के लिए क्या करना चाहिए? किस प्रकार करना चाहिए? यह चिन्तन एवं मनन अन्तःकरण में चलता रहना चाहिए।

तीर्थयात्रा और शिक्षा॥ Pilgrimage and Education

तीर्थयात्रा तीर्थ करने वालों के लिए शिक्षा, रचना और सांस्कृतिक चेतना का एक महत्वपूर्ण स्रोत रही है। भारतीय तीर्थों में यात्रा दूर गाँव में रहने वाले असंख्य लोगों का समूचे भारत और उसके विभिन्न रीति रिवाजों, जीवन शैलियों और प्रथाओं को जानने का अवसर प्रदान करती है। एक सर्वे के अनुसार तीर्थयात्रा में शिक्षा की तीन विशेषताएँ मिलती हैं, ये हैं - [14]

  1. पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण
  2. उसका संवर्धन
  3. आगामी पीढी में उसका प्रचार-प्रसार

तीर्थ यात्रा में धर्म और दर्शन के अतिरिक्त संगीत, नृत्य और नाटक की तीन कलाएं भी इसमें शामिल थीं। यह भारतीय समाज के अंदर पाए जाने वाले समस्त समुदायों, जातियों और वर्गों को कुछ समय के लिए साथ रहने का अवसर भी प्रदान करती थी।

तीर्थयात्रा और कलाएँ॥ Pilgrimage and the Arts

नृत्य और संगीत, वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला को भी तीर्थयात्रा से बहुत प्रोत्साहन मिलता है और यह इन कलाओं के हस्तांतरण का काम भी करती हैं। भारतीय तीर्थों के अनेक मन्दिर अपनी कलात्मक सुंदरता और अभिकल्पना के लिए प्रशंसनीय हैं और उनसे उदाहरण लेकर और भी वैसे ही भवन बनाये गये हैं। उत्तर भारत की तीर्थ परंपरा में किसी भूमि या क्षेत्र के दैवीकरण के माध्यम से वहाँ तीर्थ बन जाता है।

तीर्थयात्रा और अर्थव्यवस्था॥ Pilgrimage and Economy

तीर्थयात्रा के मार्ग में तीर्थयात्रियों के बीच जो विचारों और सामग्री का आदान-प्रदान होता है उसके माध्यम से भौतिक संस्कृति के प्रसार में तीर्थयात्रा की विशेष भूमि की भूमिका होती है। तीर्थस्थल में तीर्थयात्रियों की लगातार आवाजाही से उस क्षेत्र में व्यापार की गतिविधियों में तेजी आती है। तीर्थयात्रियों की छोटी-बडी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विभिन्न प्रकार की बाजारी व्यवस्थाएं बन जाती हैं। जैसे -

  • अस्थाई निवास
  • भोज्य सामग्री
  • पूजन सामग्री आदि

तीर्थस्थल एक बृहत क्रय-विक्रय (व्यापार) केन्द्र के रूप में विकसित हो रहे हैं। द्वारिका पेन्टिंग में विशिष्टता रखता है। इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर से अखरोट आदि ड्राई फ्रूट्स की खरीदारी एवं इसके अतिरिक्त तीर्थस्थलों में उपभोक्ता वस्तुओं में वृद्धि जैसे - चूडियाँ, स्थानीय हस्तकला (लकडी, जूट, पत्थर पर नक्काशी, देवी देवताओं की मूर्ति) एवं सजावट की वस्तुएँ इत्यादि। तीर्थ से जुडी आवश्यकताओं के अलावा कई प्रकार के मनोरंजन भी सहायक व्यवसाय के रूप में नजर आने लगते हैं।

सारांश॥ Summary

भारत में तीर्थ स्थलों की एक बहुत प्राचीन परम्परा है। प्राचीन काल से ही भारतीय शान्ति की खोज में तीर्थयात्रा करते आये हैं। परम्परा अनुसार चार धामों की यात्र पर जाते थे जोकि भारत के चारों कोनों में स्थापित हैं - उत्तर में बद्रीनाथ (पहाडों पर), पूर्व में पुरी (समुद्र के किनारे), पश्चिम में द्वारिका (समुद्री किनारा) एवं दक्षिण में रामेश्वरम (समुद्र तट)। भारत में स्थित कुछ तीर्थस्थलों की सूची इस प्रकार है -

  • उत्तरी क्षेत्र - अमरनाथ, बद्रीनाथ, केदारनाथ, वैष्णोदेवी, रुद्र प्रयाग, हरिद्वार, काशी, बनारस, प्रयाग, नगरकोट, कुरुक्षेत्र, अमृतसर, अयोध्या, हेमकुण्ड, विन्ध्यवासिनी, चित्रकूट इत्यादि।
  • पूर्वी क्षेत्र - कामाख्या देवी, जगन्नाथ मन्दिर, सूर्य मन्दिर (कोणार्क), बेलूर मठ, दक्षिणेश्वर, कालीघाट मंदिर (कलकत्ता) इत्यादि।
  • पश्चिमी क्षेत्र - सोमनाथ, द्वारिका, जूनागढ (जैन मन्दिर), राजस्थान पुष्कर, उज्जैन महाकाल इत्यादि।
  • दक्षिणी क्षेत्र - मदुरई, रामेश्वरम, तिरुपति, पुडुचेरी (अरविंद आश्रम), कन्याकुमारी, मीनाक्षी मन्दिर इत्यादि।

तीर्थायात्रा मुख्यतः नदियों के किनारों एवं संगम के साथ-साथ थी। तीर्थ, मन व विचारों की पवित्रता से जुडा था एवं पापों के प्रायश्चित एवं निर्वाण के लिये किया जाता था। धर्मशास्त्र के अनुसार प्रायश्चित्त के अनुष्ठान की अनेक प्रयोग विधियाँ हैं, जैसे उपवास, दोषख्यापन, प्राणायाम, जप, तप, होम एवं तीर्थयात्रा आदि। तीर्थगमन को प्रायश्चित्त का मुख्य अंग माना गया है। स्कन्दपुराणमें कहा गया है -

यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम्। निर्विकाराः क्रियाः सर्वाः स तीर्थफलमश्नुते॥ (माहे० कुमार० २/६)

अर्थात जिसके हाथ, पैर और मन अच्छी तरह से वशमें हों तथा जिसकी सभी क्रियाएँ निर्विकारभावसे सम्पन्न होती हों, वही तीर्थका पूर्ण फल प्राप्त करता है। श्री रामजी वनगमन के समय जहां-जहां वास किये वो सभी तीर्थ कहलाये, उनकी यात्रा के अन्तर्गत आने वाले तीर्थों की संख्या १०८ है -

वनवासगतो रामो यत्र यत्र व्यवस्थितः। तानि चोक्तानि तीर्थानि शतमष्टोत्तरण क्षितौ॥ (बृहद्धर्म० पूर्व० १४)

लंका से लौटते समय श्रीराम ने सीता जी को दिखाते हुए अपने पूर्व निवास स्थलों को एक-एककर गिनाया है। महाभारत-वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वके ८२ से ९५ तकके अध्यायोंमें महर्षि पुलस्त्यने भीष्मसे, देवर्षि नारदने युधिष्ठिरसे तथा पद्मपुराण-आदिखण्ड (स्वर्गखण्ड) के १० से २८ तकके अध्यायोंमें महर्षि वसिष्ठने दिलीपसे एवं अन्यत्र भी वामन आदि पुराणोंमें कई स्थलोंपर तीर्थयात्रा करने का एक क्रम बतलाया है।

उद्धरण॥ References

  1. डॉ० राजाराम हजारी, प्राचीन भारत में तीर्थ, अध्याय ०१, सन् २००३, शारदा पब्लिशिंग् हाऊस, दिल्ली (पृ० ३)।
  2. अखण्ड ज्योति, दिसम्बर सन् १९४८ (पृ० १४)।
  3. स्कन्दपुराण, वैष्णव खण्ड - अध्याय 10, श्लोक-49।
  4. कल्याण पत्रिका-तीर्थांक, सन् १९५७, गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० २२)।
  5. शब्दकल्पद्रुम
  6. डॉ० राजाराम हजारी, प्राचीन भारत में तीर्थ, भूमिका, सन् २००३, शारदा पब्लिशिंग् हाऊस, दिल्ली (पृ० १)।
  7. स्कन्दपुराण, काशी खण्ड, अध्याय- 06, श्लोक- 30-41।
  8. 8.0 8.1 8.2 श्याम देव मिश्र, व्रत, पर्व, उत्सव एवं तीर्थ माहात्म्य, सन् २०२४, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० ३५६)।
  9. 9.0 9.1 स्कन्द पुराण, काशी खण्ड, अध्याय-06, श्लोक 43-44।
  10. शब्दकल्पद्रुम
  11. प्रो० रहस बिहारी द्विवेदी, तीर्थभारतम् - भूमिका, सन् २००९, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली (पृ० २)।
  12. अखण्ड ज्योति, तीर्थ यात्रा क्यों और कैसे?, सन १९७७, गायत्री परिवार-हरिद्वार (पृ० १५)।
  13. विष्णु स्मृति, अध्याय-36, श्लोक-07।
  14. एस० के० भट्टाचार्या, प्रार्थनाः तीर्थ यात्रा और पर्व, सन 2021, इंदिरा गाँधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (पृ० १३८)।