Panchatantra (पंचतंत्र)
कथा साहित्य का सर्वप्रथम उदय भारतवर्ष में ही हुआ है। विश्व-साहित्य के लिए भारतीय साहित्य की लोकप्रिय कथा की देन नीति कथा की दृष्टि से विशेष महत्व रखती है। षष्ठ शताब्दी में प्राप्त कथाओं की लोकप्रियता के लिए लोकप्रिय पंचतंत्र अपना एक विशिष्ट स्थान धारण करता है।
परिचय
पंचतंत्र में संग्रहीत कथायें अत्यंत प्राचीन हैं। पंचतंत्र के भिन्न-भिन्न शताब्दियों में भिन्न-भिन्न प्रांतों में अनेक संस्करण संपादित हुए, जिनमें चार संस्करण उपलब्ध हैं –
- पंचतंत्र का पहलवी अनुवाद
- गुणाढ्य की बृहत्कथा में अंतरनिर्दिष्ट
- तंत्राख्यायिका
- दक्षिणी पंचतंत्र मूलरूप
इस प्रकार पंचतंत्र एक सामान्य ग्रंथ न होकर एक विपुल साहित्य का प्रतिनिधि ग्रंथ है। पंचतंत्र में मित्रभेद, मित्रलाभ, संधि-विग्रह, लब्धप्रणाश तथा अपरीक्षितकारक नामक पांचतंत्र हैं। प्रत्येक तंत्र में एक ही कथा को पुष्ट करने के लिए अनेक गौण कथायें वर्णित की गई हैं। प्रारंभ से ही ग्रंथ में ग्रंथकार का मुख्य उद्देश्य सदाचार और नीति का शिक्षण प्रदान करना रहा है। ग्रंथानुसार दक्षिण के महिलारोप्य नामक नगर में अमरकीर्ति नामक राजा, जिनके तीन पुत्रों को विद्वान् तथा नीति-सम्पन्न बनाने के लिए योग्य शिक्षक की आवश्यकता थी, उन्होंने लोक एवं शास्त्र में पारंगत विष्णु शर्मा नामक योग्य गुरु से प्रार्थना की, जिन्होंने मात्र छः माह में ही राजपुत्रों को व्यवहारकुशल, सदाचार सम्पन्न तथा नीतिनिपुण बना दिया।
पंचतंत्र का महत्व
पंचतंत्र की भाषा सीधी-सादी, मुहावरेदार तथा विनोदप्रियता से परिपूर्ण है। विन्यास में दुरूहता कहीं भी दृष्टिगत नहीं होती है और न भावों के अनुभव करने में दुर्बोधता के दर्शन। कथानक गद्य में उपनिबद्ध किया गया है तथा उपदेशात्मक सूक्तियां पद्य में पिरोयी गई हैं तथा प्रायः अधिकांश पद्य रामायण, महाभारत तथा अन्य विभिन्न नीति-ग्रंथो से संग्रहीत किये गये हैं। विश्वव्यापी प्रभाव से समन्वित पंचतंत्र मात्र भारतीय साहित्य का ही अङ्ग न होकर आज विश्व-साहित्य का एक लोकप्रिय सुप्रसिद्ध महानीय अंग है। पंचतंत्र के पांचों तंत्रों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –[1]
- प्रथम तंत्रम (मित्रभेदः)
- द्वितीय तंत्रम् (मित्र संप्राप्तिः)
- तृतीय तंत्रम् (काकोलूकीयम्)
- चतुर्थ तंत्रम् (लब्धप्रणाशम्)
- पंचम तंत्रम् (अपरीक्षित कारकम्)
पंचतंत्र का वैशिष्ट्य
पंचतंत्र जिन कथाओं का संग्रह है वे भारत में नितांत प्राचीन हैं। पंचतंत्र के भिन्न-भिन्न शताब्दियों में तथा भिन्न भिन्न प्रांतों में अनेक संस्करण हुए। कुछ तो आज भी उपलब्ध हैं। इनमें सबसे प्राचीन संस्करण तंत्राख्यायिका के नाम से विख्यात है जिसका मूल स्थान काश्मीर है।[2]
पंचतंत्र में पांच तंत्र हैं (तंत्र का अर्थ है भाग) – मित्रभेद, मित्रलाभ, संधिविग्रह, लब्धप्रणाश तथा अपरीक्षित कारक। इसमें पांच मुख्य कथाएं हैं प्रत्येक कथा में अनेक उपकथाएं हैं। इनका संयोजन इस प्रकार है - [3]
क्र०सं० | तंत्रनाम | मुख्यकथा | उपकथाएं | श्लोक संख्या |
1. | मित्रभेद | सिंह और बैल की मित्रता तुड़वाने की कथा | 23 | 461 |
2. | मित्रसंप्राप्ति | काक, कूर्म, मृग और चूहे की मित्रता की कथा | 7 | 196 |
3. | काकोलुकीय | कौए और उल्लू की कथा | 17 | 256 |
4. | लब्धप्रणाश | वानर और मगर की कथा | 11 | 80 |
5. | अपरीक्षितकारकम् | ब्राह्मणी और नेवले की कथा | 14 | 98 |
कथासार
पंचतंत्र के पाँच तंत्र प्राप्त होते हैं। तंत्र शब्द इस ग्रंथ के पांच भागों में विभाजित होने के द्योतक हैं। इसमें नीतियुक्त शासन विधि के पांच विधि (गुण) बताए गए हैं। ग्रंथ के आरंभ में मंगलाचरण के उपरांत मनु, वाचस्पति, शुक्र, पाराशर, व्यास, चाणक्य की स्तुति की गई है।[4]
पञ्चतंत्र के लेखक के विषय में भी विद्वान मतैक्य नहीं हैं। पंचतंत्र के लेखक विष्णु शर्मा हैं। पञ्चतंत्र के कथामुख में लेखक ने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है, कि – [5]
सकलार्थशास्त्रसारं जगति समालोक्य विष्णुशर्मेदम्। तंत्रैः पञ्चभिरेतच्चकार सुमनोहरं शास्त्रम्॥ (पंचतंत्र कथामुख-3)
अर्थात मै विष्णु शर्मा, संसार में उपलब्ध सभी अर्थशास्त्रों (नीतिशास्त्रों) के तत्वों को भली प्रकार समीक्षा करके पांच तंत्रों से युक्त इस मनोहारी (लोकव्यवहारोपकारी) शास्त्र की रचना कर रहा हूं।
पंचतंत्र का संक्षिप्त कथासार
प्रथम तंत्र की अंगी कथा के पूर्व राजा अमरशक्ति के पुत्रों का आख्यान है। वह उन्हें विष्णुशर्मा को उनकी प्रतिज्ञा पर सौंप देते हैं कि वह उन्हें छः माह में राजनीति का ज्ञान करा देंगे। तदनंतर –
अधीते य इदं नित्यं नीतिशास्त्रं शृणोति च। न पराभवमाप्नोति शक्रादपि कदाचन॥(पंचतंत्र, मित्रभेद, 1/1)
जो इस नीतिशास्त्र का नित्य अध्ययन करता है अथवा श्रवण करता है वह देवराज इन्द्र से भी कभी पराजित नहीं हो सकता है। इस वाक्य के द्वारा कथामुख समाप्त होता है तत्पश्चात मित्रभेद नामक तंत्र प्रारंभ होता है जो अतिसंक्षेप में प्रस्तुत है।
मित्रभेद - मित्रभेद नामक इस तंत्र के आद्य श्लोक में ही कथा की जिज्ञासा होती है –
वर्धमानो महान्स्नेहः सिंहगोवृषयोर्वने। पिशुनेनातिलुब्धेन जंबुकेन विनाशितः॥
वन में एक सिंह और एक बैल के बीच अत्यंत गहरी मित्रता थी जिसे अत्यंत लालची और चुगलखोर गीदड़ ने नष्ट कर दिया।
मित्रभेद में एक मुख्य कथा तथा इस कथा के अंतर्गत 23 उपकथाएं हैं जो इस प्रकार हैं – [6]
- मूर्खवानर कथा
- शृगाल दुंदुभि कथा
- नृपति-दंतिल गोरम्भकथा
- दूतीजंबूकाषाढभूति कथा
- विष्णुरूपधारी कौलिक जुलाहे की कथा
- काकी कृष्णसर्प कथा
- बक कर्कटक कथा
- सिंह-शशक कथा
- मंदविसर्पिणी मत्कुण-कथा
- चंडरवशृगाल कथा
- उष्ट्र-काक-सिंह-द्वीपि शृगाल कथा
- समुद्र और टिट्टिभ कथा
- हंसद्वय और कछुए की कथा
- मत्स्यत्रय की कथा
- चटक-कुंजर कथा
- सिंह-शृगाल कथा
- सूचीमुख एवं वानरयुथ कथा
- चटक दंपती एवं वानर कथा
- धर्मबुद्धि पाप बुद्धि कथा
- बक नकुल कथा
- लोहतुला वणिक पुत्र या जीर्णधन वणिक पुत्र की कथा
- नृपसेवक वानर कथा
- चैरब्राह्मण कथा।
मित्रसंप्राप्ति
ग्रंथकार कहते हैं – इस लोक में जो मनुष्य अप्रिय लगने वाले (परंतु) हितकर वचन कहते हैं वे ही सच्चे मित्र कहे जाते हैं, और लोग तो नाममात्र के मित्र होते हैं –
अप्रियाण्यपि पथ्यानि ये वदंति नृणामिह। त एव सुहृदः प्रोक्ता अन्ये स्युर्नामधारकाः॥ (पंचतंत्र, मित्रसंप्राप्ति, श्लोक- 167)
उपर्युक्त उक्तियों से प्रतीत होता है कि मित्र संप्राप्ति अर्थात ‘मित्रस्य संप्राप्तिः’ सच्चे मित्र की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। उसके लिए जो भी विधि अपनानी पड़े। अपनाना चाहिए। मित्रसंप्राप्ति में सात कथा हैं जो इस प्रकार हैं –
- लुब्धक-चित्रग्रीव-हिरण्यक-कथा
- हिरण्यक-ताम्रचूड़-बृहत्स्फिक्-कथा
- तिलचूर्णविक्रय-कथा
- शबरशूकर कथा
- वणिक्पुत्र-कथा
- मंदभाग्यसोमिलक-कथा
- वृषभानुशृगाल-कथा।
काकोलूकीय
इस तंत्र में एक मुख्य कथा तथा 17 उपकथाएं हैं। इसमें विग्रह (युद्ध) तथा संधि का वर्णन है। मुख्य कथा के अंतर्गत कौवों के राजा मेघवर्ण एवं उल्लुओं के राजा अरिमर्दन की कथा है।
काकोलूकीयम् में एक मुख्य कथा तथा उसके अंतर्गत 17 उपकथाएं हैं। सत्रहों उपकथा इस प्रकार हैं –
- काकोलूकवैर-कथा
- शशक-गजयूथप-कथा
- शशक-कपिञ्जल-कथा
- धूर्त ब्राह्मण-छग-कथा
- पिपीलिका भुजंगम-कथा
- ब्राह्मण सर्प-कथा
- स्वर्ण हंस-कथा
- कपोत-लुब्धक-कथा
- चौरवृद्धवणिक्-कथा
- ब्राह्मणचौरपिशाच-कथा
- बल्मीकोदरस्थसर्प-कथा
- रथकारभार्या कथा
- मूषिकाविवाह-कथा
- सुवर्णपुरीष पक्षी-कथा
- बिलवाणी-कथासर्प-मंडूक-कथा
- घृतान्धब्राह्मण-कथा
लब्धप्रणाश
काकोलूकीय के बाद चतुर्थ तंत्र लब्धप्रणाश अर्थात “प्राप्त के नाश”। इसमें यह बतलाया गया है कि प्राप्त हुई वस्तु को सम्यक् प्रकार न रखने से वह कैसे विनाश से वह कैसे विनाश को प्राप्त होता है। इसमें वानर एवं मकर ध्वज की मुख्य कथा है। दोनों की कथा इस प्रकार है –
समुत्पन्नेषु कार्येषु बुद्धिर्यस्य न हीयते। स एव दुर्ग तरति जलस्थो वानरो यथा॥ (पंचतंत्र, लब्धप्रणाश, श्लोक-1)[7]
इस तंत्र में वानर-मकरध्वज की मुख्य कथा है तथा इसके अंतर्गत ग्यारह (11) उपकथाएं हैं, जो इस प्रकार है –
- मंडूकराज गंगदत्त की कथा
- सिंह-लंबकर्ण-कथा
- युधिष्ठिर कुम्भकार-कथा
- सिंह दंपति शृगालपुत्र-कथा
- ब्राह्मणदंपति कथा
- नन्द-वररुचि-कथा
- व्याघ्रचर्म गर्दभ कथा
- नग्निका-हालिकवधू-कथा
- घण्टोष्ट्र-कथा
- चतुरक-शृगाल कथा
- चित्रांगसारमेय-कथा
अपरीक्षितकारक
पंचतंत्र का पांचवा तंत्र अपरीक्षिकारक है। जिसमें मुख्यतया विचारपूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर ग्रंथकार ने बल दिया है। इसके नामकरण के कारण का स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि बिना भली-भांति विचार किए एवं बिना अच्छी तरह से देखे-सुने गये किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती, बल्कि जीवन के अनेक कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ता है। अतः अंधानुकरण करने का फल समुचित नहीं होता है।
अपरीक्षितकारक में कुल 15 कथाएं हैं, जिनका शीर्षक एवं संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –
- क्षपणक-कथा
- ब्राह्मणी नकुल-कथा
- लोभाविष्ट-चक्रधर कथा
- सिंह कारक मूर्खब्राह्मण-कथा
- मूर्खपंडित-कथा
- मत्स्य-मंडूक-कथा
- रासभ-शृगाल-कथा
- मंथर-कौलिक-कथा
- सोमशर्मा-पितृ-कथा
- चंद्रभूति-कथा
- विकाल-वानर-कथा
- अंधक-कुब्जक-त्रिस्तनी-कथा
- राक्षस गृहीत-ब्राह्मण-कथा
- भारुण्डपक्षि-कथा
- ब्राह्मण-कर्कटक-कथा
पंचतंत्र में सामाजिक व्यवस्था
पंचतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था
पंचतंत्र में निहित सांस्कृतिक तत्व
पञ्चतंत्रकार-आचार्य विष्णुशर्मा
सारांश
उद्धरण
[1] https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/327791
[2] https://ia801405.us.archive.org/21/itemsin.ernet.dli.2015.327677/2015.327677.Sanskrit-Sahitya.pdf
[3] https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/447119/5/05_chapter1.pdf
[4] https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/90483/1/Block-3.pdf
[5] https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/431831
[6] https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/5/05_chapter1.pdf
[7] https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/5/05_chapter1.pdf
https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/447119