Tithi (तिथि)
तिथि भारतीय पंचांग का सबसे मुख्य अंग है। तिथि के नाम से सर्वप्रथम ध्यान तारीख की ओर जाता है किन्तु भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चन्द्रमा अपने विमण्डलमें स्वगति से चलता हुआ जिस समय सूर्य के सन्निकट पहुँच जाता है तब वह अमावस्या तिथि होती है। अमावस्या के दिन सूर्य एवं चन्द्र दोनों एक राशि पर आ जाते हैं। उसके बाद सूर्य एवं चन्द्रमा दोनों अपने-अपने मार्ग पर घूमते हुये जो दूरी(१२ अंश की) उत्पन्न करते हैं उसी को तिथि कहा गया है। यह भारतीय चान्द्रमास का एक दिन होता है। तिथि के आधार पर ही सभी दिन, त्यौहार, जन्मदिन, जयन्ती और पुण्यतिथि आदि का निर्धारण होता है। तिथिका हमारे मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पडता है। इससे हमारे जन्म, मृत्यु आदि कई विशेष कार्य जुडे होते हैं।
परिचय॥ Parichaya
चन्द्रमा की एक कलाको तिथि कहते हैं। चन्द्र कलारूप क्रिया उपलक्षित कालको तिथि के रूप में व्यवहृत किया जाता है। तिथियाँ १ से ३० तक एक मास में ३० होती हैं। ये पक्षों में विभाजित हैं। प्रत्येक पक्ष में १५-१५ तिथियाँ होती हैं। प्रत्येक तिथि का एक नाम है। तिथि जलतत्व है और यह हमारे मस्तिष्क-मन की स्थिति को दर्शाती है।जन्मकुण्डली में तिथि अतिआवश्यक हिस्सा है। जन्म के दिन पडने वाली तिथि को जन्मतिथि कहते हैं।
- पंचांग के अवयवों पर विचार करते समय तिथि को शरीर माना गया है।
- शरीर(तिथि) शुद्ध और बलवान होने पर ही प्रबलता की कामना की जाती है।
- तिथिमें दोष उत्पन्न होने पर चन्द्रबल, लग्नबल और ग्रहबल फल नहीं देते हैं।
तिथि ज्ञान
प्रतिपच्च द्वितीया च तृतीया तदनन्तरम् । चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी चाष्टमी तथा॥
नवमी दशमी चैकादशी च द्वादशी ततः। त्रयोदशी ततो ज्ञेया ततः कथिता चतुर्दशी॥
पञ्चदशी तिथिः शुक्ले पूर्णिमेति निगद्यते। कृष्णे पञ्चदशी या च सा त्वमा परिकीर्त्यते॥
अर्थ- प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और पञ्चदशी; शुक्ल पक्ष की पञ्चदशी को पूर्णिमा और कृष्णपक्ष की पञ्चदशी अमावस्या कहलाती है।
तिथियों के स्वामी
परिभाषा॥ Paribhasha
तिथि क्या है? इस पर विचार करते हुये आचार्यों ने तिथि की परिभाषा इस प्रकार की है-
तनोति विस्तारयति वर्द्धमानां क्षीयमाणांवा चन्द्रकलामेकां यः कालविशेषः सा तिथिः।[1]
अर्थ- चन्द्रमा के एक-एक कला वृद्धि एवं क्षय के अवच्छिन्न काल को तिथि कहा जाता है। वस्तुतः सूर्य एवं चन्द्रमा के द्वादश अंशात्मक गत्यन्तर को तिथि कहते हैं।
तिथि भेद
भारतवर्ष में दो प्रकार की तिथियाँ प्रचलित हैं। सौर तिथि एवं चान्द्र तिथि। सूर्य की गति के अनुसार मान्य तिथि को सौर तिथि तथा चन्द्रगति के अनुसार मान्य तिथि को चान्द्र तिथि कहते हैं।
सौर तिथि- सौर तिथि में सूर्य का राशि भ्रमण मुख्य हेतु है। सौर तिथि दो प्रकार से मानी जाती है। एक प्रकार यह है कि जिस-जिस दिन सूर्य की संक्रांति लगती है उस दिन को प्रथम तिथि माना जाये। दूसरा प्रकार यह है कि संक्रान्ति के दूसरे दिन से प्रथम तिथि माना जाय। बंगाल एवं पञ्जाब में इन तिथियों का प्रयोग विशेष रूप से होता है। अन्यत्र भी सौर तिथि के नाम से इनका प्रचलन है। किन्तु, भारत में प्रचलित व्रतों एवं उत्सवादि में इन तिथियों का प्रयोग प्रायः कम ही होता है।
चान्द्र तिथि- भारतीय धार्मिक कार्यों में विशेषरूप से चान्द्र तिथियों का ही प्रयोग होता है। इन तिथियों का नाम एवं तिथि स्वामी इस प्रकार हैं-
क्र०सं० | सूर्य और चन्द्र के मध्य अंतर | शुक्ल पक्ष | तिथियों का नाम | सूर्य और चन्द्र के मध्य अंतर | कृष्ण पक्ष | तिथियों पर्यायवाची शब्द | तिथि संज्ञा | तिथि स्वामी |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|
1. | 0०-12० | प्रतिपदा | 180०-192० | पक्षति, आद्यतिथि, भू और चन्द्रके सभी पर्यायवाचक शब्द(भूमि, भू, कु, शशी, इन्दु आदि) | नंदा | अग्नि | ||
2. | 12०-24० | द्वितीया | 192०-204० | युग्म, द्वि, यम और नेत्रके सभी पर्याय (नेत्र, अक्षि, अन्तक) अश्वि आदि। | भद्रा | विधि | ||
3. | 24०- 36० | तृतीया | 204०-216० | अग्नि, वह्नि, हुताशन, अनल, शिवस्वेद। | जया | गौरी | ||
4. | 36०-48० | चतुर्थी | 216०- 228० | युग, वेद, अब्धि, उदधि। | रिक्ता | गणेश | ||
5. | 48०-60० | पञ्चमी | 228०- 240० | बाण, शर, नाग, इषु। | पूर्णा | अहि(सर्प) | ||
6. | 60०-72० | षष्ठी | 240०- 252० | स्कन्द, रस, अंग। | नंदा | गुह(स्कन्द स्वामी) | ||
7. | 72०-84० | सप्तमी | 252०- 264० | अश्व, हय, शैल, वायु, अर्क, अद्रि। | भद्रा | रवि | ||
8. | 84०-96० | अष्टमी | 264०- 276० | वसु, गज, नाग, उरग। | जया | शिव | ||
9. | 96०-108० | नवमी | 276०- 288० | अंक, गो, ग्रह, नन्द, दुर्गा। | रिक्ता | दुर्गा | ||
10. | 108०-120० | दशमी | 288०-300० | दिक् , आशा, काष्ठा। | पूर्णा | अन्तक(यम) | ||
11. | 120०-132० | एकादशी | 300०-312० | शिव, रुद्र, ईश। | नंदा | विश्वेदेव | ||
12. | 132०-144० | द्वादशी | 312०- 324० | अर्क, रवि, सूर्य, हरि। | भद्रा | हरि | ||
13. | 144०-156० | त्रयोदशी | 324०- 336० | विश्वे, काम, मदन | जया | कामदेव | ||
14. | 156०-168० | चतुर्दशी | 336०- 348० | यम, इन्द्र, मनु, शक्र। | रिक्ता | शिव | ||
15. | 168०-180० | अमावस्या(कृष्णपक्ष की पञ्चदशी) | 348०- 360० | अमा, दर्श, कुहू। | पूर्णा | पितृ देवता | ||
16. | पूर्णिमा(शुक्लपक्ष की पञ्चदशी) | तिथि, पंचदशी, राका। | शशि( चन्द्रमा) |
नन्दादि संज्ञाऐँ
ज्योतिषशास्त्रमें समग्र तिथियों की क्रमशः नन्दा आदि पाँच भागों में विभाजित किया गया हैं-
नन्दा च भद्रा जया च रिक्ता पूर्णेति तिथ्यो अशुभमध्यशस्ताः। सिते असिते शस्तसमाधमाः स्युः सितज्ञभौमार्किगुरौ च सिद्धाः॥(मु०चि०)[2]
- नन्दा तिथि- प्रतिपदा, षष्ठी, और एकादशी।
- भद्रा तिथि- द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी।
- जया तिथि- तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी।
- रिक्ता तिथि- चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी।
- पूर्णा तिथि- पञ्चमी, दशमी, पूर्णिमा और अमावस्या।
चन्द्रमा के पूर्ण और क्षीण होने से तिथियों में बलत्व और निर्बलत्व होता है। अतः शुक्लपक्ष में प्रतिपद् से पंचमी तक चन्द्रमा के क्षीण होने के कारण प्रथमावृत्ति की नन्दादि तिथियाँ अशुभ, षष्ठी से दशमी तक चन्द्रमा के मध्य(न पूर्ण, न क्षीण) होने से द्वितीयावृत्ति की नन्दादि(६,७।८।९।१०) तिथियाँ मध्य और इसी भाँति तृतीयावृत्ति की नन्दादि(११।१२।१३।१४।१५/३०) तिथियाँ चन्द्रमा के पूर्ण होने के कारणशुभ कही गईं हैं। एवं कृष्णपक्षमें १-५ तिथियाँ शुभ, ६-१० तक तिथियाँ मध्य, ११-१५/३० तक की तिथियाँ चन्द्रमा के क्षीण होने के कारण अशुभ मानी गईं हैं।[2] स्पष्टज्ञानार्थ सारिणी-
तिथि संज्ञा | तिथियाँ | ||
---|---|---|---|
प्रथमावृत्ति | द्वितीयावृत्ति | तृतीयावृत्ति | |
नन्दा | १ | ६ | ११ |
भद्रा | २ | ७ | १२ |
जया | ३ | ८ | १३ |
रिक्ता | ४ | ९ | १४ |
पूर्णा | ५ | १० | १५,३० |
शुक्लपक्ष में | अशुभ | मध्य | शुभ |
कृष्णपक्ष में | शुभ | मध्य | अशुभ |
अमावस्या एवं पूर्णिमा निर्णय
सूर्य एवं चन्द्रमा जिस दिन एक बिन्दु पर आ जाते हैं उस तिथि को अमावस्या कहते हैं। उस दिन सूर्य और चन्द्रमाका गति अन्तर शून्य अक्षांश होता है। एवं इसी प्रकार सूर्य एवं चन्द्रमा परस्पर आमने-सामने अर्थात् ६राशि या १८० अंशके अन्तरपर होते हैं, उस तिथि को पूर्णिमा या पूर्णमासी कहते हैं।
अमावस्या तिथि दो प्रकार की होती है-[3]
- सिनीवाली अमावस्या- जो चतुर्दशी तिथिमिश्रित अमावस्या हो वह सिनीवाली संज्ञक कहलाती है।
- कुहू अमावस्या- जो प्रतिपदा तिथि मिश्रित अमावस्या हो वह कुहू संज्ञक कहलाती है।
पूर्णिमा तिथि के दो प्रकार हैं-
- अनुमति पूर्णिमा- जो चतुर्दशी तिथिमिश्रित पूर्णिमा हो वह अनुमति संज्ञक कहलाती है।
- राका पूर्णिमा- जो प्रतिपदा तिथि मिश्रित पूर्णिमा हो वह राका संज्ञक कहलाती है।
शास्त्रों में अमावस्या तिथि की दर्श एवं पूर्णिमा तिथि की पर्व संज्ञा विहित है।
तिथि विहित कार्य
देवालय निर्माण और देवप्रतिष्ठा आदि माङ्गलिक कार्यों हेतु जो तिथि, नक्षत्र, मुहूर्त आदि का विधान किया गया है वह तद्तद् तिथि अधिष्ठातृ स्वामियों के कालमें भी किया जा सकता है। जैसाकि वाराहसंहिता में कहा गया है-
यत्कार्यं नक्षत्रे तद्दैवत्यासु तिथिषु तत्कार्यम् । करणमुहूर्तेष्वपि तत्सिद्धिकरं देवतानां च ॥
अग्निपुराण में भी तिथि विहित कार्यों का विचार किया गया है-
प्रतिपद्यग्निपूजा स्याद् द्वितीयाया च वेधसः।षष्ठ्यां पूजा गुहस्य च। चतुर्थ्यां गणनाथस्य गौर्यास्तत्पूर्ववासरे। सरस्वत्या नवम्यां च सप्तम्यां भास्करस्य च॥
अष्टम्याश्च चतुर्दश्यामेकादश्यां शिवस्य च। द्वादश्यां च त्रयोदश्यां हरेश्च मदनस्य च ॥
शेषादीनां फणीशानां पञ्चम्यां पूजनं भवेत्। पर्वणीन्दोस्तिथिष्वासु पक्षद्वयगतास्वपि इति॥
प्रत्येक तिथिविहित देवता पूजा विधान के साथ ही श्री महर्षि वसिष्ठ जी तिथि प्रयुक्त कार्यों का उल्लेख करते हैं-[4]
नोद्वाहयात्रोपनयप्रतिष्ठां सीमन्तचौलाखिलवास्तुकर्म। गृहप्रवेशाखिलमङ्गलाद्यं कार्यं हि मासाद्यतिथौ कदाचित्॥१॥
सप्ताङ्गचिह्नानि नृपस्य वास्तुव्रतप्रतिष्ठाखिलमङ्गलानि। यात्राविवाहाखिलभूषणाद्यं कार्यं द्वितीयादिवसे सदैव॥२॥
सङ्गीतविद्याखिलशिल्पकर्मसीमन्तचौलान्नगृहप्रवेशम्। कार्यं द्वितीयादिवसे यदुक्तं सदा तृतीयादिवसेऽपि कार्यम् ॥३॥
रिक्तासु विद्युद्वधबन्धशस्त्रविषाग्निघातादि च याति सिद्धिम्। यन्मङ्गलं तासु कृतं विमूढैर्विनाशमायाति तदाशु नूनम् ॥४॥
शुभानि कार्याणि चरस्थिराणि चोक्तान्यनुक्तान्यपि यानि तानि। सिद्धिं प्रयान्त्याशु ऋणप्रदानं विनाशदं नागतिथौ विधेयम् ॥५॥
अभ्यङ्गयात्रापितृकर्म दन्तकाष्ठं विना पौष्टिकमङ्गलानि। षष्ठ्यां विधेयानि रणोपयोग्यशिल्पानि वास्त्वम्बरभूषणानि॥६॥
द्वितीयायां तृतीयायां पञ्चम्यां कथितान्यपि। तानि सिध्यन्ति कार्याणि सप्तम्यां निखिलान्यपि॥७॥
सङ्ग्रामयोग्याखिलवास्तुशिल्पनृपप्रमोदाखिललेखनानि। स्त्रीरत्नकार्याखिलभूषणानि कार्याणि कार्याणि महेशतिथ्याम् ॥८॥
द्वितीयायां तृतीयायां पञ्चम्यां सप्तमीतिथौ । उक्तानि यानि सिध्यन्ति दशम्यां तानि सर्वदा॥९॥
व्रतोपवासाखिलधर्मकृत्यं सुरोत्सवाद्याखिलवास्तुकर्म। सङ्ग्रामयोग्याखिलवस्तुकर्म विश्वेतिथौ सिध्यति शिल्पकर्म॥१०॥
पृथिव्यां यानि कर्माणि धर्मपुष्टिशुभानि च। चरस्थिराणि द्वादश्यां यात्रां नवगृहं विना॥११॥
विधातृगौरीभुजगभान्वन्तकदिनेषु च। उक्तानि तानि सिध्यन्ति त्रयोदश्यां विशेषतः॥१२॥
यज्ञक्रियापौष्टिक मङ्गलानि सङ्ग्रामयोग्याखिलवास्तुकर्म। उद्वाहशिल्पाखिलभूषणाद्यं कार्यं प्रतिष्ठा खलु पौर्णमास्याम् ॥१३॥
सदैव दर्शे पितृकर्म कृत्वा नान्यद्विधेयं शुभपौष्टिकाद्यम्। मूढैः कृतं तत्र शुभोत्सवाद्यं विनाशमायात्यचिराद्भृशं तत् ॥१४ ॥
प्रतिपदा आदि तिथियों में किन कार्यों को करना चाहिये अथवा किन को नहीं करना चाहिये, शास्त्रों में इस प्रकार कहा गया है-
- प्रतिपदा- विवाह, उपनयन, यात्रा, प्रतिष्ठा, सीमन्त, चौल, वास्तुकर्म, गृहप्रवेश आदि माङ्गलिक कार्य प्रतिपदा को नहीं करने चाहिये।
- द्वितीया- यात्रा, विवाह, आभूषण, सङ्गीतविद्या, शिल्प आदि कार्य द्वितीया को नहीं करना चाहिये।
- तृतीया- द्वितीया तिथि में निषेध कार्यों को तृतीया तिथिमें करना चाहिये।
- चतुर्थी- विद्युत्कर्म, वध, बन्धन, शस्त्र, विष, अग्नि, घात आदि कार्य चतुर्थी तिथिमें करनेसे सिद्ध नहीं होते हैं।
- पञ्चमी- द्वितीया तिथि में निषेध कार्यों को पञ्चमी तिथिमें करना चाहिये।
- षष्ठी- अभ्यंग, यात्रा, पितृकर्म, दन्तकाष्ठ आदि सञ्चय नहीं करना चाहिये।
- सप्तमी- द्वितीया, तृतीया और पञ्चमी तिथियों की तरह ही उनसभी कार्यों को सप्तमी तिथिमें भी आचरण करना चाहिये।
- अष्टमी- संग्राम, वास्तु, शिल्पराज, प्रमोद, लेखन, स्त्री, रत्न, अखिल आभूषण आदि सभी कार्यों को अष्टमी तिथिमें करना शुभ होता है।
- नवमी- चतुर्थी तिथिमें उक्त कार्यों को नवमी तिथि में करना चाहिये।
- दशमी- द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी और सप्तमी तिथियों की तरह ही उनसभी कार्यों को नवमी तिथिमें भी आचरण करना चाहिये।
- एकादशी- व्रत, उपवास, अनेक धार्मिक कृत्यों को, देव उत्सव, उद्यापन और कथा आदि शुभ कर्मों को एकादशी तिथि में करना चाहिये।
- द्वादशी- यात्रा आदि को छोडकर पुष्टिकारक सभी धार्मिक एवं शुभ कार्यों को द्वादशी तिथिमें करना चाहिये।
- त्रयोदशी- द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी और नवमी तिथियों की तरह ही उनसभी कार्यों को त्रयोदशी तिथिमें भी आचरण करना चाहिये।
- चतुर्दशी- चतुर्थी तिथिमें विहित कार्यों को चतुर्दशी तिथि में भी करना चाहिये।
- अमावस्या- अमावस्या तिथि में सदा पैतृक कर्मों को ही करना चाहिए। अन्य आचरणीय शुभ कार्यों को अमावस्या में त्याग देना चाहिये।
- पूर्णिमा- विवाह, शिल्प, पौष्टिककर्म, मंगलकर्म, संग्राम, वास्तुकर्म, यज्ञक्रिया प्रतिष्ठा आदि कार्यों को पूर्णिमा तिथिमें करना चाहिये।
युगादि-मन्वादि तिथियाँ
शास्त्रों में युगादि एवं मन्वादि तिथियों को पुण्यहेतु बहुत उपयुक्त कहा है। इन तिथियों जो भी पुण्यप्रद कार्य किया जाता है वह कोटि गुणा ज्यादा फल देते हैं।
- सत्ययुगादि- कार्तिक शुक्ल पक्ष नवमी।
- त्रेतायुग- वैशाख शुक्लपक्ष तृतीया।
- द्वापरयुग- माघ अमावस्या।
- कलियुग- भाद्रपद कृष्णपक्ष त्रयोदशी।
मन्वादि तिथियों का परिगणन नारद पुराण प्रथम पाद एवं अन्यान्य शास्त्रों में इस प्रकार किया गया है-
क्रम | मनु का नाम | प्रारम्भ तिथियाँ | क्रम | मनु का नाम | प्रारम्भ तिथियाँ |
---|---|---|---|---|---|
१ | स्वायम्भुव | चैत्र शुक्ल तृतीया | ८ | सावर्णि | फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा |
२ | स्वारोचिष | चैत्र शुक्ल पूर्णिमा | ९ | दक्षसावर्णि | आश्विन शुक्ल नवमी |
३ | औत्तम | कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा | १० | ब्रह्मसावर्णि | माघ शुक्ल सप्तमी |
४ | तामस | कार्तिक शुक्ल द्वादशी | ११ | धर्मसावर्णि | पौष शुक्ल त्रयोदशी |
५ | रैवत | आषाढ शुक्ल द्वादशी | १२ | रुद्रसावर्णि | भाद्रपद शुक्ल तृतीया |
६ | चाक्षुष | आषाढ शुक्ल पूर्णिमा | १३ | दैवसावर्णि | श्रावण कृष्ण अमावस्या |
७ | वैवस्वत | ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा | १४ | इन्द्रसावर्णि | भाद्रपद(श्रावण) कृष्ण अष्टमी |
ये १४ मनुओं की आद्य तिथि कही गयी हैं इनमें स्नान, दान, जप, होम एवं पितृकर्म(पार्वण श्राद्ध) आदि करना अत्यन्त पुण्यको देने वाला होता है। एवं इन तिथियों में अनध्याय विहित है।
तिथि निर्णय
चन्द्र जब सूर्य से १२ अंश आगे निकलता है तो एक तिथि होती है।
तिथि संख्या = (चन्द्र - सूर्य) / १२ अंश
० से १ तक अर्थात् १ अंश से १२ अंश तक पहली तिथि प्रतिपदा।
सूर्य से ११ अंश के भीतर चन्द्र रहने पर वह नहीं दिखता है। शुक्ल पक्ष की द्वितीया(१२ -२४ अंश) से चन्द्र दिखता है।
गणना में तिथि संख्या १५ से अधिक आने पर कृष्ण पक्ष शुरू होता है और तिथि से शुक्ल पक्ष की १५ तिथि घटाते हैं।
उदाहरण- (चन्द्र - सूर्य) = २०७ अंश
१२ से भाग देने पर -१७.२५ अर्थात् १८वीं तिथि। १५ घटाने पर यह कृष्ण तृतीया हुआ।
गणित के अनुसार पूरे विश्व में तिथि का आरम्भ एक ही साथ होता है।
व्यवहार के लिये किसी स्थान पर सूर्योदय के समय जो तिथि होती है, वही तिथि अगले सूर्योदय तक मानी जाती है।
चन्द्रमा की गति सूर्यसे प्रायः तेरह गुना अधिक है। जब इन दोनों की गति में १२ अंश का अन्तर आ जाता है, तब एक तिथि बनती है। इस प्रकार ३६० अंशवाले 'भचक्र'(आकाश मण्डल) में ३६०÷१२=३० तिथियों का निर्माण होता है। एक मास में ३० तिथियाँ होती हैं। यह नैसर्गिक क्रम निरन्तर चालू रहता है।
तिथिक्षय वृद्धि
एक तिथिका मान १२ अंश होता है, कम न अधिक। सूर्योदयके साथ ही तिथि नाम एवं संख्या बदल जाती है। यदि किसी तिथिका अंशादि मान आगामी सूर्योदयकालसे पूर्व ही समाप्त हो रहा होता है तो वह तिथि समाप्त होकर आनेवाली तिथि का प्रारम्भ मानी जायेगी और सूर्योदयकालपर जो तिथि वर्तमान है, वही तिथि उस दिन आगे रहेगी। यदि तिथिका अंशादि मान आगामी सूर्योदयकालके उपरान्ततक, चाहे थोड़े ही कालके लिये सही रहता है तो वह तिथि- वृद्धि मानी जायगी। यदि दो सूर्योदयकालके भीतर दो तिथियाँ आ जाती हैं तो दूसरी तिथि का क्षय माना जायगा और उस क्षयतिथिकी क्रमसंख्या पंचांगमें नहीं लिखते, वह तिथि अंक छोड़ देते हैं। आशय यह है कि सूर्योदयकालतक जिस भी तिथिका अंशादि मान वर्तमान रहता है। चाहे कुछ मिनटोंके लिये ही सही, वही तिथि वर्तमानमें मानी जाती है। तिथि-क्षयवृद्धिका आधार सूर्योदयकाल है।[5]
तिथि क्षय
जिस तिथि में दो सूर्योदय हो, उसे क्षयतिथि कहते हैं। क्षयतिथि पडने पर एक अहोरात्र में तीन तिथियों की सन्धियाँ होती हैं। इस प्रकार से पूर्वतिथि सूर्योदय के बाद ७घटी के भीतर कभी भी समाप्त हो जाती है। एवं एक तिथि तीन दिनों को स्पर्श करती है तो उसे अधितिथि कहा जाता है। क्षय-वृद्धि दोनों तिथियों को शुभ कर्म में निन्दित कहा गया है।
तिथि और तारीख
तिथि और तारीख में अन्तर है। एक सूर्योदयकालसे अगले सूर्योदयकाल तक के समयको तिथि कहते हैं। तिथिका मान रेखांशके आधारपर विभिन्न स्थानोंपर कुछ मिनट या घण्टा घट-बढ सकता है। तारीख आधी रातसे अगली आधीरात तक के समयको कहते हैं। तारीख चौबीस घण्टेकी होती है। यह आधी रात बारह बजे प्रारम्भ होकर दूसरे दिन आधी रात बारह बजे समाप्त होती है। यह सब स्थानों पर एक समान चौबीस घण्टेकी है।[3]
विचार-विमर्श
उपलब्ध वैदिक संहिताओं में तिथियों का स्पष्ट उल्लेख नहीं होता। किन्तु वेदों के ब्राह्मण भागमें तिथियों का वर्णन प्राप्त होता है। जैसा कि बह्वृच ब्राह्मण में कहा गया है-
यां पर्यस्तमियादभ्युदियादिति सा तिथिः। (ऐत०ब्राह्म० ७,११)[6]
अर्थात् जिस काल विशेष में चन्द्रमा का उदय अस्त होता है उसको तिथि कहते हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण में -
चन्द्रमा वै पञ्चदशः। एष हि पञ्चदश्यामपक्षीयते। पञ्चदश्यामापूर्यते॥[7](तै० ब्रा० १/५/१०)
इस प्रकार के कथन से पञ्चदशी शब्द के द्वारा प्रतिपदा आदि तिथियों की भी गणना की सम्भावना दिखाई देती है। इसी प्रकार सामविधान ब्राह्मण में भी कृष्णचतुर्दशी, कृष्णपञ्चमी, शुक्ल चतुर्दशी का भी उल्लेख प्राप्त होता है।
हमारे सभी पर्व और पूजा चन्द्र की स्थिति के अनुसार होते हैं, क्योंकि चन्द्रमा मन को प्रभावित करता है। अंग्रेजी में भी चन्द्र का विशेषण ल्यूनर है तथा मनोरोगी को ल्यूनेटिक कहते हैं। चन्द्र का मन पर प्रभाव पूरे विश्व में पता था। फाइलेरिया आदि कई बीमारियों का चान्द्र तिथि से सम्बन्ध है।
सन्दर्भ
- ↑ सृजन झा, अमरकोश, शब्दकल्पद्रुम सहित, मुम्बईः क०जे० सोमैयासंस्कृतविद्यापीठम् ।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०१०/११)
- ↑ 3.0 3.1 पं०श्री सीतारामजी स्वामी, ज्योतिषतत्त्वांक, भारतीय काल गणना, सन् २०१९,गोरखपुर गीताप्रेस, (पृ०२१०)।
- ↑ श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०११/१२)
- ↑ श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाग्मय का बृहद् इतिहास, ज्योतिषशास्त्र, सन् २०१२, लखनऊः उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (पृ०१२६)।
- ↑ ऐतरेय ब्राह्मण, सप्तम पञ्चिका, ११ खण्ड।
- ↑ तैत्तिरीयब्राह्मण, काण्ड-१, प्रपाठक- ०५।