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| == शिक्षा के विषय == | | == शिक्षा के विषय == |
| अध्ययन के प्रत्येक विषय का संदर्भ काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने के साथ होता है। पुरूषार्थों के पालन हेतु विद्यार्थी को विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन करना आवश्यक होता है। किसी भी विषय के अध्ययन का अर्थ होता है उस विषय के लक्षणों को जीवन में उतारना। | | अध्ययन के प्रत्येक विषय का संदर्भ काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने के साथ होता है। पुरूषार्थों के पालन हेतु विद्यार्थी को विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन करना आवश्यक होता है। किसी भी विषय के अध्ययन का अर्थ होता है उस विषय के लक्षणों को जीवन में उतारना। |
− | १.१ विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन : मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तुका निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना।
| + | १.१ विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन : मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तुका निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना। |
− | १.२ करणीय अकरणीय विवेक : करणीय वे बातें होतीं हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत होतीं हैं। और अकरणीय वे बातें होतीं हैं जिन के करने से किसी को हानी होती हो। किसी बात के सरल होने से वह करणीय नहीं हो जाती और ना ही किसी बात के कठिन होने से या असंभव लगनेपर वह अकरणीय बन जाती है। असंभव लगनेपर भी यदि वह सब के हित में है तो करणीय तो वही रहता है। उसे संभव चरणों में बाँटकर करना होता है।
| + | १.२ करणीय अकरणीय विवेक : करणीय वे बातें होतीं हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत होतीं हैं। और अकरणीय वे बातें होतीं हैं जिन के करने से किसी को हानी होती हो। किसी बात के सरल होने से वह करणीय नहीं हो जाती और ना ही किसी बात के कठिन होने से या असंभव लगनेपर वह अकरणीय बन जाती है। असंभव लगनेपर भी यदि वह सब के हित में है तो करणीय तो वही रहता है। उसे संभव चरणों में बाँटकर करना होता है। |
| किसी भी प्राप्त परिस्थिति में करणीय और अकरणीय क्या है यह समझना कभी कभी कठिन ही नहीं तो बहुत कठिन होता है। सामान्य लोगों के लिये ऐसे समय में श्रेष्ठ लोगों के अनुकरण की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है। | | किसी भी प्राप्त परिस्थिति में करणीय और अकरणीय क्या है यह समझना कभी कभी कठिन ही नहीं तो बहुत कठिन होता है। सामान्य लोगों के लिये ऐसे समय में श्रेष्ठ लोगों के अनुकरण की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है। |
− | १.३ स्वभाव शुध्दि और वृद्धि की शिक्षा : मोटे मोटे तौरपर जो भी स्वभाव धर्म व्यवस्था निर्धारित करे उन स्वभावों की शुध्दि और वृद्धि की व्यवस्था करना। यह करते समय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सभी स्वभावों के सन्तुलन और समायोजन का भी ध्यान रखना।
| + | १.३ स्वभाव शुध्दि और वृद्धि की शिक्षा : मोटे मोटे तौरपर जो भी स्वभाव धर्म व्यवस्था निर्धारित करे उन स्वभावों की शुध्दि और वृद्धि की व्यवस्था करना। यह करते समय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सभी स्वभावों के सन्तुलन और समायोजन का भी ध्यान रखना। |
− | १.४ काम पुरूषार्थ की शिक्षा : मनुष्य के जीवन का पहला पुरूषार्थ काम है। काम का अर्थ कामना है, इच्छा है। इच्छाएँ धर्म के दायरे में रहें इसलिये काम की शिक्षा आवश्यक होती है। इछाएँ मन करता है। इसलिये काम की शिक्षा का अर्थ है मन की शिक्षा। सामान्यत: बुद्धि सत्यानुगामी होती है। मन के विकार ही उसे भटकाते हैं। मन की शिक्षा के लिये पहले मन को ठीक से समझना होगा। मनकी शिक्षा का अर्थ है मन को बुद्धि के नियंत्रण में विवेक के नियंत्रण में रखने की शिक्षा।
| + | १.४ काम पुरूषार्थ की शिक्षा : मनुष्य के जीवन का पहला पुरूषार्थ काम है। काम का अर्थ कामना है, इच्छा है। इच्छाएँ धर्म के दायरे में रहें इसलिये काम की शिक्षा आवश्यक होती है। इछाएँ मन करता है। इसलिये काम की शिक्षा का अर्थ है मन की शिक्षा। सामान्यत: बुद्धि सत्यानुगामी होती है। मन के विकार ही उसे भटकाते हैं। मन की शिक्षा के लिये पहले मन को ठीक से समझना होगा। मनकी शिक्षा का अर्थ है मन को बुद्धि के नियंत्रण में विवेक के नियंत्रण में रखने की शिक्षा। |
− | काम की याने मन की शिक्षा के विषय में अधिक जानने के लिये कृपया परिशिष्ट १५ देखें।
| + | काम की याने मन की शिक्षा के विषय में अधिक जानने के लिये कृपया परिशिष्ट १५ देखें। |
− | १.५ अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा : अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल पैसे से नहीं है। कामनाओं की पूर्ति के इये किये गये प्रयास और साथ में उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन भी अर्थ पुरूषार्थ के हिस्से हैं। जिस प्रकार काम पुरुषार्थ जीवनव्यापि है उसी प्रकार से अर्थ पुरूषार्थ भी जीवन व्यापनेवाला है।
| + | १.५ अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा : अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल पैसे से नहीं है। कामनाओं की पूर्ति के इये किये गये प्रयास और साथ में उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन भी अर्थ पुरूषार्थ के हिस्से हैं। जिस प्रकार काम पुरुषार्थ जीवनव्यापि है उसी प्रकार से अर्थ पुरूषार्थ भी जीवन व्यापनेवाला है। |
− | जब लेने के स्थानपर देनेपर बल दिया जाता है तब अर्थव्यवस्था अच्छी चलती है। सर्वहितकारी होती है। दिया तो वही जा सकता है जो अर्जित किया हो या अपने पास पहले से ही हो| अपने पास जो है उस में से सर्वश्रेष्ठ जो है उसे देने की मानसिकता समाज को श्रेष्ठ बनाती है। ऐसी मानसिकतावाले समाज का मनुष्य जो भी करता है वह सर्वश्रेष्ठ बने इसका प्रयास करता है। और ऐसा प्रयास जिस समाज के लोग करेंगे उस समाज का सम्मान तो अन्य समाज करेंगे ही। दान की भी यही संकल्पना है। जो सर्वश्रेष्ठ है उसी का तो दान किया जाता है(नचिकेत की कथा)| अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा के कुछ बिंदु निम्न हैं|
| + | जब लेने के स्थानपर देनेपर बल दिया जाता है तब अर्थव्यवस्था अच्छी चलती है। सर्वहितकारी होती है। दिया तो वही जा सकता है जो अर्जित किया हो या अपने पास पहले से ही हो| अपने पास जो है उस में से सर्वश्रेष्ठ जो है उसे देने की मानसिकता समाज को श्रेष्ठ बनाती है। ऐसी मानसिकतावाले समाज का मनुष्य जो भी करता है वह सर्वश्रेष्ठ बने इसका प्रयास करता है। और ऐसा प्रयास जिस समाज के लोग करेंगे उस समाज का सम्मान तो अन्य समाज करेंगे ही। दान की भी यही संकल्पना है। जो सर्वश्रेष्ठ है उसी का तो दान किया जाता है(नचिकेत की कथा)| अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा के कुछ बिंदु निम्न हैं| |
| - भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं। | | - भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं। |
| - खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है। | | - खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है। |
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| जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। इसलिए जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। इष्ट गति संकल्पना को जानने के लिए कृपया परिशिष्ट १६ देखें। | | जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। इसलिए जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। इष्ट गति संकल्पना को जानने के लिए कृपया परिशिष्ट १६ देखें। |
| अर्थ पुरुषार्थ के अन्य महत्त्वपूर्ण बिदू जानने के लिये कृपया अध्याय ३४ “समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि” में देखें| | | अर्थ पुरुषार्थ के अन्य महत्त्वपूर्ण बिदू जानने के लिये कृपया अध्याय ३४ “समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि” में देखें| |
− | १.६ धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं।
| + | १.६ धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं। |
| - अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म - ऐसी भी धर्म की अत्यंत सरल व्याख्या की गई है। | | - अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म - ऐसी भी धर्म की अत्यंत सरल व्याख्या की गई है। |
| - प्रकृति के नियम धर्म हैं। प्रकृति के नियमों का सब के हित में उपयोग करना संकृति है। सामान्य परिस्थितियों में धर्माचरण की समझ निर्माण करने के लिये धर्मशिक्षा होती है। | | - प्रकृति के नियम धर्म हैं। प्रकृति के नियमों का सब के हित में उपयोग करना संकृति है। सामान्य परिस्थितियों में धर्माचरण की समझ निर्माण करने के लिये धर्मशिक्षा होती है। |
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| - सृष्टि में हर अस्तित्त्व का अपना अपना प्रयोजन है। इस प्रयोजन के अनुसार उसका उपयोग करना धर्म है। जैसे मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना हुआ है। फिर भी मांसाहार करना अधर्म है। | | - सृष्टि में हर अस्तित्त्व का अपना अपना प्रयोजन है। इस प्रयोजन के अनुसार उसका उपयोग करना धर्म है। जैसे मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना हुआ है। फिर भी मांसाहार करना अधर्म है। |
| - करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है। | | - करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है। |
− | ऊपर हमने धर्म का अनुपालन (बिंदू ८) में धर्म के विषय में जिन विविध बिंदुओं को लिखा है उन सबकी शिक्षा धर्मशिक्षा में अपेक्षित है।
| + | ऊपर हमने धर्म का अनुपालन (बिंदू ८) में धर्म के विषय में जिन विविध बिंदुओं को लिखा है उन सबकी शिक्षा धर्मशिक्षा में अपेक्षित है। |
− | १.७ मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा : मोक्ष की शिक्षा नहीं होती। साधना होती है। यह व्यक्ति को स्वत: ही करनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रेरणा दी जा सकती है। अष्टांग योग में से बहिरंग योगतक मार्गदर्शन भी किया जा सकता है। लेकिन आगे का मार्ग तो साधना का ही होता है।
| + | १.७ मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा : मोक्ष की शिक्षा नहीं होती। साधना होती है। यह व्यक्ति को स्वत: ही करनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रेरणा दी जा सकती है। अष्टांग योग में से बहिरंग योगतक मार्गदर्शन भी किया जा सकता है। लेकिन आगे का मार्ग तो साधना का ही होता है। |
− | २. शिक्षक | + | |
| + | २.शिक्षक |
| शिक्षक धर्मनिष्ठ हो। धर्म का जानकार हो। धर्म सिखाने की क्षमता और कौशल जिस के पास है ऐसा हो। | | शिक्षक धर्मनिष्ठ हो। धर्म का जानकार हो। धर्म सिखाने की क्षमता और कौशल जिस के पास है ऐसा हो। |
| धर्माचरण सिखाने के साथ ही विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन के लिये मार्गदर्शन की शिक्षक की क्षमता हो। शिष्य को अपनी संतान मानकर उसे शिक्षित करने में कोई कमी नहीं रखनेवाला ही श्रेष्ठ शिक्षक होता है। गुरूसे शिष्य सवाई - परंपरा का निर्माण : विवेक, ज्ञान, बल, श्रध्दा, कौशल आदि सभी बातों में गुरू से शिष्य सवाई बने ऐसा प्रयास होना चाहिये। | | धर्माचरण सिखाने के साथ ही विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन के लिये मार्गदर्शन की शिक्षक की क्षमता हो। शिष्य को अपनी संतान मानकर उसे शिक्षित करने में कोई कमी नहीं रखनेवाला ही श्रेष्ठ शिक्षक होता है। गुरूसे शिष्य सवाई - परंपरा का निर्माण : विवेक, ज्ञान, बल, श्रध्दा, कौशल आदि सभी बातों में गुरू से शिष्य सवाई बने ऐसा प्रयास होना चाहिये। |
− | शिक्षक सर्वप्रथम आचार्य होना चाहिये। आचार्य की व्याख्या है -
| + | शिक्षक सर्वप्रथम आचार्य होना चाहिये। आचार्य की व्याख्या है - |
− | आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत ।
| + | आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत । |
| स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥ | | स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥ |
| अर्थ : जो शास्त्रों का जानकार है, जो शास्त्रों के ज्ञान को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी वैसा आचरण करता है और छात्रों से आचरण करवाता है उसे आचार्य कहते हैं। | | अर्थ : जो शास्त्रों का जानकार है, जो शास्त्रों के ज्ञान को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी वैसा आचरण करता है और छात्रों से आचरण करवाता है उसे आचार्य कहते हैं। |
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| ३. शिक्षकाधिष्ठित शिक्षा | | ३. शिक्षकाधिष्ठित शिक्षा |
| इसी को वास्तव में शिक्षा की स्वायत्तता कहते हैं। उपर्युक्त क्षमताओंवाले श्रेष्ठ शिक्षक को 'मूर्तिमंत शिक्षा' कहा जाता है। जब शिक्षा का अधिष्ठाता ऐसे शिक्षक के स्थानपर अन्य कोई होता है तब शिक्षा दूषित हो जाती है। अधूरी हो जाती है। कई बार विकृत और विपरीत भी हो जाती है। | | इसी को वास्तव में शिक्षा की स्वायत्तता कहते हैं। उपर्युक्त क्षमताओंवाले श्रेष्ठ शिक्षक को 'मूर्तिमंत शिक्षा' कहा जाता है। जब शिक्षा का अधिष्ठाता ऐसे शिक्षक के स्थानपर अन्य कोई होता है तब शिक्षा दूषित हो जाती है। अधूरी हो जाती है। कई बार विकृत और विपरीत भी हो जाती है। |
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| ४. नि:शुल्क शिक्षा - सामाजिक जिम्मेदारी | | ४. नि:शुल्क शिक्षा - सामाजिक जिम्मेदारी |
| शिक्षा नि:शुल्क हो। श्रेष्ठ मानव का निर्माण यही शिक्षा का लक्ष्य होता है। और श्रेष्ठ मानव निर्माण से अधिक श्रेष्ठ काम दुनियाँ में अन्य कोई नहीं हो सकता। इसीलिये शिक्षा बिकाऊ नहीं होती। शिक्षा जब पैसे से खरीदी जाती है शिक्षा 'शिक्षा' नहीं रहती। वैसे भी धन के अभाव में समाज की प्रतिभा अविकसित रह जाए यह किसी भी श्रेष्ठ समाज के लिये लांछन की बात है। नि:शुल्क शिक्षा का ही अर्थ है शिक्षा समाज पोषित होना। शिक्षक जब अपनी आजीविका से आश्वस्त होगा तब ही वह अपनी पूरी शक्ति श्रेष्ठ मानव निर्माण में लगा सकता है। अन्यथा नहीं। इसलिये यह अनिवार्य है कि शिक्षक की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज स्वत: होकर करे। | | शिक्षा नि:शुल्क हो। श्रेष्ठ मानव का निर्माण यही शिक्षा का लक्ष्य होता है। और श्रेष्ठ मानव निर्माण से अधिक श्रेष्ठ काम दुनियाँ में अन्य कोई नहीं हो सकता। इसीलिये शिक्षा बिकाऊ नहीं होती। शिक्षा जब पैसे से खरीदी जाती है शिक्षा 'शिक्षा' नहीं रहती। वैसे भी धन के अभाव में समाज की प्रतिभा अविकसित रह जाए यह किसी भी श्रेष्ठ समाज के लिये लांछन की बात है। नि:शुल्क शिक्षा का ही अर्थ है शिक्षा समाज पोषित होना। शिक्षक जब अपनी आजीविका से आश्वस्त होगा तब ही वह अपनी पूरी शक्ति श्रेष्ठ मानव निर्माण में लगा सकता है। अन्यथा नहीं। इसलिये यह अनिवार्य है कि शिक्षक की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज स्वत: होकर करे। |
| ५. शासन की भूमिका : शासन समाज का मालिक नहीं होता। शासन व्यवस्था यह राष्ट्र के याने राष्ट्रीय समाज के सुचारू रूप से चले इस दृष्टि से दुर्जनों और मूर्खों से संरक्षण की व्यवस्था मात्र होती है| शासन का काम श्रेष्ठ शिक्षा को याने शिक्षकों और विद्याकेंद्रों को सुरक्षा, सहायता और समर्थन देने का है| | | ५. शासन की भूमिका : शासन समाज का मालिक नहीं होता। शासन व्यवस्था यह राष्ट्र के याने राष्ट्रीय समाज के सुचारू रूप से चले इस दृष्टि से दुर्जनों और मूर्खों से संरक्षण की व्यवस्था मात्र होती है| शासन का काम श्रेष्ठ शिक्षा को याने शिक्षकों और विद्याकेंद्रों को सुरक्षा, सहायता और समर्थन देने का है| |
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| भारतीय शिक्षा के मूलतत्त्व | | भारतीय शिक्षा के मूलतत्त्व |
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| २०वीं सदीतक भारत में शिक्षा का स्वरूप गुरुगृहवास के साथ जुड़ा हुआ था| गुरु के घर के काम करते करते बच्चे जीने की शिक्षा पाते थे| प्रत्यक्ष गणित, इतिहास आदि विषयों के सिखाने की हर शिक्षक की अपनी अपनी पद्धति हुआ करती थी| और यह पद्धति भी हर विद्यार्थी के अनुसार भिन्न हुआ करती थी| अध्येता की जीवन्तता को ध्यान में रखकर शिक्षा लेने और देने का काम होता था| यांत्रिकता को स्थान नहीं था| जीवन में अनंत प्रकार की विविधता होती है| हर बच्चे के पंचकोशों की क्षमताओं और विकास की संभावनाओं की असीम विविधता ध्यान में रखकर शिक्षक को बच्चे को शिक्षित करना होता है| और शिक्षा जैसी होती है समाज भी वैसा ही बनता है| इसे ध्यान में रखकर हमारे पूर्वजोंने एक श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया था| इस शिक्षा व्यवस्था के मोटे मोटे सूत्र निम्न होते हैं| | | २०वीं सदीतक भारत में शिक्षा का स्वरूप गुरुगृहवास के साथ जुड़ा हुआ था| गुरु के घर के काम करते करते बच्चे जीने की शिक्षा पाते थे| प्रत्यक्ष गणित, इतिहास आदि विषयों के सिखाने की हर शिक्षक की अपनी अपनी पद्धति हुआ करती थी| और यह पद्धति भी हर विद्यार्थी के अनुसार भिन्न हुआ करती थी| अध्येता की जीवन्तता को ध्यान में रखकर शिक्षा लेने और देने का काम होता था| यांत्रिकता को स्थान नहीं था| जीवन में अनंत प्रकार की विविधता होती है| हर बच्चे के पंचकोशों की क्षमताओं और विकास की संभावनाओं की असीम विविधता ध्यान में रखकर शिक्षक को बच्चे को शिक्षित करना होता है| और शिक्षा जैसी होती है समाज भी वैसा ही बनता है| इसे ध्यान में रखकर हमारे पूर्वजोंने एक श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया था| इस शिक्षा व्यवस्था के मोटे मोटे सूत्र निम्न होते हैं| |
| १. शिक्षा यह क्रय विक्रय की वस्तू नहीं है| समाज के हर बालक को उस की योग्यता और क्षमता के अनुसार शिक्षा प्राप्त हो यह सामाजिक जिम्मेदारी है| समाज के प्रत्येक घटक की जिम्मेदारी है| इसीलिए भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अन्न और औषधि के साथ ही शिक्षा नि:शुल्क ही हुआ करती थी| शिक्षा नि:शुल्क ही होनी चाहिए| | | १. शिक्षा यह क्रय विक्रय की वस्तू नहीं है| समाज के हर बालक को उस की योग्यता और क्षमता के अनुसार शिक्षा प्राप्त हो यह सामाजिक जिम्मेदारी है| समाज के प्रत्येक घटक की जिम्मेदारी है| इसीलिए भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अन्न और औषधि के साथ ही शिक्षा नि:शुल्क ही हुआ करती थी| शिक्षा नि:शुल्क ही होनी चाहिए| |
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| २६.शैक्षिक व्यवस्थाओं के विषय में निर्णय की कसौटी का महत्त्वक्रम निम्न होना चाहिए| स्वास्थ्यप्रद होना, सुविधाजनक होना, सस्ती होना और सब से अंत में सुन्दर/शोभादायक होना| | | २६.शैक्षिक व्यवस्थाओं के विषय में निर्णय की कसौटी का महत्त्वक्रम निम्न होना चाहिए| स्वास्थ्यप्रद होना, सुविधाजनक होना, सस्ती होना और सब से अंत में सुन्दर/शोभादायक होना| |
| २७.श्रेष्ठ अध्यापन का वर्णन इस प्रकार किया जाता है – | | २७.श्रेष्ठ अध्यापन का वर्णन इस प्रकार किया जाता है – |
− | चित्रम् वटम् तरोर्मूले वृद्ध: शिष्य: गुरोर्युवा ||
| + | चित्रम् वटम् तरोर्मूले वृद्ध: शिष्य: गुरोर्युवा || |
− | गुरोऽस्तु मौनम् व्याख्यानम् शिष्य: छिनना संशय: ||
| + | गुरोऽस्तु मौनम् व्याख्यानम् शिष्य: छिनना संशय: || |
− | अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं| सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं| गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है| और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है|
| + | अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं| सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं| गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है| और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है| |
| २८.गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है| गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अबतक विकसित नहीं हुई है| | | २८.गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है| गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अबतक विकसित नहीं हुई है| |
| २९.शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु फिर भी वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्त्व) निष्ठ होती है। | | २९.शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु फिर भी वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्त्व) निष्ठ होती है। |