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| + | शिक्षा की भारतीय दृष्टि और वर्तमान अभारतीय दृष्टि में आमूलाग्र अन्तर है| यह अन्तर जीअवन दृष्टि के अन्तर के कारण है| जीवन के लक्ष्य की भिन्नता के कारण है| |
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− | शिक्षा दृष्टि
| + | == शिक्षा के विषय == |
− | शिक्षा की भारतीय दृष्टी और वर्तमान अभारतीय दृष्टी में आमूलाग्र अन्तर है| यह अन्तर जीअवन दृष्टी के अन्तर के कारण है| जीवन के लक्ष्य की भिन्नता के कारण है|
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− | १ शिक्षा के विषय
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| अध्ययन के प्रत्येक विषय का संदर्भ काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने के साथ होता है। पुरूषार्थों के पालन हेतु विद्यार्थी को विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन करना आवश्यक होता है। किसी भी विषय के अध्ययन का अर्थ होता है उस विषय के लक्षणों को जीवन में उतारना। | | अध्ययन के प्रत्येक विषय का संदर्भ काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने के साथ होता है। पुरूषार्थों के पालन हेतु विद्यार्थी को विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन करना आवश्यक होता है। किसी भी विषय के अध्ययन का अर्थ होता है उस विषय के लक्षणों को जीवन में उतारना। |
| १.१ विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन : मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तुका निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना। | | १.१ विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन : मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तुका निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना। |
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| ४. नि:शुल्क शिक्षा - सामाजिक जिम्मेदारी | | ४. नि:शुल्क शिक्षा - सामाजिक जिम्मेदारी |
| शिक्षा नि:शुल्क हो। श्रेष्ठ मानव का निर्माण यही शिक्षा का लक्ष्य होता है। और श्रेष्ठ मानव निर्माण से अधिक श्रेष्ठ काम दुनियाँ में अन्य कोई नहीं हो सकता। इसीलिये शिक्षा बिकाऊ नहीं होती। शिक्षा जब पैसे से खरीदी जाती है शिक्षा 'शिक्षा' नहीं रहती। वैसे भी धन के अभाव में समाज की प्रतिभा अविकसित रह जाए यह किसी भी श्रेष्ठ समाज के लिये लांछन की बात है। नि:शुल्क शिक्षा का ही अर्थ है शिक्षा समाज पोषित होना। शिक्षक जब अपनी आजीविका से आश्वस्त होगा तब ही वह अपनी पूरी शक्ति श्रेष्ठ मानव निर्माण में लगा सकता है। अन्यथा नहीं। इसलिये यह अनिवार्य है कि शिक्षक की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज स्वत: होकर करे। | | शिक्षा नि:शुल्क हो। श्रेष्ठ मानव का निर्माण यही शिक्षा का लक्ष्य होता है। और श्रेष्ठ मानव निर्माण से अधिक श्रेष्ठ काम दुनियाँ में अन्य कोई नहीं हो सकता। इसीलिये शिक्षा बिकाऊ नहीं होती। शिक्षा जब पैसे से खरीदी जाती है शिक्षा 'शिक्षा' नहीं रहती। वैसे भी धन के अभाव में समाज की प्रतिभा अविकसित रह जाए यह किसी भी श्रेष्ठ समाज के लिये लांछन की बात है। नि:शुल्क शिक्षा का ही अर्थ है शिक्षा समाज पोषित होना। शिक्षक जब अपनी आजीविका से आश्वस्त होगा तब ही वह अपनी पूरी शक्ति श्रेष्ठ मानव निर्माण में लगा सकता है। अन्यथा नहीं। इसलिये यह अनिवार्य है कि शिक्षक की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज स्वत: होकर करे। |
− | ५. शासन की भूमिका : शासन समाज का मालिक नहीं होता। शासन व्यवस्था यह राष्ट्र के याने राष्ट्रीय समाज के सुचारू रूप से चले इस दृष्टी से दुर्जनों और मूर्खों से संरक्षण की व्यवस्था मात्र होती है| शासन का काम श्रेष्ठ शिक्षा को याने शिक्षकों और विद्याकेंद्रों को सुरक्षा, सहायता और समर्थन देने का है| | + | ५. शासन की भूमिका : शासन समाज का मालिक नहीं होता। शासन व्यवस्था यह राष्ट्र के याने राष्ट्रीय समाज के सुचारू रूप से चले इस दृष्टि से दुर्जनों और मूर्खों से संरक्षण की व्यवस्था मात्र होती है| शासन का काम श्रेष्ठ शिक्षा को याने शिक्षकों और विद्याकेंद्रों को सुरक्षा, सहायता और समर्थन देने का है| |
| भारतीय शिक्षा के मूलतत्त्व | | भारतीय शिक्षा के मूलतत्त्व |
| २०वीं सदीतक भारत में शिक्षा का स्वरूप गुरुगृहवास के साथ जुड़ा हुआ था| गुरु के घर के काम करते करते बच्चे जीने की शिक्षा पाते थे| प्रत्यक्ष गणित, इतिहास आदि विषयों के सिखाने की हर शिक्षक की अपनी अपनी पद्धति हुआ करती थी| और यह पद्धति भी हर विद्यार्थी के अनुसार भिन्न हुआ करती थी| अध्येता की जीवन्तता को ध्यान में रखकर शिक्षा लेने और देने का काम होता था| यांत्रिकता को स्थान नहीं था| जीवन में अनंत प्रकार की विविधता होती है| हर बच्चे के पंचकोशों की क्षमताओं और विकास की संभावनाओं की असीम विविधता ध्यान में रखकर शिक्षक को बच्चे को शिक्षित करना होता है| और शिक्षा जैसी होती है समाज भी वैसा ही बनता है| इसे ध्यान में रखकर हमारे पूर्वजोंने एक श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया था| इस शिक्षा व्यवस्था के मोटे मोटे सूत्र निम्न होते हैं| | | २०वीं सदीतक भारत में शिक्षा का स्वरूप गुरुगृहवास के साथ जुड़ा हुआ था| गुरु के घर के काम करते करते बच्चे जीने की शिक्षा पाते थे| प्रत्यक्ष गणित, इतिहास आदि विषयों के सिखाने की हर शिक्षक की अपनी अपनी पद्धति हुआ करती थी| और यह पद्धति भी हर विद्यार्थी के अनुसार भिन्न हुआ करती थी| अध्येता की जीवन्तता को ध्यान में रखकर शिक्षा लेने और देने का काम होता था| यांत्रिकता को स्थान नहीं था| जीवन में अनंत प्रकार की विविधता होती है| हर बच्चे के पंचकोशों की क्षमताओं और विकास की संभावनाओं की असीम विविधता ध्यान में रखकर शिक्षक को बच्चे को शिक्षित करना होता है| और शिक्षा जैसी होती है समाज भी वैसा ही बनता है| इसे ध्यान में रखकर हमारे पूर्वजोंने एक श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया था| इस शिक्षा व्यवस्था के मोटे मोटे सूत्र निम्न होते हैं| |