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| # इहवादिता : जो कुछ है यही जन्म है। इस से नहीं तो पहले कुछ था और ना ही आगे कुछ है। | | # इहवादिता : जो कुछ है यही जन्म है। इस से नहीं तो पहले कुछ था और ना ही आगे कुछ है। |
| इस जीवनदृष्टि के अनुसार जो व्यवहार सूत्र बने वे निम्न हैं: | | इस जीवनदृष्टि के अनुसार जो व्यवहार सूत्र बने वे निम्न हैं: |
− | # अनिर्बाध व्यक्तिस्वातंत्र्य (अनलिमिटेड इंडिव्हिज्युल लिबर्टि - unlimited individual liberty) | + | # अनिर्बाध व्यक्तिस्वातंत्र्य (अनलिमिटेड इंडिव्हिज्युल लिबर्टी - unlimited individual liberty)। |
− | # बलवान ही जीने का अधिकारी (सर्वायवल ऑफ द फिटेस्ट - survival of the fittest) | + | # बलवान ही जीने का अधिकारी (सर्वायवल ऑफ द फिटेस्ट - survival of the fittest)। |
− | # दुर्बल का शोषण (एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक - exploitation of the weak) | + | # दुर्बल का शोषण (एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक - exploitation of the weak)। |
− | # सारी चराचर सृष्टि मेरे अनिर्बाध उपभोग के लिये बनी है। इस पर मेरा अधिकार है। इस के प्रति मेरा कोई कर्तव्य नहीं है। (राईट्स् बट नो डयूटीज) Rights but no duties | + | # सारी चराचर सृष्टि मेरे अनिर्बाध उपभोग के लिये बनी है। इस पर मेरा अधिकार है। इस के प्रति मेरा कोई कर्तव्य नहीं है। (राईट्स् बट नो डयूटीज- Rights but no duties)। |
− | # अन्य मानव भी सृष्टि का upbhog उपभाप्रग अपना अनिर्बाध अधिकार मानते हैं। इस लिये मुझे अपने उपभोग (जीने) के लिये अन्यों से संघर्ष करना होगा। (फाईट फॉर सर्व्हायव्हल) fight for survival। ६. उपभोग के लिये मुझे केवल यही जीवन मिला है। इस जीवन से पहले मै नहीं था और इस जीवन के समाप्त होने के बाद भी मै नहीं रहूंग़ा। इस लिये जितना उपभोग कर सकूँ, कर लूँ। (कंझ्यूमेरिझम्) consumerism । इहवादिता (धिस इज द ओन्ली लाईफ। देयर वॉज नथिंग बिफोर एँड देयर शॅल बी नथिंग बियाँड धिस लाईफ) This is the only life. There was nothing before and there shall be nothing beyond this life ७. मेरी रासायनिक प्रक्रिया (जीवन) अच्छी चले (स्वार्थ) यह महत्वपूर्ण है। इस लिये किसी अन्य रासायनिक प्रक्रिया में बाधा आती है (परपीडा होती है) तो भले आये। अन्य कोई रासायनिक प्रक्रिया बंद होती है (जीवन नष्ट होता है) तो भले हो जाये। ८. चैतन्य को नकारने के कारण सृष्टि के विभिन्न अस्तित्वों में स्थित अंतर्निहित एकात्मता को अमान्य करने के कारण टुकडों में विचार करने की सोच। (पीसमील एॅप्रोच) piecemeal approach । ९. सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों का आधार स्वार्थ ही है। सामाजिक संबंधों का आधार इसी लिये 'काँट्रॅक्ट' या करार या समझौता या एॅग्रीमेंट होता है। | + | # अन्य मानव भी सृष्टि का उपभोग अपना अनिर्बाध अधिकार मानते हैं। इस लिये मुझे अपने उपभोग (जीने) के लिये अन्यों से संघर्ष करना होगा। (फाईट फॉर सर्व्हायव्हल -fight for survival)। |
| + | # उपभोग के लिये मुझे केवल यही जीवन मिला है। इस जीवन से पहले मै नहीं था और इस जीवन के समाप्त होने के बाद भी मै नहीं रहूंग़ा। इस लिये जितना उपभोग कर सकूँ, कर लूँ। (कंझ्यूमेरिझम् - consumerism)। |
| + | # इहवादिता (धिस इज द ओन्ली लाईफ। देयर वॉज नथिंग बिफोर एँड देयर शॅल बी नथिंग बियाँड धिस लाईफ - This is the only life. There was nothing before and there shall be nothing beyond this life)। |
| + | # मेरी रासायनिक प्रक्रिया (जीवन) अच्छी चले (स्वार्थ) यह महत्वपूर्ण है। इस लिये किसी अन्य रासायनिक प्रक्रिया में बाधा आती है (परपीडा होती है) तो भले आये। अन्य कोई रासायनिक प्रक्रिया बंद होती है (जीवन नष्ट होता है) तो भले हो जाये। |
| + | # चैतन्य को नकारने के कारण सृष्टि के विभिन्न अस्तित्वों में स्थित अंतर्निहित एकात्मता को अमान्य करने के कारण टुकडों में विचार करने की सोच। (पीसमील एॅप्रोच - piecemeal approach) । |
| + | # सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों का आधार स्वार्थ ही है। सामाजिक संबंधों का आधार इसी लिये 'काँट्रॅक्ट' या करार या समझौता या एॅग्रीमेंट होता है। |
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| == भारतीय तत्वज्ञान और जीवन दृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्र == | | == भारतीय तत्वज्ञान और जीवन दृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्र == |
| भारतीय मान्यता के अनुसार परमात्मा अकेला था। उसे लगा 'एकाकी न रमते' यानी उसे अकेलापन खलने लगा। 'सो कामयत्' यानी उसने सोचा 'एकोऽहं बहुस्याम:' यानी एक हूँ अनेक हो जाऊं। उसने तप किया। अपने में से ही सारी सृष्टि का निर्माण किया। इस लिये कण कण, चर अचर सब परमात्मा के ही रूप हैं। सारी सृष्टि यह उस परमात्त्व तत्व का ही विस्तार मात्र है। इस लिये सृष्टि के सारे घटक एक दूसरे से 'आत्मीयता' के भाव से जुडे हैं। | | भारतीय मान्यता के अनुसार परमात्मा अकेला था। उसे लगा 'एकाकी न रमते' यानी उसे अकेलापन खलने लगा। 'सो कामयत्' यानी उसने सोचा 'एकोऽहं बहुस्याम:' यानी एक हूँ अनेक हो जाऊं। उसने तप किया। अपने में से ही सारी सृष्टि का निर्माण किया। इस लिये कण कण, चर अचर सब परमात्मा के ही रूप हैं। सारी सृष्टि यह उस परमात्त्व तत्व का ही विस्तार मात्र है। इस लिये सृष्टि के सारे घटक एक दूसरे से 'आत्मीयता' के भाव से जुडे हैं। |
− | समाज निर्माण और परस्पर सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के ३रे अध्याय में १० वें और ११ वें श्लोक में कहा है -
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− | सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: अनेन प्रसविश्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक ॥ १० ॥
| + | समाज निर्माण और परस्पर सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता, 3.10 एवं 3.11</ref><blockquote>सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:</blockquote><blockquote>अनेन प्रसविश्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक ॥ 3.10 ॥</blockquote><blockquote>अर्थ है - प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ ( अन्यों के हित के काम) के साथ प्रजा को निर्माण किया और कहा कि परस्पर हित साधते हुए उत्कर्ष (प्रगति) करो। यह है परस्पर सामाजिक संबंधों का आधार। आगे कहा है</blockquote><blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:</blockquote><blockquote>परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ 3.11 ॥</blockquote><blockquote>अर्थ है - देवताओं ( वायू, वरुण, अग्नि, पृथ्वी आदि यानी पर्यावरण) का पोषण करते हुए नि:स्वार्थ भाव से परस्पर हित साधते हुए परम कल्याण को प्राप्त करो। यह है पर्यावरण से संबंधों का आधार।</blockquote>उपर्युक्त तत्वज्ञान पर आधारित भारतीय जीवन दृष्टि के सूत्र निम्न हैं: |
− | अर्थ है - प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ ( अन्यों के हित के काम) के साथ प्रजा को निर्माण किया और कहा कि परस्पर हित साधते हुए उत्कर्ष (प्रगति) करो। यह है परस्पर सामाजिक संबंधों का आधार। आगे कहा है- | + | # सारी सृष्टि आत्म तत्व का ही विस्तार है। मनुष्य परमात्मा का ही सर्वश्रेष्ठ रूप है। एकात्मता सृष्टि के सभी व्यवहारों का आधारभूत सिध्दांत है। परस्पर संबंधों का आधार पारिवारिक भावना है। |
− | देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:
| + | # सृष्टि चेतन से बनीं है जड से नहीं। |
− | परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ ११ ॥
| + | # जीवन स्थल (वर्तमान चर-अचर सृष्टि को प्रभावित करने वाला और उस से प्रभावित होने वाला) और काल (सृष्टि के निर्माण से लेकर सृष्टि के अंत तक) के संदर्भ में अखंड है। पुनर्जन्म ही काल के संदर्भ में अखंडता है। |
− | अर्थ है - देवताओं ( वायू, वरुण, अग्नि, पृथ्वि आदि यानी पर्यावरण) का पोषण करते हुए नि:स्वार्थ भाव से परस्पर हित साधते हुए परम कल्याण को प्राप्त करो। यह है पर्यावरण से संबंधों का आधार। | + | # सृष्टि की रचना परस्पर पूरक और चक्रीय है। |
− | उपर्युक्त तत्वज्ञान पर आधारित भारतीय जीवन दृष्टि के सूत्र निम्न हैं।
| + | # कर्म ही मानव जीवन का नियमन करते हैं। कर्मसिध्दांत इसे समझने का साधन है। अच्छे (परोपकार या पुण्य) कर्म जीवन को अच्छा और बुरे (परपीडा या पाप) कर्म जीवन को बुरा बनाते हैं। |
− | १. सारी सृष्टि आत्म तत्व का ही विस्तार है। मनुष्य परमात्मा का ही सर्वश्रेष्ठ रूप है। एकात्मता सृष्टि के सभी व्यवहारों का आधारभूत सिध्दांत है। परस्पर संबंधों का आधार पारिवारिक भावना है।
| + | # मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। सामाजिक जीवन का लक्ष्य 'स्वतंत्रता' है। उपर्युक्त जीवन दृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्रों की चर्चा हमने [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|यहाँ]] की है। |
− | २. सृष्टि चेतन से बनीं है जड से नहीं।
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− | ३. जीवन स्थल (वर्तमान चर-अचर सृष्टि को प्रभावित करने वाला और उस से प्रभावित होने वाला) और काल (सृष्टि के निर्माण से लेकर सृष्टि के अंत तक) के संदर्भ में अखंड है। पुनर्जन्म ही काल के संदर्भ में अखंडता है।
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− | ४. सृष्टि की रचना परस्पर पूरक और चक्रीय है।
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− | ५. कर्म ही मानव जीवन का नियमन करते हैं। कर्मसिध्दांत इसे समझने का साधन है। अच्छे (परोपकार या पुण्य) कर्म जीवन को अच्चा और बुरे (परपीडा या पाप) कर्म जीवन को बुरा बनाते हैं।
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− | ६. मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। सामाजिक जीवन का लक्ष्य 'स्वतंत्रता' है। उपर्युक्त जीवन दृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्रों की चर्चा हमने पूर्व के अध्याय ८ में की है।
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| == यूरो-अमरिकी व्यवस्था समूह == | | == यूरो-अमरिकी व्यवस्था समूह == |
− | यूरो-अमरिकी समाजने अपनी विश्व दृष्टि ( वर्ल्ड व्हू) के अनुसार जीवन जीने के जो व्यवहार सूत्र बनाए उन्हें व्यवहार में लाना संभव हो इस लिये व्यवस्थाओं का एक समूह भी निर्माण किया। ये व्यवस्थाएं एक और तो उन की जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करन संभव बनातीं हैं तो दूसरी और प्रतिमान की अन्य व्यवस्थाओं को भी पुष्ट बनातीं हैं। इन सभी का आधार व्यक्तिवाद, इहवाद और जडवाद ही है। | + | यूरो-अमरिकी समाजने अपनी विश्व दृष्टि ( वर्ल्ड व्हू) के अनुसार जीवन जीने के जो व्यवहार सूत्र बनाए उन्हें व्यवहार में लाना संभव हो इस लिये व्यवस्थाओं का एक समूह भी निर्माण किया। ये व्यवस्थाएं एक और तो उन की जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करन संभव बनातीं हैं तो दूसरी और प्रतिमान की अन्य व्यवस्थाओं को भी पुष्ट बनातीं हैं। इन सभी का आधार व्यक्तिवाद, इहवाद और जडवाद ही है। |
− | व्यवस्थाओं से दो प्रकार की आवश्यकता पूर्ण होती है। पहली आवश्यकता यह होती है कि समाज के घटकों को समाज का तत्वज्ञान और व्यवहार सिखाना। और दूसरी आवश्यकता होती है वह समाज अपने तत्वज्ञान और व्यवहार के अनुसार जी सके इस लिये।
| + | |
− | यूरो अमरिकी प्रतिमान की सोच यह है कि समाज की सभी व्यवथाओं का स्वरूप तय करना और व्यवस्थाओं का निर्माण करना यह शासन का कर्तव्य भी है और जिम्मेदारी भी है। इस मान्यता का शासन के स्वरूप से, यानी शासन किंग का है या लोकतंत्रात्मक है इस से कोई संबंध नहीं है। इस यूरो अमरिकी प्रतिमान में शासक सर्वसत्ताधीश होता है। सर्वोपरि होता है। शासन अपनी योग्यता और क्षमताओं के आधार पर समाज को निर्देशित, नियंत्रित और नियमित करता है। व्यक्तिवादी समाज में इस व्यवस्था समूह को बदलना लगभग असंभव होता है। शासन बदल जाता है किन्तु उसका 'स्व'रूप या स्वभाव नहीं बदलता। इसी लिये किंग के काल में भी और लोकतंत्र के काल में भी शासन सर्वोपरि ही रहा।
| + | व्यवस्थाओं से दो प्रकार की आवश्यकता पूर्ण होती है। पहली आवश्यकता यह होती है कि समाज के घटकों को समाज का तत्वज्ञान और व्यवहार सिखाना। और दूसरी आवश्यकता होती है वह समाज अपने तत्वज्ञान और व्यवहार के अनुसार जी सके इस लिये। |
− | इस व्यवस्था समूह का ढाँचा निम्न स्वरूप का होगा।
| + | यूरो अमरिकी प्रतिमान की सोच यह है कि समाज की सभी व्यवथाओं का स्वरूप तय करना और व्यवस्थाओं का निर्माण करना यह शासन का कर्तव्य भी है और जिम्मेदारी भी है। इस मान्यता का शासन के स्वरूप से, यानी शासन किंग का है या लोकतंत्रात्मक है इस से कोई संबंध नहीं है। इस यूरो अमरिकी प्रतिमान में शासक सर्वसत्ताधीश होता है। सर्वोपरि होता है। शासन अपनी योग्यता और क्षमताओं के आधार पर समाज को निर्देशित, नियंत्रित और नियमित करता है। व्यक्तिवादी समाज में इस व्यवस्था समूह को बदलना लगभग असंभव होता है। शासन बदल जाता है किन्तु उसका 'स्व'रूप या स्वभाव नहीं बदलता। इसी लिये किंग के काल में भी और लोकतंत्र के काल में भी शासन सर्वोपरि ही रहा। इस व्यवस्था समूह का ढाँचा निम्न स्वरूप का होगा: |
− | शासन व्यवस्था | + | {| class="wikitable" |
− | प्रशासन सुरक्षा अर्थ न्याय शिक्षा | + | |+ |
− | प्रसिध्द भारतीय चिंतक और विद्वान डॉ. देवेन्द्र स्वरूप अपनी पुस्तिका ' भारत में ब्रिटिश शिक्षा नीति का विकास' में पृष्ठ ७ पर प्रतिमान का और शिक्षा व्यवस्था का संबंध विषद करते हैं। 'शिक्षा प्रणालि के संबंध में विचार करने से पूर्व हमें यह विचार करना ओगा कि हम राष्ट्र में कैसा मनुष्य बनाना चाहते हैं, उसकी जीवनशैली क्या होगी, उसका पारिवारिक और सामाजिक परिवेष कैसा होगा? अर्थात् राष्ट्र की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रचना कैसी होगी? | + | ! colspan="5" |शासन व्यवस्था |
− | इसी पृष्ठ पर देवेन्द्रस्वरूपजी लिखते हैं- प्रारंभ में उन्होंने ( अंग्रेजों ने) भारत की पुरानी राजस्व, न्याय, प्रशासन प्रणालि से ही काम चलाना चाहा और साथ ही अपने साम्राज्य के चिर स्थायित्व के लिये अंग्रेजी शिक्षा का आरोपण करने की कोशिश भी की; किन्तु ये कोशिशें बेकार गयीं। तब उन्होंने अनुभव किया कि शिक्षा प्रणालि का किसी देश की राजस्व, न्याय, प्रशासन और अर्थव्यवस्था से गहरा संबंध होता है।
| + | |- |
− | ऐसा होने के कारण इन सभी व्यवस्थाओं का आधार उस समाज के जीवन के प्रतिमान की साझी जीवनदृष्टि और उस पर आधारित व्यवहार सूत्र होते हैं। इस कारण किसी प्रतिमान के व्यवस्था समूह में से केवल एक व्यवस्था को जो भिन्न जीवन दृष्टि पर आधारित है, बदलना संभव नहीं होता।
| + | |प्रशासन |
− | भारतीय व्यवस्था समूह | + | |सुरक्षा |
− | भारतीय प्रतिमान के व्यवस्था समूह का ढाँचा निम्न प्रकार का है। | + | |अर्थ |
− | ऐसा ढांचे का चित्र या ऐसे ढाँचे का विवरण भी अन्य किसी शास्त्रीय ग्रन्थ में से नहीं लिया गया है। यह तो लेखक ने अपनी समझ के अनुसार यह ढांचा कैसा हो सकता है उसकी रूपरेखा अपनी कल्पनासे ही बनाई है। | + | |न्याय |
− | धर्म व्यवस्था
| + | |शिक्षा |
− | व्यापक शिक्षा व्यवस्था
| + | |} |
− | (सामाजिक व्यवस्थाओं का परिचालक) गृहस्थ ( चारों आश्रमियों का आश्रय)
| + | प्रसिध्द भारतीय चिंतक और विद्वान डॉ. देवेन्द्र स्वरूप प्रतिमान का और शिक्षा व्यवस्था का संबंध विषद करते हैं<ref>डॉ. देवेन्द्र स्वरूप, ' भारत में ब्रिटिश शिक्षा नीति का विकास' पृष्ठ 7</ref>। 'शिक्षा प्रणाली के संबंध में विचार करने से पूर्व हमें यह विचार करना ओगा कि हम राष्ट्र में कैसा मनुष्य बनाना चाहते हैं, उसकी जीवनशैली क्या होगी, उसका पारिवारिक और सामाजिक परिवेष कैसा होगा? अर्थात् राष्ट्र की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रचना कैसी होगी? |
− | संन्यास शासन वानप्रस्थ गृह गुरुकुल ग्रामकुल जाति
| + | इसी पृष्ठ पर देवेन्द्रस्वरूपजी लिखते हैं- प्रारंभ में उन्होंने (अंग्रेजों ने) भारत की पुरानी राजस्व, न्याय, प्रशासन प्रणाली से ही काम चलाना चाहा और साथ ही अपने साम्राज्य के चिर स्थायित्व के लिये अंग्रेजी शिक्षा का आरोपण करने की कोशिश भी की; किन्तु ये कोशिशें बेकार गयीं। तब उन्होंने अनुभव किया कि शिक्षा प्रणाली का किसी देश की राजस्व, न्याय, प्रशासन और अर्थव्यवस्था से गहरा संबंध होता है। |
− | मोक्ष रक्षण लोकशिक्षा -----ब्रह्मचर्य------ समाज पोषण समाज पोषण
| + | |
− | साधना और श्रेष्ठबीज निर्माण शास्त्रशिक्षा और और
| + | ऐसा होने के कारण इन सभी व्यवस्थाओं का आधार उस समाज के जीवन के प्रतिमान की साझी जीवनदृष्टि और उस पर आधारित व्यवहार सूत्र होते हैं। इस कारण किसी प्रतिमान के व्यवस्था समूह में से केवल एक व्यवस्था को जो भिन्न जीवन दृष्टि पर आधारित है, बदलना संभव नहीं होता। |
− | न्याय पोषण धर्मशिक्षा रक्षण जीवनावश्यक
| + | |
− | स्वभाव-संस्कार स्वभाव-शिक्षा विधाएँ
| + | == भारतीय व्यवस्था समूह == |
− | कर्मशिक्षा/धर्मशिक्षा पोषण
| + | भारतीय प्रतिमान के व्यवस्था समूह का ढाँचा निम्न प्रकार का है। |
| + | ऐसा ढांचे का चित्र या ऐसे ढाँचे का विवरण भी अन्य किसी शास्त्रीय ग्रन्थ में से नहीं लिया गया है। यह तो लेखक ने अपनी समझ के अनुसार यह ढांचा कैसा हो सकता है उसकी रूपरेखा अपनी कल्पना से ही बनाई है। |
| + | [[File:Part 1 Last Chapter Table Bhartiya Jeevan Pratiman.jpg|center|thumb|969x969px|भारतीय व्यवस्था समूह]] |
| भारत में कभी भी सामाजिक व्यवस्थाओं के स्वरूप को तय करने की जिम्मेदारी राजा या शासक की नहीं रही। धर्मसत्ता द्वारा प्रस्तुत व्यवस्थाओं को स्थापित करने की जिम्मेदारी राजा की या शासन की होती थी। रघुवंशम् में कालिदास इस की पुष्टि करते हैं। राजा की या कभी गणतंत्रात्मक शासन रहा तब भी शासन की जिम्मेदारी धर्माचार्यों द्वारा निर्मित धर्मशास्त्र या समाजशास्त्र के अनुपालन करने की और करवाने की ही रही। धर्म का अनुपालन करने वाला समाज निर्माण करने और उसे धर्माचरणी बनाए रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने एक व्यवस्था समूह निर्माण किया था। ऐतिहासिक कारणों से ये व्यवस्थाएं दुर्बल हुईं। काल के प्रवाह में इन में कुछ दोष भी निर्माण हुए। लेकिन फिर भी यह व्यवस्था समूह अंग्रेज शासन भारत में स्थापित हुआ तब तक प्रत्यक्ष अस्तित्व में रहा। | | भारत में कभी भी सामाजिक व्यवस्थाओं के स्वरूप को तय करने की जिम्मेदारी राजा या शासक की नहीं रही। धर्मसत्ता द्वारा प्रस्तुत व्यवस्थाओं को स्थापित करने की जिम्मेदारी राजा की या शासन की होती थी। रघुवंशम् में कालिदास इस की पुष्टि करते हैं। राजा की या कभी गणतंत्रात्मक शासन रहा तब भी शासन की जिम्मेदारी धर्माचार्यों द्वारा निर्मित धर्मशास्त्र या समाजशास्त्र के अनुपालन करने की और करवाने की ही रही। धर्म का अनुपालन करने वाला समाज निर्माण करने और उसे धर्माचरणी बनाए रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने एक व्यवस्था समूह निर्माण किया था। ऐतिहासिक कारणों से ये व्यवस्थाएं दुर्बल हुईं। काल के प्रवाह में इन में कुछ दोष भी निर्माण हुए। लेकिन फिर भी यह व्यवस्था समूह अंग्रेज शासन भारत में स्थापित हुआ तब तक प्रत्यक्ष अस्तित्व में रहा। |
| इस व्यवस्था समूह की व्यवस्था के तीन पहलू थे। पोषक व्यवस्था, रक्षक व्यवस्था और प्रेरक व्यवस्था। इन में प्रेरक व्यवस्था तब ही ठीक से काम कर सकती है जब उस के साथ में पोषक और रक्षक व्यवस्था भी काम करती है। इस लिये समाज की सभी व्यवस्थाओं में यह तीनों पहलू विकेंद्रित स्वरूप में ढाले गये थे। प्रेरक यानी शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरण सिखाने का था। भारतीय प्रतिमान में प्रेरक व्यवस्थाओं को अत्यंत श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगों को धर्माचरणी बनाना शिक्षा व्यवस्था का काम है। जो ५-१० प्रतिशत लोग इस प्रेरक व्यवस्था के प्रयासों के उपरांत भी अधर्माचरण करते थे, उन के लिये ही शासन व्यवस्था यानी दण्ड विधान की आवश्यकता होती है। यदि प्रेरक और पोषक व्यवस्थाओं के माध्यम से समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगों को धर्माचरणी नहीं बनाया गया तो रक्षक व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर सकती। यूरो अमरिकी शिक्षा की दस पीढियाँ बीतने के बाद भी यदि अब भी काफी मात्रा में यूरोप या अमरिकी समाजों की तुलना में हम 'पारिवारिक भावना' को अभी तक बचा पाए हैं तो वह अभी भी अपना अस्तित्व बनाए रखने वाली समानान्तर शिक्षा व्यवस्था, परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था आदि के कारण है। | | इस व्यवस्था समूह की व्यवस्था के तीन पहलू थे। पोषक व्यवस्था, रक्षक व्यवस्था और प्रेरक व्यवस्था। इन में प्रेरक व्यवस्था तब ही ठीक से काम कर सकती है जब उस के साथ में पोषक और रक्षक व्यवस्था भी काम करती है। इस लिये समाज की सभी व्यवस्थाओं में यह तीनों पहलू विकेंद्रित स्वरूप में ढाले गये थे। प्रेरक यानी शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरण सिखाने का था। भारतीय प्रतिमान में प्रेरक व्यवस्थाओं को अत्यंत श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगों को धर्माचरणी बनाना शिक्षा व्यवस्था का काम है। जो ५-१० प्रतिशत लोग इस प्रेरक व्यवस्था के प्रयासों के उपरांत भी अधर्माचरण करते थे, उन के लिये ही शासन व्यवस्था यानी दण्ड विधान की आवश्यकता होती है। यदि प्रेरक और पोषक व्यवस्थाओं के माध्यम से समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगों को धर्माचरणी नहीं बनाया गया तो रक्षक व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर सकती। यूरो अमरिकी शिक्षा की दस पीढियाँ बीतने के बाद भी यदि अब भी काफी मात्रा में यूरोप या अमरिकी समाजों की तुलना में हम 'पारिवारिक भावना' को अभी तक बचा पाए हैं तो वह अभी भी अपना अस्तित्व बनाए रखने वाली समानान्तर शिक्षा व्यवस्था, परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था आदि के कारण है। |
Line 85: |
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| वर्तमान व्यवस्था समूह या पूरे मानव जीवन का प्रतिमान यूरो-अमरिकी बन गया है। विश्व के अन्य समाजों के पास इसे अपनाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है। इस प्रतिमान के कारण कई संकट निर्माण हो रहे हैं यह जानते हुए भी सभी समाज, जो औरों का होगा वह हमारा भी होगा यह मान रहे हैं। एक भारत के पास ही इस प्रतिमान से श्रेष्ठ प्रतिमान देने के लिये विकल्प है। इसके कुछ अवशेष समाज जीवन में मुसलमानों ने नष्ट और अंग्रेजों ने भ्रष्ट करने के उपरांत भी बचे हुए साहित्य में उपलब्ध हैं। | | वर्तमान व्यवस्था समूह या पूरे मानव जीवन का प्रतिमान यूरो-अमरिकी बन गया है। विश्व के अन्य समाजों के पास इसे अपनाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है। इस प्रतिमान के कारण कई संकट निर्माण हो रहे हैं यह जानते हुए भी सभी समाज, जो औरों का होगा वह हमारा भी होगा यह मान रहे हैं। एक भारत के पास ही इस प्रतिमान से श्रेष्ठ प्रतिमान देने के लिये विकल्प है। इसके कुछ अवशेष समाज जीवन में मुसलमानों ने नष्ट और अंग्रेजों ने भ्रष्ट करने के उपरांत भी बचे हुए साहित्य में उपलब्ध हैं। |
| वर्तमान प्रतिमान में धीरे धीरे भारतीय प्रतिमान के कुछ बिन्दू जोड कर इसे भारतीय बनाने का प्रयास करने वाले व्यक्ति, संस्थाएं और संगठन लाखों की संख्या में हैं। ये सभी व्यक्ति, संस्थाएं और संगठन पूरी श्रध्दा, समर्पण भाव, और प्रामाणिकता से प्रयास कर रहे हैं। इन प्रयासों के कारण भारतीय प्रतिमान को रौंदने की गति कुछ कम भी हुई है, लेकिन बंद नहीं हुई है। ऐसे प्रयासों का प्रारंभ तो १९ वीं सदी के मध्य से ही हो गया था। इन प्रयासों की गति और शक्ति भी निरंतर बढ रही है। लेकिन यूरो-अमरिकी प्रतिमान को मिलने वाली समाज की मान्यता भी इन प्रयासों की अपेक्षाओं के विपरीत, बढती ही जा रही है। अतएव ऐसे प्रयासों से मिलने वाले तात्कालिक और अत्यंत सीमित लाभ के लालच को छोड कर शुध्द रूप से भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठापना के प्रयास करने होंगे। इस परिवर्तन के लिये प्रचंड इच्छाशक्ति, वैचारिक मंथन, और प्रेरक और निवारक शक्ति की आवश्यकता होगी। | | वर्तमान प्रतिमान में धीरे धीरे भारतीय प्रतिमान के कुछ बिन्दू जोड कर इसे भारतीय बनाने का प्रयास करने वाले व्यक्ति, संस्थाएं और संगठन लाखों की संख्या में हैं। ये सभी व्यक्ति, संस्थाएं और संगठन पूरी श्रध्दा, समर्पण भाव, और प्रामाणिकता से प्रयास कर रहे हैं। इन प्रयासों के कारण भारतीय प्रतिमान को रौंदने की गति कुछ कम भी हुई है, लेकिन बंद नहीं हुई है। ऐसे प्रयासों का प्रारंभ तो १९ वीं सदी के मध्य से ही हो गया था। इन प्रयासों की गति और शक्ति भी निरंतर बढ रही है। लेकिन यूरो-अमरिकी प्रतिमान को मिलने वाली समाज की मान्यता भी इन प्रयासों की अपेक्षाओं के विपरीत, बढती ही जा रही है। अतएव ऐसे प्रयासों से मिलने वाले तात्कालिक और अत्यंत सीमित लाभ के लालच को छोड कर शुध्द रूप से भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठापना के प्रयास करने होंगे। इस परिवर्तन के लिये प्रचंड इच्छाशक्ति, वैचारिक मंथन, और प्रेरक और निवारक शक्ति की आवश्यकता होगी। |
− | जिस प्रकार अपनी शिक्षा प्रणालि को भारत में स्थापित करने के लिये अंग्रेजों ने यहाँ की शासन प्रणालि, कर प्रणालि, अर्थ व्यवस्था, न्याय व्यवस्था आदि को नष्ट कर भारतीय समाज में वैकल्पिक व्यवस्थाओं की माँग निर्माण की। शायद ऐसा ही कुछ हमें भी करना होगा। विनोबा भावे ने शिक्षा को भारतीय बनाने की दृष्टि से ऐसे ही प्रयोग का सुझाव दिया था। उन की सूचना को गंभीरता से लेने का समय आ गया है। | + | जिस प्रकार अपनी शिक्षा प्रणाली को भारत में स्थापित करने के लिये अंग्रेजों ने यहाँ की शासन प्रणाली, कर प्रणाली, अर्थ व्यवस्था, न्याय व्यवस्था आदि को नष्ट कर भारतीय समाज में वैकल्पिक व्यवस्थाओं की माँग निर्माण की। शायद ऐसा ही कुछ हमें भी करना होगा। विनोबा भावे ने शिक्षा को भारतीय बनाने की दृष्टि से ऐसे ही प्रयोग का सुझाव दिया था। उन की सूचना को गंभीरता से लेने का समय आ गया है। |
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