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== प्राक्कथन ==
 
== प्राक्कथन ==
जीते तो सभी हैं। लेकिन हर समाज का जीने का तरीका होता है। उस समाज की समझ के अनुसार यह तरीका अन्य समाजों से श्रेष्ठ जीने का तरीका होता है। इस जीवन जीने के तरीके को जीवनशैली कहते हैं। जीवनशैली का आधार उस समाज की जीवन जीने के संबंध में कुछ मान्यताएं होती हैं। इन मान्यताओं को उस समाज की जीवनदृष्टि कहते हैं। यह मान्यताएं या जीवनदृष्टि और जीवनशैली उस समाज की विश्वदृष्टि पर आधारित होते हैं। विश्वदृष्टि का अर्थ है उस समाज की विश्व या चर-अचर सृष्टि के निर्माण से संबंधित मान्यताएं। इन्हीं को उस समाज का तत्त्वज्ञान भी कहते हैं। यह मान्यताएं या विश्व दृष्टि ही व्यक्ति के अन्य मानवों से संबंध और व्यक्ति के और अन्यों के चर-अचर सृष्टि के साथ संबंध तय करती है।  
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जीते तो सभी हैं। लेकिन हर समाज का जीने का तरीका होता है। उस समाज की समझ के अनुसार यह तरीका अन्य समाजों से श्रेष्ठ जीने का तरीका होता है। इस जीवन जीने के तरीके को जीवनशैली कहते हैं। जीवनशैली का आधार उस समाज की जीवन जीने के संबंध में कुछ मान्यताएं होती हैं। इन मान्यताओं को उस समाज की जीवनदृष्टि कहते हैं। यह मान्यताएं या जीवनदृष्टि और जीवनशैली उस समाज की विश्वदृष्टि पर आधारित होते हैं। विश्वदृष्टि का अर्थ है उस समाज की विश्व या चर-अचर सृष्टि के निर्माण से संबंधित मान्यताएं। इन्हीं को उस समाज का तत्वज्ञान भी कहते हैं। यह मान्यताएं या विश्व दृष्टि ही व्यक्ति के अन्य मानवों से संबंध और व्यक्ति के और अन्यों के चर-अचर सृष्टि के साथ संबंध तय करती है।  
अपनी विश्व दृष्टि और उस पर आधारित जीवनदृष्टि के अनुसार समाज जीवन चले इस लिये वह समाज कुछ व्यवस्थाओं का समूह निर्माण करता है। ये व्यवस्थाएं समान मान्यताओं को आधार मान कर निर्माण की जातीं हैं। इस लिये ये व्यवस्थाएं एक दूसरे की पूरक भी होतीं हैं और मददरूप भी होतीं हैं। इस व्यवस्था समूह को ही उस समाज की विश्वदृष्टि यानी जीवन दृष्टि और जीवनशैली के साथ मिला कर उस समाज के जीवन का प्रतिमान कहते हैं। अंग्रेजी में इसे पॅरेडिम कहते हैं।
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वर्तमान शिक्षा वर्तमान अभारतीय जीवन के प्रतिमान का ही एक हिस्सा है। इस शिक्षा का जिन पर गहरा प्रभाव है उन्हें लगता है कि मानव जाति अष्म या पाषाण युग से निरंतर श्रेष्ठ बन रही है। वर्तमान मानव और मानव जाति से भविष्य की मानव और मानव जाति अधिक श्रेष्ठ होंगे। किन्तु जो इस शिक्षा से प्रभावित नहीं हुए हैं, या जो भारतीय काल गणना की समझ रखते हैं उन्हें अपने अनुभवों से भी और भारतीय शास्त्रों के कथन के अनुसार भी लगता है कि मानव जाति का निरंतर ह्रास हो रहा है। सत्ययुग का मानव आप्रर मानव जाति अत्यंत श्रेष्ठ थे। काम और मोह से मुक्त थे। त्रेता युग में सत्ययुग के मानव का ह्रास हुवा। द्वापर में उस से भी अधिक ह्रास हुवा। कलियुग में द्वापर से भी स्थिति और बिगडी और निरंतर बिगड रही है। किसे क्या लगता है इस का संबंध वह मानव या मानव समाज, किस प्रतिमान को ठीक मानता है इस से है।
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अपनी विश्व दृष्टि और उस पर आधारित जीवनदृष्टि के अनुसार समाज जीवन चले इस लिये वह समाज कुछ व्यवस्थाओं का समूह निर्माण करता है। ये व्यवस्थाएं समान मान्यताओं को आधार मान कर निर्माण की जातीं हैं। इस लिये ये व्यवस्थाएं एक दूसरे की पूरक भी होतीं हैं और मददरूप भी होतीं हैं। इस व्यवस्था समूह को ही उस समाज की विश्वदृष्टि यानी जीवन दृष्टि और जीवनशैली के साथ मिला कर उस समाज के जीवन का प्रतिमान कहते हैं। अंग्रेजी में इसे पॅरेडिम (paradigm) कहते हैं।  
भारत में जयचंद को तो देशद्रोही माना जाता है लेकिन बिभीषण को नहीं। इस का संबंध जीवन के भारतीय प्रतिमान को ठीक मानने से है। सिकंदर, चंगेज हान आदि जैसे लोग जो अपने कौशल की विधा के क्षेत्र में अत्यंत श्रेष्ठ थे उन्हें, जिन में ये जन्मे थे वे अभारतीय समाज अपने महापुरूष मानते हैं। अनुकरणीय मानते हैं। किन्तु भारतीय दृष्टि में बडप्पन का या अनुकरणीयता का प्राथमिक निकष उस का चारित्र्य माना जाता है। बुध्दिमत्ता, पराक्रम, कौशल आदि दूसरे आप्रर गौण स्थान पर आते हैं। रावण महा पराक्रमी था। बुध्दिमान था। राजनीति विशेषज्ञ था। किन्तु हम कभी उसे बडा या अनुकरणीय नहीं मानते। हम किसी बच्चे को 'तुम रावण जैसे महान बनो' एप्रसा आशिर्वाद नहीं देते। इस का कारण वह अन्य अनेक गुण होने पर भी हीन चरित्र का था, यह है। 1/10
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वैदिक गणित के प्रस्तोता जगद्गुरू शंकराचार्य श्री भारती कृष्ण तीर्थ कहते थे,' भारतीय और अभारतीय यह दोनों पूर्णत: भिन्न बातें हैं। (दीज आर टू डिफ्रंट एव्हरीथिंग्ज)। उन के इस कथन का संदर्भ जीवन जीने के तत्त्वज्ञान, व्यवहार आप्रर व्यवस्था समूह से बने भारतीय और अभारतीय प्रतिमानों से है।  
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वर्तमान शिक्षा वर्तमान अभारतीय जीवन के प्रतिमान का ही एक हिस्सा है। इस शिक्षा का जिन पर गहरा प्रभाव है उन्हें लगता है कि मानव जाति अष्म या पाषाण युग से निरंतर श्रेष्ठ बन रही है। वर्तमान मानव और मानव जाति से भविष्य की मानव और मानव जाति अधिक श्रेष्ठ होंगे। किन्तु जो इस शिक्षा से प्रभावित नहीं हुए हैं, या जो भारतीय काल गणना की समझ रखते हैं उन्हें अपने अनुभवों से भी और भारतीय शास्त्रों के कथन के अनुसार भी लगता है कि मानव जाति का निरंतर ह्रास हो रहा है। सत्ययुग का मानव और मानव जाति अत्यंत श्रेष्ठ थे। काम और मोह से मुक्त थे। त्रेता युग में सत्ययुग के मानव का ह्रास हुआ। द्वापर में उस से भी अधिक ह्रास हुआ। कलियुग में द्वापर से भी स्थिति और बिगडी और निरंतर बिगड रही है। किसे क्या लगता है इस का संबंध वह मानव या मानव समाज, किस प्रतिमान को ठीक मानता है इस से है।  
आगे अब हम तत्त्वज्ञान पर आधारित जीवनदृष्टि, जीवनशैली (व्यवहार), आप्रर व्यवस्था समूहों से बनने वाले प्रतिमानों को समझने का प्रयास करेंगे। देशिक शास्त्र में इसी तत्त्वज्ञान पर आधारित जीवनदृष्टि को उस समाज का 'स्वभाव' या 'चिति' कहा है। इस जीवनदृष्टि के अनुरूप वह समाज सर्व मान्य ऐसे कुछ व्यवहार सूत्र तय करता है और उन के अनुसार प्रत्यक्ष व्यवहार करता है। ऐसा व्यवहार सर्व सामान्य मनुष्य भी कर सके इस लिये वह व्यवस्थाओं का समूह निर्माण करता है। समाज के इस प्रकार अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करने और  व्यवस्था समूह निर्माण कर आगे बढने को ही देशिक शास्त्र में उस समाज के विराट का जागरण होता है एप्रसा कहा गया है। चिति और विराट मिलाकर उस समाज के जीवन का प्रतिमान बनता है।  
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सर्व प्रथम हम अभारतीय विश्व दृष्टि (वर्ल्ड व्ह्यू) या तत्वज्ञान पर आधारित जीवनदृष्टि आप्रर उस के अनुसार निर्माण किये व्यवहार सूत्र (जीवनशैली) और आगे इन के लिये उपयुक्त व्यवस्था समूह को भी समझने का प्रयास करेंगे।  
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भारत में जयचंद को तो देशद्रोही माना जाता है लेकिन विभीषण को नहीं। इस का संबंध जीवन के भारतीय प्रतिमान को ठीक मानने से है। सिकंदर, चंगेज खान आदि जैसे लोग जो अपने कौशल की विधा के क्षेत्र में अत्यंत श्रेष्ठ थे उन्हें, जिन में ये जन्मे थे वे अभारतीय समाज अपने महापुरूष मानते हैं। अनुकरणीय मानते हैं। किन्तु भारतीय दृष्टि में बडप्पन का या अनुकरणीयता का प्राथमिक निकष उस का चारित्र्य माना जाता है। बुध्दिमत्ता, पराक्रम, कौशल आदि दूसरे और गौण स्थान पर आते हैं। रावण महा पराक्रमी था। बुध्दिमान था। राजनीति विशेषज्ञ था। किन्तु हम कभी उसे बडा या अनुकरणीय नहीं मानते। हम किसी बच्चे को 'तुम रावण जैसे महान बनो' ऐसा आशिर्वाद नहीं देते। इस का कारण वह अन्य अनेक गुण होने पर भी हीन चरित्र का था, यह है।
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वैदिक गणित के प्रस्तोता जगद्गुरू शंकराचार्य श्री भारती कृष्ण तीर्थ कहते थे,'भारतीय और अभारतीय यह दोनों पूर्णत: भिन्न बातें हैं'। (दीज आर टू डिफ्रंट एव्हरीथिंग्ज)। उन के इस कथन का संदर्भ जीवन जीने के तत्वज्ञान, व्यवहार और व्यवस्था समूह से बने भारतीय और अभारतीय प्रतिमानों से है।  
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आगे अब हम तत्वज्ञान पर आधारित जीवनदृष्टि, जीवनशैली (व्यवहार), और व्यवस्था समूहों से बनने वाले प्रतिमानों को समझने का प्रयास करेंगे। देशिक शास्त्र में इसी तत्वज्ञान पर आधारित जीवनदृष्टि को उस समाज का 'स्वभाव' या 'चिति' कहा है। इस जीवनदृष्टि के अनुरूप वह समाज सर्व मान्य ऐसे कुछ व्यवहार सूत्र तय करता है और उन के अनुसार प्रत्यक्ष व्यवहार करता है। ऐसा व्यवहार सर्व सामान्य मनुष्य भी कर सके इस लिये वह व्यवस्थाओं का समूह निर्माण करता है। समाज के इस प्रकार अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करने और  व्यवस्था समूह निर्माण कर आगे बढने को ही देशिक शास्त्र में उस समाज के विराट का जागरण होता है ऐसा कहा गया है। चिति और विराट मिलाकर उस समाज के जीवन का प्रतिमान बनता है।  
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सर्व प्रथम हम अभारतीय विश्व दृष्टि (वर्ल्ड व्ह्यू) या तत्वज्ञान पर आधारित जीवनदृष्टि और उस के अनुसार निर्माण किये व्यवहार सूत्र (जीवनशैली) और आगे इन के लिये उपयुक्त व्यवस्था समूह को भी समझने का प्रयास करेंगे।  
    
== अभारतीय तत्वज्ञान, जीवनदृष्टि और इन पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
 
== अभारतीय तत्वज्ञान, जीवनदृष्टि और इन पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
वर्तमान विश्व में प्रमुख रूप से जीवन के दो प्रतिमान अस्तित्व में हैं। एक है भारतीय प्रतिमान। यह अभी सूप्त अवस्था में है। जागृत होने के लिये प्रयत्नशील है। दूसरा है यूरो-अमरिकी प्रतिमान। यहूदी, ईसाई आप्रर मुस्लिम समाज इस दूसरे प्रतिमान को मानने वाले हैं। इस प्रतिमान ने भारतीय समाज के साथ ही विश्व के अन्य सभी समाजों को गहराई से प्रभावित किया है। भारतीय समाज छोड कर अन्य सभी समाजों ने इसे सर्वार्थ से या तो अपना लिया है या तेजी से अपना रहे हैं। केवल भारतीय समाज ही अपनी आंतरिक शक्ति के आधार पर पुन: जागृत होने के लिये प्रयत्नशील है।
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वर्तमान विश्व में प्रमुख रूप से जीवन के दो प्रतिमान अस्तित्व में हैं। एक है भारतीय प्रतिमान। यह अभी सुप्त अवस्था में है। जागृत होने के लिये प्रयत्नशील है। दूसरा है यूरो-अमरिकी प्रतिमान। यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाज इस दूसरे प्रतिमान को मानने वाले हैं। इस प्रतिमान ने भारतीय समाज के साथ ही विश्व के अन्य सभी समाजों को गहराई से प्रभावित किया है। भारतीय समाज छोड कर अन्य सभी समाजों ने इसे सर्वार्थ से या तो अपना लिया है या तेजी से अपना रहे हैं। केवल भारतीय समाज ही अपनी आंतरिक शक्ति के आधार पर पुन: जागृत होने के लिये प्रयत्नशील है।
इस यूरो-अमरिकी प्रतिमान को मानने वाले दो तबके हैं। एक तबका है ईसाईयत के तत्त्वज्ञान को आधार मानने वाला। और दूसरा है यूरो-अमरिकी और उन का अनुसरण करने वाले दार्शनिकों का और साईंटिस्टों का। वैसे तो आधुनिक साईंस ने ईसाईयत के कई गंभीर सिध्दांतों की धज्जियाँ उडा दी है, लेकिन फिर भी मोटा-मोटी दोनों तबकों का तत्वज्ञान एक ही है। इस लिये जीवन का प्रतिमान भी एक ही है। इन का तत्वज्ञान निम्न है।
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यूरो-अमरिकी मजहबी दृष्टि के अनुसार विश्व के निर्माण की मान्यता एक जैसी ही है। येहोवा/गॉड/ अल्ला ने पाँच दिन सृष्टि का निर्माण किया आप्रर छठे दिन मानव का निर्माण कर मानव से कहा कि ' यह चर-अचर सृष्टि तुम्हारे उपभोग केलिये है'।  
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इस यूरो-अमरिकी प्रतिमान को मानने वाले दो तबके हैं। एक तबका है ईसाईयत के तत्वज्ञान को आधार मानने वाला। और दूसरा है यूरो-अमरिकी और उन का अनुसरण करने वाले दार्शनिकों का और साईंटिस्टों का। वैसे तो आधुनिक साईंस ने ईसाईयत के कई गंभीर सिध्दांतों की धज्जियाँ उडा दी है, लेकिन फिर भी मोटा-मोटी दोनों तबकों का तत्वज्ञान एक ही है। इस लिये जीवन का प्रतिमान भी एक ही है। इन का तत्वज्ञान निम्न है:
यूरो अमरिकी समाज पर फ्रांसिस बेकन आप्रर रेने देकार्ते इन दो फिलॉसॉफरों क ी फिलॉसॉफिी का गहरा प्रभाव है। इन का तत्त्वज्ञान कहता है कि प्रकृति मानव की दासी है। इसे कस कर अपनी जकड में रखना चाहिये। मानव जम कर इस का शोषण कर सके इसी लिये इस का निर्माण हुवा है। इस लिये प्रकृतिे का मानव ने जम कर (टू द हिल्ट) शोषण करना चाहिये।
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यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों और उन का अनुसरण करने वाले भारतीय समेत विश्व के सभी साईंटिस्टों की विश्वदृष्टि का आधार डार्विन की ' विकास वाद' और मिलर की 'जड से रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण' की परिकल्पनाएं ही हैं। मानव इन रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदों में सर्वश्रेष्ठ है। इस लिये इसे अपने स्वार्थ के लिये अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं नष्ट करने का पूरा अधिकार है।
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यूरो-अमरिकी मजहबी दृष्टि के अनुसार विश्व के निर्माण की मान्यता एक जैसी ही है। येहोवा/गॉड/ अल्ला ने पाँच दिन सृष्टि का निर्माण किया और छठे दिन मानव का निर्माण कर मानव से कहा कि ' यह चर-अचर सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिये है'।
मजहब या रिलीजन, फिलॉऑफरों की फिलॉसॉफि और साईंटिस्टों के एप्रसे तीनों के प्रभाव के कारण जो अभारतीय जीवन दृष्टि बनीं है उस के तीन मुख्य पहलू हैं।
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१. व्यक्तिवादिता : सारी सृष्टि केवल मेरे उपभोग के लिये बनीं है।
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यूरो अमरिकी समाज पर फ्रांसिस बेकन और रेने देकार्ते इन दो फिलॉसॉफरों की फिलॉसॉफिी का गहरा प्रभाव है। इन का तत्वज्ञान कहता है कि प्रकृति मानव की दासी है। इसे कस कर अपनी जकड में रखना चाहिये। मानव जम कर इस का शोषण कर सके इसी लिये इस का निर्माण हुआ है। इस लिये प्रकृतिे का मानव ने जम कर (टू द हिल्ट) शोषण करना चाहिये।
२. जडवादिता : सृष्टि में सब जड ही है। चेतनावान कुछ भी नहीं है।  
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३. इहवादिता : जो कुछ है यही जन्म है। इस से नहीं तो पहले कुछ था और ना ही आगे कुछ है। इस जीवनदृष्टि के अनुसार जो व्यवहार सूत्र बने वे निम्न हैं।
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यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों और उन का अनुसरण करने वाले भारतीय समेत विश्व के सभी साईंटिस्टों की विश्वदृष्टि का आधार डार्विन की 'विकास वाद' और मिलर की 'जड से रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण' की परिकल्पनाएं ही हैं। मानव इन रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदों में सर्वश्रेष्ठ है। इस लिये इसे अपने स्वार्थ के लिये अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं नष्ट करने का पूरा अधिकार है।
१. अनिर्बाध व्यक्तिस्वातंत्र्य (अनलिमिटेड इंडिव्हिज्युल लिबर्टि)
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२. बलवान ही जीने का अधिकारी (व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट)
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मजहब या रिलीजन, फिलॉऑफरों की फिलॉसॉफि और साईंटिस्टों के ऐसे तीनों के प्रभाव के कारण जो अभारतीय जीवन दृष्टि बनीं है उस के तीन मुख्य पहलू हैं:
३. दुर्बल का शोषण (एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक)
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# व्यक्तिवादिता : सारी सृष्टि केवल मेरे उपभोग के लिये बनीं है।
४. सारी चराचर सृष्टि मेरे अनिर्बाध उपभोग के लिये बनी है। इस पर मेरा अधिकार है। इस के प्रति मेरा कोई कर्तव्य नहीं है। (राईट्स् बट नो डयूटीज)
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# जडवादिता : सृष्टि में सब जड ही है। चेतनावान कुछ भी नहीं है।
५. अन्य मानव भी सृष्टि का उपभाप्रग अपना अनिर्बाध अधिकार मानते हैं। इस लिये मुझे अपने उपभोग (जीने)  के लिये अन्यों से संघर्ष करना होगा। (फाईट फॉर सर्व्हायव्हल)
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# इहवादिता : जो कुछ है यही जन्म है। इस से नहीं तो पहले कुछ था और ना ही आगे कुछ है।  
६. उपभोग के लिये मुझे केवल यही जीवन मिला है। इस जीवन से पहले मै नहीं था आप्रर इस जीवन के समाप्त होने के बाद भी मै नहीं रहूंग़ा। इस लिये जितना उपभोग कर सकूँ, कर लूँ। (कंझ्यूमेरिझम्)। इहवादिता (धिस इज द ओन्ली लाईफ। देयर वॉज नथिंग बिफोर एँड देयर शॅल बी नथिंग बियाँड धिस लाईफ)  
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इस जीवनदृष्टि के अनुसार जो व्यवहार सूत्र बने वे निम्न हैं:
७. मेरी रासायनिक प्रक्रिया (जीवन) अच्छी चले (स्वार्थ) यह महत्वपूर्ण है। इस लिये किसी अन्य रासायनिक प्रक्रिया में बाधा आती है (परपीडा होती है) तो भले आये। अन्य कोई रासायनिक प्रक्रिया बंद होती है (जीवन नष्ट होता है) तो भले हो जाये।  
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# अनिर्बाध व्यक्तिस्वातंत्र्य (अनलिमिटेड इंडिव्हिज्युल लिबर्टि - unlimited individual liberty)
८. चैतन्य को नकारने के कारण सृष्टि के विभिन्न अस्तित्वों में स्थित अंतर्निहित एकात्मता को अमान्य करने के कारण टुकडों में विचार करने की सोच। (पीसमील एॅप्रोच)।  
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# बलवान ही जीने का अधिकारी (सर्वायवल ऑफ द फिटेस्ट - survival of the fittest)
९. सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों का आधार स्वार्थ ही है। सामाजिक संबंधों का आधार इसी लिये 'काँट्रॅक्ट' या करार या समझौता या एॅग्रीमेंट होता है।
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# दुर्बल का शोषण (एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक - exploitation of the weak)
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# सारी चराचर सृष्टि मेरे अनिर्बाध उपभोग के लिये बनी है। इस पर मेरा अधिकार है। इस के प्रति मेरा कोई कर्तव्य नहीं है। (राईट्स् बट नो डयूटीज) Rights but no duties
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# अन्य मानव भी सृष्टि का upbhog उपभाप्रग अपना अनिर्बाध अधिकार मानते हैं। इस लिये मुझे अपने उपभोग (जीने)  के लिये अन्यों से संघर्ष करना होगा। (फाईट फॉर सर्व्हायव्हल) fight for survival।  ६. उपभोग के लिये मुझे केवल यही जीवन मिला है। इस जीवन से पहले मै नहीं था और इस जीवन के समाप्त होने के बाद भी मै नहीं रहूंग़ा। इस लिये जितना उपभोग कर सकूँ, कर लूँ। (कंझ्यूमेरिझम्) consumerism । इहवादिता (धिस इज द ओन्ली लाईफ। देयर वॉज नथिंग बिफोर एँड देयर शॅल बी नथिंग बियाँड धिस लाईफ) This is the only life. There was nothing before and there shall be nothing beyond this life ७. मेरी रासायनिक प्रक्रिया (जीवन) अच्छी चले (स्वार्थ) यह महत्वपूर्ण है। इस लिये किसी अन्य रासायनिक प्रक्रिया में बाधा आती है (परपीडा होती है) तो भले आये। अन्य कोई रासायनिक प्रक्रिया बंद होती है (जीवन नष्ट होता है) तो भले हो जाये। ८. चैतन्य को नकारने के कारण सृष्टि के विभिन्न अस्तित्वों में स्थित अंतर्निहित एकात्मता को अमान्य करने के कारण टुकडों में विचार करने की सोच। (पीसमील एॅप्रोच) piecemeal approach ९. सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों का आधार स्वार्थ ही है। सामाजिक संबंधों का आधार इसी लिये 'काँट्रॅक्ट' या करार या समझौता या एॅग्रीमेंट होता है।
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== भारतीय तत्त्वज्ञान और जीवन दृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
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== भारतीय तत्वज्ञान और जीवन दृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
भारतीय मान्यता के अनुसार परमात्मा अकेला था। उसे लगा 'एकाकी न रमते' यानी उसे अकेलापन खलने लगा। 'सो कामयत्' यानी उसने सोचा  'एकोऽहं बहुस्याम:' यानी एक हूँ अनेक हो जाऊं। उसने तप किया। अपने में से ही सारी सृष्टि का निर्माण किया। इस लिये कण कण, चर अचर सब परमात्मा के ही रूप हैं। सारी सृष्टि यह उस परमात्त्व तत्त्व का ही विस्तार मात्र है। इस लिये सृष्टि के सारे घटक एक दूसरे से 'आत्मीयता' के भाव से जुडे हैं।
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भारतीय मान्यता के अनुसार परमात्मा अकेला था। उसे लगा 'एकाकी न रमते' यानी उसे अकेलापन खलने लगा। 'सो कामयत्' यानी उसने सोचा  'एकोऽहं बहुस्याम:' यानी एक हूँ अनेक हो जाऊं। उसने तप किया। अपने में से ही सारी सृष्टि का निर्माण किया। इस लिये कण कण, चर अचर सब परमात्मा के ही रूप हैं। सारी सृष्टि यह उस परमात्त्व तत्व का ही विस्तार मात्र है। इस लिये सृष्टि के सारे घटक एक दूसरे से 'आत्मीयता' के भाव से जुडे हैं।
 
समाज निर्माण और परस्पर सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के ३रे अध्याय में १० वें और ११  वें श्लोक में कहा है -
 
समाज निर्माण और परस्पर सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के ३रे अध्याय में १० वें और ११  वें श्लोक में कहा है -
 
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:  अनेन प्रसविश्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक ॥ १० ॥
 
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:  अनेन प्रसविश्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक ॥ १० ॥
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परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ ११ ॥
 
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ ११ ॥
 
अर्थ है - देवताओं ( वायू, वरुण, अग्नि, पृथ्वि आदि यानी पर्यावरण) का पोषण करते हुए नि:स्वार्थ भाव से परस्पर हित साधते हुए परम कल्याण को प्राप्त करो। यह है पर्यावरण से संबंधों का आधार।
 
अर्थ है - देवताओं ( वायू, वरुण, अग्नि, पृथ्वि आदि यानी पर्यावरण) का पोषण करते हुए नि:स्वार्थ भाव से परस्पर हित साधते हुए परम कल्याण को प्राप्त करो। यह है पर्यावरण से संबंधों का आधार।
उपर्युक्त तत्त्वज्ञान पर आधारित भारतीय जीवन दृष्टि के सूत्र निम्न हैं।  
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उपर्युक्त तत्वज्ञान पर आधारित भारतीय जीवन दृष्टि के सूत्र निम्न हैं।  
१. सारी सृष्टि आत्म तत्त्व का ही विस्तार है। मनुष्य परमात्मा का ही सर्वश्रेष्ठ रूप है। एकात्मता सृष्टि के सभी व्यवहारों का आधारभूत सिध्दांत है। परस्पर संबंधों का आधार पारिवारिक भावना है।  
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१. सारी सृष्टि आत्म तत्व का ही विस्तार है। मनुष्य परमात्मा का ही सर्वश्रेष्ठ रूप है। एकात्मता सृष्टि के सभी व्यवहारों का आधारभूत सिध्दांत है। परस्पर संबंधों का आधार पारिवारिक भावना है।  
 
२. सृष्टि चेतन से बनीं है जड से नहीं।  
 
२. सृष्टि चेतन से बनीं है जड से नहीं।  
 
३. जीवन स्थल (वर्तमान चर-अचर सृष्टि को प्रभावित करने वाला और उस से प्रभावित होने वाला) और काल (सृष्टि के निर्माण से लेकर सृष्टि के अंत तक) के संदर्भ में अखंड है। पुनर्जन्म ही काल के संदर्भ में अखंडता है।
 
३. जीवन स्थल (वर्तमान चर-अचर सृष्टि को प्रभावित करने वाला और उस से प्रभावित होने वाला) और काल (सृष्टि के निर्माण से लेकर सृष्टि के अंत तक) के संदर्भ में अखंड है। पुनर्जन्म ही काल के संदर्भ में अखंडता है।
 
४. सृष्टि की रचना परस्पर पूरक और चक्रीय है।  
 
४. सृष्टि की रचना परस्पर पूरक और चक्रीय है।  
५. कर्म ही मानव जीवन का नियमन करते हैं। कर्मसिध्दांत इसे समझने का साधन है। अच्छे (परोपकार या पुण्य) कर्म जीवन को अच्चा आप्रर बुरे (परपीडा या पाप) कर्म जीवन को बुरा बनाते हैं।  
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५. कर्म ही मानव जीवन का नियमन करते हैं। कर्मसिध्दांत इसे समझने का साधन है। अच्छे (परोपकार या पुण्य) कर्म जीवन को अच्चा और बुरे (परपीडा या पाप) कर्म जीवन को बुरा बनाते हैं।  
 
६. मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। सामाजिक जीवन का लक्ष्य 'स्वतंत्रता' है। उपर्युक्त जीवन दृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्रों की चर्चा हमने पूर्व के अध्याय ८ में की है।
 
६. मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। सामाजिक जीवन का लक्ष्य 'स्वतंत्रता' है। उपर्युक्त जीवन दृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्रों की चर्चा हमने पूर्व के अध्याय ८ में की है।
    
== यूरो-अमरिकी व्यवस्था समूह ==
 
== यूरो-अमरिकी व्यवस्था समूह ==
 
यूरो-अमरिकी समाजने अपनी विश्व दृष्टि ( वर्ल्ड व्हू) के अनुसार जीवन जीने के जो व्यवहार सूत्र बनाए उन्हें व्यवहार में लाना संभव हो इस लिये व्यवस्थाओं का एक समूह भी निर्माण किया। ये व्यवस्थाएं एक और तो उन की जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करन संभव बनातीं हैं तो दूसरी और प्रतिमान की अन्य व्यवस्थाओं को भी पुष्ट बनातीं हैं। इन सभी का आधार व्यक्तिवाद, इहवाद और जडवाद ही है।  
 
यूरो-अमरिकी समाजने अपनी विश्व दृष्टि ( वर्ल्ड व्हू) के अनुसार जीवन जीने के जो व्यवहार सूत्र बनाए उन्हें व्यवहार में लाना संभव हो इस लिये व्यवस्थाओं का एक समूह भी निर्माण किया। ये व्यवस्थाएं एक और तो उन की जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करन संभव बनातीं हैं तो दूसरी और प्रतिमान की अन्य व्यवस्थाओं को भी पुष्ट बनातीं हैं। इन सभी का आधार व्यक्तिवाद, इहवाद और जडवाद ही है।  
व्यवस्थाओं से दो प्रकार की आवश्यकता पूर्ण होती है। पहली आवश्यकता यह होती है कि समाज के घटकों को समाज का तत्त्वज्ञान आप्रर व्यवहार सिखाना। और दूसरी आवश्यकता होती है वह समाज अपने तत्त्वज्ञान आप्रर व्यवहार के अनुसार जी सके इस लिये।  
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व्यवस्थाओं से दो प्रकार की आवश्यकता पूर्ण होती है। पहली आवश्यकता यह होती है कि समाज के घटकों को समाज का तत्वज्ञान और व्यवहार सिखाना। और दूसरी आवश्यकता होती है वह समाज अपने तत्वज्ञान और व्यवहार के अनुसार जी सके इस लिये।  
यूरो अमरिकी प्रतिमान की सोच यह है कि समाज की सभी व्यवथाओं का स्वरूप तय करना और व्यवस्थाओं का निर्माण करना यह शासन का कर्तव्य भी है और जिम्मेदारी भी है। इस मान्यता का शासन के स्वरूप से, यानी शासन किंग का है या लोकतंत्रात्मक है इस से कोई संबंध नहीं है। इस यूरो अमरिकी प्रतिमान में शासक सर्वसत्ताधीश होता है। सर्वोपरि होता है। शासन अपनी योग्यता आप्रर क्षमताओं के आधार पर समाज को निर्देशित, नियंत्रित और नियमित करता है। व्यक्तिवादी समाज में इस व्यवस्था समूह को बदलना लगभग असंभव होता है। शासन बदल जाता है किन्तु उसका 'स्व'रूप या स्वभाव नहीं बदलता। इसी लिये किंग के काल में भी और लोकतंत्र के काल में भी शासन सर्वोपरि ही रहा।  
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यूरो अमरिकी प्रतिमान की सोच यह है कि समाज की सभी व्यवथाओं का स्वरूप तय करना और व्यवस्थाओं का निर्माण करना यह शासन का कर्तव्य भी है और जिम्मेदारी भी है। इस मान्यता का शासन के स्वरूप से, यानी शासन किंग का है या लोकतंत्रात्मक है इस से कोई संबंध नहीं है। इस यूरो अमरिकी प्रतिमान में शासक सर्वसत्ताधीश होता है। सर्वोपरि होता है। शासन अपनी योग्यता और क्षमताओं के आधार पर समाज को निर्देशित, नियंत्रित और नियमित करता है। व्यक्तिवादी समाज में इस व्यवस्था समूह को बदलना लगभग असंभव होता है। शासन बदल जाता है किन्तु उसका 'स्व'रूप या स्वभाव नहीं बदलता। इसी लिये किंग के काल में भी और लोकतंत्र के काल में भी शासन सर्वोपरि ही रहा।  
 
इस व्यवस्था समूह का ढाँचा निम्न स्वरूप का होगा।
 
इस व्यवस्था समूह का ढाँचा निम्न स्वरूप का होगा।
 
शासन व्यवस्था
 
शासन व्यवस्था
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    स्वभाव-संस्कार स्वभाव-शिक्षा       विधाएँ  
 
    स्वभाव-संस्कार स्वभाव-शिक्षा       विधाएँ  
 
      कर्मशिक्षा/धर्मशिक्षा    पोषण
 
      कर्मशिक्षा/धर्मशिक्षा    पोषण
भारत में कभी भी सामाजिक व्यवस्थाओं के स्वरूप को तय करने की जिम्मेदारी राजा या शासक की नहीं रही। धर्मसत्ता द्वारा प्रस्तुत व्यवस्थाओं को स्थापित करने की जिम्मेदारी राजा की या शासन की होती थी। रघुवंशम् में कालिदास इस की पुष्टि करते हैं। राजा की या कभी गणतंत्रात्मक शासन रहा तब भी शासन की जिम्मेदारी धर्माचार्यों द्वारा निर्मित धर्मशास्त्र या समाजशास्त्र के अनुपालन करने की और करवाने की ही रही। धर्म का अनुपालन करने वाला समाज निर्माण करने और उसे धर्माचरणी बनाए रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने एक व्यवस्था समूह निर्माण किया था। ऐतिहासिक कारणों से ये व्यवस्थाएं दुर्बल हुईं। काल के प्रवाह में इन में कुछ दोष भी निर्माण हुए। लेकिन फिर भी यह व्यवस्था समूह अंग्रेज शासन भारत में स्थापित हुवा तब तक प्रत्यक्ष अस्तित्व में रहा।  
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भारत में कभी भी सामाजिक व्यवस्थाओं के स्वरूप को तय करने की जिम्मेदारी राजा या शासक की नहीं रही। धर्मसत्ता द्वारा प्रस्तुत व्यवस्थाओं को स्थापित करने की जिम्मेदारी राजा की या शासन की होती थी। रघुवंशम् में कालिदास इस की पुष्टि करते हैं। राजा की या कभी गणतंत्रात्मक शासन रहा तब भी शासन की जिम्मेदारी धर्माचार्यों द्वारा निर्मित धर्मशास्त्र या समाजशास्त्र के अनुपालन करने की और करवाने की ही रही। धर्म का अनुपालन करने वाला समाज निर्माण करने और उसे धर्माचरणी बनाए रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने एक व्यवस्था समूह निर्माण किया था। ऐतिहासिक कारणों से ये व्यवस्थाएं दुर्बल हुईं। काल के प्रवाह में इन में कुछ दोष भी निर्माण हुए। लेकिन फिर भी यह व्यवस्था समूह अंग्रेज शासन भारत में स्थापित हुआ तब तक प्रत्यक्ष अस्तित्व में रहा।  
इस व्यवस्था समूह की व्यवस्था के तीन पहलू थे। पोषक व्यवस्था, रक्षक व्यवस्था आप्रर प्रेरक व्यवस्था। इन में प्रेरक व्यवस्था तब ही ठीक से काम कर सकती है जब उस के साथ में पोषक और रक्षक व्यवस्था भी काम करती है। इस लिये समाज की सभी व्यवस्थाओं में यह तीनों पहलू विकेंद्रित स्वरूप में ढाले गये थे। प्रेरक यानी शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरण सिखाने का था। भारतीय प्रतिमान में प्रेरक व्यवस्थाओं को अत्यंत श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगों को धर्माचरणी बनाना शिक्षा व्यवस्था का काम है। जो ५-१० प्रतिशत लोग इस प्रेरक व्यवस्था के प्रयासों के उपरांत भी अधर्माचरण करते थे, उन के लिये ही शासन व्यवस्था यानी दण्ड विधान की आवश्यकता होती है। यदि प्रेरक और पोषक व्यवस्थाओं के माध्यम से समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगों को धर्माचरणी नहीं बनाया गया तो रक्षक व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर सकती। यूरो अमरिकी शिक्षा की दस पीढियाँ बीतने के बाद भी यदि अब भी काफी मात्रा में यूरोप या अमरिकी समाजों की तुलना में हम 'पारिवारिक भावना' को अभी तक बचा पाए हैं तो वह अभी भी अपना अस्तित्व बनाए रखने वाली समानान्तर शिक्षा व्यवस्था, परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था आदि के कारण है।  
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इस व्यवस्था समूह की व्यवस्था के तीन पहलू थे। पोषक व्यवस्था, रक्षक व्यवस्था और प्रेरक व्यवस्था। इन में प्रेरक व्यवस्था तब ही ठीक से काम कर सकती है जब उस के साथ में पोषक और रक्षक व्यवस्था भी काम करती है। इस लिये समाज की सभी व्यवस्थाओं में यह तीनों पहलू विकेंद्रित स्वरूप में ढाले गये थे। प्रेरक यानी शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरण सिखाने का था। भारतीय प्रतिमान में प्रेरक व्यवस्थाओं को अत्यंत श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगों को धर्माचरणी बनाना शिक्षा व्यवस्था का काम है। जो ५-१० प्रतिशत लोग इस प्रेरक व्यवस्था के प्रयासों के उपरांत भी अधर्माचरण करते थे, उन के लिये ही शासन व्यवस्था यानी दण्ड विधान की आवश्यकता होती है। यदि प्रेरक और पोषक व्यवस्थाओं के माध्यम से समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगों को धर्माचरणी नहीं बनाया गया तो रक्षक व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर सकती। यूरो अमरिकी शिक्षा की दस पीढियाँ बीतने के बाद भी यदि अब भी काफी मात्रा में यूरोप या अमरिकी समाजों की तुलना में हम 'पारिवारिक भावना' को अभी तक बचा पाए हैं तो वह अभी भी अपना अस्तित्व बनाए रखने वाली समानान्तर शिक्षा व्यवस्था, परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था आदि के कारण है।  
उपर्युक्त ढाँचा भारतीय प्रतिमान की मोटी मोटी अभिव्यक्ति है। इस में धर्म व्यवस्था सामाजिक नीति नियम अर्थात् धर्माचरण के व्यावहारिक सूत्र तय करने का और अधर्माचरण के व्यवहार के लिये दण्ड विधान बनाने का काम करती है। अर्थात् शास्त्रीय भाषा में श्रृति के आधार पर 'स्मृति' निर्माण करने का काम करती है। इस प्रकार प्रेरक, पोषक तथा निवारक/रक्षक ऐसी तीनों व्यवस्थाओं का मार्गदर्शन करती है। इस मार्गदर्शन का माध्यम शिक्षा व्यवस्था होती है। इस लिये शिक्षा का या ज्ञानसत्ता का स्थान धर्मसत्ता से नीचे किन्तु शासन की अन्य सत्ताआप्त से ऊपर का होता है। ब्रह्मचर्य आश्रम, गुरूकुल या विद्याकेन्द्र आप्रर कुछ प्रमाण में परिवारों में भी वर्णानुसारी और जीवन के लिये उपयुक्त ऐसे सभी पहलुओं की शिक्षा दी जाती है। लोग जब वर्ण के अनुसर व्यवहार करते हैं तब समाज सुसंस्कृत बनता है। और जब लोग अपनी अपनी जाति के अनुसार व्यवसाय करते हैं समाज समृध्द बनता है। रक्षक या निवारक व्यवस्थाएं समाज और व्यक्तियों की संस्कृति और समृध्दि की रक्षा के लिये होती हैं। वर्ण और आश्रम यह व्यवस्थाएं समाज की रचना की व्यवस्थाएं हैं। परिवार व्यवस्था श्रेष्ठ मानव को जन्म देकर उसे वर्णानुसार संस्कारित करने की व्यवस्था है। यह व्यवस्था पारिवारिक भावना के विकास की भी व्यवस्था है। यह समाज व्यवस्था का लघु-रूप है। सामाजिकता की शिक्षा की नींव डालना परिवार व्यवस्था का काम है। इस कारण इस में पोषक, प्रेरक और रक्षक ऐसी तीनों व्यवस्थाओं का समावेश होता है। इसी प्रकार से जन्म से लेकर मृत्यू पर्यंत तक मनुष्य की बढती और घटती क्षमताओं और योग्यताओं के समायोजन की भी व्यवस्था परिवार में होती है। जाति व्यवस्था, परिवार और ग्रामकुल यह तीनों मिल कर अर्थ व्यवस्था यानी समाज की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली व्यवस्था बनती है। रक्षक व्यवस्था भी इन तीनों व्यवस्थाओं में और चौथे शासन व्यवस्था में विकेन्द्रित रूप में स्थापित होती है। परिवार के जाति के या ग्राम के स्तर पर जब प्रेरक, पोषक आप्रर रक्षक व्यवस्था अव्यवस्थित हो जाती है या उस का हल नहीं निकल पाता है तब ही केवल शासन व्यवस्था की भूमिका शुरू होती है। जाति व्यवस्था, कौटुंबिक उद्योग और ग्रामकुल में आवश्यकताओं और उत्पादन का समायोजन ठीक से होने से समाज की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति समाज आप ही कर लेता है। ऐसा समाज कभी अन्य समाजों की लूट करने के लिये आक्रमण नहीं करता।
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उपर्युक्त ढाँचा भारतीय प्रतिमान की मोटी मोटी अभिव्यक्ति है। इस में धर्म व्यवस्था सामाजिक नीति नियम अर्थात् धर्माचरण के व्यावहारिक सूत्र तय करने का और अधर्माचरण के व्यवहार के लिये दण्ड विधान बनाने का काम करती है। अर्थात् शास्त्रीय भाषा में श्रृति के आधार पर 'स्मृति' निर्माण करने का काम करती है। इस प्रकार प्रेरक, पोषक तथा निवारक/रक्षक ऐसी तीनों व्यवस्थाओं का मार्गदर्शन करती है। इस मार्गदर्शन का माध्यम शिक्षा व्यवस्था होती है। इस लिये शिक्षा का या ज्ञानसत्ता का स्थान धर्मसत्ता से नीचे किन्तु शासन की अन्य सत्ताआप्त से ऊपर का होता है। ब्रह्मचर्य आश्रम, गुरूकुल या विद्याकेन्द्र और कुछ प्रमाण में परिवारों में भी वर्णानुसारी और जीवन के लिये उपयुक्त ऐसे सभी पहलुओं की शिक्षा दी जाती है। लोग जब वर्ण के अनुसर व्यवहार करते हैं तब समाज सुसंस्कृत बनता है। और जब लोग अपनी अपनी जाति के अनुसार व्यवसाय करते हैं समाज समृध्द बनता है। रक्षक या निवारक व्यवस्थाएं समाज और व्यक्तियों की संस्कृति और समृध्दि की रक्षा के लिये होती हैं। वर्ण और आश्रम यह व्यवस्थाएं समाज की रचना की व्यवस्थाएं हैं। परिवार व्यवस्था श्रेष्ठ मानव को जन्म देकर उसे वर्णानुसार संस्कारित करने की व्यवस्था है। यह व्यवस्था पारिवारिक भावना के विकास की भी व्यवस्था है। यह समाज व्यवस्था का लघु-रूप है। सामाजिकता की शिक्षा की नींव डालना परिवार व्यवस्था का काम है। इस कारण इस में पोषक, प्रेरक और रक्षक ऐसी तीनों व्यवस्थाओं का समावेश होता है। इसी प्रकार से जन्म से लेकर मृत्यू पर्यंत तक मनुष्य की बढती और घटती क्षमताओं और योग्यताओं के समायोजन की भी व्यवस्था परिवार में होती है। जाति व्यवस्था, परिवार और ग्रामकुल यह तीनों मिल कर अर्थ व्यवस्था यानी समाज की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली व्यवस्था बनती है। रक्षक व्यवस्था भी इन तीनों व्यवस्थाओं में और चौथे शासन व्यवस्था में विकेन्द्रित रूप में स्थापित होती है। परिवार के जाति के या ग्राम के स्तर पर जब प्रेरक, पोषक और रक्षक व्यवस्था अव्यवस्थित हो जाती है या उस का हल नहीं निकल पाता है तब ही केवल शासन व्यवस्था की भूमिका शुरू होती है। जाति व्यवस्था, कौटुंबिक उद्योग और ग्रामकुल में आवश्यकताओं और उत्पादन का समायोजन ठीक से होने से समाज की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति समाज आप ही कर लेता है। ऐसा समाज कभी अन्य समाजों की लूट करने के लिये आक्रमण नहीं करता।
 
वर्तमान में अर्थसत्ता सर्वोपरि बनी हुई है। राजसत्ता उस के निर्देशन में चलती है। शिक्षा अर्थात् ज्ञानसत्ता शासन के नियंत्रण में है। और धर्मसत्ता का तो कहीं नामोनिशान तक दिखाई नहीं देता। प्रतिमान के व्यवस्था समूह की यह एकदम उलटी स्थिती है। धर्म सत्ता के निर्देशन में जब ज्ञानसत्ता शासन और अर्थव्यवस्था को निर्देशित करती है तब समाज ठीक दिशा में सोचता भी है और आगे भी बढता है।  
 
वर्तमान में अर्थसत्ता सर्वोपरि बनी हुई है। राजसत्ता उस के निर्देशन में चलती है। शिक्षा अर्थात् ज्ञानसत्ता शासन के नियंत्रण में है। और धर्मसत्ता का तो कहीं नामोनिशान तक दिखाई नहीं देता। प्रतिमान के व्यवस्था समूह की यह एकदम उलटी स्थिती है। धर्म सत्ता के निर्देशन में जब ज्ञानसत्ता शासन और अर्थव्यवस्था को निर्देशित करती है तब समाज ठीक दिशा में सोचता भी है और आगे भी बढता है।  
 
वर्ण व्यवस्था का एक काम तो वर्णों की निश्चिती करने का था। बालक के वर्ण के अनुसार उसके लिये संस्कार और शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था करने का था। ऐसा करने से उस बालक को भी लाभ होता है और समाज को भी लाभ होता था। दूसरा काम था वर्ण संकर के कारण निर्माण हुई जातियों के नाम, काम (व्यावसायिक कौशल का क्षेत्र) और जातिधर्म को तय करना। जातिव्यवस्था के काम जातिगत अनुशासन, व्यवसाय कौशलों में वृध्दि की व्यवस्था, जातिगत व्यावसायिक ज्ञान का विकास करना और जाति बांधवों को सदाचारी और सर्वहितकारी बनाए रखना, यह थे।  
 
वर्ण व्यवस्था का एक काम तो वर्णों की निश्चिती करने का था। बालक के वर्ण के अनुसार उसके लिये संस्कार और शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था करने का था। ऐसा करने से उस बालक को भी लाभ होता है और समाज को भी लाभ होता था। दूसरा काम था वर्ण संकर के कारण निर्माण हुई जातियों के नाम, काम (व्यावसायिक कौशल का क्षेत्र) और जातिधर्म को तय करना। जातिव्यवस्था के काम जातिगत अनुशासन, व्यवसाय कौशलों में वृध्दि की व्यवस्था, जातिगत व्यावसायिक ज्ञान का विकास करना और जाति बांधवों को सदाचारी और सर्वहितकारी बनाए रखना, यह थे।  
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