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| प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है । जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था । कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें परमात्मपद की चाह नही है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है । किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम शायद नर बने रह सकते है । अन्यथा नर से नरपशु और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है । नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है । पानी नीचे की ओर ही बहता है । दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते । शिक्षा नही दी जाती । सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है । इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है । वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है । किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है । ऐसे मनुष्य के स्थान को ही नारायणपद या परमात्मपद कहते है । | | प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है । जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था । कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें परमात्मपद की चाह नही है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है । किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम शायद नर बने रह सकते है । अन्यथा नर से नरपशु और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है । नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है । पानी नीचे की ओर ही बहता है । दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते । शिक्षा नही दी जाती । सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है । इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है । वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है । किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है । ऐसे मनुष्य के स्थान को ही नारायणपद या परमात्मपद कहते है । |
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− | संक्षेप में ऐसा कह सकते हैं: <blockquote>परहित करते करते मानव उन्नत होता जाये । </blockquote><blockquote>परहित करते करते करते नर का नारायण हो जाये ॥</blockquote> | + | संक्षेप में ऐसा कह सकते हैं{{Citation needed}} : <blockquote>परहित करते करते मानव उन्नत होता जाये । </blockquote><blockquote>परहित करते करते करते नर का नारायण हो जाये ॥</blockquote> |
− | === २. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात् === | + | === २. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात्{{Citation needed}} === |
| भावार्थ - सब सुखी हों । किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो । किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो । अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों । | | भावार्थ - सब सुखी हों । किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो । किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो । अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों । |
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| एकबार यूडीसीटी के प्राध्यापक से प्रश्न पूछा गया की क्या आप शून्य प्रदूषण रासायनिक उद्योग का लक्ष्य विद्यार्थियों के समक्ष रखते है । उन का उत्तर था की यह संभव नही है । इसलिये ऐसा लक्ष्य नही रखा जाता । परिणाम हम सबके सामने है । कच्चा माल, विभिन्न रासायनिक पदार्थों की गुणवत्ता, योग्य तापमान, योग्य समय और योग्य प्रक्रिया होने से ही सही रासायनिक उत्पादन तैयार होते है । इन में से किसी एक में भी अंतर आने से उत्पादन बिगड जाता है । इस का अर्थ है उत्पादन नही होता। लेकिन प्रदूषण तो होगा ही । इसलिये रासायनिक उद्योगों में शून्य प्रदूषण उद्योग का लक्ष्य ही सामने रखना होगा । | | एकबार यूडीसीटी के प्राध्यापक से प्रश्न पूछा गया की क्या आप शून्य प्रदूषण रासायनिक उद्योग का लक्ष्य विद्यार्थियों के समक्ष रखते है । उन का उत्तर था की यह संभव नही है । इसलिये ऐसा लक्ष्य नही रखा जाता । परिणाम हम सबके सामने है । कच्चा माल, विभिन्न रासायनिक पदार्थों की गुणवत्ता, योग्य तापमान, योग्य समय और योग्य प्रक्रिया होने से ही सही रासायनिक उत्पादन तैयार होते है । इन में से किसी एक में भी अंतर आने से उत्पादन बिगड जाता है । इस का अर्थ है उत्पादन नही होता। लेकिन प्रदूषण तो होगा ही । इसलिये रासायनिक उद्योगों में शून्य प्रदूषण उद्योग का लक्ष्य ही सामने रखना होगा । |
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− | निम्न दोहे में इस तत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है:<blockquote>मानवता हो व्याप्त तभी जब बने सुखी हर जीव ।</blockquote><blockquote>शुभ देखे और स्वस्थ रहें, है मानवता की नींव ॥</blockquote>किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये । आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है । किंतु पारे में औषधि गुण भी है । आयुर्वेद में इसे औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है । किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है । उस के बाद ही वह औषधि बनाने के लिये योग्य बनता है । | + | निम्न दोहे में इस तत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है{{Citation needed}} :<blockquote>मानवता हो व्याप्त तभी जब बने सुखी हर जीव ।</blockquote><blockquote>शुभ देखे और स्वस्थ रहें, है मानवता की नींव ॥</blockquote>किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये । आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है । किंतु पारे में औषधि गुण भी है । आयुर्वेद में इसे औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है । किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है । उस के बाद ही वह औषधि बनाने के लिये योग्य बनता है । |
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| महाभारत काल में हम ब्रह्मास्त्र जैसे अति संहारक अस्त्र के बारे में पढते है । किन्तु आज के अणूध्वम जैसा यह तंत्रज्ञान अधूरी स्थिति में व्यवहार में नहीं लाया गया था । ब्रह्मास्त्र का शमन करने का, छोडे हुए ब्रह्मास्त्र को वापस लेने का तंत्र विकसित करने के बाद ही ब्रह्मास्त्र व्यवहार में लाया गया था । साथ ही में अपात्र को ब्रह्मास्त्र ना देने का भी नियम था । | | महाभारत काल में हम ब्रह्मास्त्र जैसे अति संहारक अस्त्र के बारे में पढते है । किन्तु आज के अणूध्वम जैसा यह तंत्रज्ञान अधूरी स्थिति में व्यवहार में नहीं लाया गया था । ब्रह्मास्त्र का शमन करने का, छोडे हुए ब्रह्मास्त्र को वापस लेने का तंत्र विकसित करने के बाद ही ब्रह्मास्त्र व्यवहार में लाया गया था । साथ ही में अपात्र को ब्रह्मास्त्र ना देने का भी नियम था । |