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| ==महाभारत में सप्तांग सिद्धान्त== | | ==महाभारत में सप्तांग सिद्धान्त== |
− | प्राचीन भारतीय राजनीति में वैदिक साहित्य में राष्ट्र का विशद विकास क्रम प्राप्त होता है। परवर्ती काल में यही राष्ट्र की संकल्पना विकसित, व्यवस्थित तथा संघटित राज्य के रूप में सप्तांग सिद्धान्त के रूप में स्थापित हुआ है। महाभारत में राज्य के राष्ट्रांग स्वरूप के साथ-साथ अष्टांग स्वरूप का भी उल्लेख प्राप्त होता है - <blockquote>सदाप्रकृति चाष्टांगं शरीरमिह यद् विदुः। राज्यस्य दण्डमेवांगं दण्डः प्रभव एव च॥ (शान्तिपर्व १२१/४७)</blockquote>महाभारत में राजा को इन सातों अंगों वाले राज्य के परिपालन का उपदेश दिया गया है - <blockquote>राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे। आत्मामात्यश्च कोशश्च दण्डो मित्राणि चैव हि॥ | + | प्राचीन भारतीय राजनीति में वैदिक साहित्य में राष्ट्र का विशद विकास क्रम प्राप्त होता है। परवर्ती काल में यही राष्ट्र की संकल्पना विकसित, व्यवस्थित तथा संघटित राज्य के रूप में सप्तांग सिद्धान्त के रूप में स्थापित हुआ है। महाभारत में राज्य के राष्ट्रांग स्वरूप के साथ-साथ अष्टांग स्वरूप का भी उल्लेख प्राप्त होता है - <blockquote>सदाप्रकृति चाष्टांगं शरीरमिह यद् विदुः। राज्यस्य दण्डमेवांगं दण्डः प्रभव एव च॥ (शान्तिपर्व १२१/४७)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-121 महाभारत], शान्तिपर्व, अध्याय-121, श्लोक-47।</ref></blockquote>महाभारत में राजा को इन सातों अंगों वाले राज्य के परिपालन का उपदेश दिया गया है - <blockquote>राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे। आत्मामात्यश्च कोशश्च दण्डो मित्राणि चैव हि॥ |
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− | तथा जनपदाश्चैव पुरं च कुरुनन्दन। एतत् सप्तात्मकं राज्यं परिपाल्यं प्रयत्नतः॥ (शान्तिप० ६५/६६)</blockquote>महाभारत में सप्तांग के अवयवों में क्रम भेद है परन्तु अवयवों में समानता है। अग्निपुराण में राज्य के व्यवस्थित स्वरूप स्वामी, अमात्य दुर्ग, कोष, दण्ड, मित्र, जनपद से युक्त वर्णन प्राप्त होता है - | + | तथा जनपदाश्चैव पुरं च कुरुनन्दन। एतत् सप्तात्मकं राज्यं परिपाल्यं प्रयत्नतः॥ (शान्तिप० ६५/६६)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-068 महाभारत] , शांतिपर्व , अध्याय 68, श्लोक 69-70।</ref></blockquote>महाभारत में सप्तांग के अवयवों में क्रम भेद है परन्तु अवयवों में समानता है। अग्निपुराण में राज्य के व्यवस्थित स्वरूप स्वामी, अमात्य दुर्ग, कोष, दण्ड, मित्र, जनपद से युक्त वर्णन प्राप्त होता है - |
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| स्वाम्यमात्याश्च तथा दुर्ग कोषो दण्डस्थैव च। मित्रजनपदश्चैव राज्यं सप्तांगमुच्यते॥(अग्निपुराण२३३/१२) | | स्वाम्यमात्याश्च तथा दुर्ग कोषो दण्डस्थैव च। मित्रजनपदश्चैव राज्यं सप्तांगमुच्यते॥(अग्निपुराण२३३/१२) |
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| आचार्य मनु के अनुसार प्रत्येक अंग अगले अंग से श्रेष्ठ है तथा एक अंग में विकार आने से दूसरे अंग में विकार होता है अतः प्रत्येक अंग एक दूसरे के लिए आवश्यक होता है। प्रत्येक अंग विशेषता से युक्त होता है तथा राज्य संचालन में समान रूप से प्रयोग होता है - <blockquote>सप्तांगस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत्। अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किंचिदतिरिच्यते॥ (मनु० ९/२९६)</blockquote>अर्थात स्वामी, अमात्य, सुहृत, कोश राष्ट्र, दुर्ग और बल से सप्तांग राज्य के रूप में वर्णित है। | | आचार्य मनु के अनुसार प्रत्येक अंग अगले अंग से श्रेष्ठ है तथा एक अंग में विकार आने से दूसरे अंग में विकार होता है अतः प्रत्येक अंग एक दूसरे के लिए आवश्यक होता है। प्रत्येक अंग विशेषता से युक्त होता है तथा राज्य संचालन में समान रूप से प्रयोग होता है - <blockquote>सप्तांगस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत्। अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किंचिदतिरिच्यते॥ (मनु० ९/२९६)</blockquote>अर्थात स्वामी, अमात्य, सुहृत, कोश राष्ट्र, दुर्ग और बल से सप्तांग राज्य के रूप में वर्णित है। |
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− | == कौटिल्य - सप्तांग सिद्धान्त == | + | ==कौटिल्य - सप्तांग सिद्धान्त== |
| कौटिल्य को भारतीय राजनीतिक विचारों का जनक माना जाता है। कौटिल्य ने राज्य के सात अंगों का वर्णन किया है तथा राज्य के सभी अंगों की तुलना शरीर के अंगों से की है। | | कौटिल्य को भारतीय राजनीतिक विचारों का जनक माना जाता है। कौटिल्य ने राज्य के सात अंगों का वर्णन किया है तथा राज्य के सभी अंगों की तुलना शरीर के अंगों से की है। |
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| *कौटिल्य के शब्दों में राज्य चक्र को सुचारु रूप से चलाए जाने के लिए सचिव की नियुक्ति तथा उसके मत को सुनना आवश्यक कहा गया है - | | *कौटिल्य के शब्दों में राज्य चक्र को सुचारु रूप से चलाए जाने के लिए सचिव की नियुक्ति तथा उसके मत को सुनना आवश्यक कहा गया है - |
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− | <blockquote>सहायसाध्यं राजत्वं चक्रमेकं न वर्त्तते। कुर्वीत सचिवांस्तस्मात्तेषां च ऋणुयान्मतम्॥ (अर्थ० 1.7.15)</blockquote>कौटिल्य ने अमात्य व मन्त्री में अन्तर किया है। आचार्य कौटिल्य राजा को योग्य अमात्यों को नियुक्त करके शासन-व्यवस्था संचालित करने का निर्देश करते हैं। उनके अनुसार राजा योग्य पुरुषों को देश, काल तथा कार्य आदि का परीक्षण करके अमात्य नियुक्त करें तथा मन्त्री के रूप में सर्वगुणसम्पन्न व्यक्ति को ही नियुक्त करें - <blockquote>विभज्यामात्यभिवं देशकालौ च कर्म च। अमात्याः सर्व एवैते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः॥ (अर्थ० 1.3.7.3)</blockquote>महाभारत के अनुसार कुलीन, विद्वान, सर्वशास्त्रनिपुण, कृतज्ञ, बलवान, जितेन्द्रिय, स्वदेशवासी, स्वामिभक्त आदि गुणों से युक्त पुरुष को अमात्य बनाना चाहिये। | + | <blockquote>सहायसाध्य राजत्वं चक्रमेकं न वर्त्तते। कुर्वीत सचिवांस्तस्मात्तेषां च शृणुयान्मतम्॥ (अर्थशास्त्र 1.7.15)<ref>प्रो० उदयवीर शास्त्री, [https://archive.org/details/KautilyaKaArthshastra-Hindi-Kautilya/page/n35/mode/1up कौटलीय अर्थशास्त्र-हिन्दी अनुवाद सहित], सन १९२५, अमृतप्रेस, लाहौर (पृ० ३६)।</ref></blockquote>कौटिल्य ने अमात्य व मन्त्री में अन्तर किया है। आचार्य कौटिल्य राजा को योग्य अमात्यों को नियुक्त करके शासन-व्यवस्था संचालित करने का निर्देश करते हैं। उनके अनुसार राजा योग्य पुरुषों को देश, काल तथा कार्य आदि का परीक्षण करके अमात्य नियुक्त करें तथा मन्त्री के रूप में सर्वगुणसम्पन्न व्यक्ति को ही नियुक्त करें - <blockquote>विभज्यामात्यभिवं देशकालौ च कर्म च। अमात्याः सर्व एवैते कार्याः स्युर्न तु मन्त्रिणः॥ (अर्थ० 1.3.7.3)</blockquote>महाभारत के अनुसार कुलीन, विद्वान, सर्वशास्त्रनिपुण, कृतज्ञ, बलवान, जितेन्द्रिय, स्वदेशवासी, स्वामिभक्त आदि गुणों से युक्त पुरुष को अमात्य बनाना चाहिये। |
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| ===जनपद॥ District=== | | ===जनपद॥ District=== |
| + | कौटिल्य ने जनपद की तुलना पैर से की है। जनपद का अर्थ है "जनयुक्त भूमि" कौटिल्य ने जनसंख्या तथा भू-भाग दोनों को जनपद माना है। कौटिल्य ने दस गाँवों के समूह में संग्रहण, दो सौ गाँवों के समूह के बीच सार्वत्रिक, चार सौ गाँवों के समूह के बीच एक द्रोणमुख तथा आठ सौ गाँवों में एक स्थानीय अधिकारी की स्थापना करने की बात कही है। |
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| + | *मनु स्मृति तथा विष्णु स्मृति में जनपद को राष्ट्र कहा गया है। |
| + | *याज्ञवल्क्य स्मृति में जनपद को जन कहा गया है। |
| + | *राष्ट्र से तात्पर्य भू-प्रदेश तथा जन से तात्पर्य जनसंख्या से है। |
| + | *अर्थशास्त्र में जनपद शब्द का प्रयोग भू-प्रदेश तथा जनसंख्या के लिये किया गया है। |
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| + | कौटिल्य ने जनपद के लिये कहा है, कि जनपद की जलवायु अच्छी होनी चाहिये, उसमें पशुओं के लिये चारागाह हो, कम परिश्रम में अधिक अन्न उत्पन्न हो सके, उद्यमी कृषक रहते हों, योग्य पुरुषों का निवास हो तथा जहाँ के निवासी राजभक्त एवं चरित्रवान हों। |
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| ===दुर्ग॥ Durg=== | | ===दुर्ग॥ Durg=== |
| + | दुर्ग राज्य का महत्वपूर्ण अंग था। मनुस्मृति में तथा महाभारत के शान्तिपर्व में दुर्ग को पुर कहा गया है। दुर्ग का शाब्दिक अर्थ किला है, किन्तु अर्थशास्त्र में इसका वर्णन दुर्गीकृत राजधानी से है। दुर्ग निवेश प्रकरण में कौटिल्य ने विशेषतायें बताई हैं कि दुर्ग का निर्माण नगर के केन्द्र भाग में किया जाना चाहिये तथा प्रत्येक वर्ण तथा कारीगरों के निवास के लिये नगर में अलग-अलग व्यवस्था होनी चाहिये। दुर्ग की तुलना बाँहों या भुजाओं से की है तथा उन्होंने चार प्रकार के दुर्गों की चर्चा की है - |
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| + | #'''औदिक दुर्ग -''' जिसके चारों ओर पानी हो। |
| + | #'''पार्वत दुर्ग -''' जिसके चारों ओर चट्टानें हों। |
| + | #'''धान्वन दुर्ग -''' जिसके चारों ओर ऊसर भूमि। |
| + | #'''वन दुर्ग -''' जिसके चारों ओर वन तथा जंगल हो। |
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| ===कोष॥ Treasury=== | | ===कोष॥ Treasury=== |
| + | कोष की तुलना कौटिल्य ने मुख से की है। उन्होंने कोष को राज्य का मुख्य अंग इसलिये माना है क्योंकि उनके अनुसार कोष से ही कोई भी राज्य वृद्धि करता है तथा शक्तिशाली बने रहने के लिए कोष के द्वारा ही अपनी सेना का भरण-पोषण करता है। उन्होंने कोष में वृद्धि का मार्ग कर आरोपण बताया है जिसमें प्रजा को अनाज का छठा, व्यापार का दसवाँ तथा पशु धन के लाभ का पचासवाँ भाग राजा को कर के रूप में देना होता है। क्योंकि - |
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| + | *धर्म तथा काम संबंधी संपूर्ण कार्य कोष के माध्यम से ही संपन्न होते हैं। |
| + | *सेना की स्थिति कोष पर ही निर्भर करती है, कोष के अभावमें सेना दूसरे के पास चली जाती एवं स्वामी की हत्या भी कर देती है। |
| + | *कोष के द्वारा सभी प्रकार के संकट का निर्वाह होता है। |
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| + | राजा को धर्म और न्यायपूर्वक अर्जित कोष अर्थात धन का संग्रह करना चाहिये, कोष स्वर्ण, रजत, बहुमूल्य रत्नों, मणियों एवं मुद्राओं आदि से परिपूर्ण होना चाहिये, ऐसा कोष अकालादि विपत्तियों का सामना करने में समर्थ होता है। |
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| ===दण्ड या सैन्य बल ॥ Penalty=== | | ===दण्ड या सैन्य बल ॥ Penalty=== |
| + | कौटिल्य ने सेना की तुलना मस्तिष्क से की है। उन्होंने सेना के चार प्रकार बताये हैं - हस्ति सेना, अश्व सेना, रथ सेना तथा पैदल सेना। उनके अनुसार सेना ऐसी होनी चाहिये जो साहसी हो, बलशाली हो तथा जिसके हर सैनिक के हृदय में देशप्रेम तथा वीरगति को प्राप्त हो जाने पर जिसके परिवार को उस पर अभिमान हो। दण्ड से तात्पर्य भी सेना से ही है। कौटिल्य ने सेना की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है - |
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| + | * सेना को सदा राजा के अधीन रहना चाहिये। |
| + | * सैनिकों के परिवार का भरण-पोषण राज्य का कर्तव्य है। |
| + | * शत्रु पर चढाई आदि के समय सैनिकों की सुख-सुविधा के लिये आवश्यक भोग्य वस्तुयें उपलब्ध कराना आवश्यक है। |
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| ===मित्र॥ Friends=== | | ===मित्र॥ Friends=== |
| + | मित्र को कौटिल्य ने कान कहा है। उनके अनुसार राज्य की उन्नति के लिये तथा विपत्ति के समय सहायता के लिये राज्य को मित्रों की आवश्यकता होती है। राज्य के सप्तांग सिद्धान्त में मित्र को अन्तिम अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। मित्र की विशेषता इस प्रकार बताई है - |
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| + | * मित्र पिता-पितामह के क्रम से चले आ रहे हों, नित्यकुलीन, दुविधा रहित, महान एवं अवसर के अनुरूप सहायता करने वाले हों। |
| + | * मित्र तथा शत्रु में भेद बताते हुये कहा है कि शत्रु वह है, जो लोभी, अन्यायी, व्यसनी एवं दुराचारी होता है। मित्र इन दुर्गुणों से रहित होता है। |
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− | ===सप्तांग सिद्धान्त का महत्व===
| + | ==सप्तांग सिद्धान्त का महत्व== |
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| *महाभारत, अर्थशास्त्र, शुक्रनीति आदि ग्रन्थों में प्रायः राज्य के संचालन हेतु सात आवश्यक अंगों को आवश्यक माना गया है। | | *महाभारत, अर्थशास्त्र, शुक्रनीति आदि ग्रन्थों में प्रायः राज्य के संचालन हेतु सात आवश्यक अंगों को आवश्यक माना गया है। |
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| + | <references /> |