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*महामते (4.50)
 
*महामते (4.50)
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इन विशेषणों से ही स्पष्ट है कि विदुर परम विद्वान , दूर तक की सोचने वाले , राजनीति – धर्मनीति को भली-भांति जानने वाले , उदार चित्त , एकमात्र महाबुद्धिमान और महामतिवान थे। इतने गुणों से सम्पन्न विदुर ने धृतराष्ट्र को यह नीति-उपदेश ही नहीं दिया किन्तु राजघराने की समस्याओं को भी सुलझाया –  
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इन विशेषणों से ही स्पष्ट है कि विदुर परम विद्वान , दूर तक की सोचने वाले , राजनीति – धर्मनीति को भली-भांति जानने वाले , उदार चित्त , एकमात्र महाबुद्धिमान और महामतिवान थे। इतने गुणों से सम्पन्न विदुर ने धृतराष्ट्र को यह नीति-उपदेश ही नहीं दिया किन्तु राजघराने की समस्याओं को भी सुलझाया –<ref>शोधगंगा-सुजय श्रीवास्तव, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/229701 विदुर का राजधर्म], सन् 2008, शोधकेंद्र - डॉ० राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद (पृ० 38)।</ref>
    
#पांडवों की कठिन परिस्थितियों में उनमें वह लगन भी पैदा की जिससे प्रत्येक पांडुपुत्र अपने-अपने क्षेत्र में आर्यावर्त का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति सिद्ध हुआ।
 
#पांडवों की कठिन परिस्थितियों में उनमें वह लगन भी पैदा की जिससे प्रत्येक पांडुपुत्र अपने-अपने क्षेत्र में आर्यावर्त का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति सिद्ध हुआ।
#लाक्षागृह के षड्यन्त्र से पांडवों को विदुर ने ही बचाया था।
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# लाक्षागृह के षड्यन्त्र से पांडवों को विदुर ने ही बचाया था।
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#धृतराष्ट्र के सलाहकार एवं पाण्डवों के हितरक्षक थे।
 
#जनमत की प्रबलता को आधार बनाकर पुत्रमोह में फंसे धृतराष्ट्र को – पांडवों को कुलवधू द्रौपदी एवं माता कुंती के साथ हस्तिनापुर बुलाया जाए और पूर्ण औपचारिकता के साथ उनका स्वागत किया जाए , जिसे विदुर जी ने पूरा किया।
 
#जनमत की प्रबलता को आधार बनाकर पुत्रमोह में फंसे धृतराष्ट्र को – पांडवों को कुलवधू द्रौपदी एवं माता कुंती के साथ हस्तिनापुर बुलाया जाए और पूर्ण औपचारिकता के साथ उनका स्वागत किया जाए , जिसे विदुर जी ने पूरा किया।
 
#वे आदि से अंत तक कुरु राज्य के प्रति निष्ठावान् रहे , किन्तु इसके साथ ही सदैव निर्भीक होकर धर्म का पक्ष लेते रहे।
 
#वे आदि से अंत तक कुरु राज्य के प्रति निष्ठावान् रहे , किन्तु इसके साथ ही सदैव निर्भीक होकर धर्म का पक्ष लेते रहे।
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नीति की चर्चा महाभारत में कई स्थलों पर आयी। महाभारत में वर्णन आता है कि धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह में कई बार पांडवों के साथ अन्याय किया। इसी वजह से धृतराष्ट्र बहुत दुःखी थे तब उन्होंने अपनी चिन्ता मिटाने के लिए विदुर से उपाय पूछा। विदुर ने जो भी उपदेश धृतराष्ट्र को दिये, वह विदुर नीति के नाम से प्रसिद्ध हुई। महाभारत में उद्योग पर्व के 33वें से 44वें अध्याय तक नीति सम्बन्धी उपदेश संग्रहित हैं इसमें महात्मा विदुर ने राजा धृतराष्ट्र को लोक परलोक की बहुत सी बातें बतायी हैं। प्रस्तुत अध्याय में आप विदुर द्वारा प्रदत्त नीतियों का सूक्ष्म रूप में अध्ययन करेंगे -<ref>शोध गंगा - वीणा महाजन, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/134098 विदुर नीति के विशेष संदर्भ में भारतीय नीतिशास्त्र का अध्ययन], शोध केंद्र - पंजाब विश्वविद्यालय (पृ० 205)।</ref>  
 
नीति की चर्चा महाभारत में कई स्थलों पर आयी। महाभारत में वर्णन आता है कि धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह में कई बार पांडवों के साथ अन्याय किया। इसी वजह से धृतराष्ट्र बहुत दुःखी थे तब उन्होंने अपनी चिन्ता मिटाने के लिए विदुर से उपाय पूछा। विदुर ने जो भी उपदेश धृतराष्ट्र को दिये, वह विदुर नीति के नाम से प्रसिद्ध हुई। महाभारत में उद्योग पर्व के 33वें से 44वें अध्याय तक नीति सम्बन्धी उपदेश संग्रहित हैं इसमें महात्मा विदुर ने राजा धृतराष्ट्र को लोक परलोक की बहुत सी बातें बतायी हैं। प्रस्तुत अध्याय में आप विदुर द्वारा प्रदत्त नीतियों का सूक्ष्म रूप में अध्ययन करेंगे -<ref>शोध गंगा - वीणा महाजन, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/134098 विदुर नीति के विशेष संदर्भ में भारतीय नीतिशास्त्र का अध्ययन], शोध केंद्र - पंजाब विश्वविद्यालय (पृ० 205)।</ref>  
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1- विदुर ने अपनी नीति में पंडितों के विषय में कहा है -<blockquote>निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मण। अबन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते॥ (विदुर नीति 1-29)</blockquote>जो व्यक्ति पहले निश्चय अर्थात् अच्छी प्रकार सोच समझकर फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य के प्रारम्भ होने के पश्चात् बीच में रूकता नहीं है। अपने समय का सदुपयोग करता है अर्थात् समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और अपने चित्त अर्थात् मन को अपने वश में रखता है वही पण्डित कहलाता है। विदुर ने अपने ज्येष्ठ भ्राता धृतराष्ट्र को नीति सम्मत कई उपदेश दिये। विदुर ने मूर्ख के विषय में बताते हुए कहा है -<blockquote>अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्। बलवन्तं च या द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्॥ (विदुर नीति 1-38)</blockquote>जो मनुष्य न चाहने वालों को चाहता है और चाहने योग्य लोगों का परित्याग कर देता है, तथा जो बलवानों के साथ शत्रुवत् बैर बाँधता है, उसे ही के अनुसार मूर्खचित्त वाला मनुष्य कहते हैं। विदुर ने अपनी नीति में कुछ आध्यात्मिक प्रसंगों का वर्णन भी किया है, शरीर रूपी को रूपक मानकर विदुर कहते हैं -<blockquote>रथः शरीरं पुरूषस्य राजन्नात्मा नियन्तेन्द्रियाण्यस्य चाश्वाः। तैरप्रमत्तः कुशली सदश्चैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः॥ (विदुर नीति 4-59)</blockquote>विदुर कहते हैं कि मनुष्य का शरीर ही रथ है। उस रथ रूपी शरीर में बुद्धिसारथि है, और इंद्रियां अश्व हैं, अश्वों को अपने वश में करके सावधान, चातुर्य एवं धीर पुरूष एक रथी की भाँति आनंद पूर्वक जीवन की यात्रा करता है। नारी के विषय में बताते हुए विदुर कहते हैं - <blockquote>पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः। स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः॥ (विदुर नीति) </blockquote>विदुर ने अपनी नीति में कहा है कि नारियाँ घर की लक्ष्मी होती हैं, वे सदा पूजनीया हैं, अत्यन्त भाग्य स्वरूपा हैं, पुण्यशीला हैं। नारियों के इन गुणों से घर की शोभा में वृद्धि अर्थात् घर सुशोभित होता है। अतः वे विशेष रूप से योग्य है। नारी के विषय में बताते हुए विदुर कहते हैं - <blockquote>पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः। स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः॥</blockquote>विदुर ने अपनी नीति में कहा है कि नारियाँ घर की लक्ष्मी होती हैं, वे सदा पूजनीया हैं, अत्यन्त भाग्य स्वरूपा हैं, पुण्यशीला हैं। नारियों के इन गुणों से घर की शोभा में वृद्धि अर्थात् घर सुशोभित होता है। अतः वे विशेष रूप से योग्य है। दीर्घदर्शी विदुर के अनुसार नीतियुक्त कथन न तो कहना अच्छा है और न सुनना अच्छा है। यही सब बातें धृतराष्ट्र विदुर को बताते हुए कहते हैं -<blockquote>सुलभाः पुरूषा राजन् सततं प्रियवादिनः । अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः॥</blockquote>विदुर जी कहते हैं कि राजा के समक्ष सदा प्रिय मधुर वचन बोलने वाले पुरूष तो सुलभ हैं अर्थात् बहुत मिल जाते हैं। किन्तु राजा के समक्ष अप्रिय वचन अर्थात् उसको निन्दित लगने वाले हितकारी वचन को कहने वाले तथा उन वचनों को सुनने वाले मनुष्य दुर्लभ हैं। कहने का तात्पर्य यह है जो अप्रिय लगने वाले हितकारी वचन बोलते हैं ऐसे लोग ना के बराबर मिलते हैं। महात्मा विदुर ने विद्यार्थी के विषय में कहा है-<blockquote>सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्। सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेद् सुखम्॥</blockquote>विदुर जी कहते हैं जो विद्यार्थी और सुखार्थी हैं ये अलग-अलग पहलू व एक दूसरे के विपरीत हैं विद्यार्थी के लिए सुख कहाँ अर्थात् विद्यार्थी को सुख की प्राप्ति नहीं होती है। जो विद्यार्थी सुख की कामना करता है वह विद्या को प्राप्त नहीं कर सकता है कहने का तात्पर्य यह है कि सुख की कामना करने वाले विद्यार्थी को विद्या का त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि विद्या के साथ-साथ सुखों की प्राप्तिनहीं हो सकती। वास्तव में देखा जाय तो महात्मा विदुर ने जो भी उपदेश राजा धृतराष्ट्र को दिये वे सभी नीति परक व राष्ट्र के कल्याण के लिए हितकारी हैं। राजा धृतराष्ट्र कहते हैं कि मैं भी मानता हूँ कि जो धर्म के पक्ष में है विजय उसी की है, मैं भी पाण्डवों के प्रति नीति से पूर्ण बुद्धि रखता हूँ लेकिन पुत्र मोह में फँसकर मैं उसका पालन नहीं कर सका, यही सब बातें महाभारत के उद्योग पर्व में विदुर नीति के नाम से प्रसिद्ध हुई।
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विदुर जी ने अपनी नीति में पंडितों के विषय में कहा है -<blockquote>निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मण। अबन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते॥ (विदुर नीति 1-29)</blockquote>जो व्यक्ति पहले निश्चय अर्थात् अच्छी प्रकार सोच समझकर फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य के प्रारम्भ होने के पश्चात् बीच में रूकता नहीं है। अपने समय का सदुपयोग करता है अर्थात् समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और अपने चित्त अर्थात् मन को अपने वश में रखता है वही पण्डित कहलाता है। विदुर ने अपने ज्येष्ठ भ्राता धृतराष्ट्र को नीति सम्मत कई उपदेश दिये। विदुर ने मूर्ख के विषय में बताते हुए कहा है -<blockquote>अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्। बलवन्तं च या द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्॥ (विदुर नीति 1-38)</blockquote>जो मनुष्य न चाहने वालों को चाहता है और चाहने योग्य लोगों का परित्याग कर देता है, तथा जो बलवानों के साथ शत्रुवत् बैर बाँधता है, उसे ही के अनुसार मूर्खचित्त वाला मनुष्य कहते हैं। विदुर जी ने अपनी नीति में कुछ आध्यात्मिक प्रसंगों का वर्णन भी किया है, शरीर रूपी को रूपक मानकर विदुर कहते हैं -<blockquote>रथः शरीरं पुरूषस्य राजन्नात्मा नियन्तेन्द्रियाण्यस्य चाश्वाः। तैरप्रमत्तः कुशली सदश्चैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः॥ (विदुर नीति 4-59)</blockquote>विदुर कहते हैं कि मनुष्य का शरीर ही रथ है। उस रथ रूपी शरीर में बुद्धिसारथि है, और इंद्रियां अश्व हैं, अश्वों को अपने वश में करके सावधान, चातुर्य एवं धीर पुरूष एक रथी की भाँति आनंद पूर्वक जीवन की यात्रा करता है। नारी के विषय में बताते हुए विदुर जी कहते हैं - <blockquote>पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः। स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः॥ (विदुर नीति) </blockquote>विदुर ने अपनी नीति में कहा है कि नारियाँ घर की लक्ष्मी होती हैं, वे सदा पूजनीया हैं, अत्यन्त भाग्य स्वरूपा हैं, पुण्यशीला हैं। नारियों के इन गुणों से घर की शोभा में वृद्धि अर्थात् घर सुशोभित होता है। अतः वे विशेष रूप से योग्य है। नारी के विषय में बताते हुए विदुर जी कहते हैं - <blockquote>पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः। स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः॥</blockquote>विदुर ने अपनी नीति में कहा है कि नारियाँ घर की लक्ष्मी होती हैं, वे सदा पूजनीया हैं, अत्यन्त भाग्य स्वरूपा हैं, पुण्यशीला हैं। नारियों के इन गुणों से घर की शोभा में वृद्धि अर्थात् घर सुशोभित होता है। अतः वे विशेष रूप से योग्य है। दीर्घदर्शी विदुर के अनुसार नीतियुक्त कथन न तो कहना अच्छा है और न सुनना अच्छा है। यही सब बातें धृतराष्ट्र विदुर को बताते हुए कहते हैं -<blockquote>सुलभाः पुरूषा राजन् सततं प्रियवादिनः । अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः॥</blockquote>विदुर जी कहते हैं कि राजा के समक्ष सदा प्रिय मधुर वचन बोलने वाले पुरूष तो सुलभ हैं अर्थात् बहुत मिल जाते हैं। किन्तु राजा के समक्ष अप्रिय वचन अर्थात् उसको निन्दित लगने वाले हितकारी वचन को कहने वाले तथा उन वचनों को सुनने वाले मनुष्य दुर्लभ हैं। कहने का तात्पर्य यह है जो अप्रिय लगने वाले हितकारी वचन बोलते हैं ऐसे लोग ना के बराबर मिलते हैं। महात्मा विदुर ने विद्यार्थी के विषय में कहा है-<blockquote>सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्। सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेद् सुखम्॥</blockquote>विदुर जी कहते हैं जो विद्यार्थी और सुखार्थी हैं ये अलग-अलग पहलू व एक दूसरे के विपरीत हैं विद्यार्थी के लिए सुख कहाँ अर्थात् विद्यार्थी को सुख की प्राप्ति नहीं होती है। जो विद्यार्थी सुख की कामना करता है वह विद्या को प्राप्त नहीं कर सकता है कहने का तात्पर्य यह है कि सुख की कामना करने वाले विद्यार्थी को विद्या का त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि विद्या के साथ-साथ सुखों की प्राप्तिनहीं हो सकती। वास्तव में देखा जाय तो महात्मा विदुर ने जो भी उपदेश राजा धृतराष्ट्र को दिये वे सभी नीति परक व राष्ट्र के कल्याण के लिए हितकारी हैं। राजा धृतराष्ट्र कहते हैं कि मैं भी मानता हूँ कि जो धर्म के पक्ष में है विजय उसी की है, मैं भी पाण्डवों के प्रति नीति से पूर्ण बुद्धि रखता हूँ लेकिन पुत्र मोह में फँसकर मैं उसका पालन नहीं कर सका, यही सब बातें महाभारत के उद्योग पर्व में विदुर नीति के नाम से प्रसिद्ध हुई।
    
==विदुरनीति का वर्गीकरण॥ Viduraniti ka vargikaran==
 
==विदुरनीति का वर्गीकरण॥ Viduraniti ka vargikaran==
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*सुख और दुःख का मानव जीवन पर प्रभाव
 
*सुख और दुःख का मानव जीवन पर प्रभाव
 
*समाज के प्रति व्यक्ति के कर्त्तव्य
 
*समाज के प्रति व्यक्ति के कर्त्तव्य
*जीवन, स्वतन्त्रता, चरित्र, सम्पत्ति, सामाजिक व्यवस्था और सत्य का सम्मान
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* जीवन, स्वतन्त्रता, चरित्र, सम्पत्ति, सामाजिक व्यवस्था और सत्य का सम्मान
 
*गुरु-शिष्य का सम्बन्ध
 
*गुरु-शिष्य का सम्बन्ध
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आचार नीति में मनुष्य के समाज के लिए विशुद्ध आचरण का उल्लेख है। आचार नीति की बातों को अपनाकर ही मानव उचित जीवन जी सकता है। आचार नीति मनुष्य को उसके आचार-व्यवहार, गुण-अवगुण और कर्मों के सिद्धान्त से परिचय करवाती है। अन्य शब्दों में आचार नीति मनुष्य के नैतिक जीवन का विवरण है। मनुष्य इस जीवन शैली को अपनाकर सदा उन्नति की ओर अग्रसर होता है।
 
आचार नीति में मनुष्य के समाज के लिए विशुद्ध आचरण का उल्लेख है। आचार नीति की बातों को अपनाकर ही मानव उचित जीवन जी सकता है। आचार नीति मनुष्य को उसके आचार-व्यवहार, गुण-अवगुण और कर्मों के सिद्धान्त से परिचय करवाती है। अन्य शब्दों में आचार नीति मनुष्य के नैतिक जीवन का विवरण है। मनुष्य इस जीवन शैली को अपनाकर सदा उन्नति की ओर अग्रसर होता है।
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===राजनीति===
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=== राजनीति===
 
राज्य राष्ट्र का एक भाग है, उस भाग में रहने वाले जनसमूह उस राज्य के सदस्य होते हैं। राज्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए राजनेता की आवश्यकता होती है। उस नेता के नैतिक आचरण पर ही नागरिकों की समृद्धि निर्भर करती है। उसी शासक को राजा कहा जाता है। राज्य की स्थापना तथा शासन व्यवस्था का निर्धारण प्राचीन काल में ही आचार्यों ने किया था। उस व्यवस्था की परम्परा आज भी उपयोगी है। राजनीति प्रजा और राजा के सम्बन्धों का उल्लेख करती है। राजनीति से ही राजा को भी ज्ञात होता है कि उसे शासन चलाने के लिए किस तरह के व्यक्ति को मन्त्री रखना चाहिए। अन्य शब्दों में कहें तो उचित शासन व्यवस्था का ज्ञान राजनीति से ही होता है।
 
राज्य राष्ट्र का एक भाग है, उस भाग में रहने वाले जनसमूह उस राज्य के सदस्य होते हैं। राज्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए राजनेता की आवश्यकता होती है। उस नेता के नैतिक आचरण पर ही नागरिकों की समृद्धि निर्भर करती है। उसी शासक को राजा कहा जाता है। राज्य की स्थापना तथा शासन व्यवस्था का निर्धारण प्राचीन काल में ही आचार्यों ने किया था। उस व्यवस्था की परम्परा आज भी उपयोगी है। राजनीति प्रजा और राजा के सम्बन्धों का उल्लेख करती है। राजनीति से ही राजा को भी ज्ञात होता है कि उसे शासन चलाने के लिए किस तरह के व्यक्ति को मन्त्री रखना चाहिए। अन्य शब्दों में कहें तो उचित शासन व्यवस्था का ज्ञान राजनीति से ही होता है।
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सामाजिक जीवन में अर्थ की उपयोगिता सर्वविदित है। इसके विना जीवन पंगु हो जाता है। प्रत्येक कार्य सिद्धि का आधार अर्थ है। इसी से व्यक्ति का विकास होता है तथा व्यक्ति की समृद्धि का अर्थ ही कारण है। अतः अर्थोपार्जन की दिशा में नैतिकता का होना परमावश्यक है। क्योंकि अनैतिकता के मार्ग पर चलकर प्राप्त अर्थ (धन) मूल विनाश का कारण बन जाता है। अतः यहाँ भी हमें नैतिकता का विशेष ध्यान रखना पडता है।
 
सामाजिक जीवन में अर्थ की उपयोगिता सर्वविदित है। इसके विना जीवन पंगु हो जाता है। प्रत्येक कार्य सिद्धि का आधार अर्थ है। इसी से व्यक्ति का विकास होता है तथा व्यक्ति की समृद्धि का अर्थ ही कारण है। अतः अर्थोपार्जन की दिशा में नैतिकता का होना परमावश्यक है। क्योंकि अनैतिकता के मार्ग पर चलकर प्राप्त अर्थ (धन) मूल विनाश का कारण बन जाता है। अतः यहाँ भी हमें नैतिकता का विशेष ध्यान रखना पडता है।
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== नीतिशास्त्र में आचार्य विदुर का योगदान ==
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==नीतिशास्त्र में आचार्य विदुर का योगदान==
भारत में उत्पन्न हुए लोगों से विश्व को अनेक प्रकार की शिक्षाएं मिली है। यहाँ उत्पन्न हुए विद्वानों ने विश्व को नैतिक ज्ञान के साथ-साथ व्यक्तित्व के विकास की भी शिक्षा प्रदान की है। छोटे-छोटे आख्यानों के रूप में वेदों में नैतिक शिक्षा का वर्णन भरा हुआ है। अनेक नीति शास्त्रों का अवलोकन करने से यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि सभी नीति ग्रन्थों का एक ही लक्ष्य है - कृत्याकृत्य का विचार, सामाजिक सुव्यवस्था, धर्मपूर्वक जीवन यापन, सद्गुण ग्रहण, दुर्गुण परित्याग और परिवार, राज्य एवं जन-कल्याण की भावना का निवेश। इसी कोटि में आचार्य विदुर का नाम भी आता है।
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भारत में उत्पन्न हुए लोगों से विश्व को अनेक प्रकार की शिक्षाएं मिली है। यहाँ उत्पन्न हुए विद्वानों ने विश्व को नैतिक ज्ञान के साथ-साथ व्यक्तित्व के विकास की भी शिक्षा प्रदान की है। छोटे-छोटे आख्यानों के रूप में वेदों में नैतिक शिक्षा का वर्णन भरा हुआ है। अनेक नीति शास्त्रों का अवलोकन करने से यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि सभी नीति ग्रन्थों का एक ही लक्ष्य है - कृत्याकृत्य का विचार, सामाजिक सुव्यवस्था, धर्मपूर्वक जीवन यापन, सद्गुण ग्रहण, दुर्गुण परित्याग और परिवार, राज्य एवं जन-कल्याण की भावना का निवेश। इसी कोटि में आचार्य विदुर का नाम भी आता है।<ref>शोध गंगा-रविन्द्र नाथ सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/527847 विदुर का आचार दर्शन उद्योगपर्व के परिप्रेक्ष्य में], सन् 1992, शोधकेन्द्र- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (पृ० 22)।</ref>
    
आचार्य विदुर न केवल समाजशास्त्री या नीतिकार थे वरन् वे एक महान त्यागी, देशभक्त एवं विवेचक भी थे। उन्होंने अपना जीवन सामाजिक न्याय की स्थापना, भ्रष्ट शासन के विनाश और शान्ति के निमित्त अर्पण कर दिया था -  
 
आचार्य विदुर न केवल समाजशास्त्री या नीतिकार थे वरन् वे एक महान त्यागी, देशभक्त एवं विवेचक भी थे। उन्होंने अपना जीवन सामाजिक न्याय की स्थापना, भ्रष्ट शासन के विनाश और शान्ति के निमित्त अर्पण कर दिया था -  
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