Vidura Niti (विदुर नीति)
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विदुर-नीति महाभारत का एक अत्यन्त प्रसिद्ध और परम उपयोगी प्रसंग है। भारतीय ज्ञान परंपरा में नीतिशास्त्र के अन्तर्गत विदुर नीति का विशेष महत्व है। इसमें इन्होंने लोक-परलोक में कल्याण करने वाली बहुत सी बातें कही हैं। विदुर जी की नीति में व्यवहार, नीति, सदाचार, धर्म, न्याय, सत्य, अहिंसा आदि सभी कुछ आ जाता है। विदुर नीति नीति शास्त्र में एक प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण स्थान रखती है। धर्म के अवतार महात्मा विदुर अत्यन्त बुद्धिमान, धर्मज्ञ, ईश्वर भक्त, नीतिनिपुण व व्यवहार कुशल थे। महात्मा विदुर ने राज्य-शासन की नीति से सम्बन्धित अनेक बातें कही हैं, जो आज भी हमारे लिए वैसी ही लाभदायक हैं। महाभारत में उद्योग पर्व के 33वें से 44वें अध्याय तक नीति सम्बन्धी उपदेश संग्रहित हैं इसमें महात्मा विदुर ने राजा धृतराष्ट्र को लोक परलोक की बहुत सी बातें बतायी हैं। विदुर नीति में उन सिद्धांतों और नीतियों का वर्णन किया गया है जिन्हें किसी भी राजा, शासक या सामान्य व्यक्ति को अपने जीवन में अपनाना चाहिए।
परिचय॥ Introduction
महात्मा विदुर धृतराष्ट्र और पाण्डु के छोटे भ्राता थे, ये दासी पुत्र थे इस कारण ये राज्य के अधिकारी नहीं हुए। पाण्डु की मृत्यु के पश्चात् जब धृतराष्ट्र राजा बने तब ये उनके मंत्री बने। विदुर नीति के तो पंडित थे ही इनकी बनायी गई विदुर नीति एक प्रामाणिक नीति मानी गई -
महात्मा विदुर ने इस संकटापन्न वेला में भी महाराज धृतराष्ट्र को नीति का ज्ञान दिया। महाभारत के उद्योग पर्व के अन्तर्गत प्रजागर पर्व के रूप में आठ अध्यायों में यह उपदेश वर्णित है। यही उपदेश विदुर नीति के नाम से विख्यात है। महाभारत में विदुर ने समय-समय पर और भी नीति वचन कहे हैं, किन्तु महाभारत का चालीसवां अध्याय ही विदुर नीति के रूप में प्रसिद्ध है।
नीति निपुण विदुर सदा धर्म के पक्ष में रहते अधर्म का खण्डन तो ये सभा के मध्य भी कर देते थे। पाण्डवों को जब बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास हुआ तो ये बड़े दुःखी हुए। विदुर जानते थे कि युद्ध विनाशकारी होगा, क्योंकि महाराज धृतराष्ट्र तो अपने पुत्र मोह में इस प्रकार बंध चुके थे कि वे कोई समाधान नहीं खोज पा रहे थे। दुर्योधन अपनी जिद पर अड़ा था। द्यूत क्रीडा की शर्त के अनुसार पांडवों ने बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण करने के बाद जब अपना राज्य वापस मांगा तो पुत्र मोह में बँधे धृतराष्ट्र उन्हें कोई निर्णायक उत्तर नहीं दे पाये। द्यूत क्रीडा के समय भी विदुर ने धृतराष्ट्र को चेतावनी दी थी कि यदि यह खेल समाप्त नहीं किया गया तो अनर्थ हो जायेगा और हस्तिनापुर को विनाश की कगार से कोई नहीं बचा सकता। विदुर नीति युद्ध की नीति न होकर जीवन में प्रेम व्यवहार की नीति के रूप में अपना विशेष स्थान रखती है। जिस प्रकार चाणक्य नीति राजनीतिज्ञ सिद्धान्तों से ओत प्रोत है वहीं विदुर नीति सत् असत् की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखती है। विदुर सदा सत् विचारों का ही परामर्श देते। देखा जाय तो महाराज धृतराष्ट्र और विदुर के बीच ये कैसा संयोग था धृतराष्ट्र अपने पुत्र मोह में फंसे थे इसके विपरीत विदुर अपनी नीति में बँधे हुए थे। जब महाभारत का युद्ध प्रारम्भ हुआ तो ये किसी तरफ भी नहीं हुए, लेकिन मन से ये सदा पांडवों के पक्ष में थे और समय समय पर उन्होंने पांडवों की सहायता की तथा उन्हें कई विपत्तियों से भी बचाया।[1]
महात्मा विदुर॥ Mahatma Vidur
विदुर जी कि नीति में व्यवहार, नीति, सदाचार, धर्म, न्याय, सत्य, अहिंसा आदि सभी कुछ आ जाता है। विदुर के व्यक्तित्व का कितना सम्मान था ये उनके लिये प्रयुक्त संबोधनों से भी प्रकट है –
- महाप्राज्ञं , दीर्घदर्शिनः (श्लो० 1.5)
- त्वमेक प्रज्ञासम्मतः (1.15)
- धर्मार्थ कुशलः (2.1)
- महाबुद्धे (3.1)
- महामते (4.50)
इन विशेषणों से ही स्पष्ट है कि विदुर परम विद्वान , दूर तक की सोचने वाले , राजनीति – धर्मनीति को भली-भांति जानने वाले , उदार चित्त , एकमात्र महाबुद्धिमान और महामतिवान थे। इतने गुणों से सम्पन्न विदुर ने धृतराष्ट्र को यह नीति-उपदेश ही नहीं दिया किन्तु राजघराने की समस्याओं को भी सुलझाया –[2]
- पांडवों की कठिन परिस्थितियों में उनमें वह लगन भी पैदा की जिससे प्रत्येक पांडुपुत्र अपने-अपने क्षेत्र में आर्यावर्त का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति सिद्ध हुआ।
- लाक्षागृह के षड्यन्त्र से पांडवों को विदुर ने ही बचाया था।
- धृतराष्ट्र के सलाहकार एवं पाण्डवों के हितरक्षक थे।
- जनमत की प्रबलता को आधार बनाकर पुत्रमोह में फंसे धृतराष्ट्र को – पांडवों को कुलवधू द्रौपदी एवं माता कुंती के साथ हस्तिनापुर बुलाया जाए और पूर्ण औपचारिकता के साथ उनका स्वागत किया जाए , जिसे विदुर जी ने पूरा किया।
- वे आदि से अंत तक कुरु राज्य के प्रति निष्ठावान् रहे , किन्तु इसके साथ ही सदैव निर्भीक होकर धर्म का पक्ष लेते रहे।
युद्ध टालने का अंतिम प्रयास करने के लिए पांडवों के दूत बनकर आए “श्री कृष्ण’’ ने कुरु राजमहल का आतिथ्य स्वीकार न करके विदुर के यहां ठहरना उचित समझा। इसीलिए आचार्य विदुर महात्मा विदुर माने जाते हैं। इस प्रकार कुरु राजघराने की समस्याओं के अंगस्वरूप महात्मा विदुर का जन्म हुआ और वह आजीवन कुरु राजघराने की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते रहे। इस प्रकार महात्मा विदुर ने आजीवन नीतिशास्त्र का पालन किया।
विदुर नीति-वर्ण्यविषय॥ Vidur neeti-varnyavishay
नीति की चर्चा महाभारत में कई स्थलों पर आयी। महाभारत में वर्णन आता है कि धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह में कई बार पांडवों के साथ अन्याय किया। इसी वजह से धृतराष्ट्र बहुत दुःखी थे तब उन्होंने अपनी चिन्ता मिटाने के लिए विदुर से उपाय पूछा। विदुर ने जो भी उपदेश धृतराष्ट्र को दिये, वह विदुर नीति के नाम से प्रसिद्ध हुई। महाभारत में उद्योग पर्व के 33वें से 44वें अध्याय तक नीति सम्बन्धी उपदेश संग्रहित हैं इसमें महात्मा विदुर ने राजा धृतराष्ट्र को लोक परलोक की बहुत सी बातें बतायी हैं। प्रस्तुत अध्याय में आप विदुर द्वारा प्रदत्त नीतियों का सूक्ष्म रूप में अध्ययन करेंगे -[3]
विदुर जी ने अपनी नीति में पंडितों के विषय में कहा है -
निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः। अवन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते॥ (विदुर नीति 1-29)[4]
जो व्यक्ति पहले निश्चय अर्थात् अच्छी प्रकार सोच समझकर फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य के प्रारम्भ होने के पश्चात् बीच में रूकता नहीं है। अपने समय का सदुपयोग करता है अर्थात् समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और अपने चित्त अर्थात् मन को अपने वश में रखता है वही पण्डित कहलाता है। विदुर ने अपने ज्येष्ठ भ्राता धृतराष्ट्र को नीति सम्मत कई उपदेश दिये। विदुर ने मूर्ख के विषय में बताते हुए कहा है -
अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्। बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्॥ (विदुर नीति 1-37)[5]
जो मनुष्य न चाहने वालों को चाहता है और चाहने योग्य लोगों का परित्याग कर देता है, तथा जो बलवानों के साथ शत्रुवत् बैर बाँधता है, उसे ही के अनुसार मूर्खचित्त वाला मनुष्य कहते हैं। विदुर जी ने अपनी नीति में कुछ आध्यात्मिक प्रसंगों का वर्णन भी किया है, शरीर रूपी को रूपक मानकर विदुर कहते हैं -
रथः शरीरं पुरूषस्य राजन्नात्मा नियन्तेन्द्रियाण्यस्य चाश्वाः। तैरप्रमत्तः कुशली सदश्चैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः॥ (विदुर नीति 4-59)
विदुर कहते हैं कि मनुष्य का शरीर ही रथ है। उस रथ रूपी शरीर में बुद्धिसारथि है, और इंद्रियां अश्व हैं, अश्वों को अपने वश में करके सावधान, चातुर्य एवं धीर पुरूष एक रथी की भाँति आनंद पूर्वक जीवन की यात्रा करता है। नारी के विषय में बताते हुए विदुर जी कहते हैं -
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः। स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः॥ (विदुर नीति 6-11)[6]
विदुर ने अपनी नीति में कहा है कि नारियाँ घर की लक्ष्मी होती हैं, वे सदा पूजनीया हैं, अत्यन्त भाग्य स्वरूपा हैं, पुण्यशीला हैं। नारियों के इन गुणों से घर की शोभा में वृद्धि अर्थात् घर सुशोभित होता है। अतः वे विशेष रूप से योग्य है। दीर्घदर्शी विदुर के अनुसार नीतियुक्त कथन न तो कहना अच्छा है और न सुनना अच्छा है। यही सब बातें धृतराष्ट्र विदुर को बताते हुए कहते हैं -
सुलभाः पुरूषा राजन् सततं प्रियवादिनः । अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः॥ (विदुर नीति 5-15)
विदुर जी कहते हैं कि राजा के समक्ष सदा प्रिय मधुर वचन बोलने वाले पुरूष तो सुलभ हैं अर्थात् बहुत मिल जाते हैं। किन्तु राजा के समक्ष अप्रिय वचन अर्थात् उसको निन्दित लगने वाले हितकारी वचन को कहने वाले तथा उन वचनों को सुनने वाले मनुष्य दुर्लभ हैं। कहने का तात्पर्य यह है जो अप्रिय लगने वाले हितकारी वचन बोलते हैं ऐसे लोग ना के बराबर मिलते हैं। महात्मा विदुर ने विद्यार्थी के विषय में कहा है-
सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्। सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेद् सुखम्॥ (विदुर नीति 8-6)
विदुर जी कहते हैं जो विद्यार्थी और सुखार्थी हैं ये अलग-अलग पहलू व एक दूसरे के विपरीत हैं विद्यार्थी के लिए सुख कहाँ अर्थात् विद्यार्थी को सुख की प्राप्ति नहीं होती है। जो विद्यार्थी सुख की कामना करता है वह विद्या को प्राप्त नहीं कर सकता है कहने का तात्पर्य यह है कि सुख की कामना करने वाले विद्यार्थी को विद्या का त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि विद्या के साथ-साथ सुखों की प्राप्तिनहीं हो सकती। वास्तव में देखा जाय तो महात्मा विदुर ने जो भी उपदेश राजा धृतराष्ट्र को दिये वे सभी नीति परक व राष्ट्र के कल्याण के लिए हितकारी हैं। राजा धृतराष्ट्र कहते हैं कि मैं भी मानता हूँ कि जो धर्म के पक्ष में है विजय उसी की है, मैं भी पाण्डवों के प्रति नीति से पूर्ण बुद्धि रखता हूँ लेकिन पुत्र मोह में फँसकर मैं उसका पालन नहीं कर सका, यही सब बातें महाभारत के उद्योग पर्व में विदुर नीति के नाम से प्रसिद्ध हुई।
विदुरनीति का वर्गीकरण॥ Viduraniti ka vargikaran
पारिवारिक नीति
हमारे समाज में अनेक संस्थाएं हैं जिन से यह समाज व्यक्तियों को संगठित करता है तथा उनके कार्यों को नियन्त्रित करता है। इन सब संस्थाओं में परिवार सबसे प्राथमिक संस्था है, क्योंकि परिवार में ही व्यक्ति सब सामाजिक सम्बन्धों से पहले पारिवारिक सम्बन्ध से जुडता है। महात्मा विदुर ने भी अपनी नीति में परिवार परिवार की महत्ता को बताया। उनका मानना है कि परिवार अच्छा होने से घर में हमेशा अच्छे वातावरण तथा लक्ष्मी का वास रहता है। उनका आशय कुछ-कुछ इस श्लोक के माध्यम से भी स्पष्ट होता है -[3]
चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रियाभिर्जुष्टस्य गृहस्य धर्मे। वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या॥ (विदुर नीति 1.75)
अर्थात् हे तात! जिस घर में वंश धर्म बताने वाला वृद्ध, संकट में पडा कुलीन मनुष्य, धनहीन मित्र और सन्तान रहित बहिन - ये चार रहते हैं, वहाँ लक्ष्मी का वास होता है।
- गृहपति का परिवार के प्रति परस्पर दायित्व
- जीवनरथ के दो चक्र - पति और पत्नी
- मानव जीवन में श्रेष्ठ कुल का महत्व
- मानव जीवन में एकता का महत्व
अतः व्यक्ति को हमेशा एक साथ रहना चाहिये। अपने मित्रों, भाइयों, बच्चों आदि के साथ एकता को बनाए रखना चाहिए। ऐसा करने से हर कठिनाई का सामना किया जा सकता है। अर्थात परिवार एक ऐसी सामाजिक संस्था है जिसमें कुछ व्यक्ति एक-दूसरे की सहायता तथा हित के लिए मिलते हैं। परिवार व्यक्ति को सामाजिक आदान-प्रदान तथा दूसरों के लिए हित का ध्यान रखना सिखाता है। परिवार में रहकर ही व्यक्ति का उचित विकास सम्भव है।
सामाजिक नीति
मनुष्य सदा ही समाज का एक घटक रहा है और उसका जीवन मूल रूप से सामाजिक है। समाज के बिना मनुष्य के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। व्यक्ति समाज से ही नैतिकता सीखता है। यह नैतिकता सामाजिक व्यवस्था, व्यक्ति के कर्तव्य-अकर्तव्य, सुख-दुःख आदि के रूप में जमा रहती है। वास्तव में व्यक्ति का नैतिक उद्देश्य ही सामाजिक है -
- समाज में वर्ण-व्यवस्था - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र
- समाज में आश्रम व्यवस्था - ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम
- सुख और दुःख का मानव जीवन पर प्रभाव
- समाज के प्रति व्यक्ति के कर्त्तव्य
- जीवन, स्वतन्त्रता, चरित्र, सम्पत्ति, सामाजिक व्यवस्था और सत्य का सम्मान
- गुरु-शिष्य का सम्बन्ध
अतः सामाजिक परिवेश मानव का समुचित विकास करता है। सुख-दुःख को अपनाने की अर्थात् वास्तविक सुख-दुःख को अपनाने की पहचान कराता है। चारों आश्रमों में रहते हुए चारों वर्णों का उचित पालन सिखाता है। कर्तव्य-अकर्तव्य की पहचान कराती है यह सामाजिक नीति। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध अच्छा हो तो सुदृढ समाज की नींव रखी जा सकती है। अन्त में हम कह सकते हैं कि सामाजिक नीति में रहकर व्यक्ति समाज को सुदृढ आधार प्रदान कर सकता है।
आचारनीति
आचार नीति में मनुष्य के समाज के लिए विशुद्ध आचरण का उल्लेख है। आचार नीति की बातों को अपनाकर ही मानव उचित जीवन जी सकता है। आचार नीति मनुष्य को उसके आचार-व्यवहार, गुण-अवगुण और कर्मों के सिद्धान्त से परिचय करवाती है। अन्य शब्दों में आचार नीति मनुष्य के नैतिक जीवन का विवरण है। मनुष्य इस जीवन शैली को अपनाकर सदा उन्नति की ओर अग्रसर होता है।
राजनीति
राज्य राष्ट्र का एक भाग है, उस भाग में रहने वाले जनसमूह उस राज्य के सदस्य होते हैं। राज्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए राजनेता की आवश्यकता होती है। उस नेता के नैतिक आचरण पर ही नागरिकों की समृद्धि निर्भर करती है। उसी शासक को राजा कहा जाता है। राज्य की स्थापना तथा शासन व्यवस्था का निर्धारण प्राचीन काल में ही आचार्यों ने किया था। उस व्यवस्था की परम्परा आज भी उपयोगी है। राजनीति प्रजा और राजा के सम्बन्धों का उल्लेख करती है। राजनीति से ही राजा को भी ज्ञात होता है कि उसे शासन चलाने के लिए किस तरह के व्यक्ति को मन्त्री रखना चाहिए। अन्य शब्दों में कहें तो उचित शासन व्यवस्था का ज्ञान राजनीति से ही होता है।
अर्थनीति
सामाजिक जीवन में अर्थ की उपयोगिता सर्वविदित है। इसके विना जीवन पंगु हो जाता है। प्रत्येक कार्य सिद्धि का आधार अर्थ है। इसी से व्यक्ति का विकास होता है तथा व्यक्ति की समृद्धि का अर्थ ही कारण है। अतः अर्थोपार्जन की दिशा में नैतिकता का होना परमावश्यक है। क्योंकि अनैतिकता के मार्ग पर चलकर प्राप्त अर्थ (धन) मूल विनाश का कारण बन जाता है। अतः यहाँ भी हमें नैतिकता का विशेष ध्यान रखना पडता है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विदुर नीति की प्रासंगिकता॥ Relevance of Vidura Neeti in Modern Context
राजनीति में नैतिकता और नेतृत्व
- विदुर नीति के अनुसार, एक नेता का नैतिक होना आवश्यक है। आज के संदर्भ में यह नीति राजनीतिक भ्रष्टाचार को रोकने में मदद कर सकती है।
- उदाहरण: महात्मा गांधी के नेतृत्व के सिद्धांतों की तुलना विदुर नीति से की जा सकती है, जहां सत्य और अहिंसा पर आधारित राजनीति ने स्वतंत्रता संग्राम को नैतिक रूप दिया।
व्यक्तिगत जीवन में संयम और अनुशासन
- विदुर ने आत्म-नियंत्रण और संयम को सफल जीवन का महत्वपूर्ण अंग माना। आजकल की उपभोक्तावादी संस्कृति में, इन सिद्धांतों का पालन संतुलन बनाए रखने में सहायक हो सकता है।
- उदाहरण: फाइनेंशियल मैनेजमेंट और व्यक्तिगत जीवन में संयम और संतुलन से मानसिक और आर्थिक स्थिरता का महत्व।
सामाजिक न्याय और समानता
- विदुर नीति में सभी लोगों के साथ समान व्यवहार और न्यायपूर्ण व्यवस्था पर जोर दिया गया है। आधुनिक समय में सामाजिक असमानता और भेदभाव को दूर करने के लिए इन सिद्धांतों को अपनाया जा सकता है।
- उदाहरण: सामाजिक सुधार आंदोलनों, जैसे डॉ. बी. आर. आंबेडकर द्वारा शुरू किया गया दलित सुधार आंदोलन, में विदुर नीति की समानता पर आधारित दृष्टिकोण देखा जा सकता है।
धन का उचित उपयोग
- विदुर नीति में यह सिखाया गया है कि धन का सही और उचित उपयोग ही समाज और व्यक्ति के लिए लाभकारी होता है। आज के समय में यह विचार विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जहां पूंजीवाद और लालच बढ़ते जा रहे हैं।
- उदाहरण: कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) की अवधारणा में नैतिकता और धन के सदुपयोग का महत्व।
नीतिशास्त्र में आचार्य विदुर का योगदान
भारत में उत्पन्न हुए लोगों से विश्व को अनेक प्रकार की शिक्षाएं मिली है। यहाँ उत्पन्न हुए विद्वानों ने विश्व को नैतिक ज्ञान के साथ-साथ व्यक्तित्व के विकास की भी शिक्षा प्रदान की है। छोटे-छोटे आख्यानों के रूप में वेदों में नैतिक शिक्षा का वर्णन भरा हुआ है। अनेक नीति शास्त्रों का अवलोकन करने से यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि सभी नीति ग्रन्थों का एक ही लक्ष्य है - कृत्याकृत्य का विचार, सामाजिक सुव्यवस्था, धर्मपूर्वक जीवन यापन, सद्गुण ग्रहण, दुर्गुण परित्याग और परिवार, राज्य एवं जन-कल्याण की भावना का निवेश। इसी कोटि में आचार्य विदुर का नाम भी आता है।[7]
आचार्य विदुर न केवल समाजशास्त्री या नीतिकार थे वरन् वे एक महान त्यागी, देशभक्त एवं विवेचक भी थे। उन्होंने अपना जीवन सामाजिक न्याय की स्थापना, भ्रष्ट शासन के विनाश और शान्ति के निमित्त अर्पण कर दिया था -
- भारतीय इतिहास के विकास में उन्होंने महान योगदान दिया है। विदुर जी के मुख से हमेशा ज्ञान की अमृत धारा निकली है।
- महात्मा विदुर की ये नीतियां केवल राजनीति अथवा कूटनीति से ही नहीं अपितु आत्मज्ञान, पथप्रदर्शक, समाज की मर्यादाओं, सज्जनता तथा धर्म से भी जुडी हैं।
- विदुर जी ने मानव जीवन के लिए बहुत ही उपयोगी विचारधारा दी है।
- विदुर-नीति की भाषा सरल तथा मर्मस्पर्शी है एवं उपदेशात्मक होने के कारण हृदयग्राही है।
विदुर जी ने संकट की वेला में भी महाराज धृतराष्ट्र को नीति का ज्ञान दिया। महाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत प्रजागर पर्व के रूप में आठ अध्यायों में यह उपदेश वर्णित है। यही उपदेश विदुर नीति के नाम से विख्यात है। महाभारत में विदुर ने यथासमय और भी नीतिवचन कहे हैं, किन्तु महाभारत का यह चालीसवां अध्याय ही विदुर नीति के रूप में प्रसिद्ध है।
विदुर नीति का महत्व
नेतृत्व॥ LEADERSHIP
एकः स्वादु न भुञ्जीत एकश्च अर्थान् न चिन्तयेत्। एको न गच्छेत् अध्वानं न एकः सुप्तेशु जागृयात् ॥
भाषार्थ - व्यक्ति ने अकेले स्वदिष्ट पदार्थ नहीं खाना चाहिये। (सब के साथ खाने में आनंद मिलता है)। अकेले धनवान होने के बारे में नहीं सोचना चाहिये। अकेले ने प्रवास नहीं करना चाहिये। जब सभी सो रहे हैं, तब अकेले ने जागृत नहीं रहना चाहिये। संचार॥ COMMUNICATION
तत्त्वज्ञः सर्वभूतानां योगज्ञः सर्वकर्मणाम्। उपायज्ञो मनुष्याणां नरः पण्डित उच्यते॥३२॥
भाषार्थ - जो समस्त भूत (जात) ऐश्वर्य आदि के विनाशित्व रूप तत्त्व को जानता है और समस्त कार्यों के योग (रचना प्रकार) को जानता है तथा मनुष्यों के उपाय (अपेक्षित सामग्री) को जानता है वह मनुष्य पण्डित कहा जाता है ॥३२॥ प्रेरणा॥ MOTIVATION
निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः। अवन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते॥
भाषार्थ - यह एक श्लोक है जिसका अर्थ है कि जो व्यक्ति दृढ़ प्रतिबद्धता से अपने काम की शुरुआत करता है, जो काम पूरा होने तक ज़्यादा आराम नहीं करता, जो समय बर्बाद नहीं करता, और जो अपने विचारों पर नियंत्रण रखता है, वह बुद्धिमान है। आत्म प्रबंधन॥ SELF-MANAGEMENT
क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च हीस्तम्भो मान्यमानिता। यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते॥२२॥
भाषार्थ - क्रोध, हर्ष, दर्प (दूसरे का अपमान), लज्जा, स्तम्भ (नम्र न होना), मान्यमानिता (अपने में पूज्य भावना अर्थात् मैं पूज्य हूँ) ये सब जिनको पुरुषार्थ से नहीं गिराते हैं वह पण्डित कहा जाता है। सशक्तिकरण॥ EMPOWERMENT
अभिप्रायं यो विदित्वा तु भर्तुः सर्वाणि कार्याणि करोत्यतन्द्री। वक्ता हितानामनुरक्त आर्यः शक्तिज्ञ आत्मेव हि सोऽनुकम्प्यः॥25॥
भाषार्थ - जो मालिक के अभिप्राय को समझकर और आलस्य रहित होकर समस्त कार्यों को करता है, और हितवचनों को कहता है, तथा स्वामी में अनुरक्त रहता है, और श्रेष्ठ है, तथा अपनी शक्ति को जानने वाला है ऐसा सेवक मालिक से आत्मा के समान दया पाने योग्य है। नैतिकता और लोकाचार॥ ETHICS & ETHOS
एकमेवाद्वितीयं तद्यद्राजन्नावबुध्यसे। सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरित्र॥ ५२॥
भाषार्थ - धृतराष्ट्र से विदुर जी कहते हैं कि हे राजन् ! समुद्र पार होने के लिये नाव के समान स्वर्ग जाने के लिये सीढ़ी केवळ सत्य ही है दूसरा कुछ नहीं, उसको तुम नहीं जानते हो।
निर्णय लेना॥ DECISION MAKING
अनुबन्धानपेक्षेत सानुबन्धेषु कर्मसु। सम्प्रधार्य च कुर्वीत न वेगेन समाचरेत् ॥८॥
भाषार्थ - प्रयोजनवाले कामों में प्रयोजन की अपेक्षा करे और विचार कर काम करे, जल्दीबाजी न करे।
निष्कर्ष॥ Discussion
विदुर-नीति महाभारत का एक अत्यन्त प्रसिद्ध और परम उपयोगी प्रसंग है। इसमें इन्होंने लोक-परलोक में कल्याण करने वाली बहुत सी बातें कही हैं। विदुर जी की नीति में व्यवहार, नीति, सदाचार, धर्म, न्याय, सत्य, अहिंसा आदि सभी कुछ आ जाता है। विदुर नीति नीति शास्त्र में एक प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह न केवल शासकों के लिए, बल्कि सामान्य व्यक्ति के लिए भी एक मार्गदर्शक ग्रंथ है, जो नैतिकता, धर्म, और न्याय के सिद्धांतों का पालन करने की प्रेरणा देता है। विदुर नीति के सिद्धांत आज भी भारतीय समाज में आदर्श माने जाते हैं और नीति शास्त्र के अध्ययन में इसका महत्वपूर्ण योगदान है।
उद्धरण॥ References
- ↑ पं० माधवप्रसाद व्यास, विदुरनीति 1-37, सन् 1952, भार्गवपुस्तकालय, गायघाट, वाराणसी (पृ० 13)।
- ↑ शोधगंगा-सुजय श्रीवास्तव, विदुर का राजधर्म, सन् 2008, शोधकेंद्र - डॉ० राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद (पृ० 38)।
- ↑ 3.0 3.1 शोध गंगा - वीणा महाजन, विदुर नीति के विशेष संदर्भ में भारतीय नीतिशास्त्र का अध्ययन, शोध केंद्र - पंजाब विश्वविद्यालय (पृ० 205)।
- ↑ पं० माधवप्रसाद व्यास, विदुरनीति, अध्याय-1, श्लोक-29, सन् 1952, भार्गवपुस्तकालय, गायघाट, वाराणसी (पृ० 13)।
- ↑ पं० माधवप्रसाद व्यास, विदुरनीति, अध्याय-1, श्लोक-37, सन् 1952, भार्गवपुस्तकालय, गायघाट, वाराणसी (पृ० 13)।
- ↑ पं० माधवप्रसाद व्यास, विदुरनीति, अध्याय-6, श्लोक-11, सन् 1952, भार्गवपुस्तकालय, गायघाट, वाराणसी (पृ० 126)।
- ↑ शोध गंगा-रविन्द्र नाथ सिंह, विदुर का आचार दर्शन उद्योगपर्व के परिप्रेक्ष्य में, सन् 1992, शोधकेन्द्र- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (पृ० 22)।