Line 6: |
Line 6: |
| तीसरे तथा चौथे खण्ड में यक्षोपाख्यान द्वारा ब्रह्म का सर्वप्रेरकत्व और सर्वकर्तृत्व दर्शाया गया है। गद्यभाग की आख्यायिका रूपक-शैली में पद्यभाग में वर्णित भावों का ही समर्थन करती है। इस उपनिषद् का मूलस्रोत अथर्ववेदीय केनसूक्त (१०/२) माना जा सकता है। | | तीसरे तथा चौथे खण्ड में यक्षोपाख्यान द्वारा ब्रह्म का सर्वप्रेरकत्व और सर्वकर्तृत्व दर्शाया गया है। गद्यभाग की आख्यायिका रूपक-शैली में पद्यभाग में वर्णित भावों का ही समर्थन करती है। इस उपनिषद् का मूलस्रोत अथर्ववेदीय केनसूक्त (१०/२) माना जा सकता है। |
| | | |
− | == केन उपनिषद् - शान्तिमन्त्र == | + | *केनोपनिषद् का संबंध जैमिनीय शाखा से है। |
| + | |
| + | *केनोपनिषद् जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण का भाग है। जैमिनीय शाखा को तवलकार शाखा भी कहते हैं, इसलिये केनोपनिषद् तवलकारीय केनोपनिषद् भी कहा जाता है। |
| + | |
| + | *इस उपनिषद् में गद्यात्मक-पद्यात्मक दोनों ही प्रकार के मन्त्रों का समावेश है। |
| + | |
| + | *इस उपनिषद् का विशेष महत्व इसके भाष्य के कारण है। इसमें दो भाष्य हैं - एक पद-भाष्य, दूसरा वाक्य-भाष्य। |
| + | |
| + | ==केन उपनिषद् - शान्तिमन्त्र== |
| ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणिसर्वं ब्रह्मौपनिषदं, माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म, निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु। तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ | | ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणिसर्वं ब्रह्मौपनिषदं, माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म, निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु। तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ |
| | | |
Line 12: |
Line 20: |
| | | |
| ==केन उपनिषद् का वर्ण्य विषय== | | ==केन उपनिषद् का वर्ण्य विषय== |
| + | यह उपनिषद् सामवेदीय तवलकार शाखा का नवाँ अध्याय है। 'केनेषितं' मन्त्र से यह अध्याय (नवाँ) आरम्भ किया जाता है। गुरु और शिष्य के संवाद के माध्यम से ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। चार खण्डों में विभक्त यह उपनिषद् ब्रह्म की सर्वव्यापकता का वर्णन करता है। प्रथम और द्वितीय खण्ड उसके सर्वाधिष्ठान होने का निरूपण करते हैं। वह ब्रह्म सबका प्रकाशक है। प्रथम मन्त्र के प्रश्न से स्पष्ट है कि वह सबका प्रेरक और प्रकाशक है।<blockquote>ओम् केनेषितं पतति प्रेषितं मनः। केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः। केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति॥</blockquote>मन किसके द्वारा प्रेरणा पाकर अपने विषय की ओर उन्मुख होता है। मन, प्राण, वाणी एवं चक्षु के कर्ता कौन हैं? इस प्रकार चार प्रश्न किये गये हैं। |
| + | |
| छोटे होने पर भी केनोपनिषद् दार्शनिक दृष्टि से विलक्षण है। प्रथम खण्ड इस जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है कि मन, प्राण, वाक् , नेत्र और कर्ण को अपने-अपने कर्मों में कौन प्रवृत्त करता है।<ref>डॉ० कपिल देव द्विवेदी, [https://archive.org/details/vedicsahityaevamsanskritidr.kapildevdwivedi/page/n193/mode/1up वैदिक साहित्य एवं संस्कृति], सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी(पृ० १७५)।</ref> | | छोटे होने पर भी केनोपनिषद् दार्शनिक दृष्टि से विलक्षण है। प्रथम खण्ड इस जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है कि मन, प्राण, वाक् , नेत्र और कर्ण को अपने-अपने कर्मों में कौन प्रवृत्त करता है।<ref>डॉ० कपिल देव द्विवेदी, [https://archive.org/details/vedicsahityaevamsanskritidr.kapildevdwivedi/page/n193/mode/1up वैदिक साहित्य एवं संस्कृति], सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी(पृ० १७५)।</ref> |
| | | |
Line 30: |
Line 40: |
| | | |
| ==केन शब्दका महत्व== | | ==केन शब्दका महत्व== |
− | इस उपनिषद् के प्रारंभमें ही प्रश्न किया है कि किस देवताकी प्रेरणासे मन मननमें प्रवृत्त होता है? और इस प्रश्नके उत्तर के लिये ही यह उपनिषद् है। केन उपनिषद् यह नाम निरर्थक नहीं है अपितु हरएक विचारी मनुष्यके मनमें जो प्रश्न उत्पन्न होता है, उसी प्रश्नका उत्तर इसमें दिया गया है। मैं कौन हूँ? कहाँसे आया? क्यों कार्य कर रहा हूँ? इसमें प्रेरक कौन है? इन प्रश्नोंमें जो भाव है, वही उपनिषद्के <nowiki>''केन''</nowiki> शब्दद्वारा प्रकट हो रहा है।<ref>पं० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, केन उपनिषद् - भूमिका, सन् १९५३, स्वाध्याय-मण्डल, आनंदाश्रम, सूरत (पृ० ६)।</ref> | + | इस उपनिषद् के प्रारंभमें ही प्रश्न किया है कि किस देवताकी प्रेरणासे मन मननमें प्रवृत्त होता है? और इस प्रश्नके उत्तर के लिये ही यह उपनिषद् है। केन उपनिषद् यह नाम निरर्थक नहीं है अपितु हरएक विचारी मनुष्यके मनमें जो प्रश्न उत्पन्न होता है, उसी प्रश्नका उत्तर इसमें दिया गया है। मैं कौन हूँ? कहाँसे आया? क्यों कार्य कर रहा हूँ? इसमें प्रेरक कौन है? इन प्रश्नोंमें जो भाव है, वही उपनिषद्के <nowiki>''केन''</nowiki> शब्दद्वारा प्रकट हो रहा है।<ref>पं० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, [https://epustakalay.com/book/14591-ken-upanishhad-by-shripad-damodar-satwalekar/ केन उपनिषद् - भूमिका], सन् १९५३, स्वाध्याय-मण्डल, आनंदाश्रम, सूरत (पृ० ६)।</ref> |
| | | |
| ==यक्षोपाख्यान== | | ==यक्षोपाख्यान== |