Kena Upanishad (केन उपनिषद्)

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केन उपनिषद् सामवेदीय तवलकार शाखा से सम्बद्ध है। इसको तवलकार उपनिषद् भी कहते हैं। जैमिनीय तवलकार ब्राह्मण का नवम अध्याय ही यह उपनिषद् है। इसीलिये इसे तवलकारोपनिषद् तथा ब्राह्मणोपनिषद् भी कहते हैं। केनोपनिषद् में आरम्भ से अन्त पर्यन्त परम ब्रह्म के स्वरूप और प्रभाव का वर्णन है। प्रथम दो खण्ड पद्यात्मक हैं और शेष दो गद्यात्मक। इसका संबन्ध सामवेद से है।

परिचय

केनोपनिषद् में चार खण्ड हैं। उनमें से दो पद्यात्मक हैं और अन्तिम दो गद्यात्मक हैं। चार खण्डों में ३४ मन्त्र हैं। पहले दो खण्डों में सर्वाधिष्ठान परब्रह्म के पारमार्थिक स्वरूप का लक्षणा से निर्देश करते हुए परमार्थज्ञान की अनिवर्चनीयता तथा ज्ञेय के साथ उसका अभेद प्रदर्शित किया गया है।

तीसरे तथा चौथे खण्ड में यक्षोपाख्यान द्वारा ब्रह्म का सर्वप्रेरकत्व और सर्वकर्तृत्व दर्शाया गया है। गद्यभाग की आख्यायिका रूपक-शैली में पद्यभाग में वर्णित भावों का ही समर्थन करती है। इस उपनिषद् का मूलस्रोत अथर्ववेदीय केनसूक्त (१०/२) माना जा सकता है।

  • केनोपनिषद् का संबंध जैमिनीय शाखा से है।
  • केनोपनिषद् जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण का भाग है। जैमिनीय शाखा को तवलकार शाखा भी कहते हैं, इसलिये केनोपनिषद् तवलकारीय केनोपनिषद् भी कहा जाता है।
  • इस उपनिषद् में गद्यात्मक-पद्यात्मक दोनों ही प्रकार के मन्त्रों का समावेश है।
  • इस उपनिषद् का विशेष महत्व इसके भाष्य के कारण है। इसमें दो भाष्य हैं - एक पद-भाष्य, दूसरा वाक्य-भाष्य।

केन उपनिषद् - शान्तिमन्त्र

ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणिसर्वं ब्रह्मौपनिषदं, माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म, निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु। तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

भाषार्थ - मेरे अंग पुष्ट हो तथा मेरे वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, बल और सम्पूर्ण इन्द्रियाँ पुष्ट हो। यह सब उपनिषद्वेद्य ब्रह्म है। मैं ब्रह्मका निराकरण न करूँ। ब्रह्म मेरा निराकरण न करें (अर्थात् मैं ब्रह्मसे विमुख न होऊँ और ब्रह्म मेरा परित्याग न करे) इस प्रकार हमारा परस्पर अनिराकरण हो, अनिराकरण हो। उपनिषदोंमें जो धर्म है वे आत्मा (आत्मज्ञान) में लगे हुए मुझमें हो, वे मुझमें हो। त्रिविध तापकी शान्ति हो।[1]

केन उपनिषद् का वर्ण्य विषय

यह उपनिषद् सामवेदीय तवलकार शाखा का नवाँ अध्याय है। 'केनेषितं' मन्त्र से यह अध्याय (नवाँ) आरम्भ किया जाता है। गुरु और शिष्य के संवाद के माध्यम से ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। चार खण्डों में विभक्त यह उपनिषद् ब्रह्म की सर्वव्यापकता का वर्णन करता है। प्रथम और द्वितीय खण्ड उसके सर्वाधिष्ठान होने का निरूपण करते हैं। वह ब्रह्म सबका प्रकाशक है। प्रथम मन्त्र के प्रश्न से स्पष्ट है कि वह सबका प्रेरक और प्रकाशक है।

ओम् केनेषितं पतति प्रेषितं मनः। केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः। केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति॥

मन किसके द्वारा प्रेरणा पाकर अपने विषय की ओर उन्मुख होता है। मन, प्राण, वाणी एवं चक्षु के कर्ता कौन हैं? इस प्रकार चार प्रश्न किये गये हैं।

छोटे होने पर भी केनोपनिषद् दार्शनिक दृष्टि से विलक्षण है। प्रथम खण्ड इस जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है कि मन, प्राण, वाक् , नेत्र और कर्ण को अपने-अपने कर्मों में कौन प्रवृत्त करता है।[2]

प्रथम खण्ड - इसमें बताया गया है कि ब्रह्म चक्षु-श्रोत्र-वाणी और मन की पहुँच से परे है। उसकी सत्ता से ही आँख, कान, वाणी, प्राण और मन अपना कार्य करते हैं। उस निर्गुण ब्रह्म को जानो।

द्वितीय खण्ड - इसमें बताया गया है कि ब्रह्म अवर्णनीय और अनिर्वचनीय है। जो यह मानता है कि मैं ब्रह्म को जानता हूँ, वह कुछ नहीं जानता है। इस जीवन की सार्थकता ब्रह्मज्ञान से है, अन्यथा यह निरर्थक है।

तृतीय एवं चतुर्थ खण्ड - इसमें कथा दी गई है कि ब्रह्म की विजय को अग्नि वायु आदि ने अपनी विजय समझा। ब्रह्म ने देवों की परीक्षा के लिए तिनका रखा। उसे न अग्नि जला सका और न वायु उदा सका।

इन्द्र की परीक्षा के समय यक्ष के स्थान पर उमा प्रकट हुई। उसने बताया कि ब्रह्म की शक्ति के आधार पर ही अग्नि वायु आदि में शक्ति है, अन्यथा उनमें कोई शक्ति नहीं है। इन्द्र (जीवात्मा) ब्रह्म को समीप से जान पाता है। उसकी प्राप्ति के लिए ही जप संयम आदि हैं।

यस्यामतं तस्य मतं, मतं यस्य न वेद सः। अविज्ञातं विजानतां, विज्ञातमविजानताम् ॥ (केन० २,३)

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति, न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। (केन० २,५)

केन उपनिषद् के उपदेष्टा

केनोपनिषद् पर आचार्य शंकर के दो भाष्य मिलते हैं - पदभाष्य और वाक्यभाष्य। एक ही ग्रन्थ पर एक ही सिद्धान्त की स्थापना करते हुए एक ही आचार्य द्वारा दो भाष्य लिखे गये हों - ऐसा प्रायः नहीं देखा जाता है। वाक्यभाष्य पर टीका आरम्भ करते हुए आनन्दगिरि स्वामी ने लिखा है - सामवेदीय ब्राह्मणोपनिषद् की पदशः व्याख्या करके भी भाष्यकार सन्तुष्ट नहीं हुए क्योंकि उसमें उसके अर्थ का शारीरिक शास्त्रानुकूल युक्तियों से निर्णय नहीं किया गया था, अतः अब श्रुत्यर्थ का निरूपण करने वाले न्यासप्रधान वाक्यों से व्याख्या करने की इच्छा से आरम्भ करते हैं।[3]

केन शब्दका महत्व

इस उपनिषद् के प्रारंभमें ही प्रश्न किया है कि किस देवताकी प्रेरणासे मन मननमें प्रवृत्त होता है? और इस प्रश्नके उत्तर के लिये ही यह उपनिषद् है। केन उपनिषद् यह नाम निरर्थक नहीं है अपितु हरएक विचारी मनुष्यके मनमें जो प्रश्न उत्पन्न होता है, उसी प्रश्नका उत्तर इसमें दिया गया है। मैं कौन हूँ? कहाँसे आया? क्यों कार्य कर रहा हूँ? इसमें प्रेरक कौन है? इन प्रश्नोंमें जो भाव है, वही उपनिषद्के ''केन'' शब्दद्वारा प्रकट हो रहा है।[4]

यक्षोपाख्यान

तृतीय खण्ड में ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को समझने की महत्ता बताने के लिए देवताओं द्वारा उसे जानने के प्रयत्न की चर्चा यक्षोपाख्यान के माध्यम से की गयी है। यक्ष के रूप में प्रस्तुत हुए ब्रह्म को शक्तिमान् अग्नि और वायु पहचानने में जब असमर्थ रहे, तब इन्द्र उसके पास गये। इन्द्र के पहुँचते ही यक्ष अदृश्य हो गया और आकाश में उस स्थान पर हैमवती उमा प्रकट हुयीं।

केन उपनिषद् का महत्व

केनोपनिषद् का महत्व संरचना की दृष्टि से भी कम नहीं है। प्रथम दो खण्डों में समाहित गुरु-शिष्य का संवाद नाटकीय परिसंवाद की शैली में हुआ है। रूपक-शैली में विषय के प्रतिपादन का प्रयोग कई उपनिषदों में हुआ है, परन्तु केनोपनिषद् का यक्षोपाख्यान यक्ष, अग्नि, वायु, इन्द्र, उमा, आदि पात्रों को विविध सत्ताओं और शक्तियों के प्रतीक रूप में प्रस्तुत करताअ है। प्रस्तुति की नाटकीयता गम्भीर विषय को बोधगम्य और सरल बना देती है।

सारांश

केनोपनिषद् का महत्व संरचना की दृष्टि से भी है। प्रथम दो खण्डों में गुरु-शिष्य का संवाद नाटकीय परिसंवाद की शैली में हुआ है। परन्तु केनोपनिषद् का यक्षोपाख्यान यक्ष, अग्नि, वायु, इन्द्र, उमा आदि पात्रों को विविध सत्ताओं और शक्तियों के प्रतीक रूप में प्रस्तुत करता है। प्रस्तुति की नाटकीयता गम्भीर विषय को सरल बना देती है।

उद्धरण

  1. घनश्यामदास जालान, केनोपनिषद् - शांकरभाष्य और भाष्यार्थसहित, गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १)।
  2. डॉ० कपिल देव द्विवेदी, वैदिक साहित्य एवं संस्कृति, सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी(पृ० १७५)।
  3. बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास - वेद खण्ड, सन् १९९९, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान: लखनऊ (पृ० ४९०)।
  4. पं० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, केन उपनिषद् - भूमिका, सन् १९५३, स्वाध्याय-मण्डल, आनंदाश्रम, सूरत (पृ० ६)।