− | लय शब्द ली धातु से बना है जिसका अर्थ है विलीन होना, विश्रांति, संयोग, एक रूप होना, मिलन अर्थात् जब दो के बीच एकरूपता या साम्य, इस प्रकार सम्पन्न हो जाए कि उसका अन्तराल न कम हो और न अधिक तो उसे लय कहते हैं। | + | लय शब्द ली धातु से बना है जिसका अर्थ है विलीन होना, विश्रांति, संयोग, एक रूप होना, मिलन अर्थात् जब दो के बीच एकरूपता या साम्य, इस प्रकार सम्पन्न हो जाए कि उसका अन्तराल न कम हो और न अधिक तो उसे लय कहते हैं। मन्त्र के जाप से एक तरंग का निर्माण होता है जो की सम्पूर्ण वायुमंडल में व्याप्त हो जाता है और छिपी हुयी शक्तियों को जाग्रत कर लाभ प्रदान करता है।<blockquote>यो वात्मानं तु वै तस्मिन् मानवः कुरुते लयम्। भवबन्धविनिर्मुक्तो लययोगं स आप्नुते॥</blockquote>जो मनुष्य अपने आपको स्वयं में लय कर देता है, वह मनुष्य सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर लययोग को प्राप्त करता है।<blockquote>लययोगस्तु स एषो येन संधौतकल्मषः। सच्चिदानन्दरूपेण साधकः सुखमाप्नुते॥</blockquote>यह लययोग वह है जिस सच्चिदानन्द रूपयोग से जिसके पाप नष्ट हो गये हैं इस प्रकार का साधक सुखं को प्राप्त करता है। |
− | मन्त्र के जाप से एक तरंग का निर्माण होता है जो की सम्पूर्ण वायुमंडल में व्याप्त हो जाता है और छिपी हुयी शक्तियों को जाग्रत कर लाभ प्रदान करता है।
| + | लय का अर्थ है लीन होना, किसी में घुल जाना विलीन हो जाना। आत्मा को परमात्मा में घुला देना, लीन कर देना लय योग का उद्देश्य है। मुक्ति या समाधि अवस्था में आत्म विस्मृति हो जाती है, द्वैत मिट जाता है और एकता की सायुज्यता का आनन्द प्राप्त होता है। लययोग में अपने मन को भुलाने का अभ्यास किया जाता है। जिससे वर्तमान स्थूल स्थिति में रहते हुए भी उसका विस्मरण हो जाय और ऐसी किसी स्थिति का अनुभव होता रहे जो यद्यपि स्थूल रूप से नहीं है पर मन जिसे चाहता है। जो स्थूल स्थित है उसका अनुभव न करना और जो बात भले ही प्रत्यक्ष रूप से नहीं है पर उसे अपनी भावना के बल पर अनुभव करना- यही कार्य प्रणाली लय योग में होती है। इस अभ्यास में प्रवीण हो जाने पर मनुष्य वर्तमान परिस्थितियों को सांसारिक दृष्टि से देखना भूल जाता है, फल स्वरूप वे बातें भी उसे दुखदायी प्रतीत नहीं होती जिनके कारण साधारण लोग बहुत भयभीत और दुःखी रहते हैं। लययोग का साधक कष्ट, पीडा या विपत्ति में भी आनन्द एवं कल्याण का अनुभव करता हुआ संतुष्ट रह सकता है। |
| शास्त्रों में पूजाके पाँच प्रकार बताये गये हैं- अभिगमन, उपादान, योग, स्वाध्याय और इज्या। देवताके स्थान को साफ करना, लीपना, निर्माल्य हटाना- ये सब कर्म अभिगमन के अन्तर्गत हैं। गन्ध, पुष्प आदि पूजा-सामग्रीका संग्रह उपादान है। इष्टदेवकी आत्मरूपसे भावना करना योग है। मन्त्रार्थका अनुसन्धान करते हुये जप करना, सूक्त, स्तोत्र आदिका पाठ करना, गुण, नाम, लीला आदिका कीर्तन करना, वेदान्तशास्त्र आदिका अभ्यास करना- ये सब स्वाध्याय हैं। उपचारोंके द्वारा अपने आराध्यदेवकी पूजा इज्या है। ये पाँच प्रकार की पूजाएँ क्रमशः सार्ष्टि, सामीप्य, सालोक्य, सायुज्य और सारूप्यमुक्ति को देने वाली है। | | शास्त्रों में पूजाके पाँच प्रकार बताये गये हैं- अभिगमन, उपादान, योग, स्वाध्याय और इज्या। देवताके स्थान को साफ करना, लीपना, निर्माल्य हटाना- ये सब कर्म अभिगमन के अन्तर्गत हैं। गन्ध, पुष्प आदि पूजा-सामग्रीका संग्रह उपादान है। इष्टदेवकी आत्मरूपसे भावना करना योग है। मन्त्रार्थका अनुसन्धान करते हुये जप करना, सूक्त, स्तोत्र आदिका पाठ करना, गुण, नाम, लीला आदिका कीर्तन करना, वेदान्तशास्त्र आदिका अभ्यास करना- ये सब स्वाध्याय हैं। उपचारोंके द्वारा अपने आराध्यदेवकी पूजा इज्या है। ये पाँच प्रकार की पूजाएँ क्रमशः सार्ष्टि, सामीप्य, सालोक्य, सायुज्य और सारूप्यमुक्ति को देने वाली है। |