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| === पाप का स्वरूप एवं तत्त्व === | | === पाप का स्वरूप एवं तत्त्व === |
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| + | # '''मानस पाप-''' १ छल-कपट से दूसरे के धन को हडप लेने की लालसा रखना, २ दूसरे का अमंगल हो ऐसी इच्छा रखना, ३ असत्य विचारों को मानना- ये तीनों मानस पाप कहे गये हैं। |
| + | # '''वाचिक पाप-''' १ कठोर या परुष वचन, २ असत्य बोलना, ३ चुगलखोरी करना, ४ असंगत वाचालता- ये चारों वाचिक पाप हैं। |
| + | # '''शारीरिक पाप-''' १ बिना सहमति के किसी की संपत्ति को हथियाना, २ चेतन प्राणियों की हिंसा,३ परस्त्री गमन ये तीनों शारीरिक पाप कहे गये हैं। |
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| === पाप कर्म === | | === पाप कर्म === |
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| === पापों के शमन के लिये प्रायश्चित्त === | | === पापों के शमन के लिये प्रायश्चित्त === |
| + | दुष्कर्म करने वाले मनुष्य को प्रकृति के भय के कारण अपने गलत कृत्य के प्रति पश्चाताप का अनुभव हुआ। यही पश्चाताप प्रायश्चित्त के रूपमें विकसित हुआ। प्रायश्चित्त भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण विशेषता है। वैदिककाल से ही प्रायश्चित्त की अवधारणा देखी गयी है। वेद, धर्मशास्त्र, पुराण आदि शास्त्रों में प्रायश्चित्त सम्बन्धी बातें विद्यमान है। समाज तथा मनुष्य को पूर्ण विकसित करने के लिये दण्ड तथा प्रायश्चित्त विधियों का विकास हुआ। प्रायश्चित्त के अनुसार मनुष्य अपने द्वारा किये गये गलत कार्य के प्रति मनमें पश्चाताप का अनुभव करता है। अंगिरा के अनुसार प्रायश्चित्त का शाब्दिक अर्थ-<blockquote>प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चितं निश्चय उच्यते। तपोनिश्चयसंयोगात् प्रायश्चित्तमितिस्मृतम् ॥</blockquote>अर्थ- प्राय को तप तथा चित् को निश्चय कहा गया है। तप और निश्चय का संयोग ही प्रायश्चित्त कहा जाता है। |
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| + | * प्रायश्चित मन को निर्मल कर देता है। प्रायश्चित मानसिक स्तर की व्यवस्था है। |
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| नित्य, नैमित्तिक आदि विहित कर्मों को न करने से तथा सुरापान आदु निषिद्ध कर्म करनेसे और इन्द्रियों का निग्रह न करने से मनुष्य पतित हो जाता है। इसलिये मनुष्य को शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त करना चाहिये। | | नित्य, नैमित्तिक आदि विहित कर्मों को न करने से तथा सुरापान आदु निषिद्ध कर्म करनेसे और इन्द्रियों का निग्रह न करने से मनुष्य पतित हो जाता है। इसलिये मनुष्य को शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त करना चाहिये। |
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| प्राचीन साहित्यमें कर्म के नैतिक सन्दर्भ का स्पष्ट अंकन हमें बृहदारण्यक उपनिषद् में मिलता है-<blockquote>यथाचारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति। पापकारी पापो भवति, पुण्यं पुण्येन भवति पापः पापेन। अथो खल्वाहु काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्कृतर्भवति यत्कुतुर्भवति तत् कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभि सम्पद्यते॥(बृह०उप०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95_%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D_4p#cite_note-2 बृहदारण्यक उपनिषद्] , अध्याय-४, ब्राह्मण-४, कण्डिका-४।</ref></blockquote>इसका तात्पर्य यह है कि जो जैसा करने वाला है, जैसा आचरण करने वाला है, वह वैसा आचरण वाला होता है। वह वैसा ही हो जाता है। शुभ कर्म करने वाला शुभ होता है। पाप कर्म करने वाला पापी होता है। पुरुष पुण्य कर्म से पुण्यात्मा होता है और पाप कर्म से पापी होता है। | | प्राचीन साहित्यमें कर्म के नैतिक सन्दर्भ का स्पष्ट अंकन हमें बृहदारण्यक उपनिषद् में मिलता है-<blockquote>यथाचारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति। पापकारी पापो भवति, पुण्यं पुण्येन भवति पापः पापेन। अथो खल्वाहु काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्कृतर्भवति यत्कुतुर्भवति तत् कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभि सम्पद्यते॥(बृह०उप०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95_%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D_4p#cite_note-2 बृहदारण्यक उपनिषद्] , अध्याय-४, ब्राह्मण-४, कण्डिका-४।</ref></blockquote>इसका तात्पर्य यह है कि जो जैसा करने वाला है, जैसा आचरण करने वाला है, वह वैसा आचरण वाला होता है। वह वैसा ही हो जाता है। शुभ कर्म करने वाला शुभ होता है। पाप कर्म करने वाला पापी होता है। पुरुष पुण्य कर्म से पुण्यात्मा होता है और पाप कर्म से पापी होता है। |
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| + | == निष्कर्ष == |
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| == उद्धरण == | | == उद्धरण == |