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=== पापतत्त्व ===
 
=== पापतत्त्व ===
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== वैदिक धर्म में पाप और पुण्य की अवधारणा ==
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== शास्त्रों में पाप और पुण्य की अवधारणा ==
 
सामान्यतः पाप एक ऐसा कार्य जो ईश्वर
 
सामान्यतः पाप एक ऐसा कार्य जो ईश्वर
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वेदों में प्राणी जिस कर्म के फल को अनुकूल मानता है वह पुण्य और जिनके फल को प्रतिकूल समझता है वह पाप हैं।
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वेदों में प्राणी जिस कर्म के फल को अनुकूल मानता है वह पुण्य और जिनके फल को प्रतिकूल समझता है वह पाप हैं। इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि पाप-पुण्य की अवधारणा का वर्तमान नैतिक मूल्यों में महत्त्वपूर्ण योगदान है। मनुष्य यदि पुण्य को अपने जीवनमें अपनाता है तो उसे उसका अच्छा परिणाम होता है एवं पुण्य उसके सामने आकर उसे उसका परिणाम प्राप्त कराता है। यदि मनुष्य पापपूर्ण जीवन व्यतीत करता है तो उसे उसका गलत परिणाम प्राप्त होता है एवं गलत कर्म का गलत परिणाम भुगतना पडता है। इसलिये महाभारता के शान्तिपर्वमें कहा गया है-<blockquote>पापकर्म कृतं किञ्चिद्यदि तस्मिन्न दृश्यते। नृपते तस्य पुत्रेषु पौत्रेष्वपि च नप्तृषु॥</blockquote>शान्तिपर्व में भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं कि- किसी आदमी को उसके पाप कर्मों का फल उस समय मिलता हुआ नहीं दिखता है तो वह उसे ही नहीं बल्कि उसके पौत्रों एवं प्रपौत्रों तक को भोगना पडता है।
    
== पुण्य व पाप का परिणाम ==
 
== पुण्य व पाप का परिणाम ==
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प्राचीन साहित्यमें कर्म के नैतिक सन्दर्भ का स्पष्ट अंकन हमें बृहदारण्यक उपनिषद् में मिलता है-<blockquote>यथाचारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति। पापकारी पापो भवति, पुण्यं पुण्येन भवति पापः पापेन। अथो खल्वाहु काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्कृतर्भवति यत्कुतुर्भवति तत् कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभि सम्पद्यते॥</blockquote>इसका तात्पर्य यह है कि जो जैसा करने वाला है, जैसा आचरण करने वाला है, वह वैसा आचरण वाला होता है। वह वैसा ही हो जाता है। शुभ कर्म करने वाला शुभ होता है। पाप कर्म करने वाला पापी होता है। पुरुष पुण्य कर्म से पुण्यात्मा होता है और पाप कर्म से पापी होता है।
 
प्राचीन साहित्यमें कर्म के नैतिक सन्दर्भ का स्पष्ट अंकन हमें बृहदारण्यक उपनिषद् में मिलता है-<blockquote>यथाचारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति। पापकारी पापो भवति, पुण्यं पुण्येन भवति पापः पापेन। अथो खल्वाहु काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्कृतर्भवति यत्कुतुर्भवति तत् कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभि सम्पद्यते॥</blockquote>इसका तात्पर्य यह है कि जो जैसा करने वाला है, जैसा आचरण करने वाला है, वह वैसा आचरण वाला होता है। वह वैसा ही हो जाता है। शुभ कर्म करने वाला शुभ होता है। पाप कर्म करने वाला पापी होता है। पुरुष पुण्य कर्म से पुण्यात्मा होता है और पाप कर्म से पापी होता है।
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== उद्धरण ==
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