| १. मानव यह परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना है। सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। परमात्मा की सभी शक्तियाँ मनुष्य के पास विद्यमान होतीं हैं। केवल मात्रा का अंतर होता है। मानव की शक्तियाँ मर्यादित हैं। परमात्मा की अमर्याद हैं। किंतु भारतीय मान्यता और इतिहास के अनुसार नर करनी करे तो नारायण तक विकास कर सकता है। २. मानव जीवन का नियमन उसके कर्म ही करते हैं। भारतीय मान्यता है की जीवों की ८४ लक्ष योनियाँ हैं। इनमें केवल मानव योनि ही कर्मयोनि है। अन्य सभी प्राणियों की योनियाँ भोग योनियाँ हैं। प्राणि उन्हें कहते हैं जो प्राण के यानि आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीते हैं। इन अर्थों में मानव एक प्राणि भी है। जन्म से तो मानव भी अन्य प्राणियों जैसा प्राण के स्तरपर जीनेवाला जीव ही होता है। संस्कार और शिक्षा से वह मन के स्तरपर जीने लगता है। मन के स्तरपर जीनेवाले को मानव कहते हैं। बुध्दि के स्तरपर जीनेवाले को महामानव और चित्त या आत्मिक स्तरपर जीनेवाले को और भी अधिक श्रेष्ठ मानव या नरोत्तम कहा जाता है। मानवेतर योनियों के प्राणियों को अपने स्वाभाविक प्राणिक आवेगों के अनुसार चलने मात्र की बुध्दि और मन मिला है। इसलिये सामान्यत: ये प्राणि स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकते। केवल मानव को विशेष मन, बुध्दि, स्मृति आदि मिले हैं इस कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न, प्राणिक आवेगों से भिन्न और प्राणिक आवेगों के विपरीत भी कर्म करने की स्वतंत्रता ले सकता है। मानव व्यवहार की इस स्वतंत्रता का नियमन उस के कर्मों से होता है। यह नियमन कर्मसिध्दांत के आधारपर होता है। कर्मसिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये ‘जीवनशैली के सूत्र‘ अध्याय में देखें। ऋणसिद्धांत का आधार भी कर्मसिद्धांत ही है| 3. सृष्टि में मानव निर्माण तो सब से अंत में हुआ था। उससे पहले सृष्टि थी। सृष्टि के विलय की प्रक्रिया में भी मानव जाति नष्ट होने के उपरांत भी सृष्टि होगी। सृष्टि को मानव की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मानव सृष्टि के बगैर जी नहीं सकता। इसलिये मानव के लिये यह अनिवार्य है कि वह सृष्टि के साथ अपने को समायोजित करे। अपने सभी व्यवहार प्रकृति सुसंगत रखे। प्रकृति का संतुलन नहीं बिगाडे। सृष्टी चक्र को अबाधित रखे| वैसे भी सृष्टी या प्रकृति के साथ जब मानव खिलवाड़ करता है, एक सीमातक तो प्रकृति उसे सहन कर लेती है| इस सीमा को लाँघने के बाद प्रकृति भी उसकी प्रतिक्रया देती है| इस प्रतिक्रया से मानव का ही नुकसान होता है| ४. श्रेष्ठता के साथ दायित्व आता है। दायित्व बोध आना चाहिये। मानव को जो श्रेष्ठता परमात्मा से मिली है उस के कारण मानव का यह दायित्व बनता है कि वह विवेक से काम ले। प्रकृति नहीं बिगाडे। जीवश्रृंखला को नहीं तोडे। प्रकृति के साथ खिलवाड नहीं करे। दुर्बलों की सहायता करे। मानव को मिली श्रेष्ठ स्मृति के कारण ‘कृतज्ञता’, उपकार से उतराई होना यह मानव का अनिवार्य लक्षण है। ५. भारतीय दृष्टि से मानव जीवन का लक्ष्य मोक्षप्राप्ति या मुक्ति है। व्यक्तिगत से परमेष्ठीगत विकास है। इसी तरह मानव का सामाजिक स्तरपर लक्ष्य ‘स्वतंत्रता’ है। और सृष्टि के स्तरपर ‘धर्माचरण’ है। सृष्टि के नियमों के अनुकूल व्यवहार भी धर्म ही होता है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वैराचार नहीं होता। स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारियाँ आतीं हैं। दायित्व आते हैं। धर्म के विषय में अधिक जानकारी के लिये अध्याय ३ ‘धर्म’ में देखें। ६. मानव सदैव सुख की खोज करता रहता है। मानव के सारे प्रयास मूलत: सुखप्राप्ति के लिये होते हैं। सुख का अर्थ अनुकूल संवेदना है। सुख प्राप्ति के लिये निम्न बातें अनिवार्य होती हैं। - सुसाध्य आजीविका - स्वतंत्रता - शांति - पौरुष इन चारों बातों का समष्टीगत होना व्यक्ति के सुख के लिये आवश्यक है। जितने प्रमाण में ये समष्टिगत होंगी उतने प्रमाण में ही व्यक्ति को भी सुख मिल सकता है| सुख के भिन्न भिन्न प्रकार भी होते हैं। दैवी, मानवी और पाशवी। दैवी सुख आत्मिक सुख को कहते हैं। इस में ममता, सहानुभूति, आत्मीयता, परोपकार, प्रेम आदि के कारण मिले सुखों का समावेश होता है। मानवी सुख मन का सुख होता है। यह मन को प्रसन्न करनेवाला सुख होता है। पाशवी सुख में शरीर और इंद्रियों का सुख आता है। यह स्तर प्राणिक आवेगों में अनुकूल अनुभवों का स्तर है। सुख के भिन्न भिन्न स्तर भी होते हैं। इंद्रिय सुख का स्तर सबसे नीचे होता है। मन का सुख उससे ऊपर, बुध्दिका सुख उससे ऊपर चित्त का सुख या आनंद उससे ऊपर और परमानंद का या परम कल्याण का सुख (आत्मीय) सब से ऊपर होता है। इस परम सुख का नाम ही मोक्ष है। आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिये अन्य तीनों के न्यूनतम सुख की प्राप्ति की आवश्यकता होती है। यह मन-बुध्दि में स्थापित करने के लिये ही धर्मशिक्षा की व्यवस्था की जाती है। ७. मानवेतर प्राणियों में नवजात बच्चे बहुत शीघ्र स्वावलंबी बन जाते हैं। मानव में व्यक्तित्व विकास यह लंबी चलनेवाली प्रक्रिया होती है। इसलिये मानव परिवार की रचना और पशूओं के परिवार की रचना में और प्रवर्तन में अंतर होता है। ८. मानव का व्यक्तित्व पाँच पहलुओं से बना है। तैत्तिरीय उपनिषद् में इन्हें पञ्चविध पुरूष कहा है| आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य इन पहलुओं को पंचकोश कहते हैं। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय ऐसे उन पञ्चविध पुरूषों के या पाँच कोशों के नाम हैं। सामान्य लोगों की भाषा में इन्हें शरीर(इंद्रियाँ), प्राण, मन, बुध्दि और चित्त कहा जा सकता है। जन्म के समय इन सभी का स्वरूप अविकसित होता है। ये सब बातें वैसे तो हर प्राणि के पास भी होतीं ही हैं। किंतु मानवेतर प्राणियों में मन, बुध्दि और चित्त या तो अक्रिय होते हैं या अत्यंत निम्न स्तरके होते हैं। हर मानव के पंचकोशीय स्वरूप में से स्वयं परमात्मा अभिव्यक्त होता है इसीलिये मानव को व्यक्ति कहते हैं। इन कोशों के साथ तादात्म्य हो जाने से उस व्यक्ति में उपस्थित आत्वतत्त्व अपने को व्यक्ति मानने लग जाता है। जब मानव इन पंचकोशों के परे जाता है तब ही उस का साक्षात्कार परमात्मा से होता है। हर मानव का व्यक्तित्व अन्य मानवों से भिन्न होता है। इसलिये उसके विकास का रास्ता भी अन्यों से भिन्न होता है। ९. मानव व्यक्तित्व के पहलुओं का विकास भी एकसाथ नहीं होता। गर्भधारणा के बाद सर्वप्रथम चित्त सक्रिय होता है। इस काल में गर्भ अपनी माँ से भी कहीं संवेदनशील होता है। अबतक इंद्रियों का विकास नहीं हुआ होने से शब्द, स्पर्श, रूप रस और गंध के सूक्ष्म से सूक्ष्म संस्कार वह ग्रहण कर लेता है। जब इंद्रियों का निर्माण शुरू होता है तब फिर संस्कार क्षमता उस इंद्रिय की क्षमता जितनी कम हो जाती है। शिशू अवस्था में बालक के इंद्रियों के विकास का काल होता है। पूर्वबाल्यावस्था में मन का या विचार शक्तिका, उत्तर बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था में बुध्दि, तर्क आदि का और उत्तर किशोरवस्था में तथा यौवन में अहंकार का यानी 'मै' का यानी कर्ता भाव (मैं करता हूँ), ज्ञाता भाव (मैं जानता हूँ) और भोक्ता भाव (मैं उपभोग करता हूँ)का विकास होता है। इसलिये व्यक्तित्व विकास के लिये संस्कारों का और शिक्षा का स्वरूप आयु की अवस्था के अनुसार बदलता है। १०. हर मानव जन्म लेते समय अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार विकास की कुछ संभाव्य सीमाएँ लेकर जन्म लेता है। अच्छा संगोपन मिलने से वह पूरी संभावनाओंतक विकास कर सकता है। कुछ विशेष इच्छाशक्ति रखनेवाले बच्चे अपनी संभावनाओं से भी अधिक विकास कर लेते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे अल्प संख्या में ही होते हैं। अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अपवाद स्वरूप बच्चों के विकास के लिये सामान्य बच्चों के नियम और पध्दतियाँ पर्याप्त नहीं होतीं। सामान्य बच्चों के साथ भी विशेष प्रतिभा रखनेवाले बच्चों जैसा व्यवहार करने से सामान्य बच्चों की हानी होती है। समाज के सभी लोग प्रतिभावान या जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ‘श्रेष्ठ’ कहती है या जिन्हें ‘महाजनो येन गत: स: पंथ:’ में ‘महाजन’ कहा गया है ऐसे नहीं होते हैं। इनका समाज में प्रमाण ५-१० प्रतिशत से अधिक नहीं होता है। इसीलिये भारतीय समाज के पतन के कालखण्ड छोड दें तो सामान्यत: भारतीय न्याय व्यवस्था में एक ही प्रकार के अपराध के लिये ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक, क्षत्रिय को वैश्य से अधिक और वैश्य को शूद्र से अधिक दण्ड का विधान था। इस विषय में चीनी प्रवासीने लिखी विक्रमादित्य की कथा ध्यान देने योग्य है। कुछ स्मृतियों में ब्राह्मण को अवध्य कहा गया है। अवध्यता से तात्पर्य है शारीरिक अवध्यता। ब्राह्मण का अपराधी सिध्द होना उसके सम्मान की समाप्ति होती है। और ब्राह्मण का सम्मान छिन जाना मृत्यूसे अधिक बडा दंड माना जाता था| ब्राह्मणों में क्षत्रियों में और वैश्यों में भी महाजन होते हैं| इनका प्रमाण ५-१० % से कम ही होता है| ११. आवश्यकता और इच्छा एक नहीं हैं। आवश्यकताएँ शरीर और प्राण के लिये होती हैं। इसलिये वे मर्यादित होतीं हैं। इच्छाएँ मन करता है। मन की शक्ति असीम होती है। इसीलिये इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। इच्छाओं की पूर्तिसे मन तृप्त नहीं होता। वह और इच्छा करने लग जाता है। इसी का वर्णन किया है - न जातु काम: कामानाम् उपभोगेन शाम्यम् । हविषा कृष्णवर्त्वेम् भूयं एवाभिवर्धते ॥ प्रत्येक मानव को उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति का अधिकार और सामर्थ्य होती है। लेकिन साथ ही में इच्छाओं को नियंत्रण में रखने का दायित्व भी होता है। इसलिए मन के संयम की शिक्षा शिक्षा का महत्वपूर्ण पहलू है| स्वाद संयम, वाणी संयम ऐसे सभी इन्द्रियों की तन्मात्राओं याने स्पर्श, रूप, रस, गंध और शब्द इन के विषय में संयम रखे| सामान्यत: बुद्धि जबतक इन्द्रिय नियंत्रित मन उसे प्रभावित नहीं करता ठीक ही काम करती है| इसलिए हम ऐसा भी कहा सकते हैं की इन्द्रियों को मन के नियंत्रण में रखने की और मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखने की शिक्षा भी शिक्षा का आवश्यक पहलू है| १२. मानव अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति में उपलब्ध पदार्थों से या तो सीधे या समाज के अन्य सदस्यों के माध्यम से करता है। इसलिये यह मानव के ही हित में है कि वह प्रकृति के साथ कोई खिलवाड नहीं करे। १३. श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार चारों वर्ण परमात्माद्वारा निर्मित हैं? इन में अंतर गुणों का और कर्मों का है। गुण का अर्थ है सत्त्व, रज और तम गुण। वैसे तो प्रत्येक मनुष्य में तीनों गुण कम अधिक मात्रा में होते ही हैं? लेकिन जिस वर्ण की प्रधानता होगी उसी वर्ण का वह व्यक्ति माना जाता है। वर्णश: गुणों का संबंध निम्न है - ब्राह्मण वर्ण - सत्त्व प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांकपर रज या तम क्षत्रिय वर्ण - रज प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांकपर सत्त्व या तम वैश्य वर्ण - रज प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांकपर सत्त्व या तम शूद्र वर्ण - तम प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांकपर सत्त्व या रज समाज सुखी बनें इसलिये विप्र वर्ण स्वतंत्रता के लिये क्षत्रिय वर्ण सुरक्षा के लिये, वैश्य वर्ण सुसाध्य आजीविका के लिये और शूद्र वर्ण शांति के लिये जिम्मेदार है। ब्राह्मण वर्ण की जिम्मेदारी स्वाभाविक स्वतंत्रता की प्रस्थापना, क्षत्रिय वर्ण की जिम्मेदारी शासनिक स्वतंत्रता की प्रस्थापना, वैश्य वर्ण की जिम्मेदारी आर्थिक स्वतंत्रता की प्रस्थापना की जिम्मेदारी है। देशिक शास्त्र इन स्वतंत्रताओं की व्याख्या निम्न रूप में करता है। १३.१ स्वाभाविक स्वतंत्रता : जो काम किसी के प्राकृतिक हित के प्रतिकूल नहीं हो उस काम को करने में किसी का और किसी भी प्रकारका हस्तक्षेप नहीं होने को स्वाभाविक स्वतंत्रता कहते हैं। शासनिक और आर्थिक स्वतंत्रता स्वाभाविक स्वतंत्रता में साविष्ट हैं| १३.२ शासनिक स्वतंत्रता : शासक का प्रजा के प्राकृतिक हित में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होकर सदा प्रजा के हित के अनुकूल होने को ही शासनिक स्वतंत्रता कहते हैं। आथिक स्वतंत्रता भी इस में समाविष्ट है| १३.३ आर्थिक स्वतंत्रता : अर्थ के अभाव या प्रभाव के कारण मनुष्य के प्राकृतिक हित में कोई बाधा निर्माण नहीं होने की स्थिति को आर्थिक स्वतंत्रता कहते हैं। उपर्युक्त व्याख्याओं से यह समझ में आएगा कि स्वाभाविक स्वतंत्रता में अन्य दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश हो जाता है। इसी प्रकार से शासनिक स्वतंत्रता में आर्थिक स्वतंत्रता का समावेष हो जाता है। इसीलिये ब्राह्मण वर्ण को सर्वोच्च जिम्मेदारी के अनुसार सर्वोच्च प्रतिष्ठा और क्षत्रिय को दूसरे क्रमांक की प्रातिष्ठा समाज में प्राप्त होनी चाहिये। इन स्वतंत्रताओं की प्राप्ति ही सामाजिक दृष्टि से मानव का लक्ष्य है । ऐसा देशिक शास्त्र का कहना है। श्रीमद्भगवद्गीता कर्म का महत्त्व विषद करती है। श्रीमद्भगवद्गीता कहती है कि प्रत्येक व्यक्ति ने अपने ‘स्वभावज’ कर्म अनिवार्यतासे करने चाहिये। स्वभावज का अर्थ है जन्म से ही जैसा स्वभाव है उस के अनुरूप। श्रीमद्भगवद्गीता में शब्दप्रयोग हैं ब्रह्मकर्मस्वभावजम्, वैश्यकर्मस्वभावजम् आदि। साथ में यह भी कहा है कि अपने वर्ण का काम भले ही अच्छा नहीं लगता हो तब भी वही करना चाहिये। सामान्य मानव ने तो इसी तरह व्यवहार करना चाहिये। जो प्रतिभावान हैं उन्हें शायद सामान्य नियम नहीं लगाये जाते। जैसे गुरू के बिना भवसागर तर नहीं सकते ऐसा कहते हैं। लेकिन जो विशेष प्रतिभावान हैं उन्हें यह बात अनिवार्य नहीं है। वे तो आप ही बिना गुरू के मोक्षगामी हो सकते हैं। वर्णों में परस्पर पूरकता और परस्पर अनुकूलता होती है। इसीलिये वेद कहते हैं कि चारों वर्ण एक शरीर के चार अंगों के समान हैं। जब ज्ञान का विषय होगा, स्वाभाविक स्ववतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो ब्राह्मणका, जब सुरक्षा का प्रश्न होगा,शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तब क्षत्रियका, जब उदरभरण का, आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो वैश्यका और जब कला, कारीगरी, परिचर्या, मनोरंजन आदि का विषय होगा तो शूद्रका महत्व होगा। श्रेष्ठ और हीन का विवेक समझाने का, अभ्यूदय के साथ नि:श्रेयस की प्राप्ति का मार्गदर्शन करने का काम ब्राह्मण का होने से वह समाज का शिक्षक बन जाता है। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वतंत्रता दोनों का समावेश होता है| पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा का दायित्व उठाने के कारण शिक्षक सर्वोच्च आदर प्राप्ति का अधिकारी होता है। मोक्ष यह परम लक्ष्य होने से शिक्षक या गुरू का सम्मान सबसे अधिक होना उचित ही है। दूसरे क्रमांकपर शासनिक स्वतंत्रता याने सुरक्षा का विषय आता है। शासनिक स्वतंत्रता की जिम्मेदारी लेने के कारण शासक या क्षत्रिय वर्ग का सम्मान होना भी स्वाभाविक ही है। किंतु अपने वर्ण के अनुसार व्यवहार नहीं करना और अपने ब्राह्मण या क्षत्रिय होने का दंभ भरना यह समाज के पतन की आश्वस्ति है। ऐसे लोग कठोर दण्ड के अधिकारी हैं। १४. संस्कारों के तीन प्रकार होते हैं। सहज, कृत्रिम और अन्वयागत। सहज में फिर तीन संस्कार होते हैं। योनि संस्कार (मानव योनि के), वर्ण संस्कार और राष्ट्रीयता के संस्कार । कृत्रिम में १६ या कुछ लोगों के अनुसार ४९ संस्कार होते हैं। पितरों और माता-पिता की ओर से प्राप्त संस्कारों को अन्वयागत संस्कार कहते हैं। अन्वयागत में माता-पिता और पूर्वजों के सहज संस्कार और तीव्र कृत्रिम संस्कार होते हैं। तीव्र कृत्रिम संस्कार दीर्घ अभ्यास के कारण बनीं आदतों के कारण होते हैं। इन संस्कारों में माता की ओर से पाँच पीढियों के मन से संबंधित और पिता की ओर से १४ पीढियों के शरीर से संबंधित संस्कार होते हैं। करीब की पीढि के संस्कार अधिक और दूर की पीढि के संस्कार कम होते हैं। १५. हर मानव सुर और असुर प्रवृत्तियों से भरा होता है। इसी प्रकार से समाज में भी सुर और असुर दोनों प्रवृत्तियों के लोग होते हैं। भर्तृहरि के अनुसार तो अपना कोई हित नहीं होते हुए भी औरों के अहित में आनंद लेनेवाले असूर से भी गये गुजरे लोग भी समाज में होते है। इन सभी के लिये सदाचार की शिक्षा की व्यवस्था करना समाज का दायित्व है। जो बात अपने को प्रिय होती है उसे प्रेय कहते हैं। और जो अंतिमत: कल्याणकारी बात होती है उसे श्रेय कहते हैं। अपने प्रेय के लिये अन्यों का अहित करनेवाले को असुर कहते हैं। ऐसे मानव को भी श्रेय ही प्रेय लगने लग जाए इसलिये शिक्षा होती है। कुल मिलाकर शिक्षा का स्वरूप धर्मशिक्षा का होता है। पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा का होता है| १६. मानव अच्छा डॉक्टर बनता है, अच्छा व्यावसायिक आदि बनता है यह समाज के लिये महत्वपूर्ण बात होती है। किंतु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात हर बालक के लिये यह है कि वह एक अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता, अच्छा देशभक्त और अच्छा मानव बने। इसी तरह हर बालिका अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी देशभक्त और अच्छी मानव बनें यह अधिक महत्वपूर्ण होता है। इसे सुनिश्चित करने के लिये सब से अधिक अवसर माता को होता है इसलिए सबसे अधिक जिम्मेदारी माता की होती है। दूसरे स्थानपर पिता जिम्मेदार होता है। कहा गया है ‘माता प्रथमो गुरू: पिता द्वितीयो’। इस में माता पिता समान घर के सब ज्येष्ठ लोगों का भी योगदान होता है। तीसरी जिम्मेदारी शिक्षक की होती है। ऐसी मान्यता है कि बालक के विकास में २५ प्रतिशत हिस्सा उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का होता है। दूसरा २५ प्रतिशत उसे प्राप्त संस्कार और शिक्षा का होता है। तीसरा २५ प्रतिशत उसे मिले वातावरण, संगत, मित्र आदि का होता है। चौथा २५ प्रतिशत उसके अपने प्रयासों का होता है। इन हिस्सों का महत्वक्रम भी इसी क्रम से होता है। पूर्व कर्मों का प्रभाव सबसे अधिक, उसके उपरांत संस्कार और शिक्षा का आदि। अन्य एक वर्गीकरण के अनुसार श्रेष्ठ मानव निर्माण के दो मुख्य पहलू हैं| पहला श्रेष्ठ जीवात्मा होना| और दूसरा है उसे अच्छी शिक्षा और संस्कार प्राप्त होना| इस दृष्टी से श्रेष्ठ मानव निर्माण में ५० प्रतिशत हिस्सा तो जन्म देनेवाले माता पिता का है| संस्कारों का काम भी घर में ही मुख्यत: चलता है| इसलिए संस्कारों का २५ प्रतिशत हिस्सा कुटुंब का होता है| शेष २५ प्रतिशत शिक्षा का जिसमें विद्यालयीन शिक्षा और लोकशिक्षा के माध्यमों का सहभाग होता है| समाज में यदि समस्याएँ हैं और बढ रहीं हैं तो माता, पिता और शिक्षक ये तीन लोग क्रम से इस के जिम्मेदार होते हैं। १७. मानव के लिये कुछ बातें जन्मजात और कुछ समाज से प्राप्त होनेवाली होतीं हैं। पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार आनेवाली बातें - दस इंद्रिय, मन, बुध्दि, चित्त, अहंकार, श्रेष्ठ जीवात्मा, प्रारब्ध (पूर्व कर्मों का पक गया है ऐसा फल) जो जन्म कुंडली में दिखाई देता है, त्रिगुणयुक्त व्यक्तित्व, त्रिदोषयुक्त शरीर, माता पिता आदि| माता-पिता से जन्म से प्राप्त होनेवाली बातें : पितर और उन की विरासत- सामाजिक प्रतिष्ठा, नाम, भौतिक समृध्दि, शारीरिक स्वास्थ्य, जाति और आनुवांशिकता से आनेवाली बातें जैसे वर्ण, (त्रिदोषात्मक) शारीरिक स्वास्थ्य, व्यावसायिक और अन्य कुशलताएँ, परम्पराएँ आदि परीवार में और समाज में प्राप्त होनेवाली बातें : नाम, प्यार, आत्मीयता, रक्षण, पोषण, संस्कार, शिक्षण, आदतें, आर्थिक और पारिवारिक विरासत और परंपराएँ, सामाजिकता, सामाजिक प्रतिष्ठा, कुलधर्म, कुलाचार, विविध पारिवारिक यानी रक्तसंबंध के रिश्ते, विविध सामाजिक रिश्ते, सदाचार, धर्म आदि की शिक्षा आदि। १८. मानव के जन्म, जीवन और मृत्यू के चक्र में आयू की अवस्था के अनुसार निम्न बातें बदलतीं हैं। - प्यार-दुलार - रक्षण/पोषण - संस्कार और शिक्षण - क्षमताएँ - योग्यताएँ - भावनाएँ - आवश्यकताएँ - इच्छाएँ - जिम्मेदारियाँ - कर्तव्य /बोध - अधिकार/बोध इन का समायोजन सामाजिक संगठन और व्यवस्थाओं में होना आवश्यक है। इस हेतु से समाज भिन्न भिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं को चलाता है, भिन्न भिन्न संगठन और व्यवस्थाएँ निर्माण करता है। १९. सामान्यत: गृहस्थ के लिये चारों आश्रमों के लोगों तथा अन्य जीव जगत के योगक्षेम की जिम्मेदारी के अलावा दो और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होतीं हैं। पहली यह है कि वह धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करे। दूसरी है समाज की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सार्थक योगदान दे। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों की संख्या का समाज की कुल आबादी के साथ संतुलन भी महत्वपूर्ण है। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करने से वह नि:श्रेयस को और भौतिक वस्तूओं के उत्पादन से वह व्यक्तिगत और सामाजिक स्तरपर अभ्यूदय को प्राप्त करता है। २०. भारतीय समाज में गृहस्थ के लिये तीन बातें आवश्यक मानीं गईं हैं। पहली बात यह है कि वह केवल धर्म की कमाई करे, दूसरे व्यय भी धर्मानुसार ही करे और तीसरे आवश्यकता से अतिरिक्त कमाई यथासंभव अधिक से अधिक दान में दे। २१. सुख और सुविधा में अंतर होता है। सुविधा से सुख बढेगा यह आवश्यक नहीं है। जब सुविधा मानव को पंगु बना देती है, उसकी स्वाभाविक क्षमताओं को कुंठित कर देती है या स्वाभाविक क्षमताओं का क्षरण करती है तब वह दुख का कारण बनती है। इसलिये कितना सुविधाभोगी बनना यह विवेक महत्वपूर्ण है। सुविधाओं के विकास में दो बातें ध्यान में रखना चाहिये। पहली यह की सुविधा अक्षम लोगों की मदद के लिये होती है। दूसरी बात यह है कि उससे मानव की प्राकृतिक क्षमताओं में और सामाजिकता यानी पारिवारिक भावना और व्यवहार में वृध्दि हो। कम से कम हानी तो नहीं हो| २२. कोई भी वस्तू खरीदते समय उस वस्तू की पर्यावरण सुसंगतता, सामाजिकता से सुसंगतता, उपयोगिता, सौंदर्यबोध और सबसे अंत में उसकी कीमत को महत्व देना चाहिये। २३. हर गृहस्थ को लोकहितकारी उत्पादक व्यवसाय करना चाहिये। इससे एक ओर तो वह अपनी सामजिक जिम्मेदारी का निर्वहन करता है तो दूसरी ओर वह (अधम गति से विपरीत) श्रेष्ठ गति को प्राप्त कर लेता है। २४. मनुष्य के शरीर की रचना शाकाहारी प्राणि के अनुसार है। २५. हर मनुष्य शरीर, प्राण, मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी होता है। ये पाँचों बातें हर मनुष्य की भिन्न होतीं हैं। परमात्व तत्त्व भी इन पाँच घटकों के माध्यम से ही अभि‘व्यक्त’ होता है। इसीलिये मनुष्य को व्यक्ति कहते हैं। और व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताएँ, प्रभाव आदि को व्यक्तित्व कहते हैं। व्यक्तित्व से संबंधित कुछ बातें निम्न हैं। . प्राणिक आवेग : आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग हैं। ये मनुष्य और पशू दोनों में समान हैं। इसलिये मनुष्य भी प्राणि होता ही है। - प्रत्येक व्यक्ति को सुख, दु:ख, ममता, प्रेम, आत्मीयता, तथा द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे षड्विकार यानी मन की भावनाएँ होतीं हैं। - आवश्यकताएँ और इच्छाएँ : प्राणिक आवेगों की पूर्ति को आवश्यकता और मन की चाहतों को इच्छा कहते हैं। आवश्यकताएँ मर्यादित और इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। - कर्म योनि : प्राणिक आवेगों की पूर्ति के लिये और इच्छाओं की पूर्ति के लिये जो बातें की जातीं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। उसे प्राप्त मन और बुध्दि की श्रेष्ठता के कारण मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होता है। यह कर्म ही मनुष्य के जीवन का नियमन करते हैं। इस नियमन को कर्म सिध्दांत के माध्यम से समझा जा सकता है। कर्मसिध्दांत की जानकारी के लिये कृपया ‘ भारतीय जीवन दृष्टी और जीवन शैली ‘ अध्याय में देखें| २६. समाज में व्यक्ति के दो प्रकार हैं। स्त्री और पुरूष। परमात्मा ने इन्हें जैसे ये आज हैं इसी स्वरूप में निर्माण किया था। समाज धारणा के लिये यानि समाज बना रहने के लिये के लिये स्त्री और पुरूष दोनों की आवश्यकता होती है। एक की अनुपस्थिति में समाज जी नहीं सकता। स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं। बच्चे को जन्म देने का काम दोनों मिलकर करते हैं। अन्य एक भी ऐसा काम नहीं है जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु इनको एक दूसरे से कई बातों में भिन्न बनाने में परमात्मा का कुछ प्रयोजन अवश्य है। इस प्रयोजन के अनुसार इनमें कार्य विभाजन होने से समाज ठीक चलता है। सुखी, समृध्द और चिरंजीवी बनता है। स्त्री-पुरूष संबंधों के विषय में थोड़ा अधिक गहराई से अब हम विचार करेंगे| | | १. मानव यह परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना है। सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। परमात्मा की सभी शक्तियाँ मनुष्य के पास विद्यमान होतीं हैं। केवल मात्रा का अंतर होता है। मानव की शक्तियाँ मर्यादित हैं। परमात्मा की अमर्याद हैं। किंतु भारतीय मान्यता और इतिहास के अनुसार नर करनी करे तो नारायण तक विकास कर सकता है। २. मानव जीवन का नियमन उसके कर्म ही करते हैं। भारतीय मान्यता है की जीवों की ८४ लक्ष योनियाँ हैं। इनमें केवल मानव योनि ही कर्मयोनि है। अन्य सभी प्राणियों की योनियाँ भोग योनियाँ हैं। प्राणि उन्हें कहते हैं जो प्राण के यानि आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीते हैं। इन अर्थों में मानव एक प्राणि भी है। जन्म से तो मानव भी अन्य प्राणियों जैसा प्राण के स्तरपर जीनेवाला जीव ही होता है। संस्कार और शिक्षा से वह मन के स्तरपर जीने लगता है। मन के स्तरपर जीनेवाले को मानव कहते हैं। बुध्दि के स्तरपर जीनेवाले को महामानव और चित्त या आत्मिक स्तरपर जीनेवाले को और भी अधिक श्रेष्ठ मानव या नरोत्तम कहा जाता है। मानवेतर योनियों के प्राणियों को अपने स्वाभाविक प्राणिक आवेगों के अनुसार चलने मात्र की बुध्दि और मन मिला है। इसलिये सामान्यत: ये प्राणि स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकते। केवल मानव को विशेष मन, बुध्दि, स्मृति आदि मिले हैं इस कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न, प्राणिक आवेगों से भिन्न और प्राणिक आवेगों के विपरीत भी कर्म करने की स्वतंत्रता ले सकता है। मानव व्यवहार की इस स्वतंत्रता का नियमन उस के कर्मों से होता है। यह नियमन कर्मसिध्दांत के आधारपर होता है। कर्मसिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये ‘जीवनशैली के सूत्र‘ अध्याय में देखें। ऋणसिद्धांत का आधार भी कर्मसिद्धांत ही है| 3. सृष्टि में मानव निर्माण तो सब से अंत में हुआ था। उससे पहले सृष्टि थी। सृष्टि के विलय की प्रक्रिया में भी मानव जाति नष्ट होने के उपरांत भी सृष्टि होगी। सृष्टि को मानव की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मानव सृष्टि के बगैर जी नहीं सकता। इसलिये मानव के लिये यह अनिवार्य है कि वह सृष्टि के साथ अपने को समायोजित करे। अपने सभी व्यवहार प्रकृति सुसंगत रखे। प्रकृति का संतुलन नहीं बिगाडे। सृष्टी चक्र को अबाधित रखे| वैसे भी सृष्टी या प्रकृति के साथ जब मानव खिलवाड़ करता है, एक सीमातक तो प्रकृति उसे सहन कर लेती है| इस सीमा को लाँघने के बाद प्रकृति भी उसकी प्रतिक्रया देती है| इस प्रतिक्रया से मानव का ही नुकसान होता है| ४. श्रेष्ठता के साथ दायित्व आता है। दायित्व बोध आना चाहिये। मानव को जो श्रेष्ठता परमात्मा से मिली है उस के कारण मानव का यह दायित्व बनता है कि वह विवेक से काम ले। प्रकृति नहीं बिगाडे। जीवश्रृंखला को नहीं तोडे। प्रकृति के साथ खिलवाड नहीं करे। दुर्बलों की सहायता करे। मानव को मिली श्रेष्ठ स्मृति के कारण ‘कृतज्ञता’, उपकार से उतराई होना यह मानव का अनिवार्य लक्षण है। ५. भारतीय दृष्टि से मानव जीवन का लक्ष्य मोक्षप्राप्ति या मुक्ति है। व्यक्तिगत से परमेष्ठीगत विकास है। इसी तरह मानव का सामाजिक स्तरपर लक्ष्य ‘स्वतंत्रता’ है। और सृष्टि के स्तरपर ‘धर्माचरण’ है। सृष्टि के नियमों के अनुकूल व्यवहार भी धर्म ही होता है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वैराचार नहीं होता। स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारियाँ आतीं हैं। दायित्व आते हैं। धर्म के विषय में अधिक जानकारी के लिये अध्याय ३ ‘धर्म’ में देखें। ६. मानव सदैव सुख की खोज करता रहता है। मानव के सारे प्रयास मूलत: सुखप्राप्ति के लिये होते हैं। सुख का अर्थ अनुकूल संवेदना है। सुख प्राप्ति के लिये निम्न बातें अनिवार्य होती हैं। - सुसाध्य आजीविका - स्वतंत्रता - शांति - पौरुष इन चारों बातों का समष्टीगत होना व्यक्ति के सुख के लिये आवश्यक है। जितने प्रमाण में ये समष्टिगत होंगी उतने प्रमाण में ही व्यक्ति को भी सुख मिल सकता है| सुख के भिन्न भिन्न प्रकार भी होते हैं। दैवी, मानवी और पाशवी। दैवी सुख आत्मिक सुख को कहते हैं। इस में ममता, सहानुभूति, आत्मीयता, परोपकार, प्रेम आदि के कारण मिले सुखों का समावेश होता है। मानवी सुख मन का सुख होता है। यह मन को प्रसन्न करनेवाला सुख होता है। पाशवी सुख में शरीर और इंद्रियों का सुख आता है। यह स्तर प्राणिक आवेगों में अनुकूल अनुभवों का स्तर है। सुख के भिन्न भिन्न स्तर भी होते हैं। इंद्रिय सुख का स्तर सबसे नीचे होता है। मन का सुख उससे ऊपर, बुध्दिका सुख उससे ऊपर चित्त का सुख या आनंद उससे ऊपर और परमानंद का या परम कल्याण का सुख (आत्मीय) सब से ऊपर होता है। इस परम सुख का नाम ही मोक्ष है। आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिये अन्य तीनों के न्यूनतम सुख की प्राप्ति की आवश्यकता होती है। यह मन-बुध्दि में स्थापित करने के लिये ही धर्मशिक्षा की व्यवस्था की जाती है। ७. मानवेतर प्राणियों में नवजात बच्चे बहुत शीघ्र स्वावलंबी बन जाते हैं। मानव में व्यक्तित्व विकास यह लंबी चलनेवाली प्रक्रिया होती है। इसलिये मानव परिवार की रचना और पशूओं के परिवार की रचना में और प्रवर्तन में अंतर होता है। ८. मानव का व्यक्तित्व पाँच पहलुओं से बना है। तैत्तिरीय उपनिषद् में इन्हें पञ्चविध पुरूष कहा है| आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य इन पहलुओं को पंचकोश कहते हैं। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय ऐसे उन पञ्चविध पुरूषों के या पाँच कोशों के नाम हैं। सामान्य लोगों की भाषा में इन्हें शरीर(इंद्रियाँ), प्राण, मन, बुध्दि और चित्त कहा जा सकता है। जन्म के समय इन सभी का स्वरूप अविकसित होता है। ये सब बातें वैसे तो हर प्राणि के पास भी होतीं ही हैं। किंतु मानवेतर प्राणियों में मन, बुध्दि और चित्त या तो अक्रिय होते हैं या अत्यंत निम्न स्तरके होते हैं। हर मानव के पंचकोशीय स्वरूप में से स्वयं परमात्मा अभिव्यक्त होता है इसीलिये मानव को व्यक्ति कहते हैं। इन कोशों के साथ तादात्म्य हो जाने से उस व्यक्ति में उपस्थित आत्वतत्त्व अपने को व्यक्ति मानने लग जाता है। जब मानव इन पंचकोशों के परे जाता है तब ही उस का साक्षात्कार परमात्मा से होता है। हर मानव का व्यक्तित्व अन्य मानवों से भिन्न होता है। इसलिये उसके विकास का रास्ता भी अन्यों से भिन्न होता है। ९. मानव व्यक्तित्व के पहलुओं का विकास भी एकसाथ नहीं होता। गर्भधारणा के बाद सर्वप्रथम चित्त सक्रिय होता है। इस काल में गर्भ अपनी माँ से भी कहीं संवेदनशील होता है। अबतक इंद्रियों का विकास नहीं हुआ होने से शब्द, स्पर्श, रूप रस और गंध के सूक्ष्म से सूक्ष्म संस्कार वह ग्रहण कर लेता है। जब इंद्रियों का निर्माण शुरू होता है तब फिर संस्कार क्षमता उस इंद्रिय की क्षमता जितनी कम हो जाती है। शिशू अवस्था में बालक के इंद्रियों के विकास का काल होता है। पूर्वबाल्यावस्था में मन का या विचार शक्तिका, उत्तर बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था में बुध्दि, तर्क आदि का और उत्तर किशोरवस्था में तथा यौवन में अहंकार का यानी 'मै' का यानी कर्ता भाव (मैं करता हूँ), ज्ञाता भाव (मैं जानता हूँ) और भोक्ता भाव (मैं उपभोग करता हूँ)का विकास होता है। इसलिये व्यक्तित्व विकास के लिये संस्कारों का और शिक्षा का स्वरूप आयु की अवस्था के अनुसार बदलता है। १०. हर मानव जन्म लेते समय अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार विकास की कुछ संभाव्य सीमाएँ लेकर जन्म लेता है। अच्छा संगोपन मिलने से वह पूरी संभावनाओंतक विकास कर सकता है। कुछ विशेष इच्छाशक्ति रखनेवाले बच्चे अपनी संभावनाओं से भी अधिक विकास कर लेते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे अल्प संख्या में ही होते हैं। अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अपवाद स्वरूप बच्चों के विकास के लिये सामान्य बच्चों के नियम और पध्दतियाँ पर्याप्त नहीं होतीं। सामान्य बच्चों के साथ भी विशेष प्रतिभा रखनेवाले बच्चों जैसा व्यवहार करने से सामान्य बच्चों की हानी होती है। समाज के सभी लोग प्रतिभावान या जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ‘श्रेष्ठ’ कहती है या जिन्हें ‘महाजनो येन गत: स: पंथ:’ में ‘महाजन’ कहा गया है ऐसे नहीं होते हैं। इनका समाज में प्रमाण ५-१० प्रतिशत से अधिक नहीं होता है। इसीलिये भारतीय समाज के पतन के कालखण्ड छोड दें तो सामान्यत: भारतीय न्याय व्यवस्था में एक ही प्रकार के अपराध के लिये ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक, क्षत्रिय को वैश्य से अधिक और वैश्य को शूद्र से अधिक दण्ड का विधान था। इस विषय में चीनी प्रवासीने लिखी विक्रमादित्य की कथा ध्यान देने योग्य है। कुछ स्मृतियों में ब्राह्मण को अवध्य कहा गया है। अवध्यता से तात्पर्य है शारीरिक अवध्यता। ब्राह्मण का अपराधी सिध्द होना उसके सम्मान की समाप्ति होती है। और ब्राह्मण का सम्मान छिन जाना मृत्यूसे अधिक बडा दंड माना जाता था| ब्राह्मणों में क्षत्रियों में और वैश्यों में भी महाजन होते हैं| इनका प्रमाण ५-१० % से कम ही होता है| ११. आवश्यकता और इच्छा एक नहीं हैं। आवश्यकताएँ शरीर और प्राण के लिये होती हैं। इसलिये वे मर्यादित होतीं हैं। इच्छाएँ मन करता है। मन की शक्ति असीम होती है। इसीलिये इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। इच्छाओं की पूर्तिसे मन तृप्त नहीं होता। वह और इच्छा करने लग जाता है। इसी का वर्णन किया है - न जातु काम: कामानाम् उपभोगेन शाम्यम् । हविषा कृष्णवर्त्वेम् भूयं एवाभिवर्धते ॥ प्रत्येक मानव को उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति का अधिकार और सामर्थ्य होती है। लेकिन साथ ही में इच्छाओं को नियंत्रण में रखने का दायित्व भी होता है। इसलिए मन के संयम की शिक्षा शिक्षा का महत्वपूर्ण पहलू है| स्वाद संयम, वाणी संयम ऐसे सभी इन्द्रियों की तन्मात्राओं याने स्पर्श, रूप, रस, गंध और शब्द इन के विषय में संयम रखे| सामान्यत: बुद्धि जबतक इन्द्रिय नियंत्रित मन उसे प्रभावित नहीं करता ठीक ही काम करती है| इसलिए हम ऐसा भी कहा सकते हैं की इन्द्रियों को मन के नियंत्रण में रखने की और मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखने की शिक्षा भी शिक्षा का आवश्यक पहलू है| १२. मानव अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति में उपलब्ध पदार्थों से या तो सीधे या समाज के अन्य सदस्यों के माध्यम से करता है। इसलिये यह मानव के ही हित में है कि वह प्रकृति के साथ कोई खिलवाड नहीं करे। १३. श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार चारों वर्ण परमात्माद्वारा निर्मित हैं? इन में अंतर गुणों का और कर्मों का है। गुण का अर्थ है सत्त्व, रज और तम गुण। वैसे तो प्रत्येक मनुष्य में तीनों गुण कम अधिक मात्रा में होते ही हैं? लेकिन जिस वर्ण की प्रधानता होगी उसी वर्ण का वह व्यक्ति माना जाता है। वर्णश: गुणों का संबंध निम्न है - ब्राह्मण वर्ण - सत्त्व प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांकपर रज या तम क्षत्रिय वर्ण - रज प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांकपर सत्त्व या तम वैश्य वर्ण - रज प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांकपर सत्त्व या तम शूद्र वर्ण - तम प्रधान, दूसरे और तीसरे क्रमांकपर सत्त्व या रज समाज सुखी बनें इसलिये विप्र वर्ण स्वतंत्रता के लिये क्षत्रिय वर्ण सुरक्षा के लिये, वैश्य वर्ण सुसाध्य आजीविका के लिये और शूद्र वर्ण शांति के लिये जिम्मेदार है। ब्राह्मण वर्ण की जिम्मेदारी स्वाभाविक स्वतंत्रता की प्रस्थापना, क्षत्रिय वर्ण की जिम्मेदारी शासनिक स्वतंत्रता की प्रस्थापना, वैश्य वर्ण की जिम्मेदारी आर्थिक स्वतंत्रता की प्रस्थापना की जिम्मेदारी है। देशिक शास्त्र इन स्वतंत्रताओं की व्याख्या निम्न रूप में करता है। १३.१ स्वाभाविक स्वतंत्रता : जो काम किसी के प्राकृतिक हित के प्रतिकूल नहीं हो उस काम को करने में किसी का और किसी भी प्रकारका हस्तक्षेप नहीं होने को स्वाभाविक स्वतंत्रता कहते हैं। शासनिक और आर्थिक स्वतंत्रता स्वाभाविक स्वतंत्रता में साविष्ट हैं| १३.२ शासनिक स्वतंत्रता : शासक का प्रजा के प्राकृतिक हित में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होकर सदा प्रजा के हित के अनुकूल होने को ही शासनिक स्वतंत्रता कहते हैं। आथिक स्वतंत्रता भी इस में समाविष्ट है| १३.३ आर्थिक स्वतंत्रता : अर्थ के अभाव या प्रभाव के कारण मनुष्य के प्राकृतिक हित में कोई बाधा निर्माण नहीं होने की स्थिति को आर्थिक स्वतंत्रता कहते हैं। उपर्युक्त व्याख्याओं से यह समझ में आएगा कि स्वाभाविक स्वतंत्रता में अन्य दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश हो जाता है। इसी प्रकार से शासनिक स्वतंत्रता में आर्थिक स्वतंत्रता का समावेष हो जाता है। इसीलिये ब्राह्मण वर्ण को सर्वोच्च जिम्मेदारी के अनुसार सर्वोच्च प्रतिष्ठा और क्षत्रिय को दूसरे क्रमांक की प्रातिष्ठा समाज में प्राप्त होनी चाहिये। इन स्वतंत्रताओं की प्राप्ति ही सामाजिक दृष्टि से मानव का लक्ष्य है । ऐसा देशिक शास्त्र का कहना है। श्रीमद्भगवद्गीता कर्म का महत्त्व विषद करती है। श्रीमद्भगवद्गीता कहती है कि प्रत्येक व्यक्ति ने अपने ‘स्वभावज’ कर्म अनिवार्यतासे करने चाहिये। स्वभावज का अर्थ है जन्म से ही जैसा स्वभाव है उस के अनुरूप। श्रीमद्भगवद्गीता में शब्दप्रयोग हैं ब्रह्मकर्मस्वभावजम्, वैश्यकर्मस्वभावजम् आदि। साथ में यह भी कहा है कि अपने वर्ण का काम भले ही अच्छा नहीं लगता हो तब भी वही करना चाहिये। सामान्य मानव ने तो इसी तरह व्यवहार करना चाहिये। जो प्रतिभावान हैं उन्हें शायद सामान्य नियम नहीं लगाये जाते। जैसे गुरू के बिना भवसागर तर नहीं सकते ऐसा कहते हैं। लेकिन जो विशेष प्रतिभावान हैं उन्हें यह बात अनिवार्य नहीं है। वे तो आप ही बिना गुरू के मोक्षगामी हो सकते हैं। वर्णों में परस्पर पूरकता और परस्पर अनुकूलता होती है। इसीलिये वेद कहते हैं कि चारों वर्ण एक शरीर के चार अंगों के समान हैं। जब ज्ञान का विषय होगा, स्वाभाविक स्ववतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो ब्राह्मणका, जब सुरक्षा का प्रश्न होगा,शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तब क्षत्रियका, जब उदरभरण का, आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो वैश्यका और जब कला, कारीगरी, परिचर्या, मनोरंजन आदि का विषय होगा तो शूद्रका महत्व होगा। श्रेष्ठ और हीन का विवेक समझाने का, अभ्यूदय के साथ नि:श्रेयस की प्राप्ति का मार्गदर्शन करने का काम ब्राह्मण का होने से वह समाज का शिक्षक बन जाता है। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वतंत्रता दोनों का समावेश होता है| पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा का दायित्व उठाने के कारण शिक्षक सर्वोच्च आदर प्राप्ति का अधिकारी होता है। मोक्ष यह परम लक्ष्य होने से शिक्षक या गुरू का सम्मान सबसे अधिक होना उचित ही है। दूसरे क्रमांकपर शासनिक स्वतंत्रता याने सुरक्षा का विषय आता है। शासनिक स्वतंत्रता की जिम्मेदारी लेने के कारण शासक या क्षत्रिय वर्ग का सम्मान होना भी स्वाभाविक ही है। किंतु अपने वर्ण के अनुसार व्यवहार नहीं करना और अपने ब्राह्मण या क्षत्रिय होने का दंभ भरना यह समाज के पतन की आश्वस्ति है। ऐसे लोग कठोर दण्ड के अधिकारी हैं। १४. संस्कारों के तीन प्रकार होते हैं। सहज, कृत्रिम और अन्वयागत। सहज में फिर तीन संस्कार होते हैं। योनि संस्कार (मानव योनि के), वर्ण संस्कार और राष्ट्रीयता के संस्कार । कृत्रिम में १६ या कुछ लोगों के अनुसार ४९ संस्कार होते हैं। पितरों और माता-पिता की ओर से प्राप्त संस्कारों को अन्वयागत संस्कार कहते हैं। अन्वयागत में माता-पिता और पूर्वजों के सहज संस्कार और तीव्र कृत्रिम संस्कार होते हैं। तीव्र कृत्रिम संस्कार दीर्घ अभ्यास के कारण बनीं आदतों के कारण होते हैं। इन संस्कारों में माता की ओर से पाँच पीढियों के मन से संबंधित और पिता की ओर से १४ पीढियों के शरीर से संबंधित संस्कार होते हैं। करीब की पीढि के संस्कार अधिक और दूर की पीढि के संस्कार कम होते हैं। १५. हर मानव सुर और असुर प्रवृत्तियों से भरा होता है। इसी प्रकार से समाज में भी सुर और असुर दोनों प्रवृत्तियों के लोग होते हैं। भर्तृहरि के अनुसार तो अपना कोई हित नहीं होते हुए भी औरों के अहित में आनंद लेनेवाले असूर से भी गये गुजरे लोग भी समाज में होते है। इन सभी के लिये सदाचार की शिक्षा की व्यवस्था करना समाज का दायित्व है। जो बात अपने को प्रिय होती है उसे प्रेय कहते हैं। और जो अंतिमत: कल्याणकारी बात होती है उसे श्रेय कहते हैं। अपने प्रेय के लिये अन्यों का अहित करनेवाले को असुर कहते हैं। ऐसे मानव को भी श्रेय ही प्रेय लगने लग जाए इसलिये शिक्षा होती है। कुल मिलाकर शिक्षा का स्वरूप धर्मशिक्षा का होता है। पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा का होता है| १६. मानव अच्छा डॉक्टर बनता है, अच्छा व्यावसायिक आदि बनता है यह समाज के लिये महत्वपूर्ण बात होती है। किंतु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात हर बालक के लिये यह है कि वह एक अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता, अच्छा देशभक्त और अच्छा मानव बने। इसी तरह हर बालिका अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी देशभक्त और अच्छी मानव बनें यह अधिक महत्वपूर्ण होता है। इसे सुनिश्चित करने के लिये सब से अधिक अवसर माता को होता है इसलिए सबसे अधिक जिम्मेदारी माता की होती है। दूसरे स्थानपर पिता जिम्मेदार होता है। कहा गया है ‘माता प्रथमो गुरू: पिता द्वितीयो’। इस में माता पिता समान घर के सब ज्येष्ठ लोगों का भी योगदान होता है। तीसरी जिम्मेदारी शिक्षक की होती है। ऐसी मान्यता है कि बालक के विकास में २५ प्रतिशत हिस्सा उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का होता है। दूसरा २५ प्रतिशत उसे प्राप्त संस्कार और शिक्षा का होता है। तीसरा २५ प्रतिशत उसे मिले वातावरण, संगत, मित्र आदि का होता है। चौथा २५ प्रतिशत उसके अपने प्रयासों का होता है। इन हिस्सों का महत्वक्रम भी इसी क्रम से होता है। पूर्व कर्मों का प्रभाव सबसे अधिक, उसके उपरांत संस्कार और शिक्षा का आदि। अन्य एक वर्गीकरण के अनुसार श्रेष्ठ मानव निर्माण के दो मुख्य पहलू हैं| पहला श्रेष्ठ जीवात्मा होना| और दूसरा है उसे अच्छी शिक्षा और संस्कार प्राप्त होना| इस दृष्टी से श्रेष्ठ मानव निर्माण में ५० प्रतिशत हिस्सा तो जन्म देनेवाले माता पिता का है| संस्कारों का काम भी घर में ही मुख्यत: चलता है| इसलिए संस्कारों का २५ प्रतिशत हिस्सा कुटुंब का होता है| शेष २५ प्रतिशत शिक्षा का जिसमें विद्यालयीन शिक्षा और लोकशिक्षा के माध्यमों का सहभाग होता है| समाज में यदि समस्याएँ हैं और बढ रहीं हैं तो माता, पिता और शिक्षक ये तीन लोग क्रम से इस के जिम्मेदार होते हैं। १७. मानव के लिये कुछ बातें जन्मजात और कुछ समाज से प्राप्त होनेवाली होतीं हैं। पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार आनेवाली बातें - दस इंद्रिय, मन, बुध्दि, चित्त, अहंकार, श्रेष्ठ जीवात्मा, प्रारब्ध (पूर्व कर्मों का पक गया है ऐसा फल) जो जन्म कुंडली में दिखाई देता है, त्रिगुणयुक्त व्यक्तित्व, त्रिदोषयुक्त शरीर, माता पिता आदि| माता-पिता से जन्म से प्राप्त होनेवाली बातें : पितर और उन की विरासत- सामाजिक प्रतिष्ठा, नाम, भौतिक समृध्दि, शारीरिक स्वास्थ्य, जाति और आनुवांशिकता से आनेवाली बातें जैसे वर्ण, (त्रिदोषात्मक) शारीरिक स्वास्थ्य, व्यावसायिक और अन्य कुशलताएँ, परम्पराएँ आदि परीवार में और समाज में प्राप्त होनेवाली बातें : नाम, प्यार, आत्मीयता, रक्षण, पोषण, संस्कार, शिक्षण, आदतें, आर्थिक और पारिवारिक विरासत और परंपराएँ, सामाजिकता, सामाजिक प्रतिष्ठा, कुलधर्म, कुलाचार, विविध पारिवारिक यानी रक्तसंबंध के रिश्ते, विविध सामाजिक रिश्ते, सदाचार, धर्म आदि की शिक्षा आदि। १८. मानव के जन्म, जीवन और मृत्यू के चक्र में आयू की अवस्था के अनुसार निम्न बातें बदलतीं हैं। - प्यार-दुलार - रक्षण/पोषण - संस्कार और शिक्षण - क्षमताएँ - योग्यताएँ - भावनाएँ - आवश्यकताएँ - इच्छाएँ - जिम्मेदारियाँ - कर्तव्य /बोध - अधिकार/बोध इन का समायोजन सामाजिक संगठन और व्यवस्थाओं में होना आवश्यक है। इस हेतु से समाज भिन्न भिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं को चलाता है, भिन्न भिन्न संगठन और व्यवस्थाएँ निर्माण करता है। १९. सामान्यत: गृहस्थ के लिये चारों आश्रमों के लोगों तथा अन्य जीव जगत के योगक्षेम की जिम्मेदारी के अलावा दो और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होतीं हैं। पहली यह है कि वह धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करे। दूसरी है समाज की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सार्थक योगदान दे। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों की संख्या का समाज की कुल आबादी के साथ संतुलन भी महत्वपूर्ण है। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करने से वह नि:श्रेयस को और भौतिक वस्तूओं के उत्पादन से वह व्यक्तिगत और सामाजिक स्तरपर अभ्यूदय को प्राप्त करता है। २०. भारतीय समाज में गृहस्थ के लिये तीन बातें आवश्यक मानीं गईं हैं। पहली बात यह है कि वह केवल धर्म की कमाई करे, दूसरे व्यय भी धर्मानुसार ही करे और तीसरे आवश्यकता से अतिरिक्त कमाई यथासंभव अधिक से अधिक दान में दे। २१. सुख और सुविधा में अंतर होता है। सुविधा से सुख बढेगा यह आवश्यक नहीं है। जब सुविधा मानव को पंगु बना देती है, उसकी स्वाभाविक क्षमताओं को कुंठित कर देती है या स्वाभाविक क्षमताओं का क्षरण करती है तब वह दुख का कारण बनती है। इसलिये कितना सुविधाभोगी बनना यह विवेक महत्वपूर्ण है। सुविधाओं के विकास में दो बातें ध्यान में रखना चाहिये। पहली यह की सुविधा अक्षम लोगों की मदद के लिये होती है। दूसरी बात यह है कि उससे मानव की प्राकृतिक क्षमताओं में और सामाजिकता यानी पारिवारिक भावना और व्यवहार में वृध्दि हो। कम से कम हानी तो नहीं हो| २२. कोई भी वस्तू खरीदते समय उस वस्तू की पर्यावरण सुसंगतता, सामाजिकता से सुसंगतता, उपयोगिता, सौंदर्यबोध और सबसे अंत में उसकी कीमत को महत्व देना चाहिये। २३. हर गृहस्थ को लोकहितकारी उत्पादक व्यवसाय करना चाहिये। इससे एक ओर तो वह अपनी सामजिक जिम्मेदारी का निर्वहन करता है तो दूसरी ओर वह (अधम गति से विपरीत) श्रेष्ठ गति को प्राप्त कर लेता है। २४. मनुष्य के शरीर की रचना शाकाहारी प्राणि के अनुसार है। २५. हर मनुष्य शरीर, प्राण, मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी होता है। ये पाँचों बातें हर मनुष्य की भिन्न होतीं हैं। परमात्व तत्त्व भी इन पाँच घटकों के माध्यम से ही अभि‘व्यक्त’ होता है। इसीलिये मनुष्य को व्यक्ति कहते हैं। और व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताएँ, प्रभाव आदि को व्यक्तित्व कहते हैं। व्यक्तित्व से संबंधित कुछ बातें निम्न हैं। . प्राणिक आवेग : आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग हैं। ये मनुष्य और पशू दोनों में समान हैं। इसलिये मनुष्य भी प्राणि होता ही है। - प्रत्येक व्यक्ति को सुख, दु:ख, ममता, प्रेम, आत्मीयता, तथा द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे षड्विकार यानी मन की भावनाएँ होतीं हैं। - आवश्यकताएँ और इच्छाएँ : प्राणिक आवेगों की पूर्ति को आवश्यकता और मन की चाहतों को इच्छा कहते हैं। आवश्यकताएँ मर्यादित और इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। - कर्म योनि : प्राणिक आवेगों की पूर्ति के लिये और इच्छाओं की पूर्ति के लिये जो बातें की जातीं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। उसे प्राप्त मन और बुध्दि की श्रेष्ठता के कारण मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होता है। यह कर्म ही मनुष्य के जीवन का नियमन करते हैं। इस नियमन को कर्म सिध्दांत के माध्यम से समझा जा सकता है। कर्मसिध्दांत की जानकारी के लिये कृपया ‘ भारतीय जीवन दृष्टी और जीवन शैली ‘ अध्याय में देखें| २६. समाज में व्यक्ति के दो प्रकार हैं। स्त्री और पुरूष। परमात्मा ने इन्हें जैसे ये आज हैं इसी स्वरूप में निर्माण किया था। समाज धारणा के लिये यानि समाज बना रहने के लिये के लिये स्त्री और पुरूष दोनों की आवश्यकता होती है। एक की अनुपस्थिति में समाज जी नहीं सकता। स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं। बच्चे को जन्म देने का काम दोनों मिलकर करते हैं। अन्य एक भी ऐसा काम नहीं है जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु इनको एक दूसरे से कई बातों में भिन्न बनाने में परमात्मा का कुछ प्रयोजन अवश्य है। इस प्रयोजन के अनुसार इनमें कार्य विभाजन होने से समाज ठीक चलता है। सुखी, समृध्द और चिरंजीवी बनता है। स्त्री-पुरूष संबंधों के विषय में थोड़ा अधिक गहराई से अब हम विचार करेंगे| |