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| == वर्तमान जीवन की गति और संस्कृति == | | == वर्तमान जीवन की गति और संस्कृति == |
− | विश्व गति करता है इसीलिये विश्व को जगत भी कहते हैं। गति ही जीवन है। गतिशून्यता मृत्यू है। इसलिए जीवन चालता रहने के लिए गति आवश्यक होती है। लेकिन जीवन की गति जब बहुत अधिक हो जाती है तब बड़ी मात्रा में समाज के दुर्बल घटक उस गति के साथ चल नहीं पाते। ऐसा होनेसे वे अन्यों से पिछड़ जाते हैं। दु:खी हो जाते हैं। लेकिन जीवन जब इष्ट गति से चलता है तब वह सबको सुखमय होता है। इष्ट गति से तात्पर्य उस गति से है जिस गति से समाज का अंतिम व्यक्ति भी साथ चल सके। इष्ट गति से कम या अधिक गति जब समाज जीवन को मिलती है तब समाज सुख से दूर जाता है। वर्तमान में जीवन को जो गति मिली है वह जीवन की इष्ट गति से बहुत ही अधिक है। इस बढ़ी हुई गति के कारण जीवन में किसी भी प्रकार का ठहराव नहीं आ पाता। ठहराव यह विकास का विरोधी है ऐसी भावना व्याप्त हो गयी है। केवल ठहराव ही नहीं तो कम गति भी विकास के विरोध में मानी जाती है। वर्तमान जीवन ने लोगों को पगढ़ीला बना दिया है। आवागमन के क्षिप्रा गति के साधनों के कारण समाज घुमंतू बन रहा है। घुमंतू जातियों की भी कुछ संस्कृति होती है। क्यों कि घुमंतू स्वभाव छोड़ दें तो उनका जीवन ठहराव से भरा रहता है। घुमंतू स्वभाव के कारण संस्कृति शायद श्रेष्ठ नहीं होगी लेकिन होती अवश्य है। लेकिन वर्तमान तंत्रज्ञान के और तेजी से विकास की तीव्र इच्छा के कारण समाज में कोइ ठहराव की संभावनाएं नहीं रहतीं। | + | विश्व गति करता है इसीलिये विश्व को जगत भी कहते हैं। गति ही जीवन है। गतिशून्यता मृत्यू है। इसलिए जीवन चलते रहने के लिए गति आवश्यक होती है। लेकिन जीवन की गति जब बहुत अधिक हो जाती है तब बड़ी मात्रा में समाज के दुर्बल घटक उस गति के साथ चल नहीं पाते। ऐसा होने से वे अन्यों से पिछड़ जाते हैं। दु:खी हो जाते हैं। लेकिन जीवन जब इष्ट गति से चलता है तब वह सबको सुखमय होता है। इष्ट गति से तात्पर्य उस गति से है जिस गति से समाज का अंतिम व्यक्ति भी साथ चल सके। इष्ट गति से कम या अधिक गति जब समाज जीवन को मिलती है तब समाज सुख से दूर जाता है। वर्तमान में जीवन को जो गति मिली है वह जीवन की इष्ट गति से बहुत ही अधिक है। इस बढ़ी हुई गति के कारण जीवन में किसी भी प्रकार का ठहराव नहीं आ पाता। ठहराव, विकास का विरोधी है ऐसी भावना व्याप्त हो गयी है। केवल ठहराव ही नहीं तो कम गति भी विकास के विरोध में मानी जाती है। वर्तमान जीवन ने लोगों को पगढ़ीला बना दिया है। आवागमन के क्षिप्रा गति के साधनों के कारण समाज घुमंतू बन रहा है। घुमंतू जातियों की भी कुछ संस्कृति होती है। क्यों कि घुमंतू स्वभाव छोड़ दें तो उनका जीवन ठहराव से भरा रहता है। घुमंतू स्वभाव के कारण संस्कृति शायद श्रेष्ठ नहीं होगी लेकिन होती अवश्य है। लेकिन वर्तमान तंत्रज्ञान के, और तेजी से विकास की तीव्र इच्छा के कारण समाज में कोई ठहराव की संभावनाएं नहीं रहतीं। |
− | लेकिन जीवन जबतक इष्ट गति से नहीं चलता उसमें धर्म की भावना, संस्कृति पनप ही नहीं सकती। संस्कृति के लिए ठहराव आवश्यक होता है। लेकिन ठराव से तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए इष्ट गति वह गति है जिसमें धर्म तथा संस्कृति के पनपने के लिए वातावरण रहे। जब समाज के सारे लोग सामान (इष्ट) गति से आगे बढ़ाते हैं तब वे एक सापेक्ष ठहराव की स्थिति को प्राप्त करते हैं। यह सापेक्ष ठहराव ही संस्कृति के विकास के लिए भूमि बनाता है। वर्तमान जीवन की गति विश्व की सभी समाजों की संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं। विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्मुख संस्कृति की रक्षा की चुनौती निर्माण हो गयी है। यह गति जिस सामाजिक जीवन के अभारतीय प्रतिमान में हम जी रहे हैं उसका स्वाभाविक परिणाम है। | + | |
| + | लेकिन जीवन जब तक इष्ट गति से नहीं चलता उसमें धर्म की भावना, संस्कृति पनप ही नहीं सकती। संस्कृति के लिए ठहराव आवश्यक होता है। लेकिन ठहराव से तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए इष्ट गति वह गति है जिसमें धर्म तथा संस्कृति के पनपने के लिए वातावरण रहे। जब समाज के सारे लोग समान (इष्ट) गति से आगे बढ़ाते हैं तब वे एक सापेक्ष ठहराव की स्थिति को प्राप्त करते हैं। यह सापेक्ष ठहराव ही संस्कृति के विकास के लिए भूमि बनाता है। वर्तमान जीवन की गति विश्व की सभी समाजों की संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं। विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्मुख संस्कृति की रक्षा की चुनौती निर्माण हो गयी है। यह गति जिस सामाजिक जीवन के अभारतीय प्रतिमान में हम जी रहे हैं उसका स्वाभाविक परिणाम है। |
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| == भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता == | | == भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता == |
− | भारतने कभी भी आक्रमण नहीं किया। दूसरेपर किसी भी कारण के बिना लूटपाट के लिए, अत्याचार के लिए आक्रमण करना यह एक मानवीय विकृति है। विश्व में ऐसा शायद एक भी समाज का उदाहरण नहीं है जो बलवान बना और उसने औरोंकी लूट करने के लिए, औरोंको गुलाम बनाने के लिए अन्य समाजोंपर आक्रमण नहीं किये। फिर भी भारतीय संस्कृति ने दुनिया को जीता था। कैसे ? वैसे तो इसा पूर्व के काल में कुछ सैनिक अभियान भी हुए लेकिन वे कभी भी जनता की लूटमार करने के लिए नहीं हुए। भारतीय संस्कृति के वैश्विक विस्तार के कारण सभी राज्यों की जनता समान संस्कृति की थी। इसलिए वे आक्रमण एक राष्ट्रद्वारा दूसरे राष्ट्रपर किये हुए आक्रमण के स्वरूप के नहीं थे। एक ही राष्ट्र के अन्दर होनेवाले राजाओं के संघर्ष जैसे ही थे।
| + | भारत ने कभी भी आक्रमण नहीं किया। दूसरे पर किसी भी कारण के बिना लूटपाट के लिए, अत्याचार के लिए आक्रमण करना यह एक मानवीय विकृति है। विश्व में ऐसा शायद एक भी समाज का उदाहरण नहीं है जो बलवान बना और उसने औरों की लूट करने के लिए, औरों को गुलाम बनाने के लिए अन्य समाजों पर आक्रमण नहीं किये। फिर भी भारतीय संस्कृति ने दुनिया को जीता था। कैसे ? वैसे तो ईसा पूर्व के काल में कुछ सैनिक अभियान भी हुए लेकिन वे कभी भी जनता की लूटमार करने के लिए नहीं हुए। भारतीय संस्कृति के वैश्विक विस्तार के कारण सभी राज्यों की जनता समान संस्कृति की थी। इसलिए वे आक्रमण एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र पर किये हुए आक्रमण के स्वरूप के नहीं थे। एक ही राष्ट्र के अन्दर होनेवाले राजाओं के संघर्ष जैसे ही थे। |
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| == भारतीय संस्कृति का विश्वसंचार == | | == भारतीय संस्कृति का विश्वसंचार == |
− | भारतीय संस्कृति का विश्वसंचार कैसा और कितना व्यापक था यह साथ में दी गई चार तालिकाओं से हम जान सकते हैं। ये तालिकाएं शरद हेबालकर लिखित “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” इस ग्रन्थ में देखें। पुस्तक में भारतीय संस्कृति का पूर्व में जापानतक और पश्चिम में अमरीका तक विश्वभर में कैसे विस्तार हुआ था उसका आलेख मिलता है। | + | भारतीय संस्कृति का विश्व संचार कैसा और कितना व्यापक था इसको हम शरद हेबालकर लिखित “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” इस ग्रन्थ में देख सकते हैं । पुस्तक में भारतीय संस्कृति का पूर्व में जापान तक और पश्चिम में अमरीका तक विश्वभर में कैसे विस्तार हुआ था उसका आलेख मिलता है। |
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| + | == इस्लाम के आक्रमणों का भारत राष्ट्र की संस्कृति पर हुआ परिणाम == |
| + | किसी समय मनु ब्राहृावर्त से पूरे विश्वपर राज्य करता था। भारतीय समाज रचना और व्यवस्थाएँ विश्वभर में स्वीकृत भी थीं और प्रतिष्ठित भी थीं। धीरे धीरे काल के प्रवाह में इस राष्ट्र की चित्ति का संकुचित होना शुरू हुआ । लम्बे भूतकाल में धीरे धीरे लेकिन यह संकोच होता ही रहा। आगे यह भारतवर्ष की वर्तमान सीमाओं तक सिमट गया। ये सीमाएँ वास्तव में अभी हजार वर्ष पूर्व तक ईरान से ब्राह्मदेश और हिमालय से समुद्र तक फैली हुई थीं। |
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| + | दीर्घ काल तक भारतवर्ष की भूमि के निरंतर घटने के इतिहास के कुछ तथ्य अब देखेंगे। |
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| + | 1. पुरी के प. पू. शंकराचार्य श्री. भारती कृष्ण तीर्थ की पुस्तक' सीक्रेट ऑफ इंडियाज ग्रेटनेस' के पृष्ठ 80 से 84 में मेक्सिको में प्राप्त पुरालेखों के आधारपर बताते हैं कि युधिष्ठिर द्वारा किये यज्ञ में मेहमान के रूप में बुलाने के लिये अर्जुन मेक्सिको के राजा के पास गया था। उसने वहाँ की सेना को अकेले हराया। बाद में उन से नम्रता से कहा मै यहाँ लूट के लिये या राज्य करने नहीं आया हूँ। मै आपको मेरे भाईद्वारा किये जा रहे यज्ञ में आमंत्रित कर आपको सम्मान के साथ मे ले जाने के लिये आया हूँ। समझने की बात यह है कि महाभारत के काल तक भारत के सम्राट विश्वभर से संपर्क रखने का प्रयास करते थे। साथ में संस्कृति का विस्तार भी करते रहते थे। |
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| + | 2. अरबस्तान में इस्लामी सत्ता का सन 632 में उदय हुआ। लेकिन हमारे राष्ट्र की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों इससे बेखबर रहे। परिणाम स्वरूप विपरीत संस्कृति वाली यह सत्ता भौगोलिक दृष्टि से भारत राष्ट्र की भूमि पर विस्तार पाती गई। |
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| + | 3. ईरान के अग्निपूजक पारसी लोग इस्लाम के आक्रमण से ध्वस्त होकर इसवी सन 637 से 641 के बीच भारत में शरण लेने आए। फिर भी हमारे राष्ट्र की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों इससे बेखबर रहे। |
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− | == इस्लाम के आक्रमणों का भारत राष्ट्र की संस्कृतिपर हुआ परिणाम ==
| + | 4. सन 642 तक इस्लामी सत्ता उपगणस्थान (वर्तमान अफगानिस्तान) को पादाक्रांत कर हिंदुकुश तक आ पहुँची। महाभारत का गांधार ही वर्तमान अफगानिस्तान है। काबुल, जाबुल, कंदाहार, गजनी आदि इस्लामी सत्ता ने जीत लिये। गजनी के हिन्दू शासकों ने अवरोध अवश्य किया फिर भी भारत की भूमि आक्रांत हुई। बडी संख्या में हिंदुओं का धर्मांतर होता रहा। विरोध करनेवालों का कत्ले-आम भी होता रहा। हिंदुओं की आबादी कम होती गई और इस कारण हिंदू प्रतिरोध भी नष्ट होता गया। भारत की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों विस्तार की दृष्टि से निष्क्रीय रहे। भारत की भूमि घट गई। |
− | किसी समय मनु ब्राहृावर्त से पूरे विश्वपर राज्य करता था। भारतीय समाज रचना और व्यवस्थाएँ विश्वभर में स्वीकृत भी थीं और प्रतिष्ठित भी थीं। धीरे धीरे काल के प्रवाह में इस राष्ट्र की चिति का संकोच होना शुरू हुआ। लम्बे भूतकाल में धीरे धीरे लेकिन यह संकोच होता ही रहा। आगे यह भारतवर्ष की वर्तमान सीमाओं तक सिमट गया। ये सीमाएँ वास्तव में अभी हजार वर्ष पूर्व तक ईरान से ब्राह्मदेश और हिमालय से समुद्रतक फैली हुई थीं।
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− | दीर्घ काल तक भारतवर्ष की भूमि के निरंतर घटने के इतिहास के कुछ तथ्य अब देखेंगे।
| + | 5. सिंध के पतन के इतिहास में यद्यपि बाप्पा रावल ने ईरान तक प्रत्याक्रमण किया<ref>मुस्लिम आक्रमण का हिंदू प्रतिरोध, डॉ शरद हेबाळकर, पृष्ठ 14-15 </ref> () लेकिन इस का प्रभाव इस्लामी सत्ता पर अधिक समय तक नहीं रहा। सन 743 तक मुस्लिम सेनाएँ गुजरात, मालवा तक भारत के अंदर घुस गर्इं थीं। बडे पैमाने पर हिंदुओं के कत्ले-आम और धर्मांतर होते रहे। ‘देवल स्मृति’ का निर्माण हुआ। धर्मांतरित लोगों को परावर्तित कर फिर से हिंदू बनाने का प्रावधान इस स्मृति में किया गया था। इस के आधार पर परावर्तन के कुछ क्षीण दौर भी चले होंगे। लेकिन यह दौर जो मूलत: हिंदू थे केवल उनके परावर्तन के लिये थे और बहुत ही कम संख्या में हुए । मूलत: मुस्लिम आक्रांताओं को हिंदू बनाकर हिंदू संस्कृति के विस्तार की दृष्टि से कोई विचार नहीं हुआ। |
− | 1. पुरी के प. पू. शंकराचार्य श्री. भारती कृष्ण तीर्थ उन की पुस्तक' सीक्रेट ऑफ इंडियाज ग्रेटनेस' के पृष्ठ 80 से 84 में मेक्सिको में प्राप्त पुरालेखों के आधारपर बताते हैं कि युधिष्ठिर द्वारा किये यज्ञ में मेहमान के रूप में बुलाने के लिये अर्जुन मेक्सिको के राजा के पास गया था। उसने वहाँ की सेना को अकेले ने हराया। बाद में उन से नम्रता से कहा मै यहाँ लूट के लिये या राज्य करने नहीं आया हूँ। मै आपको मेरे भाईद्वारा किये जा रहे यज्ञ में आमंत्रित कर आपको सम्मान के साथ मे ले जाने के लिये आया हूँ। समझने की बात यह है कि महाभारत के काल तक भारत के सम्राट विश्वभर से संपर्क रखने का प्रयास करते थे। साथ में संस्कृति का विस्तार भी करते रहते थे।
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− | 2. अरबस्तान में ईस्लामी सत्ता का सन 632 में उदय हुवा। लेकिन हमारे राष्ट्र की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों इससे बेखबर रहे। परिणाम स्वरूप विपरीत संस्कृति वाली यह सत्ता भौगोलिक दृष्टि से भारत राष्ट्र की भूमिपर विस्तार पाती गई।
| + | जो धर्मांतरित हो गये हैं उन्हें हिन्दू बनाना तो दूर ही रहा, मूलत: जो अहिंदू हैं उन्हें हिंदू बनाने की कल्पना भी हमारे मन में नहीं आती थी। हिंदू धर्मांतरित होते रहे। मरते कटते रहे। हमारी धर्मसत्ता और राजसत्ता निष्क्रीय रही। 1947 को स्वाधीनता प्राप्ति तक अफगानिस्तान, सिंध, आधा पंजाब, आधा कश्मीर, आधा बंगाल यानी भारत का एक बडा हिस्सा मुस्लिम बहुल हो गया। राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा। इस इलाके में हिंदू अल्पसंख्य हुए, हिंदू असंगठित हुए, हिंदू दुर्बल हुए। परिणामस्वरूप यह हिस्सा भारत के भूगोल का हिस्सा नहीं रहा। इस भूमि पर रहनेवालों का धर्म और राज्य दोनों हिंदू नहीं रहे। भारत की धर्मसत्ता और भारत की राजसत्ता देखती रही। |
− | 3 ईरान के अग्निपूजक पारसी लोग ईस्लाम के आक्रमण से ध्वस्त होकर इसवी सन 637 से 641 के बीच भारत में शरण लेने आए। फिर भी हमारे राष्ट्र की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों इससे बेखबर रहे।
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− | 4 सन 642 तक इस्लामी सत्ता उपगणस्थान (वर्तमान अफगानिस्तान) को पादाक्रांत कर हिंदुकुश तक आ पहुँची। महाभारत का गांधार ही वर्तमान अफगानिस्तान है। काबुल, जाबुल, कंदाहार, गजनी आदि ईस्लामी सत्ता ने जीत लिये। गजनी के हिन्दू शासकों ने अवरोध अवश्य किया फिर भी भारत की भूमि आक्रांत हुई। बडी संख्या में हिंदुओं का धर्मांतर होता रहा। विरोध करनेवालों का कत्ले-आम भी होता रहा। हिंदुओं की आबादी कम होती गई और इस कारण हिंदू प्रतिरोध भी नष्ट होता गया। भारत की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों विस्तार की दृष्टि से निष्क्रीय रहे। भारत की भूमि घट गई।
| + | 6. स्वाधीनता के उपरांत भी इस्लाम के साथ ही ईसाई विस्तारवाद की ओर हमारी राजसत्ता और धर्मसत्ता अनदेखी करती रहीं। शुतुर्मुर्ग की नीति अपनाती रहीं। संविधान में धर्मांतरण को मूलभूत अधिकारों में डाल दिया गया। इस संविधान के प्रावधान का लाभ लेकर देश में ईसाई मिशनरी राष्ट्रीयता में सेंध लगाते रहे। किसी भी आस्था में परिवर्तन के बगैर छल, कपट, धन और गुंडागर्दी के सहारे हिंदूओं का धर्मांतरण करते रहे। नियोगी कमिशन की अनुशंसाओं के तत्थ्य नकारे नहीं जा सकते थे। फिर भी संविधान में सुधार करने के स्थानपर संविधान का बहाना बनाकर आनेवाली सभी सरकारें इस समस्या की ओर अनदेखी करती रहीं। धर्मसत्ता भी अपनी आत्मघाती मानप्रतिष्ठा में मशगुल रही। सबसे बडा चिंता का विषय यह है कि राष्ट्र की धर्मसत्ता और राजसत्ता में तालमेल के बताए उपर्युक्त तीन अपवाद छोडकर लगभग १२०० वर्षों में सामान्यत: कभी भी धर्मसत्ता और राज्यसत्ता का कोई तालमेल ही नहीं रहा। |
− | 5 सिंध के पतन के इतिहास में यद्यपि बाप्पा रावल ने ईरानतक प्रत्याक्रमण किया (पृष्ठ 14-15 मुस्लिम आक्रमण का हिंदू प्रतिरोध लेखक डॉ शरद हेबाळकर) लेकिन इस का प्रभाव ईस्लामी सत्तापर अधिक समयतक नहीं रहा। सन 743 तक मुस्लिम सेनाएँ गुजरात, मालवातक भारत के अंदर घुस गर्इं थीं। बडे पैमानेपर हिंदुओं के कत्ले-आम और धर्मांतर होते रहे। ‘देवल स्मृति’ का निर्माण हुवा। धर्मांतरित लोगों को परावर्तित कर फिर से हिंदू बनाने का प्रावधान इस स्मृति में किया गया था। इस के आधारपर परावर्तन के कुछ क्षीण दौर भी चले होंगे। लेकिन यह दौर जो मूलत: हिंदू थे केवल उनके परावर्तन के लिये थे और बहुत ही कम संख्या में हुए । मूलत: मुस्लिम आक्रांताओं को हिंदू बनाकर हिंदू संस्कृति के विस्तार की दृष्टि से कोई विचार नहीं हुवा। अकबर बीरबल की एक कथा है। अकबर ने बीरबल से कहा कि वह हिंदू बनना चाहता है। बीरबलने कहा, ‘गधे (मुसलमान)को घोडा (हिंदू)कैसे बनाया जा सकता है?’ । घोडे के गधे तो हो रहे थे। फिर गधे से घोडे क्यों नहीं बन सकते? या तो जो मुसलमअन बन गए उनको हिन्दू मानना था या फिर उन्हें हिन्दू बनाना था। इस के विपरीत विचार तो मूर्खता ही कहलाएगा। इस मूर्खताभरी कथा से यही समझ में आता है की जो धर्मांतरित हो गये हैं उन्हें हिन्दू बनाना तो दूर ही रहा, मूलत: जो अहिंदू हैं उन्हें हिंदू बनाने की कल्पना भी हमारे मन में नहीं आती थी। | |
− | हिंदू धर्मांतरित होते रहे। मरते कटते रहे। हमारी धर्मसत्ता और राजसत्ता निष्क्रीय रही। 1947 को स्वाधीनता प्राप्ति तक अफगानिस्तान, सिंध, आधा पंजाब, आधा कश्मीर, आधा बंगाल यानी भारत का एक बडा हिस्सा मुस्लिम बहुल हो गया। राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा। इस इलाके में हिंदू अल्पसंख्य हुए, हिंदू असंगठित हुए, हिंदू दुर्बल हुए। परिणामस्वरूप यह हिस्सा भारत के भूगोल का हिस्सा नहीं रहा। इस भूमिपर रहनेवालों का धर्म और राज्य दोनों हिंदू नहीं रहे। भारत की धर्मसत्ता और भारत की राजसत्ता देखती रही। | |
− | 6. स्वाधीनता के उपरांत भी इस्लाम के साथ ही ईसाई विस्तारवाद की ओर हमारी राजसत्ता और धर्मसत्ता अनदेखी करती रहीं। शुतुर्मुर्ग की नीति अपनाती रहीं। संविधान में धर्मांतरण को मूलभूत अधिकारों में डाल दिया गया। इस संविधान के प्रावधान का लाभ लेकर देश में ईसाई मिशनरी राष्ट्रीयता में सेंध लगाते रहे। किसी भी आस्था में परिवर्तन के बगैर छल, कपट, धन और गुंडागिर्दि के सहारे हिंदूओं का धर्मांतरण करते रहे। नियोगी कमिशन की अनुशंसाओं के तत्थ्य नकारे नहीं जा सकते थे। फिर भी संविधान में सुधार करने के स्थानपर संविधान का बहाना बनाकर आनेवाली सभी सरकारें इस समस्या की ओर अनदेखी करती रहीं। धर्मसत्ता भी अपनी आत्मघाती मानप्रतिष्ठा में मशगुल रही। सबसे बडा चिंता का विषय यह है कि राष्ट्र की धर्मसत्ता और राजसत्ता में तालमेल के बताए उपर्युक्त तीन अपवाद छोडकर लगभग १२०० वर्षों में सामान्यत: कभी भी धर्मसत्ता और राज्यसत्ता का कोई तालमेल ही नहीं रहा। | |
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| == अंग्रेजी शासन का भारत राष्ट्र की संस्कृतिपर हुआ परिणाम == | | == अंग्रेजी शासन का भारत राष्ट्र की संस्कृतिपर हुआ परिणाम == |
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| ३. आत्मविश्वासहीनता | | ३. आत्मविश्वासहीनता |
| ४. आत्म-विस्मृति | | ४. आत्म-विस्मृति |
− | ५. अभारतीय याने अंग्रेजी जीवन के प्रतिमान के स्वीकार की मानसिकता | + | ५. अभारतीय याने अंग्रेजी जीवन के प्रतिमान के स्वीकार की मानसिकता |
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| वाचनीय साहित्य | | वाचनीय साहित्य |
| १. कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, लेखक : डॉ. शरद हेबाळकर, प्रकाशक अ. भा. इतिहास संकलन समिती, नाई दिल्ली | | १. कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, लेखक : डॉ. शरद हेबाळकर, प्रकाशक अ. भा. इतिहास संकलन समिती, नाई दिल्ली |