− | इस सृष्टि में असंख्य पदार्थ हैं। ये सारे पदार्थ गतिमान हैं। सबकी भिन्न भिन्न गति होती है, भिन्न भिन्न दिशा भी होती है। पदार्थों के स्वभाव भी भिन्न भिन्न हैं। वे व्यवहार भी भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं। फिर भी वे एक दूसरे से टकराते नहीं हैं। परस्पर विरोधी स्वभाव वाले पदार्थों का भी सहजीवन सम्भव होता है। हम देखते ही हैं कि उनका अस्तित्व सृष्टि में बना ही रहता है। इसका अर्थ है इस सृष्टि में कोई न कोई महती व्यवस्था है जो सारे पदार्थों का नियमन करती है। सृष्टि का नियमन करने वाली यह व्यवस्था सृष्टि के साथ ही उत्पन्न हुई है। इस व्यवस्था का नाम धर्म है। इसे नियम भी कहते हैं। ये विश्वनियम है, धर्म का यह मूल स्वरूप है। इस व्यवस्था से सृष्टि की धारणा होती है। अतः धर्म की परिभाषा हुई:<blockquote>धारणार्द्धर्ममित्याहु:।<ref>Mahabharata, 69.58(Karna Parva)</ref></blockquote><blockquote>धारण करता है अतः उसे धर्म कहते हैं।</blockquote>इस मूल धर्म के आधार पर “धर्म' शब्द के अनेक आयाम बनते हैं। | + | इस सृष्टि में असंख्य पदार्थ हैं। ये सारे पदार्थ गतिमान हैं। सबकी भिन्न भिन्न गति होती है, भिन्न भिन्न दिशा भी होती है। पदार्थों के स्वभाव भी भिन्न भिन्न हैं। वे व्यवहार भी भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं। तथापि वे एक दूसरे से टकराते नहीं हैं। परस्पर विरोधी स्वभाव वाले पदार्थों का भी सहजीवन सम्भव होता है। हम देखते ही हैं कि उनका अस्तित्व सृष्टि में बना ही रहता है। इसका अर्थ है इस सृष्टि में कोई न कोई महती व्यवस्था है जो सारे पदार्थों का नियमन करती है। सृष्टि का नियमन करने वाली यह व्यवस्था सृष्टि के साथ ही उत्पन्न हुई है। इस व्यवस्था का नाम धर्म है। इसे नियम भी कहते हैं। ये विश्वनियम है, धर्म का यह मूल स्वरूप है। इस व्यवस्था से सृष्टि की धारणा होती है। अतः धर्म की परिभाषा हुई:<blockquote>धारणार्द्धर्ममित्याहु:।<ref>Mahabharata, 69.58(Karna Parva)</ref></blockquote><blockquote>धारण करता है अतः उसे धर्म कहते हैं।</blockquote>इस मूल धर्म के आधार पर “धर्म' शब्द के अनेक आयाम बनते हैं। |
| पदार्थों के स्वभाव को गुणधर्म कहते हैं। अग्नि उष्ण होती है। उष्णता अग्नि का गुणधर्म है। शीतलता पानी का गुणधर्म है। प्राणियों के स्वभाव को धर्म कहते हैं। सिंह घास नहीं खाता। यह सिंह का धर्म है। गाय घास खाती है और मांस नहीं खाती, यह गाय का धर्म है। | | पदार्थों के स्वभाव को गुणधर्म कहते हैं। अग्नि उष्ण होती है। उष्णता अग्नि का गुणधर्म है। शीतलता पानी का गुणधर्म है। प्राणियों के स्वभाव को धर्म कहते हैं। सिंह घास नहीं खाता। यह सिंह का धर्म है। गाय घास खाती है और मांस नहीं खाती, यह गाय का धर्म है। |
| वास्तव में संस्कृति का स्थान मूर्ति का है और सभ्यता का स्थान शिखर का है। जैसे मूर्ति के बिना मन्दिर का शिखर अचिन्त्य है वैसे ही संस्कृति के बिना सभ्यता असम्भव है। संस्कृति विहीन सभ्यता को असभ्यता कहना पड़ेगा। वह मानव को विकृत दिशा में ले जायेगी और उसको निरंकुश बनायेगी। सभ्यता का विकास कैसे होता है? सभ्यता का बीज संस्कृति है। साधारणतः मानव संस्कृति की प्रेरणा से ऊँचा जाना चाहता है, नीचे गिरना नहीं चाहता। ऊँचा जाने का काम पहाड़ चढ़ने का काम है। स्वयं सँभलकर सावधानी से एक एक कदम ऊपर चढ़ना होगा। उसके लिए मानव ध्यान देकर अपने पास जितनी साधन सामग्री है उससे सुविधाजनक व्यवस्था करता है। धीरे धीरे वह चट्टानों पर सीढ़ियाँ बनाता है। सीढ़ियों के दोनों ओर दीवारें खड़ी करता है। पकड़कर चढ़ने के लिए हथधरी लगाता है। इसी प्रकार संस्कृति के मूल्यों को पकड़कर उत्कृष्टता की ओर जाने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के प्रयास करता है। उससे सभ्यता जन्म लेती है। | | वास्तव में संस्कृति का स्थान मूर्ति का है और सभ्यता का स्थान शिखर का है। जैसे मूर्ति के बिना मन्दिर का शिखर अचिन्त्य है वैसे ही संस्कृति के बिना सभ्यता असम्भव है। संस्कृति विहीन सभ्यता को असभ्यता कहना पड़ेगा। वह मानव को विकृत दिशा में ले जायेगी और उसको निरंकुश बनायेगी। सभ्यता का विकास कैसे होता है? सभ्यता का बीज संस्कृति है। साधारणतः मानव संस्कृति की प्रेरणा से ऊँचा जाना चाहता है, नीचे गिरना नहीं चाहता। ऊँचा जाने का काम पहाड़ चढ़ने का काम है। स्वयं सँभलकर सावधानी से एक एक कदम ऊपर चढ़ना होगा। उसके लिए मानव ध्यान देकर अपने पास जितनी साधन सामग्री है उससे सुविधाजनक व्यवस्था करता है। धीरे धीरे वह चट्टानों पर सीढ़ियाँ बनाता है। सीढ़ियों के दोनों ओर दीवारें खड़ी करता है। पकड़कर चढ़ने के लिए हथधरी लगाता है। इसी प्रकार संस्कृति के मूल्यों को पकड़कर उत्कृष्टता की ओर जाने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के प्रयास करता है। उससे सभ्यता जन्म लेती है। |
− | संस्कृति, जो निराकार रूपी है, को प्रकट करने के लिए कोई माध्यम चाहिए; जैसे बिजली को प्रकट करने के लिए किसी धातु की तार। उसी प्रकार जीवन में संस्कृति को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों की आवश्यकता पड़ती है। वे माध्यम दो प्रकार के हैं - गुणात्मक और रूपात्मक। आचार, अनुष्ठान, धरोहर, परम्परा, रीति रिवाज, शिक्षा आदि गुणात्मक माध्यम हैं। उनका कोई स्थूल रूप नहीं है फिर भी वे प्रभावकारी माध्यम हैं। उनको प्रयोग में लाने के लिए प्राणवानू साधन हैं आचार्य, दार्शनिक, महापुरुष, नेतागण, चरित्रवान् सज्जनगण आदि तथा वस्तु निर्माण, वस्तु संग्रह आदि दूसरे प्रकार के माध्यम हैं। उनके कर्मेन्द्रिय हैं विज्ञान, शिल्पशास्त्र, वास्तुकला, हस्तकौशल, सृष्टिशीलता आदि। | + | संस्कृति, जो निराकार रूपी है, को प्रकट करने के लिए कोई माध्यम चाहिए; जैसे बिजली को प्रकट करने के लिए किसी धातु की तार। उसी प्रकार जीवन में संस्कृति को प्रगट और प्रयोजक बनाने के लिए अन्यान्य माध्यमों की आवश्यकता पड़ती है। वे माध्यम दो प्रकार के हैं - गुणात्मक और रूपात्मक। आचार, अनुष्ठान, धरोहर, परम्परा, रीति रिवाज, शिक्षा आदि गुणात्मक माध्यम हैं। उनका कोई स्थूल रूप नहीं है तथापि वे प्रभावकारी माध्यम हैं। उनको प्रयोग में लाने के लिए प्राणवानू साधन हैं आचार्य, दार्शनिक, महापुरुष, नेतागण, चरित्रवान् सज्जनगण आदि तथा वस्तु निर्माण, वस्तु संग्रह आदि दूसरे प्रकार के माध्यम हैं। उनके कर्मेन्द्रिय हैं विज्ञान, शिल्पशास्त्र, वास्तुकला, हस्तकौशल, सृष्टिशीलता आदि। |
| उपर्युक्त माध्यमों द्वारा उनके कर्मशील सहायकों के सहयोग से जब संस्कृति अधिकाधिक प्रगट हो जाती है, तब उस विशेष स्थिति को सभ्यता कहते हैं। शुचिता सांस्कृतिक मूल्यों में एक है। वह मानव का अनिवार्य गुण है। उसके लिए अपना निवास स्थान स्वच्छ रहना आवश्यक है। उसके लिए मानव ने आद्य दिनों में घोड़े जैसे जानवरों की पूँछ से जमीन झाड़ दी होगी। अथवा जंगल के पेड़ों की छालों से या पुराने फटे कपड़ों से जमीन पोंछ दी होगी। शनैः शनै: उसने केवल उस काम के लिए एक साधन का आविष्कार किया और जमीन झाड़कर साफ करने के लिए झाड़ू नाम का साधन प्रकट हुआ। जंगल में या अपने गाँव में उपलब्ध योग्य चीज से मानव ने झाड़ू बनाना आरम्भ किया। शुचिता को बनाए रखने के लिए एक विशेष साधन मानव के लौकिक जीवन में प्रविष्ट हुआ। | | उपर्युक्त माध्यमों द्वारा उनके कर्मशील सहायकों के सहयोग से जब संस्कृति अधिकाधिक प्रगट हो जाती है, तब उस विशेष स्थिति को सभ्यता कहते हैं। शुचिता सांस्कृतिक मूल्यों में एक है। वह मानव का अनिवार्य गुण है। उसके लिए अपना निवास स्थान स्वच्छ रहना आवश्यक है। उसके लिए मानव ने आद्य दिनों में घोड़े जैसे जानवरों की पूँछ से जमीन झाड़ दी होगी। अथवा जंगल के पेड़ों की छालों से या पुराने फटे कपड़ों से जमीन पोंछ दी होगी। शनैः शनै: उसने केवल उस काम के लिए एक साधन का आविष्कार किया और जमीन झाड़कर साफ करने के लिए झाड़ू नाम का साधन प्रकट हुआ। जंगल में या अपने गाँव में उपलब्ध योग्य चीज से मानव ने झाड़ू बनाना आरम्भ किया। शुचिता को बनाए रखने के लिए एक विशेष साधन मानव के लौकिक जीवन में प्रविष्ट हुआ। |