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| == कर्मशिक्षा == | | == कर्मशिक्षा == |
− | समाज जिस प्रकार सुसंस्कृत एवं सज्जन होना | + | समाज जिस प्रकार सुसंस्कृत एवं सज्जन होना चाहिये, उसी प्रकार समृद्ध भी होना चाहिये । प्राणीमात्र की भौतिक आवश्यकतायें होती हैं । अन्न, वस्त्र, आवास तथा जीवनयापन हेतु अनेकानेक पदार्थों की आवश्यकता होती है। मनुष्य को छोड़कर अन्य प्राणियों को जीवनावश्यक पदार्थ प्रकृति से ही प्राप्त होते हैं । आवश्यक पदार्थ उन्हें केवल खोजने ही होते हैं, यथा प्राणियों को शिकार ढूंढना पडता है । परन्तु मनुष्य को असंख्य पदार्थों का निर्माण करना पडता है । मनुष्य को अन्न चाहिये, इसलिये उसे खेती करनी होती है, यही नहीं तो उसे विभिन्न क्रियाओं और प्रक्रियाओं का अवलम्बन कर भोजन तैयार भी करना होता है । प्राणियों को वस्त्र की आवश्यकता नहीं पड़ती है, मनुष्य को पड़ती है, इसलिये उसे वस्त्रोद्योग का विकास करना होता है । जैसे जैसे सभ्यता का विकास होता है, वैसे वैसे मनुष्य द्वारा निर्मित व्यवस्थाओं एवं वस्तुओं की संख्या एवं मात्रा बढ़ती जाती है । |
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− | चाहिये, उसी प्रकार समृद्ध भी होना चाहिये । प्राणीमात्र की
| + | मनुष्य को इन सब वस्तुओं का निर्माण करने के लिये कर्मन्द्रियों की कुशलता एवं निर्माणक्षम बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है । इन दोनों में कर्मन्द्रियों की कुशलता का महत्त्व अधिक है, क्योंकि बुद्धि के मार्गदर्शन में काम तो कर्मेन्द्रियाँ ही करती हैं। कर्मन्द्रियों में भी हाथ ही निर्माण करने वाली इन्ट्रिय है । इसलिये हाथ को काम करने में कुशल बनाना आवश्यक है । हाथ से काम करते समय पूरा शरीर कार्यरत होता है। शरीर को यदि कार्यरत होना है तो शरीर में बल चाहिये । शरीर को श्रम करने का अभ्यास चाहिये । मन में श्रम करने की वृत्ति चाहिये । आलस्य और प्रमाद का त्याग करना चाहिये । श्रम करने हेतु शरीर का आरोग्य भी अच्छा होना चाहिये । उत्तम अन्न और उत्तम व्यायाम से शरीर को बलसंपन्न और आरोग्यसंपन्न बनाना चाहिये । |
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− | भौतिक आवश्यकतायें होती हैं । अन्न, वख््र, आवास तथा
| + | व्यक्ति जब कार्यकुशल होता है तब सही समृद्धि प्राप्त करता है । समाज भी जब श्रमनिष्ठ और कार्यकुशल होता है तब समृद्ध बनता है । समृद्धि से वैभवसंपन्नता आती है। इससे समाज सुखी होता है । |
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− | जीवनयापन हेतु अनेकानेक पदार्थों की आवश्यकता होती
| + | वर्तमान में मूल्यशिक्षा की तो बात चारों ओर हो रही है, परन्तु कर्मशिक्षा की बात सुनाई नहीं देती है । स्थिति इससे उल्टी है । हाथ से होने वाले, शरीर से होने वाले, श्रमसाध्य कार्य को हम हेय मानने लगे हैं और उससे विमुख हो रहे हैं । श्रम नहीं करना पडता है, ऐसे कार्य को ऊँचे दर्ज का मानने लगे हैं । शरीरश्रम का कार्य छोड़कर हम बुद्धि से होने वाला कार्य करने के लिये उद्युक्त होते हैं । अथवा यंत्रों की सहायता लेते हैं । हमारा लक्ष्य यह रहता है कि हमें अपने हाथों से कम से कम काम करना पड़े, शरीर को कम से कम श्रम पहुँचे, बुद्धि को कम से कम उलझना पडे और हमारा समय बचे । इसलिये हम घर में, कार्यालयों में, कारखानों में, मनोरंजनगृहों में यंत्रों का उपयोग करते हैं । हमें इससे बहुत सुख मिलता है। बहुत आराम मिलता है। परन्तु ये सुख और आराम आभासी हैं, वास्तविक नहीं । शरीर से काम नहीं करने के अत्यन्त विपरीत परिणाम पूरे समाज को भुगतने पड़ते हैं । |
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− | है। मनुष्य को छोड़कर अन्य प्राणियों को जीवनावश्यक
| + | चमकदमक वाले वातावरण में और इन्ट्रियों को मिलने वाले सुख में डूबे हुए होने के कारण ये विपरीत परिणाम हमें दिखाई नहीं देते हैं और समझ में भी नहीं आते हैं परन्तु वास्तविकता यह है कि ये हमें असंस्कारिता, अस्वास्थ्य और दारिद्य की ओर ले जा रहे हैं । इस विषय में बहुत गम्भीर होकर विचार करने की और उपाय योजना करने की आवश्यकता है । |
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− | पदार्थ प्रकृति से ही प्राप्त होते हैं । आवश्यक पदार्थ उन्हें
| + | हाथ से काम करने को हेय मानने का एक सूक्ष्म और व्यापक परिणाम है जो हमें जल्दी समझ में नहीं आता है वह है गौरव की हानि और गुलामी । आज उत्पादन केन्द्रों का कद बढ रहा है । उनका केन्द्रीकरण हो रहा है । बहुत बड़ी मात्रा में कोई भी वस्तु एक केन्द्र पर बनती है और दूर दूर तक बिक्री के लिये जाती है । ऐसा हमने इसलिये किया है क्योंकि हम वस्तुओं के उत्पादन के लिये यन्त्रों का प्रयोग करने लगे हैं । यन्त्र कम मात्रा में उत्पादन नहीं कर सकता । |
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− | केवल खोजने ही होते हैं, यथा प्राणियों को शिकार gear
| + | जहाँ यन्त्र काम कर रहे हैं वहाँ एक मालिक होता है और सैंकड़ों नौकर या मजदूर होते हैं । ये मजदूर दोहरी गुलामी से ग्रस्त हैं । एक है यन्त्र की गुलामी और दूसरी मालिक की गुलामी । मालिक की गुलामी के परिणाम स्वरूप स्वतंत्र इच्छा का नाश होता है और यंत्र की गुलामी से सृजनशक्ति और सृजन के आनन्द का नाश होता है । इसके परिणाम स्वरूप पूरा व्यक्तित्व दब्बू बन जाता है । ऐसे दब्बू व्यक्तियों का बना समाज अपना सामर्थ्य खो देता है । दूसरा परिणाम इससे भी अधिक हानिकारक है । बड़े बड़े उद्योग महानगरों के आसपास खड़े होते हैं । मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, अहमदाबाद आदि महानगरों के आसपास ये उद्योग केन्द्रित होते हैं । इन उद्योगकेन्द्रों में मजदूरी करने के लिये दूर दूर के प्रदेशों से हजारों की संख्या में युवक आते हैं। इनकी स्थिति कैसी होती है ? ये कारखानों में दिनभर मजदूरी करते हैं । ये कम शिक्षित होते हैं । ये परिवार से दूर अकेले रहते हैं । महानगरों के प्रदूषित वातावरण में रहते हैं । कारखाने के मालिक उन्हें पहचानते भी नहीं हैं । एक एक छोटे कमरे में सात आठ युवक एक साथ रहते हैं । काम करने की स्वतंत्रता के अभाव में, काम में रुचि एवं आनन्द के अभाव में, परिवारजनों की एवं मालिक की आत्मीयता के अभाव में वे निरंकुश और उद्दण्ड बनते हैं । साथ में टी.वी. का सस्ता मनोरंजन, शराब जैसी अनिष्ट आदतें और किसी की भी प्रेरणा और नियंत्रण का अभाव इनके संस्कारों और सज्जनता का नाश कर देते हैं । आज जो सार्वत्रिक अनाचार दिखाई दे रहा है, उसका एक स्रोत यह भी है । |
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− | पडता है । परन्तु मनुष्य को असंख्य पदार्थों का निर्माण
| + | सार्वत्रिक अनाचार का और एक स्रोत है। अति धनाड्य घरों के बच्चों को बचपन से ही काम करना नहीं सिखाया जाता है । श्रम की, श्रम से उत्पादित वस्तु की और पैसे की कीमत क्या होती है, यह वे नहीं जानते हैं । ये बच्चे युवा होते होते उद्दण्ड बन जाते हैं । युवावस्था का जोश, काम नहीं करने से उत्पन्न निठ्लापन और किसी भी प्रकार के विधायक आनंद के अभाव में इनकी शक्तियाँ विनाशक रूप लेती हैं । महाविद्यालयों में पढने वाले, धनाढ्य मातापिता के ऐसे युवा पुत्र मोटर साइकिल पर अति वेग से सवारी करते हुए दुर्घटनाएँ करते हैं, रात्रि क्लबों में लड़कियों के साथ ऐश करते हैं और व्यसनों के शिकार बनकर पौरुष भी गँवाते हैं और संस्कार भी । इससे समाज ही असंस्कृत बनता है । |
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− | करना पडता है । मनुष्य को अन्न चाहिये, इसलिये उसे | + | हाथ से काम करने की वृत्ति एवं कुशलता के अभाव में सार्वजनिक स्थानों पर, रास्तों पर, रेलगाडियों में, जलाशयों के तटों पर, समुद्रतटों पर, रेल की पटरियों के किनारे किनारे निःसीम गन्दगी का साम्राज्य दिखता है । पैसे नहीं मिलते इसलिये काम नहीं करना यह एक तर्क, ऐसा काम करना हमारे गौरव को कम करता है इसलिये नहीं करना यह दूसरा तर्क और सार्वजनिक स्वच्छता यह सरकार का काम है, यह तीसरा तर्क गन्दगी को दूर करने के लिये किसीको भी उद्युक्त नहीं करता । इसका विपरीत परिणाम स्वास्थ्य, पर्यावरण, संस्कारिता, समृद्धि, सामर्थ्य आदि पर होता है। इन सभी अनिष्टों के मूल में काम नहीं करने की वृत्ति प्रवृत्ति ही है । |
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− | खेती करनी होती है, यही नहीं तो उसे विभिन्न क्रियाओं
| + | उत्पादन को केन्द्रित और यन्त्र आधारित कर देने के परिणाम स्वरूप समाज का आर्थिक सन्तुलन भारी मात्रा में बिगड़ता है । कम मूल्यवान वस्तु भी अधिक महँगी होती है, पैसे की अनुत्पादक हेराफेरी के कारण अनावश्यक तथा हानिकारक पद्धति से संसाधनों का उपयोग होता है, लोगों की कमाने की शक्ति कम होती है, कमाने के अवसर कम होते हैं, दूसरी ओर जीवनावश्यक चीजें अनिवार्य रूप से खरीदनी ही पड़ती हैं । इसके परिणाम स्वरूप ऋण लेने के लिये लोग विवश हो जाते हैं । समाज में ऋण लेने देने का एक बड़ा तंत्र पैदा होता है । धीरे धीरे फैलता जाता है, विदेशों तक फैलता है और व्यक्ति से लेकर पूरा देश ऋण से ग्रस्त हो जाता है । ऋण में ही जीने की आदत पड़ जाने से एक प्रकार की कुंठा और मजबूरी जेहन में उतर जाती है। ऐसी प्रजा स्वाभिमान भूल जाती है । उसका स्वर उन्मुक्त और उत्फुट्ल नहीं होता । |
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− | और प्रक्रियाओं का अवलम्बन कर भोजन तैयार भी करना | + | हाथ से काम करने का अभ्यास यदि न हो तो स्नेह, प्रेम, वात्सल्य, करुणा, आदर, विनय आदि भावनाओं को कृतिरूप प्राप्त नहीं हो सकता । उदाहरण के लिये हाथ से भोजन बनाकर घर के सदस्यों को प्रेमपूर्वक खिलाना, घर के वृद्धों या रुगणों की शुश्रूषा और परिचर्या करना, अतिथि या गुरु की सेवा करना, बच्चों का संगोपन करना, आदि सभी कार्य यदि हाथ कुशलकर्मी नहीं हैं तो नहीं हो सकते। |
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− | होता है । प्राणियों को वस्त्र की आवश्यकता नहीं पड़ती है, | + | बच्चों की कापियों को स्वयं आवरण चढाना, भाई के लिये हाथ से स्वेटर बुनना, गुरु के लिये आसन, बिछौना बिछाना और स्वच्छता करना, हाथ से कारीगरी की वस्तु बनाकर सुशोभन करना आदि सब कर्मशिक्षा के अभाव में संभव नहीं होता । इन व्यवहारों में जो आत्मीयता प्रकट होती है और पनपती है, वह समाज को प्रेम, आनन्द और सौन्दर्य की श्रेष्ठ कक्षा की तरंगों से आप्लावित करती है । ऐसे समाज में श्री अर्थात् शोभा और श्री अर्थात् लक्ष्मी स्थिर होकर वास करती है । किसी भी काम को करते करते हाथ का कौशल बढ़ता है, कारीगरी में, निर्मिति में उत्कृष्टता आती है, जनशील बुद्धि का विकास होता है और पदार्थों के आन्तरिक स्वरूप की, पदार्थ के आन्तरिक रहस्य की अनुभूति होती है । लगन से, चाव से, निष्ठा से काम करने वाले के समक्ष सृष्टि अपने अन्तरतम रहस्य खोल देती है । |
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− | मनुष्य को पड़ती है, इसलिये उसे वस्त्रोद्योगय का विकास | + | इसे ही सृष्टि के साथ एकात्मता की अनुभूति कहते हैं । यही आध्यात्मिकता है । इन सभी कारणों से काम करना, हाथ से उत्पादक काम करना प्रत्येक मनुष्य के लिये अनिवार्य है । उसके अपने हित के लिये, उसके अपने विकास के लिये अनिवार्य है। हाथ से काम करने की संस्कृति का विकास करने के लिये निम्नलिखित बातों का विचार करना होगा और उन विचारों के अनुसार योजना भी बनानी होगी । |
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− | करना होता है । जैसे जैसे सभ्यता का विकास होता है, वैसे | + | === उचित मानसिकता निर्माण करना === |
| + | # हाथ से काम करना अच्छा है । |
| + | # हाथ से काम करने वाला, नहीं करने वाले से श्रेष्ठ है। |
| + | # हाथ से काम करते करते उत्कृष्टता प्राप्त करने वाला श्रेष्ठ है । |
| + | # हाथ से काम करने से लक्ष्मीदेवी की कृपा प्राप्त होती है। |
| + | # जो दूसरों से काम करवाता है, वह श्रेष्ठ नहीं है । |
| + | # जो दूसरों का काम करता है, वह भी श्रेष्ठ नहीं है । |
| + | यहाँ एक प्रश्न निर्माण होता है कि अनेक कारणों से, अनेक परिस्थितियों में दूसरों से काम करवाना पड़ता है और दूसरों का काम करना भी पड़ता है । उदाहरण के लिये छोटा बालक, अति वृद्ध, रोगी, दुर्घटनाग्रस्त, अप॑ग व्यक्ति अपना काम स्वयं नहीं कर सकते । साथ ही उनकी आवश्यकता सामान्य से भी अधिक होती है । इस स्थिति में किसी न किसीने इन लोगों का काम करना ही पड़ता है। एक व्यक्ति की सभी प्रकार की आवश्यकतायें अकेले एक व्यक्ति से पूर्ण नहीं होतीं । दूसरों द्वारा निर्मित वस्तुओं का प्रयोग करना ही पडता है । एक घर में सब साथ रहते हों तब सब अपना अपना सब काम स्वयं कर लें यह व्यवहार्य नहीं होता है । यदि ऐसा हुआ तो वह साथ में जीना नहीं हुआ । अतः व्यवहार जीवन में एकदूसरे का काम तो करना होता ही है। परन्तु दूसरों का काम प्रेम, स्नेह, सख्य, वात्सल्य, आदर, श्रद्धा, अनुकंपा या सहायता की भावना से प्रेरित होकर करना एक बात है और मजबूरी, स्वार्थ, भय, लालच, दबाव, लज्जा, मोह आदि से बाध्य होकर करना दूसरी बात है । प्रथम प्रकार से दूसरों का कार्य करना मनुष्य को उन्नत बनाता है, दूसरे प्रकार से करना हीन बनाता है । इस प्रकार से दूसरों से काम करवाना और दूसरों का काम करना रोकना चाहिये । इस प्रकार की मानसिकता निर्माण करना, यह प्रथम चरण है । |
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− | वैसे मनुष्य द्वारा निर्मित व्यवस्थाओं एवं वस्तुओं की संख्या
| + | === घर में शिशु अवस्था से काम करने के संस्कार देना === |
| + | छोटे बच्चे हमेशा क्रियाशील होते हैं । उनके चित्त बहुत संस्कारक्षम होते हैं । इसलिये उनपर कर्मसंस्कृति के संस्कार हों ऐसा वातावरण बनाना चाहिये । बच्चों ने बड़ों को काम करते हुए और काम में आनन्द लेते हुए देखना चाहिये । माँ आनन्द से खाना बना रही है, पिताजी स्वच्छता कर रहे हैं, दादाजी बगीचे में काम कर रहे हैं, बडा भैया पुस्तकों को साफ कर व्यवस्थित रख रहा है, यह सब छोटे बच्चों को दिखाई देना चाहिये । |
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− | एवं मात्रा बढ़ती जाती है ।
| + | बाल अवस्था के बच्चों को घर के और बाहर के कामों में साथ में जोड़ना चाहिये । यथा, घर की सफाई करना, भोजन बनाना, बगीचे में काम करना, साइकिल या स्कूटर साफ करना, पुड़िया बनाना, पुस्तकों को आवरण चढ़ाना, पुस्तकें व्यवस्थित रखना, खरीदारी करना, वस्तुएँ डिब्बों में भरना आदि सब काम करने में आनन्द लेना सिखाना चाहिये । |
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− | मनुष्य को इन सब वस्तुओं का निर्माण करने के लिये
| + | किशोर अवस्था के बच्चों को जिम्मेदारी पूर्वक और स्वतंत्रता पूर्वक काम करना सिखाना चाहिये । यथा, घर की दीवारों को पोतना, नल, पंखे और अन्य सामग्री की मस्म्मत करना, सिलाई काम करना, भोजन बनाना, घर के लिये आवश्यक वस्तुओं की गुणवत्ता परखकर खरीदारी करना, घर के आँगन में फूल या सब्जी उगाना, कार्यक्रमों में, उत्सवों में मंच खड़ा करना, दरियाँ बिछाना, सुशोभन करना, परोसना, साफ सफाई करना आदि सब काम करने की कुशलता विकसित हो, यह देखना चाहिये । |
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− | २८५
| + | युवा होने के बाद उत्पादक कार्य कर आजीविका कमाने की क्षमता आना अत्यन्त आवश्यक है । हमारे देश में उत्पादन को अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है, इसीलिये कृषि और गोपालन को श्रेष्ठ व्यवसाय कहा गया है और नौकरी को अत्यन्त हीन माना गया है । इस प्रकार परिवारजीवन को उद्यमशील और उद्योगकेन्द्री बनाकर हम लक्ष्मीदेवी को अपने घर में और समाज में अचल रूप से रहने वाली बना सकते हैं । ऐसी लक्ष्मी मंगलकारी होती है । |
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− | कर्मन्द्रियों की कुशलता एवं निर्माणक्षम बुद्धि की
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− | आवश्यकता पड़ती है । इन दोनों में कर्मन्ट्रियों की कुशलता
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− | का महत्त्व अधिक है, क्योंकि बुद्धि के मार्गदर्शन में काम
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− | तो कर्मेन्ट्रियाँ ही करती हैं। कर्मेन्ट्रियों में भी हाथ ही
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− | निर्माण करने वाली इन्ट्रिय है । इसलिये हाथ को काम करने
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− | में कुशल बनाना आवश्यक है ।
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− | हाथ से काम करते समय पूरा शरीर कार्यरत होता
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− | है। शरीर को यदि कार्यरत होना है तो शरीर में बल
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− | चाहिये । शरीर को श्रम करने का अभ्यास चाहिये । मन में
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− | श्रम करने की वृत्ति चाहिये । आलस्य और प्रमाद का त्याग
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− | करना चाहिये । श्रम करने हेतु शरीर का आरोग्य भी अच्छा
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− | होना चाहिये । उत्तम अन्न और उत्तम व्यायाम से शरीर को
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− | बलसंपन्न और आरोग्यसंपन्न बनाना चाहिये ।
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− | व्यक्ति जब कार्यकुशल होता है तब सही समृद्धि प्राप्त
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− | करता है । समाज भी जब श्रमनिष्ठ और कार्यकुशल होता है
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− | तब समृद्ध बनता है । समृद्धि से वैभवसंपन्नता आती है ।
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− | इससे समाज सुखी होता है ।
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− | वर्तमान में मूल्यशिक्षा की तो
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− | बात चारों ओर हो रही है, परन्तु कर्मशिक्षा की बात सुनाई
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− | नहीं देती है । स्थिति इससे उल्टी है । हाथ से होने वाले,
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− | शरीर से होने वाले, श्रमसाध्य कार्य को हम हेय मानने लगे
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− | हैं और उससे विमुख हो रहे हैं । श्रम नहीं करना पडता है,
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− | ऐसे कार्य को ऊँचे दर्ज का मानने लगे हैं । शरीरश्रम का
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− | कार्य छोड़कर हम बुद्धि से होने वाला कार्य करने के लिये
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− | उद्युक्त होते हैं । अथवा यंत्रों की सहायता लेते हैं । हमारा
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− | लक्ष्य यह रहता है कि हमें अपने हाथों से कम से कम काम
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− | करना पड़े, शरीर को कम से कम श्रम पहुँचे, बुद्धि को कम
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− | | |
− | से कम उलझना पडे और हमारा समय बचे । इसलिये हम
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− | घर में, कार्यालयों में, कारखानों में, मनोरंजनगृहों में यंत्रों
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− | का उपयोग करते हैं ।
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− | हमें इससे बहुत सुख मिलता है। बहुत आराम
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− | मिलता है। परन्तु ये सुख और आराम आभासी हैं,
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− | वास्तविक नहीं । शरीर से काम नहीं करने के अत्यन्त
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− | विपरीत परिणाम पूरे समाज को भुगतने पड़ते हैं ।
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− | चमकदमक वाले वातावरण में और इन्ट्रियों को मिलने वाले
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− | सुख में डूबे हुए होने के कारण ये विपरीत परिणाम हमें
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− | दिखाई नहीं देते हैं और समझ में भी नहीं आते हैं परन्तु
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− | वास्तविकता यह है कि ये हमें असंस्कारिता, अस्वास्थ्य
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− | और दारिद्य की ओर ले जा रहे हैं । इस विषय में बहुत
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− | गम्भीर होकर विचार करने की और उपाय योजना करने की
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− | आवश्यकता है ।
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− | हाथ से काम करने को हेय मानने का एक सूक्ष्म और
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− | व्यापक परिणाम है जो हमें जल्दी समझ में नहीं आता है
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− | वह है गौरव की हानि और गुलामी । आज उत्पादन केन्द्रों
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− | का कद बढ रहा है । SAH! HRT हो रहा है । बहुत
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− | बडी मात्रा में कोई भी वस्तु एक केन्द्र पर बनती है और दूर
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− | दूर तक बिक्री के लिये जाती है । ऐसा हमने इसलिये किया
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− | है क्योंकि हम वस्तुओं के उत्पादन के लिये यन्त्रों का प्रयोग
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− | करने लगे हैं । यन्त्र कम मात्रा में उत्पादन नहीं कर सकता ।
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− | जहाँ यन्त्र काम कर रहे हैं वहाँ एक मालिक होता है और
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− | सैंकड़ों नौकर या मजदूर होते हैं । ये मजदूर दोहरी गुलामी
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− | से ग्रस्त हैं । एक है यन्त्र की गुलामी और दूसरी मालिक
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− | २८६
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | की गुलामी । मालिक की गुलामी के परिणाम स्वरूप स्वतंत्र
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− | इच्छा का नाश होता है और यंत्र की गुलामी से सृजनशक्ति
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− | और सृजन के आनन्द का नाश होता है । इसके परिणाम
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− | स्वरूप पूरा व्यक्तित्व दब्बू बन जाता है । ऐसे दब्बू व्यक्तियों
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− | का बना समाज अपना सामर्थ्य खो देता है ।
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− | दूसरा परिणाम इससे भी अधिक हानिकारक है । बड़े
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− | बड़े उद्योग महानगरों के आसपास खड़े होते हैं । मुंबई,
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− | दिल्ली, कोलकाता, अहमदाबाद आदि महानगरों के
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− | | |
− | आसपास ये उद्योग केन्द्रित होते हैं । इन उद्योगकेन्द्रों में
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− | मजदूरी करने के लिये दूर दूर के प्रदेशों से हजारों की संख्या
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− | | |
− | में युवक आते हैं। इनकी स्थिति कैसी होती है ? ये
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− | कारखानों में दिनभर मजदूरी करते हैं । ये कम शिक्षित होते
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− | हैं । ये परिवार से दूर अकेले रहते हैं । महानगरों के प्रदूषित
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− | वातावरण में रहते हैं । कारखाने के मालिक उन्हें पहचानते
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− | भी नहीं हैं । एक एक छोटे कमरे में सात आठ युवक एक
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− | साथ रहते हैं । काम करने की स्वतंत्रता के अभाव में, काम
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− | में रुचि एवं आनन्द के अभाव में, परिवारजनों की एवं
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− | | |
− | मालिक की आत्मीयता के अभाव में वे निरंकुश और
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− | | |
− | उद्दण्ड बनते हैं । साथ में टी.वी. का सस्ता मनोरंजन, शराब
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− | | |
− | जैसी अनिष्ट आदतें और किसीकी भी प्रेरणा और नियंत्रण
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− | | |
− | का अभाव इनके संस्कारों और सज्जनता का नाश कर देते
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− | हैं । आज जो सार्वत्रिक अनाचार दिखाई दे रहा है, उसका
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− | एक स्रोत यह भी है ।
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− | सार्वत्रिक अनाचार का और एक स्रोत है। अति
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− | धनात्य घरों के बच्चों को बचपन से ही काम करना नहीं
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− | सिखाया जाता है । श्रम की, श्रम से उत्पादित वस्तु की
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− | और पैसे की कीमत क्या होती है, यह वे नहीं जानते हैं ।
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− | ये बच्चे युवा होते होते उद्दण्ड बन जाते हैं । युवावस्था का
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− | जोश, काम नहीं करने से उत्पन्न निठ्लापन और किसी भी
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− | प्रकार के विधायक आनंद के अभाव में इनकी शक्तियाँ
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− | विनाशक रूप लेती हैं । महाविद्यालयों में पढने वाले,
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− | धनाढ्य मातापिता के ऐसे युवा पुत्र मोटर साइकिल पर
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− | अति वेग से सवारी करते हुए दुर्घटनाएँ करते हैं, रात्रि
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− | aaa में लड़कियों के साथ ऐश करते हैं और व्यसनों के
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− | शिकार बनकर पौरुष भी गँवाते हैं और संस्कार भी । इससे
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− | पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
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− | समाज ही असंस्कृत बनता है ।
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− | हाथ से काम करने की वृत्ति एवं कुशलता के अभाव
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− | में सार्वजनिक स्थानों पर, रास्तों पर, रेलगाडियों में,
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− | Wea के तटों पर, समुद्रतटों पर, रेल की पटरियों के
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− | | |
− | किनारे किनारे निःसीम गन्दगी का साम्राज्य दिखता है । पैसे
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− | नहीं मिलते इसलिये काम नहीं करना यह एक तर्क, ऐसा
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− | काम करना हमारे गौरव को कम करता है इसलिये नहीं
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− | करना यह दूसरा तर्क और सार्वजनिक स्वच्छता यह सरकार
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− | का काम है, यह तीसरा तर्क गन्दगी को दूर करने के लिये
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− | किसीको भी उद्युक्त नहीं करता । इसका विपरीत परिणाम
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− | स्वास्थ्य, पर्यावरण, संस्कारिता, समृद्धि, सामर्थ्य आदि पर
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− | होता है ।
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− | इन सभी अनिष्टों के मूल में काम नहीं करने की वृत्ति
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− | प्रवृत्ति ही है ।
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− | उत्पादन को केन्द्रित और यन्त्र आधारित कर देने के
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− | परिणाम स्वरूप समाज का आर्थिक सन्तुलन भारी मात्रा में
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− | बिगड़ता है । कम मूल्यवान वस्तु भी अधिक महँगी होती
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− | है, पैसे की अनुत्पादक हेराफेरी के कारण अनावश्यक तथा
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− | हानिकारक पद्धति से संसाधनों का उपयोग होता है, लोगों
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− | की कमाने की शक्ति कम होती है, कमाने के अवसर कम
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− | होते हैं, दूसरी ओर जीवनावश्यक चीजें अनिवार्य रूप से
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− | खरीदनी ही पड़ती हैं । इसके परिणाम स्वरूप ऋण लेने के
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− | लिये लोग विवश हो जाते हैं । समाज में कण लेने देने का
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− | Uh ast deat tar होता है । धीरे धीरे फैलता जाता है,
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− | विदेशों तक फैलता है और व्यक्ति से लेकर पूरा देश करण
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− | | |
− | से ग्रस्त हो जाता है । करण में ही जीने की आदत पड़ जाने
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− | | |
− | से एक प्रकार की कुंठा और मजबूरी जेहन में उतर जाती
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− | | |
− | है। ऐसी प्रजा स्वाभिमान भूल जाती है । उसका स्वर
| |
− | | |
− | उन्मुक्त और उत्फुट्ल नहीं होता ।
| |
− | | |
− | हाथ से काम करने का अभ्यास यदि न हो तो स्नेह,
| |
− | | |
− | प्रेम, वात्सल्य, करुणा, आदर, विनय आदि भावनाओं को
| |
− | | |
− | कृतिरूप प्राप्त नहीं हो सकता । उदाहरण के लिये हाथ से
| |
− | | |
− | भोजन बनाकर घर के सदस्यों को प्रेमपूर्वक खिलाना, घर
| |
− | | |
− | के वृद्धों या रुगणों की शुश्रूषा और परिचर्या करना, अतिथि
| |
− | | |
− | या गुरु की सेवा करना, बच्चों का संगोपन करना, आदि
| |
− | | |
− | २८७
| |
− | | |
− | सभी कार्य यदि हाथ कुशलकर्मी नहीं हैं
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− | | |
− | तो नहीं हो सकते । बच्चों की कापियों को स्वयं आवरण
| |
− | | |
− | चढाना, भाई के लिये हाथ से स्वेटर बुनना, गुरु के लिये
| |
− | | |
− | आसन, बिछौना बिछाना और स्वच्छता करना, हाथ से
| |
− | | |
− | कारीगरी की वस्तु बनाकर सुशोभन करना आदि सब
| |
− | | |
− | कर्मशिक्षा के अभाव में संभव नहीं होता । इन व्यवहारों में
| |
− | | |
− | जो आत्मीयता प्रकट होती है और पनपती है, वह समाज
| |
− | | |
− | को प्रेम, आनन्द और सौन्दर्य की श्रेष्ठ कक्षा की तरंगों से
| |
− | | |
− | आप्लावित करती है । ऐसे समाज में श्री अर्थात् शोभा और
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− | | |
− | श्री अर्थात् लक्ष्मी स्थिर होकर वास करती है ।
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− | | |
− | किसी भी काम को करते करते हाथ का कौशल
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− | | |
− | बढ़ता है, कारीगरी में, निर्मिति में उत्कृष्टता आती है,
| |
− | | |
− | सृजनशील बुद्धि का विकास होता है और पदार्थों के
| |
− | | |
− | आन्तरिक स्वरूप की, पदार्थ के आन्तरिक रहस्य की
| |
− | | |
− | अनुभूति होती है । लगन से, चाव से, निष्ठा से काम करने
| |
− | | |
− | वाले के समक्ष सृष्टि अपने अन्तरतम रहस्य खोल देती है ।
| |
− | | |
− | इसे ही सृष्टि के साथ एकात्मता की अनुभूति कहते हैं । यही
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− | | |
− | आध्यात्मिकता है ।
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− | | |
− | इन सभी कारणों से काम करना, हाथ से उत्पादक
| |
− | | |
− | काम करना प्रत्येक मनुष्य के लिये अनिवार्य है । उसके
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− | | |
− | अपने हित के लिये, उसके अपने विकास के लिये अनिवार्य
| |
− | | |
− | है।
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− | | |
− | हाथ से काम करने की संस्कृति का विकास करने के
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− | | |
− | लिये निम्नलिखित बातों का विचार करना होगा और उन
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− | | |
− | विचारों के अनुसार योजना भी बनानी होगी ।
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− | | |
− | १, उचित मानसिकता निर्माण करना
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− | | |
− | 2. हाथ से काम करना अच्छा है ।
| |
− | | |
− | 2. हाथ से काम करने वाला, नहीं करने वाले से श्रेष्ठ
| |
− | | |
− | है।
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− | | |
− | 3. हाथ से काम करते करते उत्कृष्टता प्राप्त करने वाला
| |
− | | |
− | श्रेष्ठ है ।
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− | | |
− | ४. हाथ से काम करने से लक्ष्मीदेवी की कृपा प्राप्त होती
| |
− | | |
− | है।
| |
− | | |
− | ५... जो दूसरों से काम करवाता है, वह श्रेष्ठ नहीं है ।
| |
− | | |
− | ............. page-304 .............
| |
− | | |
− | जो दूसरों का काम करता है,
| |
− | | |
− | वह भी श्रेष्ठ नहीं है ।
| |
− | | |
− | यहाँ एक प्रश्न निर्माण होता है कि अनेक कारणों से,
| |
− | | |
− | अनेक परिस्थितियों में दूसरों से काम करवाना पड़ता है और
| |
− | | |
− | दूसरों का काम करना भी पड़ता है । उदाहरण के लिये
| |
− | | |
− | छोटा बालक, अति वृद्ध, रोगी, दुर्घटनाग्रस्त, अप॑ग व्यक्ति
| |
− | | |
− | अपना काम स्वयं नहीं कर सकते । साथ ही उनकी
| |
− | | |
− | आवश्यकता सामान्य से भी अधिक होती है । इस स्थिति में
| |
− | | |
− | किसी न किसीने इन लोगों का काम करना ही पड़ता है।
| |
− | | |
− | एक व्यक्ति की सभी प्रकार की आवश्यकतायें अकेले एक
| |
− | | |
− | व्यक्ति से पूर्ण नहीं होतीं । दूसरों द्वारा निर्मित वस्तुओं का
| |
− | | |
− | प्रयोग करना ही पडता है । एक घर में सब साथ रहते हों
| |
− | | |
− | तब सब अपना अपना सब काम स्वयं कर लें यह व्यवहार्य
| |
− | | |
− | नहीं होता है । यदि ऐसा हुआ तो वह साथ में जीना नहीं
| |
− | | |
− | हुआ । अतः व्यवहार जीवन में एकदूसरे का काम तो करना
| |
− | | |
− | होता ही है। परन्तु दूसरों का काम प्रेम, स्नेह, सख्य,
| |
− | | |
− | वात्सल्य, आदर, श्रद्धा, अनुकंपा या सहायता की भावना
| |
− | | |
− | से प्रेरित होकर करना एक बात है और मजबूरी, स्वार्थ,
| |
− | | |
− | भय, Uta, Gala, cai, Ale आदि से बाध्य होकर
| |
− | | |
− | करना दूसरी बात है । प्रथम प्रकार से दूसरों का कार्य करना
| |
− | | |
− | मनुष्य को उन्नत बनाता है, दूसरे प्रकार से करना हीन
| |
− | | |
− | बनाता है । इस प्रकार से दूसरों से काम करवाना और दूसरों
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− | | |
− | का काम करना रोकना चाहिये ।
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− | | |
− | इस प्रकार की मानसिकता निर्माण करना, यह
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− | | |
− | प्रथम चरण है ।
| |
− | | |
− | २. घर में शिशु अवस्था से काम करने के संस्कार देना
| |
− | | |
− | छोटे बच्चे हमेशा क्रियाशील होते हैं । उनके चित्त
| |
− | | |
− | बहुत संस्कारक्षम होते हैं । इसलिये उनपर कर्मसंस्कृति के
| |
− | | |
− | संस्कार हों ऐसा वातावरण बनाना चाहिये । बच्चों ने बड़ों
| |
− | | |
− | को काम करते हुए और काम में आनन्द लेते हुए देखना
| |
− | | |
− | चाहिये । माँ आनन्द से खाना बना रही है, पिताजी
| |
− | | |
− | स्वच्छता कर रहे हैं, दादाजी बगीचे में काम कर रहे हैं,
| |
− | | |
− | बडा भैया पुस्तकों को साफ कर व्यवस्थित रख रहा है, यह
| |
− | | |
− | सब छोटे बच्चों को दिखाई देना चाहिये ।
| |
− | | |
− | २८८
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− | | |
− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | | |
− | बाल अवस्था के बच्चों को घर के और बाहर के
| |
− | | |
− | कामों में साथ में जोड़ना चाहिये । यथा, घर की सफाई
| |
− | | |
− | करना, भोजन बनाना, बगीचे में काम करना, साइकिल या
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− | | |
− | स्कूटर साफ करना, पुड़िया बनाना, पुस्तकों को आवरण
| |
− | | |
− | चढ़ाना, पुस्तकें व्यवस्थित रखना, खरीदारी करना, वस्तुएँ
| |
− | | |
− | डिब्बों में भरना आदि सब काम करने में आनन्द लेना
| |
− | | |
− | सिखाना चाहिये ।
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− | | |
− | किशोर अवस्था के बच्चों को जिम्मेदारी पूर्वक और
| |
− | | |
− | स्वतंत्रता पूर्वक काम करना सिखाना चाहिये । यथा, घर की
| |
− | | |
− | दीवारों को पोतना, नल, पंखे और अन्य सामग्री की
| |
− | | |
− | मस्म्मत करना, सिलाई काम करना, भोजन बनाना, घर के
| |
− | | |
− | लिये आवश्यक वस्तुओं की गुणवत्ता परखकर खरीदारी
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− | | |
− | करना, घर के आँगन में फूल या सब्जी उगाना, कार्यक्रमों
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− | | |
− | में, उत्सवों में मंच खड़ा करना, दरियाँ बिछाना, सुशोभन
| |
− | | |
− | करना, परोसना, साफ सफाई करना आदि सब काम करने
| |
− | | |
− | की कुशलता विकसित हो, यह देखना चाहिये ।
| |
− | | |
− | युवा होने के बाद उत्पादक कार्य कर आजीविका | |
− | | |
− | कमाने की क्षमता आना अत्यन्त आवश्यक है । हमारे देश | |
− | | |
− | में उत्पादन को अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है, इसीलिये कृषि | |
− | | |
− | और गोपालन को श्रेष्ठ व्यवसाय कहा गया है और नौकरी | |
− | | |
− | को अत्यन्त हीन माना गया है । | |
− | | |
− | इस प्रकार परिवारजीवन को उद्यमशील और | |
− | | |
− | उद्योगकेन्द्री बनाकर हम लक्ष्मीदेवी को अपने घर में और | |
− | | |
− | समाज में अचल रूप से रहने वाली बना सकते हैं । ऐसी | |
− | | |
− | लक्ष्मी मंगलकारी होती है । | |
− | | |
− | ३. उद्योगकेन्द्री शिक्षा
| |
− | | |
− | वास्तव में ऊपर जिसका वर्णन किया गया है ऐसी
| |
− | | |
− | कर्मसंस्कृति विद्यालयों में ही सीखी और सिखाई जा सकती
| |
− | | |
− | है । विद्यालयों में कुछ इस प्रकार से विचार और योजना
| |
− | | |
− | की जा सकती है -
| |
− | | |
− | g. केवल लिखने, पढ़ने, सुनने और बोलने वाली
| |
− | | |
− | शिक्षापद्धति को. बदल कर क्रिया. आधारित
| |
− | | |
− | शिक्षापद्धति अनिवार्य बनाना चाहिये । बच्चों को
| |
− | | |
− | पुस्तकों और कापियों से भरा बस्ता उठाने वाले
| |
− | | |
− | ............. page-305 .............
| |
− | | |
− | पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
| |
− | | |
− | मजदूर बनाने के स्थान पर उत्पादक काम करने वाले
| |
− | | |
− | कारीगर बनाना अधिक श्रेयस्कर मानना चाहिये । वैसे
| |
− | | |
− | भी भाषा को छोड दिया तो कोई भी विषय बिना
| |
− | | |
− | क्रिया के सीखा ही नहीं जाता । अतः सार्थक शिक्षा
| |
− | | |
− | हेतु भी क्रिया आधारित शिक्षा होना आवश्यक है ।
| |
− | | |
− | इस दृष्टि से गणवेश में, कक्षाकक्ष की रचना में,
| |
− | | |
− | कक्षाकक्ष में बैठने की व्यवस्था में, फर्नीचर में भारी
| |
− | | |
− | बदलाव की आवश्यकता है ।
| |
− | | |
− | विद्यालय की. स्वच्छता, सुशोभन, व्यवस्था,
| |
− | | |
− | रखरखाव, मरम्मत आदि सब शिक्षकों और छात्रों को
| |
− | | |
− | मिलकर करने की व्यवस्था करना आवश्यक है । इस
| |
− | | |
− | व्यवस्था से पैसों की बचत होगी यह बात सही है,
| |
− | | |
− | परन्तु पैसों की बचत मुख्य लक्ष्य नहीं है । श्रम और
| |
− | | |
− | कर्मसंस्कृति का विकास होना ही मुख्य लक्ष्य है ।
| |
− | | |
− | विद्यालयों का शिक्षाक्रम उद्योगकेन्द्री बनाना चाहिये ।
| |
− | | |
− | विद्यालय की छोटी मोटी आवश्यकताओं की पूर्ति
| |
− | | |
− | हेतु उत्पादन तो विद्यालय में होना ही चाहिये, साथ
| |
− | | |
− | ही श्रमनिष्ठ बनकर, उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन
| |
− | | |
− | कर, समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने हेतु
| |
− | | |
− | व्यवसाय करने की और अपने स्वमान, गौरव और
| |
− | | |
− | स्वतंत्रता की रक्षा करने की वृत्ति का विकास होना
| |
− | | |
− | जरूरी है ।
| |
− | | |
− | आजकल पढ़ाई में उपकरणों का प्रयोग बहुत बढ
| |
− | | |
− | गया है। सुविधा के लिये वातानुकूलन, वाहन,
| |
− | | |
− | फर्निचर आदि की विपुलता के साथ साथ सी.डी.,
| |
− | | |
− | संगणक, कैलकुलेटर, विभिन्न प्रकार की मार्गदर्शिकायें
| |
− | | |
− | और अभ्यास पुस्तिका आदि की भरमार हो रही है ।
| |
− | | |
− | इसी कारण से शिक्षा दिन प्रतिदिन अत्यन्त महँगी हो
| |
− | | |
− | रही है । ये उपकरण पैसा तो खर्च करवाते ही हैं,
| |
− | | |
− | साथ ही सीखने की अंगभूत क्षमताओं को अवस्द्ध
| |
− | | |
− | कर देते हैं। इसलिये हमें हमारी ज्ञानेन्द्रियों और
| |
− | | |
− | कर्मन्द्रियों को निष्क्रिय बनाने वाली, उपकरणों पर
| |
− | | |
− | अधीनता बढ़ाने वाली और खर्च बढ़ाने वाली,
| |
− | | |
− | उपकरणों की व्यवस्थाओं को छोड़कर, कम से कम
| |
− | | |
− | उपकरणों के प्रयोग वाली और करणों को
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− | | |
− | २८९
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− | | |
− | अधिकाधिक सक्रिय बनाने वाली
| |
− | | |
− | शिक्षापद्धति का विकास करना चाहिये ।
| |
− | | |
− | ५... मनोरंजन का क्षेत्र आत्यन्तिक परिवर्तन की अपेक्षा
| |
− | | |
− | करता है । हमें छात्रों को टी.वी. पर नृत्य, गीत,
| |
− | | |
− | फिल्म, सुनने और देखने के स्थान पर गाना, बजाना,
| |
− | | |
− | नाचना. और अभिनय करना सिखाना चाहिये ।
| |
− | | |
− | मोबाइल या संगणक पर अकेले खेलने के स्थान पर
| |
− | | |
− | मैदान में दौड़ भाग, चीख चिल्लाहट और खेंच पकड
| |
− | | |
− | के खेल खेलना सिखाना चाहिये । मिट्टी में शरीर को
| |
− | | |
− | रगड़ना और शरीर से पसीना बहाना, उत्तम शारीरिक
| |
− | | |
− | और मानसिक आरोग्य का जनक है । अपना काम
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− | | |
− | नौकरों से करवाने के स्थान पर स्वयं करना सिखाना
| |
− | | |
− | चाहिये । हमारे मंचीय और मैदानी कार्यक्रमों के साथ
| |
− | | |
− | साथ, हाथ से उत्पादित वस्तुओं की प्रदर्शनी और
| |
− | | |
− | बिक्री का. आयोजन अवश्य होना चाहिये ।
| |
− | | |
− | सृजनशीलता, उत्कृष्टता, उत्पादकता की स्पधर्यि भी
| |
− | | |
− | होनी चाहिये ।
| |
− | | |
− | ६. छात्रों में पढ़ लिखकर कभी भी नौकरी नहीं करूँगा
| |
− | | |
− | अथवा किसीको नौकर नहीं बनाऊँगा' का संकल्प
| |
− | | |
− | जगाना चाहिये ।
| |
− | | |
− | ७. विद्यालयों का निर्माणकार्य, मैदान, बगीचा तथा
| |
− | | |
− | अतिथियों की शुश्रूषा और सेवा, छात्र और आचार्यों
| |
− | | |
− | के जिम्मे करना चाहिये । विद्यालय संचालन की पूर्ण
| |
− | | |
− | जिम्मेदारी छात्रों और आचार्यों की होगी तब शिक्षा
| |
− | | |
− | सार्थक भी होगी और स्वायत्त भी होगी ।
| |
− | | |
− | जहाँ समाज के ९५ प्रतिशत लोग काम करते हैं,
| |
− | | |
− | पसीना बहाते हैं, उत्पादन करते हैं, निर्माण करते हैं, सृजन
| |
− | | |
− | करते हैं वहाँ सुख, समृद्धि, संस्कार, स्वमान, स्वतंत्रता,
| |
− | | |
− | गौरव, श्रेष्ठता, स्वास्थ्य, समरसता, आध्यात्मिकता अचल
| |
− | | |
− | होकर वास करते हैं । पाँच प्रतिशत में पागल, रोगी, पंगु
| |
− | | |
− | लोगों का समावेश होता है ।
| |
− | | |
− | कर्मशिक्षा किसी भी समाज की रीढ़ है । यह रीढ़
| |
− | | |
− | जितनी मजबूत, सीधी और लचीली होगी, समाज उतना ही
| |
− | | |
− | श्रेष्ठ होगा ।
| |
| | | |
| + | === उद्योगकेन्द्री शिक्षा === |
| + | वास्तव में ऊपर जिसका वर्णन किया गया है ऐसी कर्मसंस्कृति विद्यालयों में ही सीखी और सिखाई जा सकती है । विद्यालयों में कुछ इस प्रकार से विचार और योजना की जा सकती है |
| + | # केवल लिखने, पढ़ने, सुनने और बोलने वाली शिक्षापद्धति को बदल कर क्रिया आधारित शिक्षापद्धति अनिवार्य बनाना चाहिये । बच्चों को पुस्तकों और कापियों से भरा बस्ता उठाने वाले मजदूर बनाने के स्थान पर उत्पादक काम करने वाले कारीगर बनाना अधिक श्रेयस्कर मानना चाहिये । वैसे भी भाषा को छोड दिया तो कोई भी विषय बिना क्रिया के सीखा ही नहीं जाता । अतः सार्थक शिक्षा हेतु भी क्रिया आधारित शिक्षा होना आवश्यक है । इस दृष्टि से गणवेश में, कक्षाकक्ष की रचना में, कक्षाकक्ष में बैठने की व्यवस्था में, फर्नीचर में भारी बदलाव की आवश्यकता है । |
| + | # विद्यालय की. स्वच्छता, सुशोभन, व्यवस्था, रखरखाव, मरम्मत आदि सब शिक्षकों और छात्रों को मिलकर करने की व्यवस्था करना आवश्यक है । इस व्यवस्था से पैसों की बचत होगी यह बात सही है, परन्तु पैसों की बचत मुख्य लक्ष्य नहीं है । श्रम और कर्मसंस्कृति का विकास होना ही मुख्य लक्ष्य है । |
| + | # विद्यालयों का शिक्षाक्रम उद्योगकेन्द्री बनाना चाहिये । विद्यालय की छोटी मोटी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उत्पादन तो विद्यालय में होना ही चाहिये, साथ ही श्रमनिष्ठ बनकर, उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन कर, समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने हेतु व्यवसाय करने की और अपने स्वमान, गौरव और स्वतंत्रता की रक्षा करने की वृत्ति का विकास होना जरूरी है । |
| + | # आजकल पढ़ाई में उपकरणों का प्रयोग बहुत बढ गया है। सुविधा के लिये वातानुकूलन, वाहन, फर्निचर आदि की विपुलता के साथ साथ सी.डी., संगणक, कैलकुलेटर, विभिन्न प्रकार की मार्गदर्शिकायें और अभ्यास पुस्तिका आदि की भरमार हो रही है । इसी कारण से शिक्षा दिन प्रतिदिन अत्यन्त महँगी हो रही है । ये उपकरण पैसा तो खर्च करवाते ही हैं, साथ ही सीखने की अंगभूत क्षमताओं को अवस्द्ध कर देते हैं। इसलिये हमें हमारी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों को निष्क्रिय बनाने वाली, उपकरणों पर अधीनता बढ़ाने वाली और खर्च बढ़ाने वाली, उपकरणों की व्यवस्थाओं को छोड़कर, कम से कम उपकरणों के प्रयोग वाली और करणों को अधिकाधिक सक्रिय बनाने वाली शिक्षापद्धति का विकास करना चाहिये । |
| + | # मनोरंजन का क्षेत्र आत्यन्तिक परिवर्तन की अपेक्षा करता है । हमें छात्रों को टी.वी. पर नृत्य, गीत, फिल्म, सुनने और देखने के स्थान पर गाना, बजाना, नाचना. और अभिनय करना सिखाना चाहिये । मोबाइल या संगणक पर अकेले खेलने के स्थान पर मैदान में दौड़ भाग, चीख चिल्लाहट और खेंच पकड के खेल खेलना सिखाना चाहिये । मिट्टी में शरीर को रगड़ना और शरीर से पसीना बहाना, उत्तम शारीरिक और मानसिक आरोग्य का जनक है । अपना काम नौकरों से करवाने के स्थान पर स्वयं करना सिखाना चाहिये । हमारे मंचीय और मैदानी कार्यक्रमों के साथ साथ, हाथ से उत्पादित वस्तुओं की प्रदर्शनी और बिक्री का आयोजन अवश्य होना चाहिये । सृजनशीलता, उत्कृष्टता, उत्पादकता की स्पर्धाएं भी होनी चाहिये । |
| + | # छात्रों में पढ़ लिखकर "कभी भी नौकरी नहीं करूँगा अथवा किसी को नौकर नहीं बनाऊँगा" का संकल्प जगाना चाहिये । |
| + | # विद्यालयों का निर्माणकार्य, मैदान, बगीचा तथा अतिथियों की शुश्रूषा और सेवा, छात्र और आचार्यों के जिम्मे करना चाहिये । विद्यालय संचालन की पूर्ण जिम्मेदारी छात्रों और आचार्यों की होगी तब शिक्षा सार्थक भी होगी और स्वायत्त भी होगी । जहाँ समाज के ९५ प्रतिशत लोग काम करते हैं, पसीना बहाते हैं, उत्पादन करते हैं, निर्माण करते हैं, सृजन करते हैं वहाँ सुख, समृद्धि, संस्कार, स्वमान, स्वतंत्रता, गौरव, श्रेष्ठता, स्वास्थ्य, समरसता, आध्यात्मिकता अचल होकर वास करते हैं । पाँच प्रतिशत में पागल, रोगी, पंगु लोगों का समावेश होता है । कर्मशिक्षा किसी भी समाज की रीढ़ है । यह रीढ़ जितनी मजबूत, सीधी और लचीली होगी, समाज उतना ही श्रेष्ठ होगा । |
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