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| ज्ञानधारा को पुनः प्रवाहित करने हेतु अध्ययन करना एक मात्र उपाय है । | | ज्ञानधारा को पुनः प्रवाहित करने हेतु अध्ययन करना एक मात्र उपाय है । |
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− | ३. धार्मिक ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने हेतु हमें अपने शास्त्रग्रन्थो का अध्ययन करना पड़ेगा । हमारे शास्त्रग्रन्थ हैं वेद, उपनिषद, दर्शनों के सूत्रग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण आदि इनके साथ साथ भौतिक विज्ञान के भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जो भारत की भौतिक समृद्धि के लिये मार्गदर्शक रहे हैं । | + | ३. धार्मिक ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने हेतु हमें अपने शास्त्रग्रन्थो का अध्ययन करना पड़ेगा । हमारे शास्त्रग्रन्थ हैं वेद, उपनिषद, दर्शनों के सूत्रग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण आदि इनके साथ साथ भौतिक [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान] के भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जो भारत की भौतिक समृद्धि के लिये मार्गदर्शक रहे हैं । |
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| ४. अध्ययन करने की सही पद्धति को अपनाना आवश्यक होगा । सही आलम्बन भी हमें निश्चित करना होगा । इन दो बातों के परिणाम स्वरूप हमें राष्ट्र के जीवन के लिये सही अधिष्ठान और दिशा प्राप्त होगी । | | ४. अध्ययन करने की सही पद्धति को अपनाना आवश्यक होगा । सही आलम्बन भी हमें निश्चित करना होगा । इन दो बातों के परिणाम स्वरूप हमें राष्ट्र के जीवन के लिये सही अधिष्ठान और दिशा प्राप्त होगी । |
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| ४५. परन्तु अनुभूति को नकारना तो बुद्धिमानी नहीं है । एक अज्ञानी मनुष्य अपने पास के मूल्यवान रत्नों को जानता नहीं है इसलिये उन्हें काँच के क्षुछ्लक टुकडे मानकर फेंक देता है और उसे दुःख भी नहीं होता क्योंकि क्या फेंका यह उसे ज्ञात ही नहीं है वैसी ही स्थिति अनुभूति को नकारने वाले बुद्धिमानों की होगी । कुछ लोग स्वयं को जो ज्ञात नहीं है वह होता ही नहीं है ऐसा कहने वाले होते हैं। ये अहंकारी और क्षुद्र बुद्धिवाले होते हैं । भारत के बौद्धिक ऐसे नहीं हैं। यदि हैं तो उन्हें ऐसा रहना नहीं चाहिये । इसलिये अनुभूति को परम प्रमाण, स्वतः प्रमाण की प्रतिष्ठा मिलनी चाहिये । यह ज्ञानविश्व के हित में है । ज्ञानविश्व इससे परिष्कृत होगा, समृद्ध होगा, सिद्ध होगा । | | ४५. परन्तु अनुभूति को नकारना तो बुद्धिमानी नहीं है । एक अज्ञानी मनुष्य अपने पास के मूल्यवान रत्नों को जानता नहीं है इसलिये उन्हें काँच के क्षुछ्लक टुकडे मानकर फेंक देता है और उसे दुःख भी नहीं होता क्योंकि क्या फेंका यह उसे ज्ञात ही नहीं है वैसी ही स्थिति अनुभूति को नकारने वाले बुद्धिमानों की होगी । कुछ लोग स्वयं को जो ज्ञात नहीं है वह होता ही नहीं है ऐसा कहने वाले होते हैं। ये अहंकारी और क्षुद्र बुद्धिवाले होते हैं । भारत के बौद्धिक ऐसे नहीं हैं। यदि हैं तो उन्हें ऐसा रहना नहीं चाहिये । इसलिये अनुभूति को परम प्रमाण, स्वतः प्रमाण की प्रतिष्ठा मिलनी चाहिये । यह ज्ञानविश्व के हित में है । ज्ञानविश्व इससे परिष्कृत होगा, समृद्ध होगा, सिद्ध होगा । |
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− | ४६. इसके बाद भी अनुभूति की खोज तो शेष रह जाती है | विश्वविद्यालय के बाहर के क्षेत्र में अनुभूति प्राप्त व्यक्ति को सहज. पहचाना जा सकता है। सामान्यजन के पास भी पहचानने की सहज क्षमता होती है । परन्तु विश्वविद्यालय क्षेत्र श्रद्धावान नहीं होता है। पदवी, पद, प्रतिष्ठा और पैसा उसके अवरोध हैं । अतः विश्वविद्यालय के किसी शुद्ध अन्तःकरण युक्त अध्यापकों को अनुभूति प्राप्त करने की तपश्चर्या करनी चाहिये । अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर ज्ञान की उपासना करने वाले विद्वान को जब मंत्रदर्शन होता है तभी उसे ऋषि कहा जाता था । ऐसे ऋषि ही भारत में ज्ञान और विज्ञान के ज्ञाता और प्रवर्तक थे । ऐसे द्रष्टा अध्यापकों को विश्वविद्यालय क्षेत्र के बाहर भी अनुभूति प्राप्त ऋषि को पहचानना सम्भव होगा | | + | ४६. इसके बाद भी अनुभूति की खोज तो शेष रह जाती है | विश्वविद्यालय के बाहर के क्षेत्र में अनुभूति प्राप्त व्यक्ति को सहज. पहचाना जा सकता है। सामान्यजन के पास भी पहचानने की सहज क्षमता होती है । परन्तु विश्वविद्यालय क्षेत्र श्रद्धावान नहीं होता है। पदवी, पद, प्रतिष्ठा और पैसा उसके अवरोध हैं । अतः विश्वविद्यालय के किसी शुद्ध अन्तःकरण युक्त अध्यापकों को अनुभूति प्राप्त करने की तपश्चर्या करनी चाहिये । अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर ज्ञान की उपासना करने वाले विद्वान को जब मंत्रदर्शन होता है तभी उसे ऋषि कहा जाता था । ऐसे ऋषि ही भारत में ज्ञान और [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान] के ज्ञाता और प्रवर्तक थे । ऐसे द्रष्टा अध्यापकों को विश्वविद्यालय क्षेत्र के बाहर भी अनुभूति प्राप्त ऋषि को पहचानना सम्भव होगा | |
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| ४७. अभी पढ़ते समय ये बातें कपोल कल्पित लग सकती हैं परन्तु इनका बार बार उच्चारण होगा तो सम्भवता के दायरे में आती जायेंगी । परन्तु तब तक विश्वासपूर्वक हमने वेद्प्रामाण्य को मानना लाभकारी रहेगा ऐसी प्रमाण निश्चिति नहीं होगी तब तक धार्मिक शिक्षा की पुनप्रतिष्ठा की कल्पना भी हम नहीं कर सकते । विश्वविद्यालय भारत के ज्ञानप्रवाह के मूल हैं । वहीं पर यदि अनवस्था है तो शेष विश्व की सुस्थिति कैसे हो सकती है ? | | ४७. अभी पढ़ते समय ये बातें कपोल कल्पित लग सकती हैं परन्तु इनका बार बार उच्चारण होगा तो सम्भवता के दायरे में आती जायेंगी । परन्तु तब तक विश्वासपूर्वक हमने वेद्प्रामाण्य को मानना लाभकारी रहेगा ऐसी प्रमाण निश्चिति नहीं होगी तब तक धार्मिक शिक्षा की पुनप्रतिष्ठा की कल्पना भी हम नहीं कर सकते । विश्वविद्यालय भारत के ज्ञानप्रवाह के मूल हैं । वहीं पर यदि अनवस्था है तो शेष विश्व की सुस्थिति कैसे हो सकती है ? |