सभी व्यवस्थाओं का आधार पारिवारिक भावना होती थी। गुरू और शिष्य के संबंध (शिक्षा क्षेत्र) मानस पिता-पुत्र जैसे होते थे। विद्याकेन्द्र (गुरू) कुल होते थे। एक ही व्यवसाय करने वाले स्पर्धक नहीं जाति बांधव होते थे। गाँव के किसी की भी बेटी गाँव के प्रत्येक की बहन-बेटी होती थी। न्यायाधीश भी आप्तोप्त (अपराधी जैसे अपना आप्त हो) इस भावना से दण्ड देते थे। पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त का दण्डविधान में विशेष महत्व था। प्रजा (अर्थ है संतान) और राजा का संबंध संतान और पिता का सा होता था। हमारे बाजार भी परिवार भावना से चलते थे। वर्तमान प्रतिमान के कारण हमारे परिवार भी बाजार भावना से चलने लग गये हैं। | सभी व्यवस्थाओं का आधार पारिवारिक भावना होती थी। गुरू और शिष्य के संबंध (शिक्षा क्षेत्र) मानस पिता-पुत्र जैसे होते थे। विद्याकेन्द्र (गुरू) कुल होते थे। एक ही व्यवसाय करने वाले स्पर्धक नहीं जाति बांधव होते थे। गाँव के किसी की भी बेटी गाँव के प्रत्येक की बहन-बेटी होती थी। न्यायाधीश भी आप्तोप्त (अपराधी जैसे अपना आप्त हो) इस भावना से दण्ड देते थे। पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त का दण्डविधान में विशेष महत्व था। प्रजा (अर्थ है संतान) और राजा का संबंध संतान और पिता का सा होता था। हमारे बाजार भी परिवार भावना से चलते थे। वर्तमान प्रतिमान के कारण हमारे परिवार भी बाजार भावना से चलने लग गये हैं। |