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एक दो सुभाषित इस सन्दर्भ में ध्यान में लेने लायक हैं ...<blockquote>सुखार्थी चेतू त्यजेत्‌ विद्याम्‌</blockquote><blockquote>विद्यार्थी चेतू त्यजेतू सुखम्‌ ।</blockquote><blockquote>सुखार्थिन: कुत्तो विद्या विद्यार्थिन: कुत्तों सुखम्‌ ।।</blockquote>अर्थात सुख की इच्छा करने वाले को विद्या की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये क्योंकि सुख चाहने वाले को विद्या कैसे मिल सकती है और विद्या चाहने वाले को सुख कैसे मिल सकता है ? <blockquote>कामातुराणामू न भयम्‌ न लज्जा</blockquote><blockquote>अर्थातुराणांमू न गुरुर्न बंधु:</blockquote><blockquote>विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा</blockquote><blockquote>क्षुधातुराणां न रुचीर्न पक्वम्  ॥।</blockquote>अर्थात्‌ जो काम से आहत हो गया है उसे भय की लज्जा नहीं होती, जो अर्थ के पीछे पड़ गया है उसे कोई गुरु नहीं होता न कोई स्वजन, जिसे विद्या की चाह है उसे सुख या निद्रा की चाह नहीं होती और जो भूख से पीड़ित है उसे स्वाद की या पदार्थ पका है कि नहीं उसकी परवाह नहीं होती ।
 
एक दो सुभाषित इस सन्दर्भ में ध्यान में लेने लायक हैं ...<blockquote>सुखार्थी चेतू त्यजेत्‌ विद्याम्‌</blockquote><blockquote>विद्यार्थी चेतू त्यजेतू सुखम्‌ ।</blockquote><blockquote>सुखार्थिन: कुत्तो विद्या विद्यार्थिन: कुत्तों सुखम्‌ ।।</blockquote>अर्थात सुख की इच्छा करने वाले को विद्या की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये क्योंकि सुख चाहने वाले को विद्या कैसे मिल सकती है और विद्या चाहने वाले को सुख कैसे मिल सकता है ? <blockquote>कामातुराणामू न भयम्‌ न लज्जा</blockquote><blockquote>अर्थातुराणांमू न गुरुर्न बंधु:</blockquote><blockquote>विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा</blockquote><blockquote>क्षुधातुराणां न रुचीर्न पक्वम्  ॥।</blockquote>अर्थात्‌ जो काम से आहत हो गया है उसे भय की लज्जा नहीं होती, जो अर्थ के पीछे पड़ गया है उसे कोई गुरु नहीं होता न कोई स्वजन, जिसे विद्या की चाह है उसे सुख या निद्रा की चाह नहीं होती और जो भूख से पीड़ित है उसे स्वाद की या पदार्थ पका है कि नहीं उसकी परवाह नहीं होती ।
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विद्या प्राप्त करने के लिये इच्छुक व्यक्ति को सुविधाभोगी नहीं होना चाहिये यह हमेशा से कहा
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विद्या प्राप्त करने के लिये इच्छुक व्यक्ति को सुविधाभोगी नहीं होना चाहिये यह सदा से कहा
 
गया । प्राचीन काल में तो विद्याध्यायन करने वाले
 
गया । प्राचीन काल में तो विद्याध्यायन करने वाले
 
छात्र को ब्रह्मचारी ही कहा जाता था और ब्रह्मचारी के लिये अनेक सुविधाओं का निषेध बताया गया था । सर्व प्रकार के शृंगार उसके लिये निषिद्ध थे । उसका मनोवैज्ञानिक कारण था । यदि मन उन सुखों में रहेगा तो अध्ययन में एकाग्र होकर लगेगा ही नहीं । साथ ही यह भी मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मन जब अध्ययन में एकाग्र हुआ होता है तब अन्य सुखसुविधाओं का स्मरण भी नहीं होता । विद्याध्यायन का आनन्द बुद्धि का आनन्द है । जब बुद्धि का आनन्द प्राप्त होता है तब इंद्रियों का आनन्द सुख नहीं देता । इसलिये भी विद्याध्यायन के समय और बातों का स्मरण नहीं होता और श्रृंगार आदि की आवश्यकता नहीं लगती।  
 
छात्र को ब्रह्मचारी ही कहा जाता था और ब्रह्मचारी के लिये अनेक सुविधाओं का निषेध बताया गया था । सर्व प्रकार के शृंगार उसके लिये निषिद्ध थे । उसका मनोवैज्ञानिक कारण था । यदि मन उन सुखों में रहेगा तो अध्ययन में एकाग्र होकर लगेगा ही नहीं । साथ ही यह भी मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मन जब अध्ययन में एकाग्र हुआ होता है तब अन्य सुखसुविधाओं का स्मरण भी नहीं होता । विद्याध्यायन का आनन्द बुद्धि का आनन्द है । जब बुद्धि का आनन्द प्राप्त होता है तब इंद्रियों का आनन्द सुख नहीं देता । इसलिये भी विद्याध्यायन के समय और बातों का स्मरण नहीं होता और श्रृंगार आदि की आवश्यकता नहीं लगती।  
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एक परिवार में छोटा बेटा, मातापिता और दादीमाँ ऐसे चार लोग होते थे । रात्रि में भोजन आदि से निपटकर पतिपत्नी कुछ चलने के लिये जाते थे। उस समय छोटा बालक भी साथ जाना चाहता था । उसे साथ लेकर घूमने जाना मातापिता को सुविधाजनक नहीं लगता था । वह चल नहीं सकता था, उसे उठाना पड़ेगा । वह रास्ते में ही सो जाता था। इसलिये उन्होंने सोचा कि वह सो जायेगा फिर जायेंगे । दादीमां ने ही यह उपाय सुझाया था । परन्तु बालक ने सुन लिया । इसलिये वह मातापिता नहीं सोते थे तब तक सोने के लिये भी तैयार नहीं था। फिर माता कपडे बदल लेती, साथ में सुलाती और कहानी बताती । बालक सो जाता तब फिर दोनों घूमने के लिये जाते । कुछ दिन यह क्रम ठीक चला । एक दिन बालक पूरा नहीं सोया था और माता को लगा कि सो गया, तब वे दोनों घूमने गये । इधर कहानी की आवाज बन्द हो गई इसलिये बालक जागा । उसने देखा कि माँ नहीं है । वह रोने लगा । दादीमाँ ने कहा कि घूमने गये हैं, अभी आ जायेंगे । बालक और जोर से रोने लगा। थोड़ी ही देर में मातापिता आ गये । बालक ने यह नहीं पूछा कि मुझे छोडकर क्यों गये । उसने पूछा कि मुझसे झूठ क्यों बोले ?
 
एक परिवार में छोटा बेटा, मातापिता और दादीमाँ ऐसे चार लोग होते थे । रात्रि में भोजन आदि से निपटकर पतिपत्नी कुछ चलने के लिये जाते थे। उस समय छोटा बालक भी साथ जाना चाहता था । उसे साथ लेकर घूमने जाना मातापिता को सुविधाजनक नहीं लगता था । वह चल नहीं सकता था, उसे उठाना पड़ेगा । वह रास्ते में ही सो जाता था। इसलिये उन्होंने सोचा कि वह सो जायेगा फिर जायेंगे । दादीमां ने ही यह उपाय सुझाया था । परन्तु बालक ने सुन लिया । इसलिये वह मातापिता नहीं सोते थे तब तक सोने के लिये भी तैयार नहीं था। फिर माता कपडे बदल लेती, साथ में सुलाती और कहानी बताती । बालक सो जाता तब फिर दोनों घूमने के लिये जाते । कुछ दिन यह क्रम ठीक चला । एक दिन बालक पूरा नहीं सोया था और माता को लगा कि सो गया, तब वे दोनों घूमने गये । इधर कहानी की आवाज बन्द हो गई इसलिये बालक जागा । उसने देखा कि माँ नहीं है । वह रोने लगा । दादीमाँ ने कहा कि घूमने गये हैं, अभी आ जायेंगे । बालक और जोर से रोने लगा। थोड़ी ही देर में मातापिता आ गये । बालक ने यह नहीं पूछा कि मुझे छोडकर क्यों गये । उसने पूछा कि मुझसे झूठ क्यों बोले ?
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अविश्वास का प्रारम्भ ऐसे होता है । इन मातापिता ने किया ऐसा व्यवहार तो लोग हमेशा करते हैं, निर्दोषता से करते हैं । इसे झूठ नहीं कहते, व्यवहार कहते हैं । परन्तु इससे विश्वसनीयता गँवाते हैं और विश्वास नहीं करना सिखाते हैं ।
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अविश्वास का प्रारम्भ ऐसे होता है । इन मातापिता ने किया ऐसा व्यवहार तो लोग सदा करते हैं, निर्दोषता से करते हैं । इसे झूठ नहीं कहते, व्यवहार कहते हैं । परन्तु इससे विश्वसनीयता गँवाते हैं और विश्वास नहीं करना सिखाते हैं ।
    
एक व्यापारी पिता की कथा पढ़ी थी । अपने छोटे पुत्र को वह ऊँचाई से छलाँग लगाने के लिये प्रेरित कर रहे
 
एक व्यापारी पिता की कथा पढ़ी थी । अपने छोटे पुत्र को वह ऊँचाई से छलाँग लगाने के लिये प्रेरित कर रहे
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इस प्रकार विद्यालय में शिक्षकों की और से विश्वास करने का प्रारम्भ करना चाहिये फिर विद्यार्थियों को आपस में विश्वास करना सिखाना चाहिये । कोई झूठ क्यों बोलेगा ऐसा एक वातावरण बनाना चाहिये । कभी कभी कोई विद्यार्थी अपने मातापिता झूठ बोलते हैं ऐसी शिकायत करता है। तब विद्यार्थी से कोई बात न करते हुए मातापिता से इस विषय में बात करनी चाहिये । परन्तु ऐसा करने में बहुत सावधानी रखनी चाहिये क्योंकि नहीं तो मातापिता अपने बालक को ही क्यों शिक्षक को बताते हो ?' कहकर डाँटेंगे ।
 
इस प्रकार विद्यालय में शिक्षकों की और से विश्वास करने का प्रारम्भ करना चाहिये फिर विद्यार्थियों को आपस में विश्वास करना सिखाना चाहिये । कोई झूठ क्यों बोलेगा ऐसा एक वातावरण बनाना चाहिये । कभी कभी कोई विद्यार्थी अपने मातापिता झूठ बोलते हैं ऐसी शिकायत करता है। तब विद्यार्थी से कोई बात न करते हुए मातापिता से इस विषय में बात करनी चाहिये । परन्तु ऐसा करने में बहुत सावधानी रखनी चाहिये क्योंकि नहीं तो मातापिता अपने बालक को ही क्यों शिक्षक को बताते हो ?' कहकर डाँटेंगे ।
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तीसरा चरण है विश्वसनीय होने का। दूसरों का विश्वास करते समय अपना भी विश्वास सबको करना चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है। लोग विश्वास नहीं करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु हमेशा प्रमाण देना आवश्यक नहीं है। बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि प्रमाणके बिना मेरा विश्वास नहीं किया जा सकता। अतः शिक्षक स्वयं, सामने वाला विश्वास करे कि न करे, विश्वसनीय बनें और विद्यार्थियों को विश्वसनीय बनाने हेतु प्रेरित करें। विद्यार्थी की विश्वसनीयता की परीक्षा अप्रत्यक्षरूप से करें । उससे प्रमाण भी बार बार न माँगे कदाचित एक बार भी न माँगे।  
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तीसरा चरण है विश्वसनीय होने का। दूसरों का विश्वास करते समय अपना भी विश्वास सबको करना चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है। लोग विश्वास नहीं करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु सदा प्रमाण देना आवश्यक नहीं है। बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि प्रमाणके बिना मेरा विश्वास नहीं किया जा सकता। अतः शिक्षक स्वयं, सामने वाला विश्वास करे कि न करे, विश्वसनीय बनें और विद्यार्थियों को विश्वसनीय बनाने हेतु प्रेरित करें। विद्यार्थी की विश्वसनीयता की परीक्षा अप्रत्यक्षरूप से करें । उससे प्रमाण भी बार बार न माँगे कदाचित एक बार भी न माँगे।  
    
अप्रत्यक्षरूप से यदि पता चले कि वह विश्वास योग्य नहीं है तो भी सीधा डाँटने से या उसे दूसरों के समक्ष गिराने से वह विश्वसनीय नहीं बनेगा । उसे अकेले
 
अप्रत्यक्षरूप से यदि पता चले कि वह विश्वास योग्य नहीं है तो भी सीधा डाँटने से या उसे दूसरों के समक्ष गिराने से वह विश्वसनीय नहीं बनेगा । उसे अकेले
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चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है । लोग विश्वास नहीं
 
चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है । लोग विश्वास नहीं
 
करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर
 
करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर
विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु हमेशा प्रमाण देना
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विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु सदा प्रमाण देना
 
आवश्यक नहीं है । बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति
 
आवश्यक नहीं है । बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति
 
अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि
 
अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि

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