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स्थापित करना भी अत्यन्त आवश्यक है। समाज में अनेक सम्प्रदायों का होना अस्वाभाविक नहीं है । भिन्न भिन्न रुचि के लोग भिन्न भिन्न सम्प्रदायों को स्वीकार कर भिन्न भिन्न देवों की उपासना कर सकते हैं । इसे तो भारत में प्राचीन समय से मान्यता है । परन्तु संकुचित मानस वाले लोग अपने ही सम्प्रदाय को सर्वश्रेष्ठ मानकर अन्य सम्प्रदायों की निंन्दा करते हैं । इससे जो साम्प्रदायिक विट्वरेष निर्माण होता है वह समाज के सन्तुलन को भारी मात्रा में बिगाडता है । ऐसा न हो इस दृष्टि से हरेक सम्प्रदाय के आचार्य ने अपने अनुयायिओं को अन्य सम्प्रदायों का आदर करना सिखाना चाहिये ।  
 
स्थापित करना भी अत्यन्त आवश्यक है। समाज में अनेक सम्प्रदायों का होना अस्वाभाविक नहीं है । भिन्न भिन्न रुचि के लोग भिन्न भिन्न सम्प्रदायों को स्वीकार कर भिन्न भिन्न देवों की उपासना कर सकते हैं । इसे तो भारत में प्राचीन समय से मान्यता है । परन्तु संकुचित मानस वाले लोग अपने ही सम्प्रदाय को सर्वश्रेष्ठ मानकर अन्य सम्प्रदायों की निंन्दा करते हैं । इससे जो साम्प्रदायिक विट्वरेष निर्माण होता है वह समाज के सन्तुलन को भारी मात्रा में बिगाडता है । ऐसा न हो इस दृष्टि से हरेक सम्प्रदाय के आचार्य ने अपने अनुयायिओं को अन्य सम्प्रदायों का आदर करना सिखाना चाहिये ।  
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५५. अपने सम्प्रदाय के साथ ही अन्य सम्प्रदायों का ज्ञान भी देना चाहिये तथा धर्म कया है और अपना सम्प्रदाय उस धर्म का ही अंग कैसे है यह खास सिखाना चाहिये । इस दृष्टि से सारे सम्प्रदाय हिन्दु धर्म के ही अंग हैं ऐसा कहने में धर्माचार्यों को संकोच नहीं करना चाहिये । हिन्दू धर्म को ही भारत में “मानव धर्म' अथवा “धर्म' कहा गया है और वह सनातन है ऐसा प्रतिपादन भी बार बार किया गया है । यदि कुछ सम्प्रदायों को 'हिन्दु धर्म' ऐसी संज्ञा स्वीकार्य न हो तो बिना किसी विशेषण के केवल “धर्म' संज्ञा का प्रयोग कर अपने सम्प्रदाय को उस धर्म के प्रकाश में व्याख्यायित करना चाहिये |
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५५. अपने सम्प्रदाय के साथ ही अन्य सम्प्रदायों का ज्ञान भी देना चाहिये तथा धर्म क्या है और अपना सम्प्रदाय उस धर्म का ही अंग कैसे है यह खास सिखाना चाहिये । इस दृष्टि से सारे सम्प्रदाय हिन्दु धर्म के ही अंग हैं ऐसा कहने में धर्माचार्यों को संकोच नहीं करना चाहिये । हिन्दू धर्म को ही भारत में “मानव धर्म' अथवा “धर्म' कहा गया है और वह सनातन है ऐसा प्रतिपादन भी बार बार किया गया है । यदि कुछ सम्प्रदायों को 'हिन्दु धर्म' ऐसी संज्ञा स्वीकार्य न हो तो बिना किसी विशेषण के केवल “धर्म' संज्ञा का प्रयोग कर अपने सम्प्रदाय को उस धर्म के प्रकाश में व्याख्यायित करना चाहिये |
    
५६. भारत में यदि सर्वाधिक विट्रेष है तो वह इस्लाम और इसाई पंथ तथा हिन्दु धर्म के मध्य है । इसका मूल कारण मानस में ही पडा है। ये दोनों पंथ सहअस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं । इस्लाम कहता है कि जो मुसलमान नहीं वह नापाक अर्थात्‌ अपवित्र है, उसे मुसलमान बनकर पाक बनना चाहिये, उसे पाक बनाना सच्चे मुसलमान का पवित्र कर्तव्य है और कोई यदि मुसलमान बनकर पाक बनना नहीं चाहता है और नापाक ही रहना चाहता है तो उसे जीवित नहीं रहने देने से मुसलमान को जन्नत अर्थात्‌ स्वर्ग मिलता है । अर्थात्‌ सम्पूर्ण विश्व में मुसलमान को ही जीवित रहने का अधिकार है ।
 
५६. भारत में यदि सर्वाधिक विट्रेष है तो वह इस्लाम और इसाई पंथ तथा हिन्दु धर्म के मध्य है । इसका मूल कारण मानस में ही पडा है। ये दोनों पंथ सहअस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं । इस्लाम कहता है कि जो मुसलमान नहीं वह नापाक अर्थात्‌ अपवित्र है, उसे मुसलमान बनकर पाक बनना चाहिये, उसे पाक बनाना सच्चे मुसलमान का पवित्र कर्तव्य है और कोई यदि मुसलमान बनकर पाक बनना नहीं चाहता है और नापाक ही रहना चाहता है तो उसे जीवित नहीं रहने देने से मुसलमान को जन्नत अर्थात्‌ स्वर्ग मिलता है । अर्थात्‌ सम्पूर्ण विश्व में मुसलमान को ही जीवित रहने का अधिकार है ।
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=== संचार माध्यम का प्रभाव ===
 
=== संचार माध्यम का प्रभाव ===
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६२. जनमानस को अत्यन्त प्रभावी ढंग से उद्देलित करने वाला एक कारक है मीडिया । समाचार पत्रों तथा टीवी की समाचार वाहिनियों ने बाजार का हिस्सा बनकर ऐसा कहर ढाना आरम्भ किया है कि प्रजा की स्वयं विचार करने की, स्वयं आकलन करने की शक्ति ही क्षीण हो गई है । अपने ही समाज का, सरकार का, देश का, शिक्षा का, अर्थव्यवस्था का अत्यन्त नकारात्मक चित्र इन समाचार माध्यमों में प्रस्तुत किया जाता है और मानस को आतंकित करता है । अखबारों के सभी पन्नों पर टीवी समाचारों के सभी अंशों में दुर्घटनायें, गुंडागर्दी, मारकाट, बलात्कार, आगजनी, आतंक, प्रदर्शन कारियों के विरोध प्रदर्शन, पुलीस का अत्याचार दिखाया जाता है । चित्र ऐसा उभरता है जैसे इस देश में दया, करुणा, प्रामाणिकता, उदारता, सुरक्षा, शान्ति जैसा कुछ है ही नहीं । शिक्षा धन, सद्गुणआदि का अभाव ही है। क्रिकेट और फिल्मों के समाचारों की भरमार है, शेरबाजार की प्रतिष्ठा है परन्तु प्रेरणादायक घटनाओं का सर्वथा अभाव है । ऐसे में प्रजा अपने आपको दीनहीन असुरक्षित माने इस में कया आश्चर्य है ?
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६२. जनमानस को अत्यन्त प्रभावी ढंग से उद्देलित करने वाला एक कारक है मीडिया । समाचार पत्रों तथा टीवी की समाचार वाहिनियों ने बाजार का हिस्सा बनकर ऐसा कहर ढाना आरम्भ किया है कि प्रजा की स्वयं विचार करने की, स्वयं आकलन करने की शक्ति ही क्षीण हो गई है । अपने ही समाज का, सरकार का, देश का, शिक्षा का, अर्थव्यवस्था का अत्यन्त नकारात्मक चित्र इन समाचार माध्यमों में प्रस्तुत किया जाता है और मानस को आतंकित करता है । अखबारों के सभी पन्नों पर टीवी समाचारों के सभी अंशों में दुर्घटनायें, गुंडागर्दी, मारकाट, बलात्कार, आगजनी, आतंक, प्रदर्शन कारियों के विरोध प्रदर्शन, पुलीस का अत्याचार दिखाया जाता है । चित्र ऐसा उभरता है जैसे इस देश में दया, करुणा, प्रामाणिकता, उदारता, सुरक्षा, शान्ति जैसा कुछ है ही नहीं । शिक्षा धन, सद्गुणआदि का अभाव ही है। क्रिकेट और फिल्मों के समाचारों की भरमार है, शेरबाजार की प्रतिष्ठा है परन्तु प्रेरणादायक घटनाओं का सर्वथा अभाव है । ऐसे में प्रजा अपने आपको दीनहीन असुरक्षित माने इस में क्या आश्चर्य है ?
    
६३. संचार माध्यमों का सही ढंग से मार्गदर्शन करने का काम विश्वविद्यालयों के मनोविज्ञान विभाग का है । अभी तो सारे माध्यम बाजार के हि हिस्से बने हुए हैं और अपनी कमाई का ही विचार करते हैं । परन्तु जनमानस प्रबोधन करना उनका प्रथम कर्तव्य है । इस कर्तव्य की घोर उपेक्षा हो रही है ।
 
६३. संचार माध्यमों का सही ढंग से मार्गदर्शन करने का काम विश्वविद्यालयों के मनोविज्ञान विभाग का है । अभी तो सारे माध्यम बाजार के हि हिस्से बने हुए हैं और अपनी कमाई का ही विचार करते हैं । परन्तु जनमानस प्रबोधन करना उनका प्रथम कर्तव्य है । इस कर्तव्य की घोर उपेक्षा हो रही है ।

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