८. इसीसे यह बात भी विचारणीय हो जाती है कि विस्तार और विकास का सन्तुलन कैसे बिठायें । दोनों में पूर्ण शक्ति की आवश्यकता है । दोनों का समान महत्त्व है । एक के बिना दूसरा प्रभावी नहीं बन सकता । परन्तु विस्तार के प्रति संगठन का आकर्षण अधिक रहता है । विस्तार को संगठन का मूल कार्य माना जाता है, विकास को आनुषंगिक, इसलिये अधिक शक्ति विस्तार कार्य में लगती है । विकास उपेक्षित हो जाता है । | ८. इसीसे यह बात भी विचारणीय हो जाती है कि विस्तार और विकास का सन्तुलन कैसे बिठायें । दोनों में पूर्ण शक्ति की आवश्यकता है । दोनों का समान महत्त्व है । एक के बिना दूसरा प्रभावी नहीं बन सकता । परन्तु विस्तार के प्रति संगठन का आकर्षण अधिक रहता है । विस्तार को संगठन का मूल कार्य माना जाता है, विकास को आनुषंगिक, इसलिये अधिक शक्ति विस्तार कार्य में लगती है । विकास उपेक्षित हो जाता है । |