किंतु मनुष्य का ऐसा नहीं है। वह पशु से अधिक बुद्धि रखता है। विचार करने वाला मन रखता है। इस लिये वह प्रयास करता है कि प्राणिक आवेगों की पूर्ति की व्यवस्था निरंतर बनीं रहे। पशु जैसा ही मनुष्य भी अपने आवेगों की पूर्ति में आने वाले किसी अवरोध को पसंद नहीं करता। बुद्धि के कारण वह अपने मृत्यू के या अभाव के 'भय' के आवेग से बचने के लिये आवेगों की पूर्ति होती रहे इस की व्यवस्था करता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हो, यहाँ तक अपने विषय में जैसे पशु सोचता है वैसा सोचना यह तो मनुष्य के लिये भी स्वाभाविक ही है। किंतु जब वह आवश्यकताओं से अधिक का संचय और अन्यों की आवश्यकताओं पर अतिक्रमण करता है तो वह विरोध, संघर्ष आदि निर्माण करता है। इस तरह अपने काम यानी इच्छाओं के और मोह के प्रभाव में जब वह होता है तो समाज की शांति का भंग होता है। जब समाज में जिनका काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे लोगों की बहुलता हो जाती है तो समाज में अराजक हो गया माना जाता है। काम और मोह ये मन की भावनाएँ होतीं हैं। काम और मोह को नियंत्रण में रखना सिखाने को ही 'शिक्षा' कहते हैं। | किंतु मनुष्य का ऐसा नहीं है। वह पशु से अधिक बुद्धि रखता है। विचार करने वाला मन रखता है। इस लिये वह प्रयास करता है कि प्राणिक आवेगों की पूर्ति की व्यवस्था निरंतर बनीं रहे। पशु जैसा ही मनुष्य भी अपने आवेगों की पूर्ति में आने वाले किसी अवरोध को पसंद नहीं करता। बुद्धि के कारण वह अपने मृत्यू के या अभाव के 'भय' के आवेग से बचने के लिये आवेगों की पूर्ति होती रहे इस की व्यवस्था करता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हो, यहाँ तक अपने विषय में जैसे पशु सोचता है वैसा सोचना यह तो मनुष्य के लिये भी स्वाभाविक ही है। किंतु जब वह आवश्यकताओं से अधिक का संचय और अन्यों की आवश्यकताओं पर अतिक्रमण करता है तो वह विरोध, संघर्ष आदि निर्माण करता है। इस तरह अपने काम यानी इच्छाओं के और मोह के प्रभाव में जब वह होता है तो समाज की शांति का भंग होता है। जब समाज में जिनका काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे लोगों की बहुलता हो जाती है तो समाज में अराजक हो गया माना जाता है। काम और मोह ये मन की भावनाएँ होतीं हैं। काम और मोह को नियंत्रण में रखना सिखाने को ही 'शिक्षा' कहते हैं। |