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| == प्रस्तावना == | | == प्रस्तावना == |
− | वैसे तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक के धार्मिक (भारतीय) साहित्य में समृद्धि शास्त्र का कहीं भी उल्लेख किया हुआ नहीं मिलता। भारत में अर्थशास्त्र शब्द का चलन काफी पुराना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के लेखन से भी बहुत पुराना है। इकोनोमिक्स के लिए अर्थशास्त्र सही प्रतिशब्द नहीं है। अर्थशास्त्र समूचे जीवन को व्यापने वाला विषय है। धर्म मानव के जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला नियामक तत्व है। जीवन के विभिन्न आयामों का निर्माण ही काम और काम की पूर्ति के लिए किये गए अर्थ पुरुषार्थ के कारण होता है। इसलिए यदि हम मानते हैं कि धर्म मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला विषय है तो “काम” और “अर्थ” ये पुरुषार्थ भी मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाले विषय हैं, ऐसा मानना होगा। | + | वैसे तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक के धार्मिक (भारतीय) साहित्य में समृद्धि शास्त्र का कहीं भी उल्लेख किया हुआ नहीं मिलता। भारत में अर्थशास्त्र शब्द का चलन काफी पुराना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के लेखन से भी बहुत पुराना है। इकोनोमिक्स के लिए अर्थशास्त्र सही प्रतिशब्द नहीं है। अर्थशास्त्र समूचे जीवन को व्यापने वाला विषय है। धर्म मानव के जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला नियामक तत्व है। जीवन के विभिन्न आयामों का निर्माण ही काम और काम की पूर्ति के लिए किये गए अर्थ पुरुषार्थ के कारण होता है। अतः यदि हम मानते हैं कि धर्म मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला विषय है तो “काम” और “अर्थ” ये पुरुषार्थ भी मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाले विषय हैं, ऐसा मानना होगा। |
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| इस दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी “अर्थ” के सभी आयामों का परामर्श नहीं लेता है। उसमें प्रमुखत: शासन और प्रशासन से सम्बन्धित विषय का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया हुआ है। अर्थशास्त्र इकोनोमिक्स जैसा केवल “धन” तक सीमित विषय नहीं है। वास्तव में “सम्पत्ति शास्त्र” यह शायद इकोनोमिक्स का लगभग सही अनुवाद होगा। लेकिन भारत में सम्पत्ति शास्त्र का नहीं समृद्धि शास्त्र का चलन था। सम्पत्ति व्यक्तिगत होती है जब की समृद्धि समाज की होती है। व्यक्ति “सम्पन्न” होता है समाज “समृद्ध” होता है। समृद्धि शास्त्र का अर्थ है समाज को समृद्ध बनाने का शास्त्र। धन और संसाधनों का वितरण समाज में अच्छा होने से समाज समृद्ध बनता है। वर्तमान में हम भारत में भी इकोनोमिक्स को ही अर्थशास्त्र कहते हैं। हम विविध प्रमुख शास्त्रों के अन्गांगी संबंधों की निम्न तालिका देखेंगे तो समृद्धि शास्त्र का दायरा स्पष्ट हो सकेगा। | | इस दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी “अर्थ” के सभी आयामों का परामर्श नहीं लेता है। उसमें प्रमुखत: शासन और प्रशासन से सम्बन्धित विषय का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया हुआ है। अर्थशास्त्र इकोनोमिक्स जैसा केवल “धन” तक सीमित विषय नहीं है। वास्तव में “सम्पत्ति शास्त्र” यह शायद इकोनोमिक्स का लगभग सही अनुवाद होगा। लेकिन भारत में सम्पत्ति शास्त्र का नहीं समृद्धि शास्त्र का चलन था। सम्पत्ति व्यक्तिगत होती है जब की समृद्धि समाज की होती है। व्यक्ति “सम्पन्न” होता है समाज “समृद्ध” होता है। समृद्धि शास्त्र का अर्थ है समाज को समृद्ध बनाने का शास्त्र। धन और संसाधनों का वितरण समाज में अच्छा होने से समाज समृद्ध बनता है। वर्तमान में हम भारत में भी इकोनोमिक्स को ही अर्थशास्त्र कहते हैं। हम विविध प्रमुख शास्त्रों के अन्गांगी संबंधों की निम्न तालिका देखेंगे तो समृद्धि शास्त्र का दायरा स्पष्ट हो सकेगा। |
| [[File:Part 2 Chapter 3 Table.jpg|center|thumb|720x720px]] | | [[File:Part 2 Chapter 3 Table.jpg|center|thumb|720x720px]] |
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− | किसी भी सुखी समाज के रथ के संस्कृति और समृद्धि ये दो पहियें होते हैं। बिना संस्कृति के समृद्धि आसुरी मानसिकता निर्माण करती है। और बिना समृद्धि के संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती। उपर्युक्त तालिका से भी यही बात समझ में आती है। संस्कृति और समृद्धि दोनों को मिलाकर मानव जीवन श्रेष्ठ बनता है। इस विस्तृत दायरे का शास्त्र मानव धर्म शास्त्र या समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र है। यह मानव धर्मशास्त्र व्यापक धर्मशास्त्र का अंग है। सामान्यत: सांस्कृतिक शास्त्र का और समृद्धि शास्त्र का अंगांगी सम्बन्ध प्राकृतिक शास्त्र के तीनों पहलुओं से होता है। वनस्पति शास्त्र, प्राणी शास्त्र और भौतिक शास्त्र ये तीनों समृद्धि शास्त्र के लिए अनिवार्य हिस्से हैं। इनके बिना समृद्धि संभव नहीं है। वास्तव में इन तीनों शास्त्रों के ज्ञान के बिना तो मनुष्य का जीना ही कठिन है। इसलिए समृद्धि शास्त्र का विचार करते समय मानव के सांस्कृतिक पक्ष का और तीनों प्राकृतिक शास्त्रों का विचार आवश्यक है। प्राकृतिक शास्त्रों के विचार में मानव के प्राणी (प्राणिक आवेग) पक्ष का भी विचार विशेष रूप से करना आवश्यक है। समृद्धि शास्त्र के नियामक धर्मशास्त्र के हिस्से को ही सांस्कृतिक शास्त्र कहते हैं।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३३, लेखक - दिलीप केलकर</ref> | + | किसी भी सुखी समाज के रथ के संस्कृति और समृद्धि ये दो पहियें होते हैं। बिना संस्कृति के समृद्धि आसुरी मानसिकता निर्माण करती है। और बिना समृद्धि के संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती। उपर्युक्त तालिका से भी यही बात समझ में आती है। संस्कृति और समृद्धि दोनों को मिलाकर मानव जीवन श्रेष्ठ बनता है। इस विस्तृत दायरे का शास्त्र मानव धर्म शास्त्र या समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र है। यह मानव धर्मशास्त्र व्यापक धर्मशास्त्र का अंग है। सामान्यत: सांस्कृतिक शास्त्र का और समृद्धि शास्त्र का अंगांगी सम्बन्ध प्राकृतिक शास्त्र के तीनों पहलुओं से होता है। वनस्पति शास्त्र, प्राणी शास्त्र और भौतिक शास्त्र ये तीनों समृद्धि शास्त्र के लिए अनिवार्य हिस्से हैं। इनके बिना समृद्धि संभव नहीं है। वास्तव में इन तीनों शास्त्रों के ज्ञान के बिना तो मनुष्य का जीना ही कठिन है। अतः समृद्धि शास्त्र का विचार करते समय मानव के सांस्कृतिक पक्ष का और तीनों प्राकृतिक शास्त्रों का विचार आवश्यक है। प्राकृतिक शास्त्रों के विचार में मानव के प्राणी (प्राणिक आवेग) पक्ष का भी विचार विशेष रूप से करना आवश्यक है। समृद्धि शास्त्र के नियामक धर्मशास्त्र के हिस्से को ही सांस्कृतिक शास्त्र कहते हैं।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३३, लेखक - दिलीप केलकर</ref> |
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| == वर्तमान विश्व की इकोनोमिक स्थिती == | | == वर्तमान विश्व की इकोनोमिक स्थिती == |
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| इस प्रक्रिया में बहुजन समाज अपनी स्वतन्त्रता को खो बैठता है। स्वतन्त्रता तो मानव जीवन का सामाजिक स्तर का अन्तिम लक्ष्य है। समाज अपने इस लक्ष्य से दूर हो जाता है। स्वतन्त्रता का क्षरण धीरे धीरे होता है। सामान्य मनुष्य यह समझ ही नहीं पाता कि उसकी स्वतन्त्रता कम होती जा रही है। | | इस प्रक्रिया में बहुजन समाज अपनी स्वतन्त्रता को खो बैठता है। स्वतन्त्रता तो मानव जीवन का सामाजिक स्तर का अन्तिम लक्ष्य है। समाज अपने इस लक्ष्य से दूर हो जाता है। स्वतन्त्रता का क्षरण धीरे धीरे होता है। सामान्य मनुष्य यह समझ ही नहीं पाता कि उसकी स्वतन्त्रता कम होती जा रही है। |
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− | वर्तमान इकोनोमिक्स की आर्थिक मानव, निरंतर आर्थिक विकास, इकोनोमी ऑफ़ वान्ट्स प्रकृति पर विजय पाने की राक्षसी महत्वाकांक्षा, ग्लोबलायझेशन आदि संकल्पनाओं के कारण विकट परिस्थितियाँ निर्माण हो गईं हैं। धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि और उस दृष्टि के आधार से निर्माण की गयी समृद्धि व्यवस्था इस विकटता से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य रखती है। धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय व्यवस्था में भी धर्म ही सर्वोपरि होता है। धर्म के विषय में हमने पूर्व में ही जाना है। चर और अचर सृष्टि के सभी घटकों के हित में काम करने की दृष्टि से किये गए व्यवहार को ही धर्म कहते हैं। धर्म विश्व व्यवस्था के नियम हैं। इसलिए धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि का अध्ययन, अनुसंधान एवं पुनर्प्रतिष्ठा आज और भी प्रासंगिक बन गए हैं। | + | वर्तमान इकोनोमिक्स की आर्थिक मानव, निरंतर आर्थिक विकास, इकोनोमी ऑफ़ वान्ट्स प्रकृति पर विजय पाने की राक्षसी महत्वाकांक्षा, ग्लोबलायझेशन आदि संकल्पनाओं के कारण विकट परिस्थितियाँ निर्माण हो गईं हैं। धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि और उस दृष्टि के आधार से निर्माण की गयी समृद्धि व्यवस्था इस विकटता से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य रखती है। धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय व्यवस्था में भी धर्म ही सर्वोपरि होता है। धर्म के विषय में हमने पूर्व में ही जाना है। चर और अचर सृष्टि के सभी घटकों के हित में काम करने की दृष्टि से किये गए व्यवहार को ही धर्म कहते हैं। धर्म विश्व व्यवस्था के नियम हैं। अतः धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि का अध्ययन, अनुसंधान एवं पुनर्प्रतिष्ठा आज और भी प्रासंगिक बन गए हैं। |
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| == उपभोग नीति == | | == उपभोग नीति == |
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| == प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग के व्यावहारिक सूत्र == | | == प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग के व्यावहारिक सूत्र == |
| भारतीय उपभोग दृष्टि को ध्यान में रखकर जो निष्कर्ष निकाले जा सकते है वे निम्न हैं: | | भारतीय उपभोग दृष्टि को ध्यान में रखकर जो निष्कर्ष निकाले जा सकते है वे निम्न हैं: |
− | # प्रकृति सीमित है। प्रकृति में संसाधनों की मात्रा सीमित है। मनुष्य की इच्छाएं असीम हैं। उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखने से उपभोग की इच्छा बढ़ती जाती है। यह अग्नि में घी डालकर उसे बुझाने जैसा है। इससे आग कभी नहीं बुझती। इसलिए स्थल और काल की अखण्डता को ध्यान में रखकर उपभोग को सीमित रखने की आवश्यकता है। संयमित अनिवार्य उपभोग की आदत बचपन से ही डालने की आवश्यकता है। यह काम कुटुम्ब शिक्षा से आरम्भ होना चाहिए। | + | # प्रकृति सीमित है। प्रकृति में संसाधनों की मात्रा सीमित है। मनुष्य की इच्छाएं असीम हैं। उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखने से उपभोग की इच्छा बढ़ती जाती है। यह अग्नि में घी डालकर उसे बुझाने जैसा है। इससे आग कभी नहीं बुझती। अतः स्थल और काल की अखण्डता को ध्यान में रखकर उपभोग को सीमित रखने की आवश्यकता है। संयमित अनिवार्य उपभोग की आदत बचपन से ही डालने की आवश्यकता है। यह काम कुटुम्ब शिक्षा से आरम्भ होना चाहिए। |
| # अनविकरणीय संसाधनों का उपयोग अत्यंत अनिवार्य होनेपर ही करना ठीक होगा। जहॉतक संभव है नविकरणीय संसाधनों से ही आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिये। | | # अनविकरणीय संसाधनों का उपयोग अत्यंत अनिवार्य होनेपर ही करना ठीक होगा। जहॉतक संभव है नविकरणीय संसाधनों से ही आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिये। |
| # अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों का उपयोग न्यूनतम करना चाहिये। | | # अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों का उपयोग न्यूनतम करना चाहिये। |
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| भारतीय समृद्धि शास्त्र के मानव से जुड़े पाँच प्रमुख स्तंभ हैं। पहला है कौटुम्बिक उद्योग, दूसरा है ग्रामकुल, तीसरा है व्यावसायिक कौशल विधा व्यवस्था और चौथा है राष्ट्र। इन चारों के विषय में हमने अलग अलग इकाईयों के स्वरूप में पूर्व में जाना है। लेकिन इनके साथ में ही एक और महत्वपूर्ण स्तंभ “प्रकृति” है। प्राकृतिक संसाधनों के बिना जीना संभव ही नहीं है। थोड़ा गहराई से विचार करने से हमें ध्यान में आएगा कि स्त्री पुरुष सहजीवन, जीने के लिए परस्परावलंबन, कौशल विधाओं की आनुवांशिकता तथा समान जीवन दृष्टि वाले समाज की समान आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सहजीवन की आवश्यकता ये भी सभी प्राकृतिक बातें ही हैं। इन्हें जब व्यवस्थित किया जाता है तब कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा (पूर्व में जिसे जाति कहते थे) और राष्ट्र की व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। यह व्यवस्थित करने का काम मानवीय है। | | भारतीय समृद्धि शास्त्र के मानव से जुड़े पाँच प्रमुख स्तंभ हैं। पहला है कौटुम्बिक उद्योग, दूसरा है ग्रामकुल, तीसरा है व्यावसायिक कौशल विधा व्यवस्था और चौथा है राष्ट्र। इन चारों के विषय में हमने अलग अलग इकाईयों के स्वरूप में पूर्व में जाना है। लेकिन इनके साथ में ही एक और महत्वपूर्ण स्तंभ “प्रकृति” है। प्राकृतिक संसाधनों के बिना जीना संभव ही नहीं है। थोड़ा गहराई से विचार करने से हमें ध्यान में आएगा कि स्त्री पुरुष सहजीवन, जीने के लिए परस्परावलंबन, कौशल विधाओं की आनुवांशिकता तथा समान जीवन दृष्टि वाले समाज की समान आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सहजीवन की आवश्यकता ये भी सभी प्राकृतिक बातें ही हैं। इन्हें जब व्यवस्थित किया जाता है तब कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा (पूर्व में जिसे जाति कहते थे) और राष्ट्र की व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। यह व्यवस्थित करने का काम मानवीय है। |
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− | मानव का सामाजिक स्तर का जीवन का लक्ष्य “स्वतंत्रता” है। स्वतन्त्रता का अर्थ है अन्य किसी की भी सहायता के बिना और हस्तक्षेप के बिना अपने हिसाब से जीने की क्षमता रखना। सामाजिक दृष्टि से समाज की लघुतम ईकाई कुटुम्ब है। व्यक्ति अपने आप में अपनी उपर्युक्त न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। कुटुम्ब की सहायता के बिना अपने बलबूते पर तो वह जन्म के बाद अधिक दिन जीवित भी नहीं रह सकता। आयु की अवस्थाओं के कारण भी मनुष्य को कुटुम्ब बनाकर जीना ही पड़ता है। कुटुम्ब में भी परावलंबन होता है तब ही कुटुम्ब में भी जीना संभव होता है। कुटुम्ब में रहना अनिवार्यता होती है। इसलिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कुछ क्षरण तो होता ही है। लेकिन परस्परावलंबन से कुटुम्ब में भी स्वतन्त्रता और जीवन जीने में एक सन्तुलन बनाया जाता है। यह सन्तुलन जितना अच्छा होगा उतनी ही स्वतन्त्रता अधिक होती है। कुटुम्ब में आत्मीयता की भावना याने कुटुम्ब भावना होने से आवश्यकतानुसार किसी की स्वतन्त्रता को बढाया जा सकता है। कुटुम्ब भावना का स्तर जितना अधिक उतनी सहकार की भावना बढ़ने से स्वतन्त्रता का स्तर भी बढ़ता है। | + | मानव का सामाजिक स्तर का जीवन का लक्ष्य “स्वतंत्रता” है। स्वतन्त्रता का अर्थ है अन्य किसी की भी सहायता के बिना और हस्तक्षेप के बिना अपने हिसाब से जीने की क्षमता रखना। सामाजिक दृष्टि से समाज की लघुतम ईकाई कुटुम्ब है। व्यक्ति अपने आप में अपनी उपर्युक्त न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। कुटुम्ब की सहायता के बिना अपने बलबूते पर तो वह जन्म के बाद अधिक दिन जीवित भी नहीं रह सकता। आयु की अवस्थाओं के कारण भी मनुष्य को कुटुम्ब बनाकर जीना ही पड़ता है। कुटुम्ब में भी परावलंबन होता है तब ही कुटुम्ब में भी जीना संभव होता है। कुटुम्ब में रहना अनिवार्यता होती है। अतः व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कुछ क्षरण तो होता ही है। लेकिन परस्परावलंबन से कुटुम्ब में भी स्वतन्त्रता और जीवन जीने में एक सन्तुलन बनाया जाता है। यह सन्तुलन जितना अच्छा होगा उतनी ही स्वतन्त्रता अधिक होती है। कुटुम्ब में आत्मीयता की भावना याने कुटुम्ब भावना होने से आवश्यकतानुसार किसी की स्वतन्त्रता को बढाया जा सकता है। कुटुम्ब भावना का स्तर जितना अधिक उतनी सहकार की भावना बढ़ने से स्वतन्त्रता का स्तर भी बढ़ता है। |
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| अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुम्ब के सदस्य केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकते। जब कुटुम्ब अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता तब उसे अन्यों से सहायता की आवश्यकता होती है। इससे वह ली हुई सहायता के सन्दर्भ में अन्यों पर निर्भर हो जाता है। अन्यों पर निर्भरता का अर्थ है परावलंबन। परावलंबन जितना अधिक होता है उतनी उस कुटुम्ब की स्वतन्त्रता कम हो जाती है। जीने के लिए काफी मात्रा में परावलंबन आवश्यक होता है। और जितना परावलंबन होगा उस प्रमाण में स्वतन्त्रता कम हो जाती है। इसका हल भी परस्परावलंबन से निकाला जाता है। जब परस्परावलंबन के आधार पर कोई जन-समुदाय स्वतन्त्र होता है तो वह एक बड़ा कुल बन जाता है। यह बड़े स्तर का भी परस्परावलंबन जितना कौटुम्बिक भावना से होता है परस्पर सहकारिता के कारण स्वतन्त्रता उतनी अधिक होती है। | | अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुम्ब के सदस्य केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकते। जब कुटुम्ब अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता तब उसे अन्यों से सहायता की आवश्यकता होती है। इससे वह ली हुई सहायता के सन्दर्भ में अन्यों पर निर्भर हो जाता है। अन्यों पर निर्भरता का अर्थ है परावलंबन। परावलंबन जितना अधिक होता है उतनी उस कुटुम्ब की स्वतन्त्रता कम हो जाती है। जीने के लिए काफी मात्रा में परावलंबन आवश्यक होता है। और जितना परावलंबन होगा उस प्रमाण में स्वतन्त्रता कम हो जाती है। इसका हल भी परस्परावलंबन से निकाला जाता है। जब परस्परावलंबन के आधार पर कोई जन-समुदाय स्वतन्त्र होता है तो वह एक बड़ा कुल बन जाता है। यह बड़े स्तर का भी परस्परावलंबन जितना कौटुम्बिक भावना से होता है परस्पर सहकारिता के कारण स्वतन्त्रता उतनी अधिक होती है। |
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| हमने जाना है कि स्थानिक संसाधनों के आधार पर जीने वाले परस्परावलंबी कुटुम्बों का स्वावलंबी लघुतम समाज ग्रामकुल कहलाता है। यह जितना लघुतम होगा इसकी व्यवस्थाएँ कम जटिल होंगी। जनसंख्या बढ़ने से परस्परावलंबन की पेचिदगियां बढ़ना स्वाभाविक है। उत्पादन का लघुतम केन्द्र कौटुम्बिक उद्योग है। और समाज की प्रमुख आवश्यकताओं को याने अन्न, वस्त्र, भवन, स्वास्थ्य और प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय अपेक्षित है। इन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी जितनी अधिक स्थानिक संसाधनों के आधारपर की जाएगी स्वतन्त्रता अधिक होगी। जितने संसाधन ग्राम से दूर उतनी स्वतन्त्रता की मात्रा में कमी आती है। इस तरह ऐसे समुदाय की जनसंख्या का नियंत्रण प्रकृति में उपलब्ध स्थानिक संसाधन करते हैं। प्राकृतिक संसाधन जैसे भूमि, बारिश, हवा, धूप आदि विकेन्द्रित ही होते हैं। अपने आप ही यह ग्राम एक प्रकृति सुसंगत विकेंद्रित ईकाई के रूप में विकास पाता है। | | हमने जाना है कि स्थानिक संसाधनों के आधार पर जीने वाले परस्परावलंबी कुटुम्बों का स्वावलंबी लघुतम समाज ग्रामकुल कहलाता है। यह जितना लघुतम होगा इसकी व्यवस्थाएँ कम जटिल होंगी। जनसंख्या बढ़ने से परस्परावलंबन की पेचिदगियां बढ़ना स्वाभाविक है। उत्पादन का लघुतम केन्द्र कौटुम्बिक उद्योग है। और समाज की प्रमुख आवश्यकताओं को याने अन्न, वस्त्र, भवन, स्वास्थ्य और प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय अपेक्षित है। इन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी जितनी अधिक स्थानिक संसाधनों के आधारपर की जाएगी स्वतन्त्रता अधिक होगी। जितने संसाधन ग्राम से दूर उतनी स्वतन्त्रता की मात्रा में कमी आती है। इस तरह ऐसे समुदाय की जनसंख्या का नियंत्रण प्रकृति में उपलब्ध स्थानिक संसाधन करते हैं। प्राकृतिक संसाधन जैसे भूमि, बारिश, हवा, धूप आदि विकेन्द्रित ही होते हैं। अपने आप ही यह ग्राम एक प्रकृति सुसंगत विकेंद्रित ईकाई के रूप में विकास पाता है। |
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− | ग्राम की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विभिन्न कौशल विधाओं की आवश्यकता होती है। जैसे अन्न उपजाना, मकान के लिए और खेती के लिए विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करना, वस्त्र निर्माण करना। खाना पकाने के लिए, संग्रह के लिए और खाने के लिए बर्तन बनाना आदि अनेकों कुशलताओं की आवश्यकता ग्राम के लोगों को होती है। इन कुशलताओं के धनी पर्याप्त संख्या में ग्राम में होना आवश्यक होता है। कुशल लोगों की संख्या भी ग्राम की आवश्यकता के अनुसार होना आवश्यक होता है। कम होने से ग्राम की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। अधिक होने से परस्परावलंबन बिगड़ जाता है। इसलिए यह आवश्यक होता है कि ग्राम की जनसंख्या के अनुपात में प्रत्येक आवश्यक कुशलता के लोगों की संख्या का अनुपात बना रहे। इस समस्या का हल कुशलता को आनुवांशिक बनाने से मिल जाता है। इसलिए परम्परागत कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था की आवश्यकता होती है। वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से एक पीढी से दूसरी पीढी में संक्रमित होती ही है। इस दृष्टि से भी पारंपरिक कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था यह प्रकृति सुसंगत ही है। | + | ग्राम की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विभिन्न कौशल विधाओं की आवश्यकता होती है। जैसे अन्न उपजाना, मकान के लिए और खेती के लिए विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करना, वस्त्र निर्माण करना। खाना पकाने के लिए, संग्रह के लिए और खाने के लिए बर्तन बनाना आदि अनेकों कुशलताओं की आवश्यकता ग्राम के लोगों को होती है। इन कुशलताओं के धनी पर्याप्त संख्या में ग्राम में होना आवश्यक होता है। कुशल लोगों की संख्या भी ग्राम की आवश्यकता के अनुसार होना आवश्यक होता है। कम होने से ग्राम की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। अधिक होने से परस्परावलंबन बिगड़ जाता है। अतः यह आवश्यक होता है कि ग्राम की जनसंख्या के अनुपात में प्रत्येक आवश्यक कुशलता के लोगों की संख्या का अनुपात बना रहे। इस समस्या का हल कुशलता को आनुवांशिक बनाने से मिल जाता है। अतः परम्परागत कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था की आवश्यकता होती है। वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से एक पीढी से दूसरी पीढी में संक्रमित होती ही है। इस दृष्टि से भी पारंपरिक कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था यह प्रकृति सुसंगत ही है। |
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| अब हम इन के समन्वय से समृद्धि शास्त्र कैसे निर्माण होता है और समृद्धि व्यवस्था कैसे बनती है इस का विचार करेंगे। | | अब हम इन के समन्वय से समृद्धि शास्त्र कैसे निर्माण होता है और समृद्धि व्यवस्था कैसे बनती है इस का विचार करेंगे। |
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| हमने सामाजिक संगठन विषय में यह जाना है कि स्त्री पुरुष सहजीवन और आयु की अवस्था के अनुसार बढ़ने और घटनेवाली क्षमताओं के कारण एक स्वाभाविक सामाजिक रचना बनती है। जब इस प्राकृतिक रचना को मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से व्यवस्थित करता है, तब वह कुटुम्ब व्यवस्था बनती है। अपनी स्वतन्त्रता और जीने के लिए विविध आवश्यकताओं की परस्परावलंबन से पूर्ति करने के लिए जब परस्पर संबंधों को मानव व्यवस्थित करता है तो उसे ग्राम कहते हैं। अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव जब जन्मजात विभिन्न व्यावसायिक कौशलों को व्यवस्थित कर सातत्य से आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करता है, तब कौशल विधा व्यवस्था (पूर्व में जाति) बनती है। इसी प्रकार समान जीवन दृष्टि वाला समाज जब अपने सुख-शान्तिपूर्ण सुरक्षित सहजीवन को व्यवस्थित करता है तो उसे राष्ट्र कहते हैं। इन व्यवस्थाओं के दो उद्देश्य होते हैं। पहला होता है इससे जीवन की अनिश्चितताएँ दूर हों और दूसरा होता है इन व्यवस्थाओं के कारण सुख और शान्ति से जीवन चले। इस प्रकार यह चार प्राकृतिक ईकाईयाँ मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से अपने हित के लिए व्यवस्थित करता है। | | हमने सामाजिक संगठन विषय में यह जाना है कि स्त्री पुरुष सहजीवन और आयु की अवस्था के अनुसार बढ़ने और घटनेवाली क्षमताओं के कारण एक स्वाभाविक सामाजिक रचना बनती है। जब इस प्राकृतिक रचना को मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से व्यवस्थित करता है, तब वह कुटुम्ब व्यवस्था बनती है। अपनी स्वतन्त्रता और जीने के लिए विविध आवश्यकताओं की परस्परावलंबन से पूर्ति करने के लिए जब परस्पर संबंधों को मानव व्यवस्थित करता है तो उसे ग्राम कहते हैं। अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव जब जन्मजात विभिन्न व्यावसायिक कौशलों को व्यवस्थित कर सातत्य से आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करता है, तब कौशल विधा व्यवस्था (पूर्व में जाति) बनती है। इसी प्रकार समान जीवन दृष्टि वाला समाज जब अपने सुख-शान्तिपूर्ण सुरक्षित सहजीवन को व्यवस्थित करता है तो उसे राष्ट्र कहते हैं। इन व्यवस्थाओं के दो उद्देश्य होते हैं। पहला होता है इससे जीवन की अनिश्चितताएँ दूर हों और दूसरा होता है इन व्यवस्थाओं के कारण सुख और शान्ति से जीवन चले। इस प्रकार यह चार प्राकृतिक ईकाईयाँ मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से अपने हित के लिए व्यवस्थित करता है। |
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− | किन्तु इनके साथ ही मानव के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग भी अनिवार्य बात होती है। प्राकृतिक संसाधनों के बिना मानव और इसलिए मानव समाज भी जी नहीं सकता। प्रकृति के भी अपने नियम होते हैं। इन नियमों का पालन करते हुए जीने से प्रकृति भी अनुकूल होती है। इन नियमों का पालन न करने से मानव को ही कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। वनक्षेत्र के कम होने से बारिश पर परिणाम होता है। उसके बुरे परिणाम फिर मानव को सहने पड़ते हैं। इसलिए प्रकृति सुसंगत जीना मानव के ही हित में होता है। समृद्धि शास्त्र मुख्यत: कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा(जाति), राष्ट्र और प्रकृति सुसंगतता इन पाँच बातों के समायोजन का शास्त्र है। वास्तव में समायोजन तो प्रकृति के साथ मानव की चारों ईकाईयों को करना होता है। इन में से मानव की चारों ईकाईयों में से प्रत्येक का प्रकृति सुसंगतता के साथ ही अन्य तीन ईकाईयों के साथ समायोजन करने के लिए आवश्यक नियमों को ही उन ईकाईयों का धर्म कहा जाता है। जैसे कुटुम्ब धर्म, ग्रामधर्म, कौशल विधा (जाति) धर्म और राष्ट्रधर्म। ये चार ईकाईयाँ ही समाज के समृद्धि शास्त्र के आधार स्तंभ हैं। अब हम इन चारों में से एक एक ईकाई का धर्म जानने का प्रयास करेंगे। | + | किन्तु इनके साथ ही मानव के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग भी अनिवार्य बात होती है। प्राकृतिक संसाधनों के बिना मानव और अतः मानव समाज भी जी नहीं सकता। प्रकृति के भी अपने नियम होते हैं। इन नियमों का पालन करते हुए जीने से प्रकृति भी अनुकूल होती है। इन नियमों का पालन न करने से मानव को ही कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। वनक्षेत्र के कम होने से बारिश पर परिणाम होता है। उसके बुरे परिणाम फिर मानव को सहने पड़ते हैं। अतः प्रकृति सुसंगत जीना मानव के ही हित में होता है। समृद्धि शास्त्र मुख्यत: कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा(जाति), राष्ट्र और प्रकृति सुसंगतता इन पाँच बातों के समायोजन का शास्त्र है। वास्तव में समायोजन तो प्रकृति के साथ मानव की चारों ईकाईयों को करना होता है। इन में से मानव की चारों ईकाईयों में से प्रत्येक का प्रकृति सुसंगतता के साथ ही अन्य तीन ईकाईयों के साथ समायोजन करने के लिए आवश्यक नियमों को ही उन ईकाईयों का धर्म कहा जाता है। जैसे कुटुम्ब धर्म, ग्रामधर्म, कौशल विधा (जाति) धर्म और राष्ट्रधर्म। ये चार ईकाईयाँ ही समाज के समृद्धि शास्त्र के आधार स्तंभ हैं। अब हम इन चारों में से एक एक ईकाई का धर्म जानने का प्रयास करेंगे। |
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| === कुटुम्ब धर्म === | | === कुटुम्ब धर्म === |
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| # गाँव के लिये आवश्यक निवास, कृषि, जंगल, गोचर भूमिपर गाँव का अधिकार हो। अर्थात् ग्रामसभा का अधिकार हो। ग्रामसभा के निर्णय सर्वसहमति (जैसे आजतक होते आए हैं) से हों। खनिज राष्ट्रीय संपति है। इसलिये खनिजों का खनन शाश्वत राष्ट्रीय विकास नीति के अनुसार हो। | | # गाँव के लिये आवश्यक निवास, कृषि, जंगल, गोचर भूमिपर गाँव का अधिकार हो। अर्थात् ग्रामसभा का अधिकार हो। ग्रामसभा के निर्णय सर्वसहमति (जैसे आजतक होते आए हैं) से हों। खनिज राष्ट्रीय संपति है। इसलिये खनिजों का खनन शाश्वत राष्ट्रीय विकास नीति के अनुसार हो। |
| # सुबह सूर्योदय को घर से निकलकर अपनी आजीविका के लिए समय देकर सूर्यास्त तक अपने घर लौटने की सीमा यह ग्राम की सीमा है। | | # सुबह सूर्योदय को घर से निकलकर अपनी आजीविका के लिए समय देकर सूर्यास्त तक अपने घर लौटने की सीमा यह ग्राम की सीमा है। |
− | # ज्ञानार्जन, कौशालार्जन और पुण्यार्जन के लिए समूचा विश्व ग्राम होता है। इसलिए अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन और पुण्यार्जन के लिए ही करना। लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही समूचा विश्व होता है। | + | # ज्ञानार्जन, कौशालार्जन और पुण्यार्जन के लिए समूचा विश्व ग्राम होता है। अतः अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन और पुण्यार्जन के लिए ही करना। लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही समूचा विश्व होता है। |
| # अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना। कठिन परिस्थितियों के लिए धान्य संचय की व्यापक व्यवस्था बनाना। | | # अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना। कठिन परिस्थितियों के लिए धान्य संचय की व्यापक व्यवस्था बनाना। |
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| # स्वायत्त (धर्मानुकूल) आर्थिक क्षेत्र के कानून बनाने वाला धर्म के जानकारों का एक वर्ग निर्माण करना आवश्यक है। धर्म के जानकारों का निर्णय अंतिम हो। | | # स्वायत्त (धर्मानुकूल) आर्थिक क्षेत्र के कानून बनाने वाला धर्म के जानकारों का एक वर्ग निर्माण करना आवश्यक है। धर्म के जानकारों का निर्णय अंतिम हो। |
| # राज्यशासित लेकिन धर्म व्यवस्था द्वारा मार्गदर्शित राज्यव्यवस्था न्याय की चिंता करे। कानून बनाने का अधिकार केवल धर्म के जानकारों को हो। धर्म के जानकारों में भी जिस क्षेत्र के लिये कानून बनाया जायेगा, उस क्षेत्र के ज्ञाताओं का है। | | # राज्यशासित लेकिन धर्म व्यवस्था द्वारा मार्गदर्शित राज्यव्यवस्था न्याय की चिंता करे। कानून बनाने का अधिकार केवल धर्म के जानकारों को हो। धर्म के जानकारों में भी जिस क्षेत्र के लिये कानून बनाया जायेगा, उस क्षेत्र के ज्ञाताओं का है। |
− | # अर्थायाम याने अर्थ का अभाव और प्रभाव दोनों ना रहें। बड़े / विशाल उद्योग अपने हित के लिए समाज को विज्ञापनबाजी, शासनपर दबाव आदि अलग अलग माध्यमों से नियमित करते हैं। इनके कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण होते हैं। धन की प्रतिष्ठा ज्ञान / धर्म, शिक्षा और सुरक्षा से नीचे रखने से धन का अभाव और प्रभाव निर्माण नहीं हो पाता। इस हेतु एक ओर तो अर्थ के सुयोग्य वितरण की व्यवस्था का और दूसरी ओर शिक्षा के माध्यम से सुसंस्कारित मानव का निर्माण करना होगा। कौटुम्बिक उद्योगों पर आधारित समृद्धि व्यवस्था में यह सहज ही हो सकता है। समाज अपने हित में कौटुम्बिक उद्योगों को नियमित करता है। इसलिए धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं होते। | + | # अर्थायाम याने अर्थ का अभाव और प्रभाव दोनों ना रहें। बड़े / विशाल उद्योग अपने हित के लिए समाज को विज्ञापनबाजी, शासनपर दबाव आदि अलग अलग माध्यमों से नियमित करते हैं। इनके कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण होते हैं। धन की प्रतिष्ठा ज्ञान / धर्म, शिक्षा और सुरक्षा से नीचे रखने से धन का अभाव और प्रभाव निर्माण नहीं हो पाता। इस हेतु एक ओर तो अर्थ के सुयोग्य वितरण की व्यवस्था का और दूसरी ओर शिक्षा के माध्यम से सुसंस्कारित मानव का निर्माण करना होगा। कौटुम्बिक उद्योगों पर आधारित समृद्धि व्यवस्था में यह सहज ही हो सकता है। समाज अपने हित में कौटुम्बिक उद्योगों को नियमित करता है। अतः धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं होते। |
| # धर्माचरण करनेवाला, धर्मानुकूल अर्थ की समझवाला, अभोगी शासक हो। | | # धर्माचरण करनेवाला, धर्मानुकूल अर्थ की समझवाला, अभोगी शासक हो। |
| # कुटुम्ब शिक्षा और विद्यालयीन शिक्षा के माध्यम से समाज की मानसिकता को समृद्धि शास्त्र के अनुकूल बनाना। | | # कुटुम्ब शिक्षा और विद्यालयीन शिक्षा के माध्यम से समाज की मानसिकता को समृद्धि शास्त्र के अनुकूल बनाना। |
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| समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बल पर लोगों को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है। कहा गया है{{Citation needed}} : <blockquote>यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?</blockquote>लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: अभावग्रस्त लोगोंमें वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका अभावग्रस्त लोगोंमें वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता। | | समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बल पर लोगों को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है। कहा गया है{{Citation needed}} : <blockquote>यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?</blockquote>लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: अभावग्रस्त लोगोंमें वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका अभावग्रस्त लोगोंमें वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता। |
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− | जीवन का धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। इसलिए समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगों को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की सहायता लेनी होगी। इस का विचार हमने [[Bharat's Social Paradigm (भारतीय समाज धारणा दृष्टि)|इस]] अध्याय में किया है। इसलिए यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे। वर्तमान में जीवन का प्रतिमान अधार्मिक (अधार्मिक) है। इसमें कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था ये व्यवस्थाएँ दुर्बल हो गईं हैं। और दुर्बल होती जा रहीं हैं। राष्ट्र की सभी व्यवस्थाओं के तंत्र पूर्णत: अधार्मिक (अधार्मिक) हैं। इसलिए हमें दो प्रकार के प्रयास करने होंगे: | + | जीवन का धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। अतः समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगों को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की सहायता लेनी होगी। इस का विचार हमने [[Bharat's Social Paradigm (भारतीय समाज धारणा दृष्टि)|इस]] अध्याय में किया है। अतः यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे। वर्तमान में जीवन का प्रतिमान अधार्मिक (अधार्मिक) है। इसमें कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था ये व्यवस्थाएँ दुर्बल हो गईं हैं। और दुर्बल होती जा रहीं हैं। राष्ट्र की सभी व्यवस्थाओं के तंत्र पूर्णत: अधार्मिक (अधार्मिक) हैं। अतः हमें दो प्रकार के प्रयास करने होंगे: |
| # कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था व्यवस्थाओं के दोष दूर कर उनका शुद्धिकरण करना होगा। यह काम निम्न पद्धति से होगा: | | # कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था व्यवस्थाओं के दोष दूर कर उनका शुद्धिकरण करना होगा। यह काम निम्न पद्धति से होगा: |
| ## राष्ट्र और राष्ट्र की इन प्रणालियों की श्रेष्ठ व्यवस्थाओं की सैद्धांतिक प्रस्तुति करनी होगी। | | ## राष्ट्र और राष्ट्र की इन प्रणालियों की श्रेष्ठ व्यवस्थाओं की सैद्धांतिक प्रस्तुति करनी होगी। |